Saturday, 7 January 2017

खतरे में प्रजातंत्र

ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए मनुस्मृति व अन्य धर्मशास्त्रों की रचना उत्तर भारतीय किसी एक ब्राह्मण या इनके एक समूह द्वारा की गई ज़िसमें शुद्रों तथा मलेच्छों को वर्चस्व के लिये खतरा मानते हुए, उनका मनोबल तोड़ने के लिये उनके साथ भेद भाव के प्रावधान को धर्माशास्त्रों के साथ जोडकर वैध कर लिया । हालांकि तीसरी सदी ई. के दौरान सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन के फलस्वरूप व्यवसायों में आये परिवर्तन ने शूद्रों व स्त्रियों को एक उम्मीद दिखाई, वेदों के अध्ययन से महरूम दलित व स्त्री वर्ग को बौद्ध व अन्य सम्प्रदायों की ओर पलायन से रोकने के लिए वैदिक साहित्य के स्थान पर पौराणिक साहित्य का अध्ययन करने, इनमें लिखित रीति रिवाजों को अपनाने की छूट तो मिली लेकिन आज पुनः समाज को घोर जातिवादी व्यवस्था की ओर ले जाने के लिए पूरा प्रयास किया जा रहा है । पहले तो केवल अस्पृश्य ही इनकी वर्चस्व के लिए खतरा थे लेकिन आज 2000 वर्ष बाद इनके 3 और दुश्मन बढ़ गए । इसाई, मुसलमान व हिंदू धर्म के ही वामपंथी । इन सभी की एकजुटता देखकर मनुवादी व्यवस्था के अनुयाइयों की छटपटाहट को समझा जा सकता है क्योंकि प्रजातंत्र में ये राजतंत्र वाली धर्मसूत्र जैसे सहित्य लिखकर अपनी सत्ता को बचा नहीं सकते ।

ऐसे में स्वभाविक है अब अपनी सभ्यता/संस्कृति पर इतराने वाले नीचे गिरने की सीमा को पार करते हुए गुंडे मवाली का वेश धरकर धमकाते फिरेंगे कभी धार्मांतरण के नाम पर कभी गाय के नाम पर ।  कभी देशभक्ति के नामपर तो कभी आरक्षण के नाम पर । यदि इनकी सत्ता कमजोर नहीं हुई कोई मजबूत विपक्ष नहीं मिला तो वो दिन दूर नहीं जब मनुवादी व्यवस्था सारी न्यायिक प्रणालियों को ध्वस्त कर प्रजातंत्र के स्थान पर राजतंत्रात्मक, कट्टर जातिवादी समाज के रूप में पुनर्जन्म होगा ।