दस्यु सुंदरी के नाम से प्रसिद्ध फूलन देवी को आज हमारे देश
का एक बड़ा तबका एक डकैत के रूप में जानता है। फूलन देवी न केवल बुंदेलखंड के समाज
के सामंती ताकतों द्वारा खुद पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए डकैतों का दामन
थाम कर समाज में स्थापित पितृसत्तात्मक वर्चस्व को तोड़ने का प्रयास किया, बल्कि
अन्याय के खिलाफ आनेवाली पीढ़ि के स्त्रियों को एकजुट होने का संदेश भी दिया। वर्तमान
समय में फूलन देवी की वास्तविक ज़िंदगी को जानने के लिए जिस महत्वपूर्ण स्रोतों को
प्रयुक्त किया जाता रहा है वह है शेखर कपूर की 1994 में आई फिल्म “बेंडिट
क्वीन”जो 1991 में प्रकाशित हुई माला सिन्हा की पुस्तक “इंडियाज़ बेंडित क्वीन
: द ट्रू स्टोरी ऑफ फूलन देवी पर आधृत मानी जाती है। हालांकि शेखर कपूर अपनी फिल्म
में फूलन देवी का चित्रांकन “एक बलात्कार पीड़ित स्त्री द्वारा बलात्कारियों से
बदला लेने” के रूप में किया है। फूलन देवी के बलात्कार की शुरुवात 11 वर्ष की
अवस्था में ही अपनी उम्र से तीन गुने अधिक उम्र के जुल्मी पति पुट्टिलाल से होती
है। किशोरावस्था के दौरान भी पुलिसवालों व गाँव के ठाकुरों द्वारा इस कुकृत्य को
दोहराया जाता है। हालांकि व्यावसायिक फिल्म होने के कारण इसमें फूलन के सामाजिक
संघर्षों को दिखाने का कोई खास प्रयास नहीं किया गया है। केवल बदला लेने की कहानी
को ही प्रमुखता दिया गया है। साथ ही फूलन देवी की वास्तविक कहानी से भी काफी
छेड़-छाड़ कर इसे केवल एक मसाला फिल्म का रूप दिया गया है। इस वास्तविक कहानी की कमी
को पूरा किया है स्वयं फूलन देवी, मेरी थेरेस क्यूनी व रामबली पॉल द्वारा लिखित
फूलन देवी की बायोग्राफ़ि“आई फूलन देवी : द ऑटोबायोग्राफ़ि ऑफ इंडियाज बेंडिट
क्वीन” ने जिसमें स्वयं फूलन देवी ने 1994
ई. में जेल से निकलने के बाद अपने बचपन से लेकर डकैत बनने तक समाज से हुए जद्दोजहद
को बयां किया है। फूलन देवी द्वारा सुनाई गयी आपबीती को 2000 पन्नों में संकलित कर
उनपर उपरोक्त नाम से 1996 में आत्मकथा प्रकाशित किया गया। जिसके पश्चात उनके
द्वारा पितृसत्तात्मक समाज से हुए संघर्ष का वास्तविक रूप सामने आया। प्रस्तुत आलेख
में फूलन देवी, मेरी थेरेस क्यूनी व रामबली पॉल द्वारा लिखित ऑटोबायोग्राफ़ि“आई फूलन देवी : द ऑटोबायोग्राफ़ि ऑफ
इंडियाज बेंडिट क्वीन” एवं शेखर कपूर की 1994 में आई फिल्म “बेंडिट
क्वीन” व अन्य द्वितीयक श्रोतों के आधार पर बुंदेलखंड के तत्कालीन समाज में
मौजूद पितृसत्तात्मक व सामंती समाज से फूलन देवी के संघर्ष को नारीवादी/दलित
नारीवादी दृष्टिकोण से दिखाने का प्रयास किया गया है।
फूलन देवी कालीन बुंदेलखंड के सामाजिक स्थिति के साथ-साथ
समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक व्यवस्था के जड़ों की गहराई मापता यह आलेख एक दलित
स्त्री का पुरुष प्रधानता वाले समाज से हुए संघर्षों की पड़ताल करता है। इस
उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक अध्ययन पद्धति का सहारा लिया गया है। जिसके
अंतर्गत फूलन देवी के वास्तविक जीवन में घटित घटनाओं से संबंथित तथ्यों का संकलन
कर उन्हें नारीवादी/दलित नारीवादी दृष्टिकोण से विश्लेषित किया गया है। इस क्रम
में प्राथमिक एवं द्वितीयक श्रोत सामाग्री का प्रयोग किया गया है।
गंगा-यमुना के मैदानी भाग व विंध्य पर्वत के बीच बसा उत्तर प्रदेश
व मध्य प्रदेश राज्य का बुंदेलखंड क्षेत्र(झांसी, बांदा, चित्रकूट, दतिया, टीकमगढ़, राठ, ललितपुर, सागर,उरई, पन्ना, हमीरपुर, महोबा, छतरपुर) प्राचीन
काल से ही लड़ाकू, वीर व क्रांतिकारियों का गढ़ रहा है। आज इस
भौगोलिक क्षेत्र को चंबल व यमुना नदी के क्षेत्र में बीहड़ों की प्रधानता के कारण
डाकुओं का स्वर्ग कहा जाता है। अपनी अलग भाषा-संस्कृति वाला,
महाभारतकालीन चेदी महाजनपद का हिस्सा रहा यह क्षेत्र शिशुपाल की कर्मभूमि रही है
जिन्होनें न केवल मथुरा के राजा वासुदेव के अश्वमेध यज्ञ हेतु छोड़े गए घोड़े को चुराकर
अपने अद्भुत साहस का परिचय दिया बल्कि श्रीकृष्ण से शत्रुता मोल लेकर उनकी राजधानी
द्वारका को भी जला कर नष्ट कर दिया। हालांकि महाभारत सहित अन्य ग्रन्थों में
शिशुपाल को नकारात्मक भूमिका में प्रस्तुत किया गया है। मध्यकाल में जहां चंदेल (12वीं
सदी) व बुंदेला राजपूतों (17वीं सदी) ने अपने पराक्रम से बुंदेलखंड का नाम रोशन
किया वहीं आधुनिक काल में इस विरासत को लक्ष्मीबाई,
झलकारीबाई, फूलन देवी, सीमा परिहार, सम्पत पाल आदि ने संभाला। 19वीं सदी में उपर्युक्त उल्लेखित प्रथम दो
वीरांगनाओं ने एक ओर जहां अपने देश की रक्षा हेतु जिस वीरता से अपने शत्रु ब्रिटिश
सरकार को नाकों चने चबवा दिये वहीं 20-21वीं सदी में पितृसत्तात्मक मानसिकता से
ग्रसित पुरुष वर्ग द्वारा निरीह समझी जानेवाली स्त्रियों के हक़ की लड़ाई का जिम्मा
संभाला फूलन देवी, सीमा परिहार, सम्पत
पाल आदि ने। बचपन से ही पितृसत्तात्मक व सामंती मानसिकता से ग्रसित लोगों द्वारा खुद
पर लगातार हो रही हिंसा से आहात होकर फूलन देवी ने हथियार उठाते हुए डकैत बनकर भले
ही अपनी युवावस्था बीहड़ों में तबाह कर ली लेकिन इनके मंसूबों पर ग्रहण लगाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी। ये अलग बात है कि सम्पत पाल का तरीका जहां सुरक्षात्मक है वहीं
फूलन देवी व सीमा परिहार का हिंसात्मक था। सम्पत पाल एक ओर जहां यह कार्य कानून के
दायरे में रहकर करती हैं वहीं फूलन देवी ने यह कार्य कानून को हाथ में लेकर एक
डकैत का चोला ओढ़कर किया। क्या विडम्बना है, अभी तक भारत
सरकार, राज्य सरकार सहित अन्य विश्लेषक फूलन देवी को एक डकैत
के रूप में मान्यता देते रहे हैं। ब्रिटिशकाल में यदि एक स्त्री अपने राज्य की
रक्षा के लिए बदले की ही भावना से अपने शत्रु अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठाता है
तो उसे राष्ट्रभक्त की संज्ञा से अलंकृत किया जाता है वहीं एक अन्य संविधान द्वारा
प्रदत्त स्वतन्त्रता व समानता के अधिकार के रक्षा के लिए जब अपने ही समाज में
व्याप्त असामाजिक तत्वों द्वारा अपने साथ हुए अत्याचारों व स्त्रियों को पैरों की
जूती समझनेवाले अंग्रेजों के ही बहुरूपये के खिलाफ शस्त्र उठाए तो वो डकैत। सिर्फ
इसलिए कि वो खुद पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए डकैतों के गैंग से जुड़ गयी। जबकि
इस पेशे से जुड़ना उसकी स्वयं की इच्छा नहीं थी, बल्कि सत्ता
में काबिज सामंती लोग सरपंच व मायादिन ने बदले की भावना से प्रेरित होकर उसे
डकैतों के साथ जोड़ दिया।[1] 16 वर्ष की बाल्यावस्था तक तो
उसे डकैत क्या है? कौन होते हैं? का
पता भी नहीं था। मेरे दृष्टिकोण से तो इनके लिए क्रांतिकारी शब्द प्रयुक्त किया जा
सकता है क्योंकि डकैत नहीं होते हुए भी डकैत होने का मुहर लग जाने के बाद उन्होनें
सामंती ताकतों के झूठ व अन्याय के खिलाफ सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के साथ-साथ बलात्कार
जैसी उस बुराई के खात्मे के लिए शस्त्र उठाया जो सामंती शासनप्रणाली में कमजोर व
निरीह वर्ग पर सत्ता और प्रभुत्व दिखाने का हमेशा से ही प्रमुख औज़ार रहा है। खुद
फूलन देवी अपनी आत्मकथा में कहती हैं- “So many
times I reached out my hands and nobody helped me. They called me a pest and a
criminal, I never considered myself to be someone good. But I was not a criminal
either. All I did was make men suffer they made me suffer”[2].
फूलन देवी के क्रांतिकारी जीवन की शुरुवात डकैत का चोला ओढ़ने के
2-3 पूर्व ही 14-15 वर्ष की अवस्था में हो गयी थी। अमीरों द्वारा गरीबों के प्रति
किए जाने वाले अन्याय के प्रति उन्हें जागरूक कर। यही कारण है कि विश्व की
प्रतिष्ठित टाइम्स मैगजीन ने इनकी बातों को बिलकुल सत्य मानते हुए विश्व के 16
क्रांतिकारी महिलाओं की सूची में फूलन देवी को चौथा स्थान दिया है।[3]
उत्तर प्रदेश
के गढ़ का पूर्वा गाँव में गरीब मल्लाह परिवार में जन्मी फूलन देवी बचपन से ही हिंसा झेलने के साथ-साथ सामंती मानसिकता के
लोगों द्वारा निम्न वर्ग/जातियों के लोगों के शोषण के खिलाफ न केवल विरोध की आवाज़
को बुलंद किया बल्कि शस्त्र भी उठाया। ग्राम-प्रधान, बिहारी चाचा, मायादीन,
पुट्टीलाल एवं अन्य ने बचपन से ही फूलन के आत्मा व शरीर पर हिंसा करने का कोई मौका
नहीं छोड़ा। फूलन देवी का जन्म कब हुआ इसका वर्णन कहीं नहीं मिलता फिर भी विद्वान
उनका जन्म 1963 ई. मानते हैं।[4] लेकिन अपनी आत्मकथा में इस बात
का जिक्र करती है कि उनका जन्म किसी फूल महोत्सव के दिन हुआ था इसलिए उनके
माता-पिता ने उनका नाम फूलन रखा था।[5] मात्र 11 वर्ष की कम उम्र में
ही, जब उनके खेलने-कूदने, खाने-पीने का
समय था उनके माँ पिताजी ने उनका विवाह कर दिया गया। अपनी छोटी बहन छोटी के साथ
गुड्डे-गुड़िया के विवाह कराने का खेल खेलते-खेलते कब खुद वास्तव में वैवाहिक बंधन
में बांध गयी, उसे पता ही नहीं चला। बचपन से ही वह एक ओर
जहां वह अपने पिता की तरह ममता और दया की प्रतिमूर्ति थी जो अपनी छोटी बहन जिसका
नाम भी “छोटी” ही था, के साथ शरारतें,
मस्ती करने, मज़ाकिया लहजे में नोक-झोंक करने के साथ-साथ अपनी
सबसे छोटी बहन भूरी को स्वयं दूध पिलाकर जिंदा रखने के लिए गाँव की किसी बकरी का
दूध निकालने, गाँव के मंदिर की तरफ जानेवाले सड़क की किनारे
के नीम के पेड़ पर चढ़कर, तोते के बच्चे निकालना, जैसे मासूमियत भरे कामों में लगी रहती थी तो वहीं अपनी माँ की तरह ही
क्रोधी व जिद्दी भी थी। वह 10 वर्ष की ही थी जब अपने पिता की संपत्ति को जबरन
हथियाने का प्रयास कर रहे अपने बिहारी चाचा के लड़के मायादीन से मर्दानों की तरह
उलझ गयी। इसके बावजूद ममतत्व इतना भरा था कि अपने घर को जलाए जाने, माता-पिता भाई पर किसी प्रकार का जुल्म न हो, ये
सोचकर 16 वर्ष की अवस्था में ही जज के सामने जब उससे उसके गुनाह के बारे में पूछा
जाता है तो बड़े मासूमियत से कहती है कि मैं डकैत हूँ क्योंकि पुलिसवाले उसे
बहला-फुसलाकर समझा दिया था कि यदि तुम उनके सामने बोलोगी कि मैं डकैत हूँ तो वो
तुम्हें छोड़ देंगे। जुल्म और अन्याय से लड़ने की उसमें अद्भुत साहस थी। जिसका प्रत्यक्ष
उदाहरण अपने पड़ोस में ही रहनेवाले ‘बिहारी’ नामक एक अमीर जो कि रिश्ते में उसके
चाचा (फूलन के पिता के सौतेले भाई) लगते थे लेकिन हैशीयत में खुद को मल्लाह की जगह
किसी ठाकुर/सामंत से कम नहीं समझते थे, के प्रति उसकी भावना
से पता चलता है। उसकी संपत्ति में फूलन के घुस आने के कारण हमेशा अपमानित करने के
साथ-साथ वह फूलन को पीटता भी था। फूलन के पिता देविदीन और बिहारी एक ही पिता के
लड़के थे जबकि दोनों की माँ अलग-अलग थी। बिहारी देविदीन को अपने पिता की वैध संतान
नहीं मानते हुए पंचों की सहायता से बेईमानी पूर्वक सारी जमीन जायदाद हड़प ली। हालांकि
बेईमानी से सभी ज़मीनें हड़पे जाने की बात समस्त ग्रामीण जानते थे लेकिन मारपीट के भय
के कारण न कोई ग्रामीण, न ही उसके इंसान चरित्र पिता देवीदीन
इसका प्रबल विरोध कर पाते थे। यह बात फूलन को खटकती थी। इसलिए वो हमेशा उसे सबक
सिखाने की कल्पना में जीती रहती थी। अपनी गरीबी और सामाजिक स्थिति से हमेशा ही वह
त्रस्त थी यही कारण था कि वह हमेशा ईश्वर की तलाश में इधर-उधर भटकती रहती थी ताकि
उनसे वो पूछ सके कि आखिर सारी सुख-सुविधाएं अमीर बिहारी को ही क्यों? उसके पिता/परिवार को क्यों नहीं? कभी अपने पिताजी
से उनका पता पूछती तो कभी खुद जंगल, कभी मंदिर में तलाश करने
निकाल पड़ती, तो कभी नदी में खोजती। आहत होकर यमुना के किनारे
जाकर कभी-कभी ये भी सोचने लगती कि कितना अच्छा होता भगवान मुझे जानवर के रूप में
ही जन्म देते क्योंकि उनमें अमीर-गरीब का भेद तो नहीं हैं। साथ ही भरपेट खिलाने के
साथ-साथ उनकी देखभाल भी तो की जाती है। झूठ व बेईमानों के खिलाफ उसने बिना किसी
स्वार्थ के हमेशा मर्दानों की तरह अपने हक़ की लड़ाई लड़ी। इसके बावजूद परिवार से
लेकर समाज उसे ही हमेशा गलत ठहराता रहा। इस भेद-भाव पूर्ण ज़िंदगी से त्रस्त होकर
वह गाँव के ही दुर्गा मंदिर में जाकर मदद की गुहार लगाती थी। मन ही मन प्रश्नात्मक
याचना भी करती थी कि “मुझे बताएं कि कैसे आपने राक्षसों का संहार किया। मुझे भी एक
हथियार दें ताकि मैं भी उनका विरोध कर सकूँ”।[6]
फूलन देवी कालीन बुंदेलखंड में सामाजिक व्यवस्था
भारतीय संविधान के लागू होने और समानता का अधिकार मिले 30
वर्ष बाद भी तत्कालीन बुंदेलखंड समाज में लोकतंत्र की जगह जातिवाद व सामंतवाद का
बोलबाला था। सामाजिक आधार पर समाज अनेक जातियों-उपजातियों में बंटा था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय (ठाकुर) उच्च जातियों में गिने
जाते थे जबकि वैश्य व शूद्र (धोबी, मल्लाह, चमार आदि) दोनों वर्गों को ये दोनों उच्च जातियाँ हीन भावना से ही देखते
थे। आर्थिक आधार पर समाज दो वर्गों में विभक्त था। पहला वर्ग धनिकों का था जिनके
पास पर्याप्त कृषि योग्य भूमि थी एवं उपज के बदौलत वे एसो-आराम की ज़िंदगी व्यतीत
करते थे। इस वर्ग में ब्राह्मण, ठाकुर से लेकर दलित जाति के
अमीर लोग भी आते थे। दूसरा वर्ग गरीबों का था जो धनहीन, भूमिहीन
के साथ-साथ शक्तिहीन था। इसमें मुख्यतः दलित जातियों की ही बहुलता होती थी। ये लोग
अमीरों के खेतों में काम कर या यमुना पार कछवारी भूमि पर खीरे-तरबूज उपजाकर अपना
गुजारा करते थे। अमीरों पर आश्रित होना उनकी मजबूरी थी क्योंकि यमुना के कछवारी
भूमि पर तभी कृषि किया जा सकता था जबतक कि यमुना में पानी कम हो। बाढ़ के दिनों में
ये भूमिहीन हो जाते थे। सूखे के दिनों में ही ये पर्याप्त मात्रा में खीरे-तरबूज
उगाकर उन्हें बेचकर पूरे वर्षभर का या उन दिनों के लिए अन्न इकट्ठा कर लेते थे।
विशेषकर बाढ़ के दिनों में अमीरों पर आश्रित होने के कारण यह गरीब वर्ग एक तरह से
गुलाम की ज़िंदगी व्यतीत करते थे। गरीबी इन्हें शक्तिहीन बना देती थी। अमीरों के
आदेश मानना इनकी मजबूरी थी मना करने की स्थिति में उन्हें दंड का भागी भी बनना
पड़ता था। जबकि सहयोग करने पर इनाम मिलता था। फूलन देवी का चचेरे भाई मायादीन जब
देविदीन के हिस्से का नीम का पेड़ चोरी से काट रहा होता है तो फूलन द्वारा गाँव के
ही एक लोग से मदद की अपील पर वह ग्रामीण उसे जवाब देता है कि मदद न करने के बदले
में मायादीन उन्हें एक बोरी बाजरा देगा।[7] कई-कई बार तो अमीरों के खिलाफ
आवाज़ उठाने की गलतियों के बदले में उन्हें जान से भी हाथ धोना पड़ता था। लोकतंत्रात्मक
व्यवस्था में भी सामंती प्रथा का खौफ इस तरह व्याप्त था कि जब गाँव के प्रधान के
आदमी किसी को पीटने लगते थे तो कोई भी ग्रामीण वहाँ उसकी मदद के बदले भागकर
अपने-अपने घरों में छिप जाते थे। प्रधान के कार्यों में दखल देने की कोई हिम्मत भी
नहीं कर पाता था। यही कारण है कि गाँव के प्रधान, सरपंच, उनके पुत्र या संबंधी स्त्रियों को ललचाई नज़र से देखते हुए यदि कोई भद्दी
टिप्पणियाँ भी कर देते थे तो भी वे कोई विरोध नहीं कर पाती बल्कि चुपचाप सह लेती
थी। समाज में घूँघट प्रथा के साथ-साथ दहेज
प्रथा भी विद्यमान थी ।
समाज में पितृसत्तात्मक वर्चस्व
तत्कालीन समाज में पितृसत्तात्मक जड़ें कितनी गहरी थी इसका
अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि फूलन के जन्म पश्चात जब उसकी माँ ने पाँचवीं
बार गर्भ धारण किया तो प्रसवकाल के दौरान वो हमेशा एक ही बात बुदबुदाती रहती थी, “हे भगवान ! इस बार लड़का ही देना”।[8] इसके बावजूद भी उसे जब बेटी ही
हुई तो उसकी माँ ने उसे स्तन पान कराने से मना कर दिया। यही नहीं चौथे प्रसव के
दौरान जब उसे जुड़वां बेटियाँ ही हुई लेकिन अत्यधिक कमजोर होने के कारण जब उसी दिन
दोनों बच्चियों की मृत्यु हो गयी तो उनकी माँ बुदबुदाई कि “अच्छा हुआ भगवान ने उसे
अपने पास बुला लिया”।[9] फूलन खुद ये स्वीकार करती है
कि उनकी माँ दो कारणों से उनसे नफरत करती थी - पहला तो ये कि छोटी और खुद फूलन
दोनों हमेशा भूखे होने की बात करती थी, दूसरा कारण उनका लड़की
रूप में जन्म लेना था। कभी कभी उनकी माँ गरीबी से त्रस्त होकर फूट-फूट कर विलाप
करने लगती थी कि “इन लड़कियों का क्या करूँ? कौन करेगा इनसे
विवाह? पता नहीं क्यों हमारे ही किस्मत में इतनी लड़कियां हैं? क्या हमलोग चोर हैं या किसी के घर से कुछ चोरी की”?[10] कभी कभी तो वो
गुस्से में आकर दोनों लड़कियों का हाथ पकड़कर कुएं में डूब कर मर जाने की बात करती
थी। जिस समाज में 4-4 पुत्र पर 1 लड़की होने को एक सुखी परिवार माना जाता था उसी
समाज में एक ही परिवार में 4-4 लड़कियों के होने से क्या चिंताएँ होंगी फूलन के माँ
की व्याकुलता देखकर पता चलता है। उनकी ये व्याकुलता भी स्वाभाविक है क्योंकि समाज
की ये मान्यता थी कि बेटे बड़े होकर खेती-बाड़ी, घर गृहस्थी, वंश बढ़ाने आदि में योगदान देगा, विवाह के दौरान दहेज
द्वारा परिवार में समृद्धि लाएगा। जबकि लड़कियों को तो पराए घर जाना होता है। साथ
ही शृंगार के नाम पर वे चारों ओर से तो खर्चे की घर होती है। फूलन की बड़ी बहन
रुकमिणी के भी जब 3 बेटे और एक बेटी होने के पश्चात पाँचवीं बार गर्भ धारण करने पर
उसे जन्म देने के बदले गर्भपात करवाना चाहती है क्योंकि उसे इस बात का डर होता है
कि यदि यह नवजात लड़की हुई तो इसे भूखों मरना पड़ेगा। फूलन देवी की माँ द्वारा अपनी
बेटियों को अकेले यमुना नदी में स्नान करने नहीं जाने देना सिर्फ इसलिए कि नदी
जाने के रास्ते में प्रधान का घर पड़ता है, प्रमाणित करता है
कि समाज में स्त्रियों को किस नज़र से देखा जाता था। उच्च व सामंती परिवार के युवक
स्त्रियों को ललचाई नज़र से देखते थे एवं उनका बलात्कार करने की फिराक में लगे रहते
थे। समाज द्वारा एक स्त्री के साथ किए जानेवाले बेरुखी से आहत होकर फूलन खुद
स्वीकार करती हैं कि “लड़की होना शाप है।”[11]
वैसे तो
प्राचीन काल से ही समाज में स्त्रियों की स्थिति शूद्रों के ही समकक्ष रही है
लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात बिना किसी लैंगिक भेद-भाव के संविधान द्वारा
प्रदत्त समानता के अधिकार मिलने के बावजूद तत्कालीन सामंती विचारधारा वाले समाज
में उनकी स्थिति शूद्र से कम नहीं थी जिन्हें रामायण जैसे पवित्र ग्रंथ को छूने का
भी अधिकार नहीं था। पिता और पति के अतिरिक्त यदि किसी अन्य पुरुष से एक लड़की बात कर
लेती थी तो उसके विवाह में विपत्ति खड़ा हो जाती थी। यहाँ तक कि डकैती के पेशे में
भी पुरुषों का ही बोलबाला था। किसी भी पेशे में स्त्रियों का प्रवेश दुर्भाग्य का
कारण माना जाता था। यही कारण है कि जब फूलन डकैतों के दल में शामिल हुई थी तो एक
सदस्य ने इसपर चिंता प्रकट की थी। तत्कालीन समाज में जहां तक स्त्री शिक्षा की बात
आती है तो ऐसा नहीं है कि समाज स्त्री शिक्षा के प्रति जागृत नहीं था। इसका
प्रत्यक्ष उदाहरण है प्राथमिक शिक्षा हेतु फूलन के पिता द्वारा उसे गाँव के ही
प्रधान के घर चलने वाले विद्यालय लिए जाना। लेकिन वास्तविकता ये है कि समाज
स्त्रियों को पढ़ाने के स्थान पर उनके परंपरागत कार्यों के सीखने-सिखाने पर
पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है कि जब गाँव के एक
शिक्षक फूलन की माँ से उनके बच्चियों को स्कूल भेजने की आग्रह करते हैं तो वो जवाब
देती है कि “शिव-नारायण (पुत्र) स्कूल जाएगा। हम लड़कियों को अन्य किसी चीज के
सीखने की आवश्यकता ही नहीं है सिवाय गेंहू पीसना, रोटी बनाना, जानवरों के खाने के लिए घास काटना, खेतों की निराई-गुड़ाई करना, कुएं से पानी लाना आदि।[12] स्त्रियों को एक गुलाम के
अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता था। पुट्टीलाल ने 11 वर्षीय फूलन से विवाह केवल इसलिए
किया ताकि उसके व उसके विधुर पिता की देखभाल किया जा सके। परिवार के मुखिया सहित
अन्य को भोजन कराने के बाद ही खाना पकानेवाली खाने का अधिकारी होता था। उनके
ज़ोर-ज़ोर से बोलने व हंसने को अच्छा नहीं माना जाता था। समाज में स्त्रियों को
भारस्वरूप समझे जाने का एक प्रमुख कारण था दहेज प्रथा। गरीब परिवारों को बेटी के
विवाह हेतु दहेज की चिंता हमेशा लगी रहती थी। यही कारण है कि नीम के पेड़ को बेचकर
बेटी का विवाह करने का सपना देखते मूला और देविदीन (फूलन के माता-पिता) उस समय घोर
चिंता में डूब जाते हैं जब मायादीन चोरी से नीम के पेड़ को काट लेता है। फिर भी फूलन
के विवाह में उसके पिता को वर पक्ष को 5 हज़ार रुपए, एक गाय
तथा एक बकरी दहेज के रूप में देना पड़ा। जबकि छोटी की शादी में भी सभी चाँदी के
आभूषण को बेचकर दहेज का व्यवस्था करना पड़ा।
फूलन देवी को
डकैत बनाने के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी कारक समाज का पितृसत्तात्मक स्वरूप को माना
जा सकता है। यदि समाज द्वारा स्त्रियों के साथ किए जानेवाले दुर्व्यवहार, अत्याचार का डर नहीं होता तो फूलन का विवाह
11 वर्ष की अवस्था में नहीं होता। क्योंकि फूलन देवी का विवाह इतनी कम उम्र में
केवल इसलिए कर दिया गया कि मायादीन से घरेलू संघर्ष के कारण फूलन के साथ कोई उंच
नीच न हो जाए जिससे उसके विवाह में कोई व्यवधान पैदा हो। जबकि इस अवस्था तक उसे यह
भी पता नहीं था कि विवाह पश्चात एक लड़का-लड़की के बीच किस प्रकार का संबंध होता है।
समाज में स्त्रियाँ दोहरे शोषण की शिकार थी, एक तो अमीर व
सामंती वर्ग उन्हें भूखे भेड़ियों की तरह देखता ही था तो दूसरी ओर अपने ही दलित
समाज के पुरुष का भी उन्हें देखने का दृष्टिकोण ऐसा ही था। विशेष रूप से जवान
पुरुष अपने हवस की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते थे। पुट्टीलाल एवं फूलन के बीच
के संवाद से इसे समझा जा सकता है “You little bitch ! I can do whatever I
want with you. I am your husband, your master! Do you hear! Now shut up”.[13] इस कथन से ये
बात भी पुख्ता होता है कि निर्णय लेने का अधिकार केवल पुरुषों के हाथ में था जबकि
स्त्रियाँ उसे मानने को मजबूर होती थी।
समाज में स्त्रियाँ हमेशा अमीरों की प्रताड़ना की शिकार होती
रहती थी। इनके कारण बलात्कार-सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ होती रहती थी। पंचायत में
भी पीड़िता को शर्मशार किया जाता ही था वहीं आरोपी को निर्दोष करार दिया जाता था।
सरपंच के बेटे द्वारा फूलन के साथ की गयी बदतमीजी की शिकायत करने जब उसकी माँ फूलन के साथ
सरपंच के घर जाती है तो वह न केवल उसकी माँ को घर से बाहर फेंकवा देता है। बल्कि
उसी दिन रात में सरपंच के बेटे जबरन घर में घुसकर देविदीन को धमकाता, मारपीट करते हुए फूलन व उसकी माँ के साथ बलात्कार
भी करता है।[14]
पितृसत्तात्मक समाज से फूलन देवी का संघर्ष
बचपन से ही फूलन देवी का व्यक्तित्व विद्रोही प्रवृत्ति का
था। शारीरिक रूप से निर्बल होने के बावजूद उसमें अन्याय झूठ व बेईमानी के खिलाफ
विद्रोह की भावना झलकती थी, चाहे
बिहारी चाचा के द्वारा अपने पिता के साथ किया जाने वाला छल,
अन्याय हो या मायादीन द्वारा चोरी से जबरन नीम का पेड़ जाना। जैसे-जैसे उसमें
शारीरिक बल का उद्भव हुआ उसका प्रदर्शन खुल कर करना शुरू कर दिया। बचपन में छोटे व
शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण बिहारी चाचा के अन्याय को तो खून के घूंट पीकर
बरदास्त करती रही लेकिन अंततः प्रथम बार उसने खुलकर प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर ही
दिया जब मायादीन चोरी से उसके पिता द्वारा लगाए गए नीम के पेड़ को काटकर ले जा रहा
था। 100 से भी अधिक लोग घटनास्थल पर इकट्ठा थे लेकिन कोई भी विरोध करने आगे नहीं
आया। ऐसे में फूलन देवी जो उस समय मात्र 11 वर्ष की अवस्था में थी, अपने दम पर उनसे उलझ गयी। हालांकि वह उस नीम के पेड़ को कटने से बचा नहीं
सकी। फिर भी उसकी आक्रामकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मायादीन के
जिस आदमी ने फूलन को पकड़ रखा था वह भी परेशान होकर अंततः बोल ही पड़ा, “भगवान जाने किस चीज़ से यह लड़की बनी है”।[15] अपने बिहारी चाचा द्वारा जबरन
हथियाए गए जमीन से वह इतना आहात रहती थी कि उससे बदला लेने की प्रवृत्ति हमेशा मन
में चलता रहता। बिहारी चाचा की मृत्यु के बाद तो उसके बेटे मायादीन से उलझना आम
बात हो गयी। कभी घास काटने के नाम पर तो कभी नीम के पेड़ काटने के नाम पर। खुद पर
हुए जुल्म के प्रश्न पर तत्कालीन समाज से फूलन प्रश्न भी करती है कि पुट्टीलाल की
वास्तविकता कि अपनी पहली पत्नी पर जुल्म कर उसने उसे मार दिया गया, जानने के बावजूद भी मामा-मामी, ज्योतिषी, पुरोहित ने मेरा विवाह उससे करवाया। फिर ये लोग ही आज पिताजी को सलाह दे
रहे हैं कि अपनी बेटी को दुबारा नहीं आने देना। इससे पूर्व उन्होनें वास्तविकता
क्यों नहीं बताई? क्यों मुझे इस घर में आने दिया?[16] ससुराल से
पुट्टीलाल द्वारा उसपर गोशाला में हाथ पैर बांधकर किए गए जुल्म, गरम रोटी सेंकने वाले चिमटे से खुद को जलाए जाने,
को याद करते हुए अपने पिता के साथ ससुराल की परिधि से बाहर निकलते ही फूलन गाँव की
तरफ मुड़कर कहती है “अब मैं वापस कभी नहीं आऊँगी”।[17] दृढ़निश्चयी होकर समाज से अपनी
बर्बादी का प्रश्न पूछने के साथ-साथ उसका यह कहना कि अब मैं वापस कभी नहीं आउंगी, एक क्रांतिकारी कदम था क्योंकि अब वह एक विवाहित लड़की थी जिसके लिए एक
सामाजिक रीति के तहत पति के ही घर में रहना अनिवार्य था। हालांकि इसे बचपना भी कहा
जा सकता है क्योंकि कुछ दिनों पश्चात उसे पति के साथ वापस अपने ससुराल आना ही पड़ता
है। वापसी के दौरान पुट्टीलाल रास्ते भर उसे साइकल के अगले सीट पर बैठाकर धमकाता
रहा कि “यदि तुमने किसी से अपने साथ हुए घटना को बताया तो तुम्हारी जली हुई लाश ही
तुम्हारे घर जाएगी”।[18] ससुराल दुबारा आने के साथ ही फिर
से पुट्टीलाल द्वारा जुल्म शुरू हो जाता है। एक दिन तो वह उसे नीम के पतले डाली से
उसे इतना पीटा कि शरीर सूज गया सिर्फ इसलिए कि उसके जुल्म की बातें उसने उसके पिता
से बता दी। तत्पश्चात फूलन के मौसा व उनके लड़के ने उसे चुपके से ससुराल से भगाकर
उसे जुल्म से मुक्त कराया। खिन्न होकर पुट्टीलाल ने मायादीन व पुलिस की सहायता
लेकर फूलन को अपने साथ ले जाने का बहुत प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाया बल्कि
इसके उलट पुलिस ने फूलन के कमजोर शरीर और उम्र को देखते ही आगे से इस संबंध में
कोई शिकायत नहीं करने का आदेश भी दे दिया। फूलन देवी भी अजीब किस्मत लेकर इस
दुनिया में आई थी। एक समस्या से छुटकारा मिलता नहीं कि दूसरा शुरू। पुट्टीलाल से
छुटकारा मिला तो अब मायादीन। जो इतना धूर्त था कि जमीन जायदाद की बात आने पर उसके
लिए उसके चाचा देवीदीन पराया हो जाता था लेकिन फूलनदेवी के मामले में हमेशा
बड़बड़ाता कि उसने हमारे परिवार का नाम हंसा दिया। जैसे फूलन उसकी सगी बहन ही हो। इसी
दौरान फूलन के अनुपस्थिति में पुट्टीलाल विद्या नामक लड़की से तीसरी शादी कर लेता
है वहीं 14 वर्ष की अवस्था में फूलन देवी को भी ले आता है जिससे उसकी स्थिति एक
सौतन की हो जाती है। गुलामों की तरह उससे कपड़े, बर्तन
धुलवाना, पानी लाना, जानवरों को चारा
खिलाना आदि सारे काम उसपर थोप दिये जाते थे। इसके बावजूद अपनी सौतन विद्या से उसे
ताने झिड़कियाँ सुनने को मिलते थे – “इस घर से दूर रहो, ये
मेरा घर है, यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं”।[19] खाना पकाने तक ही उसे घर में
रखा जाता था तत्पश्चात उसे गौशाले में ही दिन-रात गुज़ारना पड़ता था। गौशाले के
अंधेरे में ही उसे खाना दिया जाता था। खुद के साथ किए जानेवाले व्यवहारों से वह
इतना आहात हो गयी कि उनकी स्थिति पागलों जैसी हो गयी। हालांकि इस अत्याचार को
देखकर पुट्टीलाल के चाचा के साथ-साथ गाँव की अन्य महिलाएं भी पसीजकर पुट्टिलाल को
बहुत बुराभला कहती हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। अंततः ग्राम पंचायत ने जब
पुट्टीलाल को फूलन को घर में अच्छी तरह से रखने का फैसला सुनाया तो बौखलाकर
पुट्टीलाल अगले सुवह ही उसे बिना कुछ बताए उसे उसके समस्त कपड़े सहित साइकल पर
बैठाकर यमुना नदी के किनारे तक छोडते हुए कहा,“चले जाओ !
यहाँ से तुम्हारा घर नजदीक है”। फूलन देवी ने यह कहकर जाने से मना कर दिया कि “मैं
अकेले नहीं जाऊँगी क्योंकि गाँववाले, मायादीन, पूछेंगे कि मैं अकेले क्यों आई हूँ? तो मैं क्या जवाब दूँगी। आपको उन्हें
बताना होगा”। अंततः नाववाले को बुलाने का बहाना बनाकर पुट्टीलाल छलपूर्वक उसे व दहेज
में प्राप्त साइकल को छोडकर अपने घर लौट गया। यमुना किनारे ही फूलन पूरी दिन-रात उसके
आने का इंतज़ार करती रही। किसी तरह वह घर पहुंची और कुछ दिनों पश्चात वह अपने पिता
के साथ मजदूरी करने भी जाने लगी। मजदूरी करते-करते उसमें आत्मविश्वास का संचार हुआ।
इसी दौरान उसने न केवल मायादीन द्वारा उसे परेशान किए जाने से खिन्न होकर बीच गाँव
में ललकारा बल्कि मजदूरों के साथ ठाकुरों द्वारा जानेवाले अत्याचार को नजदीकी से
महसूस कर उसके खिलाफ आवाज़ भी उठाई। ठाकुर उन्हें मजदूरी करने के लिए रख तो लेते थे
लेकिन मेहनताना देने के नाम पर कल आने की बात करते थे और कल होने पर कोई कोई न कोई
बहाना या नुख्श निकालकर मजदूरी काट लिया करते थे। इस अन्याय को देखते हुए फूलन एक
दिन उनसे निर्भीकता से यह कहते हुए उलझ गयी कि “मैंने आज काम किया है । मुझे पैसे
भी आज ही चाहिए”। मजदूरी देते हैं या आपकी बकरियाँ ले जाऊँ।[20] हालांकि इस प्रकार बोलने का
उसे नुकसान उठाना पड़ा। लोगों ने उसे बाहर कर दिया, अपने पिता
से भी डांट खाई, लेकिन अपनी माँ द्वारा इस काम के लिए समर्थन
पाकर वह दुगुने उत्साह से भर गयी। इसके बाद तो जैसे उसमें सचमुच दुर्गा के
शक्तियों का संचार होने लगा। कुछ दिनों पश्चात ही जब किसी एक ने देविदीन से काम
करवाने के बावजूद मजदूरी देने में नौ-छे कर रहा था तो फूलन ने छोटी के साथ मिलकर
रातों-रात आठ दिनों में बने दीवार को मूसलाधार बारिश के सहयोग से ढहा दिया। अगले
दिन उससे पैसे भी प्राप्त कर लिया, डराते हुए यह कहकर कि ‘तुमने हमारे पैसे नहीं दिये इसलिए भगवान ने मूसलाधार बारिश से इसे नष्ट कर
दिया। यदि तुमने हमारे पैसे नहीं दिये तो बाकी भी तुम्हारे सिर पर गिरेंगे’।[21]
इसके पश्चात फूलन अपने साथ काम करनेवाली प्रत्येक स्त्रियों को अपने हक़ की मजदूरी
अवश्य लेने के लिए हमेशा जागृत करती रहती थी। तत्कालीन समाज में अंधविश्वास भी
चरमावस्था पर था जिसका फायदा उसे मिलता। वह सभी को यह कहकर डरा कर रखती कि ‘जो भी हमारी मजदूरी नहीं देगा आँधी-तूफान आकर उनके घरों को उनके ही सिर पर
गिरा देंगे’। यहाँ से फूलन देवी का क्रांतिकारी जीवन की
शुरुवात होती है। हालांकि इस क्रांतिकारी जीवन ने उन्हें समाज का दुश्मन बना दिया
था इसके बावजूद वह अन्य स्त्रियों को यह कहकर अन्याय के खिलाफ जागृत करने लगी कि
जमीन की जुताई, बुवाई, निराई आदि का
काम हमलोग मेहनत से करते हैं इसके बावजूद यदि जमीन मालिक आपको मजदूरी नहीं दे तो
उनके फसल नष्ट कर दो।
गांधीवादी
विचारधारा के विपरीत फूलन देवी इस दर्शन में विश्वास करती थी कि यदि कोई तुम्हें
थप्पड़ मारे तो प्रतिक्रिया में तुम भी उसे एक जोरदार थप्पड़ मारो। चोरी, बेईमानी करने के गुण से वह हमेशा दूर रहने
की बात करती है। इस तरह फूलन भले ही स्वयं सशक्त होने के साथ-साथ समाज के
स्त्रियों को भी अन्याय के खिलाफ सशक्त होने का संदेश दे रही थी लेकिन दूसरी तरफ
वो भी समाज की आंखों में खटकने भी लगी थी। यौवनावस्था प्रारम्भ होते ही लोग उसे
बहला-फुसलाकर एकांत में ले जाने की फिराक में लगे रहते थे। बड़ी व छोटी बहन के
विवाह कर अपने ससुराल चले जाने से वह बिलकुल अकेली हो गयी थी। ऐसे उसे इस बात का
भी डर सताता रहता था कि उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ पति का भी साया नहीं है। भाई
शिवनारायण भी इतना छोटा था कि किसी प्रकार के सुरक्षा की उससे आशा नहीं किया जा
सकता। सरपंच के बेटे द्वारा उसके घर में घुसकर किए गए बलात्कार ने कल्पना के भय को
वास्तविकता में बदल दिया। इस बलात्कार ने फूलन में बदला लेने की भावना को जन्म
दिया। इस कार्य हेतु उसके अंदर उम्मीद जागी फूल सिंह द्वारा जो खुद नजदीक के गाँव
का मुखिया था, साथ ही फूलन के साथ अन्याय करनेवाले सरपंच के
साथ पुरानी शत्रुता भी थी। अगले दिन ही उसने 20-25 घोड़ों पर सवार लोगों को सरपंच के
घर पर धावा बोलने भेजा। उन 25 घुड़सवारों ने सरपंच की पत्नी को गाँव के बीच में
अपमानित करते हुए गाँव के गरीब स्त्रियों से दुबारा ऐसा नहीं होने की चेतावनी दी। इस
अपमान का बदला लेने की लिए सरपंच ने पंचायत बुलाकर फूलन का विवाह अपने बूढ़े विधुर
नौकर से करवाने का आदेश दिया। इससे बचने के लिए फूलन को मजबूरन अपना पैतृक गाँव
छोड़कर रुकमिणी के पास शरण लेना पड़ा। जहां उसे अपने जीजा रामपाल से पता चलता है कि सरपंच
व मायादीन उसे डकैत के रूप में आरोपित किया है। पुलिस द्वारा पिता को गिरफ्तार कर
लिए जाने की बात सुनकर फूलन अपने गाँव लौटती है। जहां नाविकों के सहयोग से उसे
गिरफ्तार करवा दिया जाता है। मायादीन के घर डकैती करने की झूठी बात को मनवाने के
लिए पुलिसवालों जेल में काफी बेरहमी से फूलन व उसके पिता को हर तरह से प्रताड़ित
किया। उसके पिता के सामने ही उसके साड़ी, ब्लाउज व पेटीकोट को
फाड़कर पूर्णतः नग्न कर दिया। “दुबारा गाँव में कदम नहीं रखना ! मायादीन के घर जाने
की हिम्मत मत करना ! सरपंच को अपमानित करने की हिम्मत नहीं करना, जेल में तुम्हारे साथ क्या हुआ किसी को यदि बताया भी तो फांसी पर लटका
दूंगा। तुम्हारे घर जला दूंगा” जैसे मौखिक स्वीकारोक्ति के बाद पुलिसवालों ने उसके
कपड़े लौटा दिये। इस दौरान की यातनाएँ देखकर इस तरह वो भयभीत हो गयी कि जेल से
छूटते ही लगातार रोते हुए अपनी माँ से कहती है “मुझे क्यों इस दुनिया में लायी माँ, मुझे मार दिया होता”। डकैती का यह झूठा आरोप, अपमान
फूलन देवी के जीवन का मोड़ साबित हुआ। बदले की भावना उसके घर कर गयी। यहाँ से एक
तथाकथित डकैत, एक वास्तविक डकैत के रूप में स्थापित हुआ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि फूलन देवी के अंदर बचपन से ही एक
स्त्री होने के बावजूद उसमें मर्दाने गुण भी थे जिससे वो अपने इज्जत को बचाने में
काफी हद तक कामयाब हुई। मजबूत इच्छा-शक्ति, दृढ़निश्चयी होने के बावजूद सरपंच के लड़के द्वारा उसके बलात्कार किए जाने
से इस तरह क्षुब्ध हो जाती है कि कोई मदद नहीं मिलने की अवस्था में आत्महत्या करने
की भी सोचने लगती है। जेल में भी जब पुलिस द्वारा उसे नग्न कर दिया जाता है तो भी
उसके मन में आत्महत्या का विचार आता है। उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा
सकता है कि पितृसत्तात्मक व सामंती समाज से संघर्ष का आगाज कर तत्कालीन समाज के
दलित, गरीब, कमजोर तबके को अन्याय के
खिलाफ एकजुट होने का संदेश तो दिया लेकिन कई गतिविधियां ऐसी भी हैं जो उसके स्त्री
चिंतक होने पर प्रश्नचिन्ह भी लगाती है। जैसे पड़ोसी गाँव के ठाकुर फूल सिंह के
आदमियों द्वारा सरपंच की पत्नी की साड़ी उतारे जाने की बात सुनकर खुश होना।
[1] क्यूनी, मेरी
थेरेस, पॉल, रामबली, “आई फूलन देवी : द ऑटोबायोग्राफ़ि ऑफ इंडियाज बेंडिट क्वीन” स्फेयर
प्रकाशन, लंदन, 2014 पृष्ठ सं. 187
[2]वही , पृष्ठ
सं. 496
[3]http://www.kaieteurnewsonline.com/2011/03/09/time-magazine-names-janet-jagan-among-%E2%80%9Chistory%E2%80%99s-most-rebellious-women%E2%80%9D/
[4] सिंह, सत्नाम ,”फूलन देवी सचित्र जीवन” सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 पृष्ठ सं. 6
[5]क्यूनी, मेरी थेरेस, पॉल, रामबली, “आई फूलन देवी : द ऑटोबायोग्राफ़ि ऑफ इंडियाज बेंडिट क्वीन” स्फेयर प्रकाशन, लंदन, 2014, पृष्ठ सं. 05
[6]वही, पृष्ठ सं. 37
[7]वही, पृष्ठ सं. 61
[8] वही, पृष्ठ
सं. 12
[9] वही, पृष्ठ
सं. 13
[10] वही, पृष्ठ सं. 19
[11] वही, पृष्ठ
सं. 81
[12] वही, पृष्ठ सं. 25
[13] वही, पृष्ठ सं. 101
[14] वही, पृष्ठ
सं. 172
[15]वही, पृष्ठ सं. 60
[16] वही , पृष्ठ
सं – 115
[17] वही , पृष्ठ
सं –110,115
[18] वही, पृष्ठ सं. 126
[19] वही , पृष्ठ
सं. – 144
[20] वही, पृष्ठ सं. 151
[21] वही, पृष्ठ
सं 154