बात उन दिनों की है जब मेरी माँ साइटिका बीमारी से पीड़ित होने के कारण ज्यादा चल
फिर नहीं पाती थी । 4 सदस्यों वाला हमारा छोटा सा परिवार था । जिसमें हम दो भाई
माँ और पिताजी थे । बड़े भैया दिल्ली में रहते हुए स्नातक में अध्ययनरत थे । ऐसे
समय में पिताजी और मैं पूरे तन-मन से माँ की सेवा करने, खाना बनाने से लेकर साफ-सफाई का काम संभालते
थे । पिताजी सरकारी स्कूल शिक्षक थे । निश्चित समय पर उनको स्कूल जाना पड़ता था ।
उनके ड्यूटि जाने के बाद घर में मैं अकेला बचता, इसलिए माँ
को खिलना-पिलाना, स्नान कराना, कपड़े
बदलवाना, उन्हें पकड़ कर सैर करवाना, घर
आए मेहमानों को चाय-नाश्ता कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही होती थी । इसके साथ ही
कॉलेज-कोचिंग जाना, पढ़ाई करते-करते पूरा दिन कैसे निकल जाता
पता ही नहीं चलता था । एक गृहस्थ स्त्री प्रतिदिन जितना काम करती है उतना या थोड़ा
कम मैं भी करता था । इतना काम करने के बाद थकावट इस तरह हावी हो जाती थी कि अगले
दिन कोई काम करने की इच्छा ही नहीं होती थी । फिर भी ... । अंततः एक दिन माँ से
पूछ ही लिया कि कैसे बिना थके इतना काम प्रतिदिन कर लेती हैं ? प्रश्न सुनकर वह काफी हैरान हो गयी और भावुक होकर समझाई कि ‘एक स्त्री का यह प्रतिदिन का निर्धारित काम है । इतना करने के बाद भी सोचो
एक स्त्री के लिए यह सुनना कितना कष्टकारी होता है कि “पूरे दिन घर पर ही रहती हो
फिर भी यह काम समय से नहीं हो पाता, आखिर करती क्या हो’ ?
उन दिनों ही मुझे ये अनुभव
हुआ कि एक पुरुष जितना कार्य घर से बाहर रहकर करता है, उतना ही या उससे ज्यादा सामान्य दिनों में एक
स्त्री घर के चहारदीवारी में रहकर करती है । घर में बुजुर्ग व एक-दो बच्चे हों तो
काम का बोझ दोगुना-तीनगुना हो जाना स्वाभाविक है । ऐसे में एक पुरुष को तंख्वाह के
रूप में उसके श्रम का मूल्य तो प्राप्त हो जाता है लेकिन सुबह से लेकर रात्री
विश्राम तक घर के सारे कार्य करते हुए बच्चों, बुजुर्गों की
लालन पालन करनेवाली स्त्री के श्रम का कोई मूल्य नहीं दिया जाता । जितना काम
प्रतिदिन वह घर पर करती है यदि उसका मूल्य निकाला जाय तो पति के तंख्वाह की दुगनी
तंख्वाह की हकदार होगी । नियमतः अपने पति को ड्यूटी पर जाने के लिए तैयार करने, पूरे दिन उसके घर-परिवार-रिश्तेदार की रखवाली करने वाली स्त्री भी है, और उसे ये हक मिलना चाहिए ।
खैर हमारे पितृसत्तात्मक
विचारधारा प्रधान समाज में फिलहाल तो ऐसा होने से रहा,
बावजूद इसके हम समाज के पुरुष उनके प्रति अपना नज़रिया बदल,
उनके श्रम को महत्व देते हुए, समाज की स्थापित इस धारणा को
खत्म कर सकते हैं कि ‘एक स्त्री घर पर बैठी कोई विशेष काम
नहीं करती । या सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा निजी क्षेत्र के कार्य आसान होते हैं’ ।
इस अनुभव ने स्त्रियों के
प्रति मेरी सोच को बदलने का कार्य किया । जिसके फलस्वरूप आज मैं आलेखों, सभाओं के माध्यम से स्त्रियों के श्रम का महत्व
बताने, स्त्री-पुरुष के बीच की खाई खत्म कर समाज को जेंडर
संवेदनशील बनाने, पुरुषों के समान अधिकार दिलाने, उनके समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने आदि उद्देश्यों के साथ आज
भी खड़ा हूँ । इस सोच की प्रेरणा स्त्रोत मैं अपनी माँ को मानता हूँ । यही प्रेरणा
मुझे स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा खींच लाई जहां प्रतिष्ठित पीएच.
डी. पाठ्यक्रम में पंजीकृत हूँ । हमारे परिवार में पिछले 2 पीढ़ियों से पुत्री रत्न
पाने का सौभाग्य ही नहीं प्राप्त हुआ था । लेकिन आज भी गर्व गर्व से फूला न समाता
हूँ जब मेरी माँ मुझे बेटा की जगह “बेटी” कहकर बुलाती हुए कहती है कि “अब तो लगता
ही नहीं कि हमारे घर में बेटी की कमी है” ।
(वुमेन एक्सप्रेस 12/05/2018 में प्रकाशित)