आधुनिक भारत में स्त्री
प्रश्नों का उदय कोई आकस्मिक घटना नहीं थी बल्कि साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसकी
नींव तैयार करने का कार्य किया। अपनी पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति को हिंदुओं की सभ्यता-संस्कृति
से श्रेष्ठ दिखाने के लिए साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने जब तत्कालीन हिंदू समाज में
स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर सवाल उठाए तो प्रतिक्रिया स्वरूप पश्चिमी शिक्षा
प्राप्त भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा स्त्रियों की स्थिति का अवलोकन करने तथा उनकी
स्थिति में सुधार लाने की दिशा में प्रयास शुरू हुआ। साम्राज्यवादी इतिहासकारों की
बातों का खंडन भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राच्यवादी इतिहासकारों द्वारा लिखित
साहित्य के साथ-साथ प्राचीन संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर साबित किया कि हिंदू
समाज में स्त्रियों की स्थिति ऐसी नहीं थी जैसा वर्तमान में है। इसी क्रम में राजा
राममोहन राय ने संस्कृत साहित्यों का अध्ययन कर सती प्रथा को शास्त्र संवत नहीं मानते
हुए इसका विरोध किया। यही कारण है कि राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत
कहा जाता है।
यहां सवाल उठता है कि क्या राजा राममोहन राय
प्रथम भारतीय/हिन्दुस्तानी थे जिन्होंने स्त्री प्रश्न उठाने का कार्य किया?
स्कूली पाठ्यपुस्तकों से लेकर अधिकांश साहित्य का फिलहाल तो यही मानना
है। जबकि वास्तविकता यह है कि राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर
आदि से भी पूर्व स्त्रियों की चिंताजनक स्थिति पर विचार करने का कार्य दरभंगा
महाराजा माधव सिंह (1775-1807 ई.) ने किया। जिस प्रकार राजा राम मोहन राय को सती
प्रथा के अंत के लिए जाना जाता है उसी प्रकार दरभंगा महाराजा माधव सिंह को वैवाहिक
सुधार, मिथिला क्षेत्र में कुलीन घरानों में प्रचलित बहुविवाह
प्रथा को खत्म करने के लिए जाना जाता है जो मुख्यतः ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों में प्रचलित थी। राजा राममोहन राय अपने एक आलेख में राजा माधव
सिंह का उल्लेख करते हुए लिखते हैं –
“The
horror of this Practice (Polygamy) is so painful to the natural feelings of men
that even Madhav Singh the late Raja of Tirhoot (Though a Brahman himself),
through Compassion, took upon himself (I am told) within the last century to
limit the Brahmans of his Estate to Four wives only.”[i]
अपने
पूर्ववर्ती राजा प्रताप सिंह (1760-1775 ई.) के एक
कृत्य ने उन्हें इस प्रथा की खिलाफत के लिए मजबूर किया। अल्सर से गंभीर रूप से
पीड़ित राजा प्रताप सिंह अपनी मृत्यु के 3 महीने पूर्व ही एक कम उम्र की कन्या के
साथ विवाह किया था। एक कम उम्र की कन्या का तीन महीने में ही विधवा जीवन जीते देखकर
उन्हें अच्छा नहीं लगा था।
आखिर
क्या थी ‘बिकउवा’ प्रथा?
बंगाल के कुलीन प्रथा की
तरह मिथिला में भी इसी प्रकार की एक ‘बिकउवा’ प्रथा यहाँ के राजा, उनके सामंतों सहित धनी लोगों के
वंशावली में प्रचलित थी। मध्यकाल में मिथिला के ब्राह्मणों के बीच वंशावली बनाने की
प्रथा विकसित हुई ताकि वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ जातिगत शुद्धता बनी रहे। इसके परिणामस्वरूप
ब्राह्मणों में एक नया समूह विकसित हुआ जिसे ‘बिकउवा’ ब्राह्मण कहा जाता था। इस नवीन प्रथा के सृजन के परिणामस्वरूप मिथिला क्षेत्र
के ब्राह्मण दो उपजातियों में विभक्त हो गए – पंजीकृत (बिकउवा) तथा गृहस्थ ब्राह्मण।
ये पंजीकृत ब्राह्मण ही ‘बिकउवा’ ब्राह्मण
कहे जाते थे तथा खुद को ब्राह्मणों की सर्वोच्च उपजाति मानते थे। गृहस्थ ब्राह्मण अपनी
सामाजिक स्थिति को उन्नत करने के लिए ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने से उनकी निम्न स्थिति उच्च हो जाती
है। यही कारण है कि ‘गृहस्थ ब्राह्मण’ बिकउवा
ब्राह्मण से वैवाहिक संबंध बनाने के लिए लालायित रहते थे। ‘बिकउवा’ ब्राह्मण द्वारा ‘गृहस्थ’ ब्राह्मण
की बेटी से विवाह कर उसे विधवा के रूप में छोड़ दिया जाता था। उसे पुनर्विवाह करने की
इजाजत नहीं होती थी। हैरत की बात यह थी कि ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के लिए उम्र की कोई बाध्यता नहीं होती थी,
वह दूध पीता बच्चा से लेकर मरणासन्न वृद्ध तक हो सकता था। अपने सम्पूर्ण जीवन काल में
वह जितनी चाहे उतनी शादी कर सकता था। यह संख्या 10, 20, होते हुए 50, 60 तक चली जाती थी। इस ‘बिकउवा’ प्रथा ने मिथिला क्षेत्र में न केवल ब्राह्मणों
की सामाजिक स्थिति को प्रभावित किया बल्कि इससे उत्पन्न परिस्थिति ने समाज में बाल
विवाह, बेमेल विवाह को बढ़ावा देते हुए स्त्रियों की स्थिति को
और भी बदतर करने का कार्य किया।
इस ‘बिकउवा’ प्रथा की विभीषिका को इस आधार पर समझा जा सकता है कि 1795 ईस्वी में राजा
माधव सिंह ने तिरहुत दीवानी न्यायालय में इस प्रथा के खिलाफ याचिका दायर करते हुए
लिखा था ‘‘बिकउवा ब्राह्मण’ व्यक्तिगत रूप से 50 से 60
स्त्रियों से विवाह कर उसे उसके मायके छोड़ आते हैं। अपने पति से नजरअंदाज हो कर
स्त्रियां तनावग्रस्त महसूस करती हैं। लेकिन अपने सम्मान की रक्षा के लिए अदालत
नहीं जा पाती। इसलिए अदालत को उनपर जुर्माना या सजा देने का प्रावधान लागू करना
चाहिए'।[ii] तिरहुत के दीवानी न्यायालय ने
मामले को संगीन मानते हुए यह निर्णय दिया कि कोई भी ब्राह्मण 4 से अधिक विवाह नहीं
कर सकता।
हालांकि 1876 ई. के एक सर्वे से यह पता चलता है
कि कानून बनने के बाद भी यह प्रथा खत्म नहीं हुई। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार कुल 54 ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के मरने से 665 जवान तथा कुछ कम उम्र
की स्त्रियाँ विधवा हो गई थी। एक सदी बाद दरभंगा राज्य के ही महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह
के प्रयास से इस प्रथा का अंत हुआ।[iii]
इस आधार पर कहा जा सकता है कि स्त्रियों
की समस्याओं के खिलाफ सोचने का कार्य राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर से भी पूर्व दरभंगा महाराजा माधव सिंह ने किया।
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मुख्य द्वार : दरभंगा राज |
[ii] Jha,
Jata Shankar (1981): An Early Attempt at Marriage Reform
in Mithila in Jata Shankar Jha (ed.) K.P. Jaiswal Commemoration Volume, Patna
Page No. 536
[iii] Jha,
Jata Shankar (1972): Biography of an Indian Patriot
Maharaja Lakshmishwar Singh of Darbhanga, Patna Page No. 138