अभिभावक, शिक्षक के लिए हमेशा से यह समस्या रही है कि आखिर तमाम प्रयासों के
बावजूद उनके बच्चे पढ़ने-लिखने में रुचि क्यों नहीं लेते? अभिभावक
इसके लिए शिक्षक को, शिक्षक अभिभावक के साथ-साथ बच्चों को
इसके लिए दोषी ठहराते देखे जा सकते हैं। शिक्षक-अभिभावक के बीच की इस लड़ाई से
बच्चे इतने हतास हो जाते हैं कि तनाव में आकर उनकी उन गतिविधियों से भी विरक्ति
होने लगती है जिसमें उनकी रुचि होती है। परिणामस्वरूप बच्चों को पढ़ाई-लिखाई छोड़ते
देखे जा सकते हैं। हालांकि फेल नहीं करने की नीति (नो डिटेन्सन पॉलिसी) लागू होने
के बाद स्थिति में कुछ सुधार होने की उम्मीद जागी थी लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं पाया
है अबतक, जिसके आधार पर कहा जा सके कि बच्चे पढ़ाई के प्रति
रुचि लेने लगे हैं। अपने छात्र जीवन में यदि हम झाँकें तो गुरुजी की छड़ी जबरन हमें
शिक्षा में रुचि लेने के लिए मजबूर करती थी क्योंकि कोई विकल्प ही नहीं था पिटाई
से बचने के लिए पढ़ाई में रुचि लेने के अलावा। पिटाई से बचने के लिए ऊपरी मन से रट्टा
मार कर याद तो कर लिए लेकिन छात्र जीवन तक उसके संबंध में बुनियादी समझ नहीं बन
सकी। कमोबेश यही स्थिति आज के बच्चों के साथ भी है। फेल नहीं करने की नीति के कारण
हमारे स्कूल का वातावरण कुछ इस प्रकार बन गया है कि निर्भय बच्चे को गुरुजी के छड़ी
का कोई भय ही नहीं। ऐसे में शिक्षकों के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है कि छड़ी रूपी
हथियार का उपयोग किए बिना बच्चों को शिक्षा के प्रति रुचि कैसे पैदा करें? हालांकि यह थोड़ा कठिन है लेकिन असंभव नहीं। कुछ बातों को अपने व्यक्तित्व
का हिस्सा बनाकर वे बच्चों की शिक्षा को रुचिकर बनाकर बच्चों द्वारा स्कूल छोड़ने
की प्रवृत्ति पर काबू पा सकते हैं।
1)
स्कूल में भय-मुक्त वातावरण विकसित
करें -
बच्चों की शिक्षा के
प्रति रुचि तब तक जगाई नहीं जा सकती जब तक हम (शिक्षक) उनके वैचारिक स्तर तक जाकर
उनके साथ मित्रवत व्यवहार, उनकी भाषा में बात नहीं करते। अक्सर
हममें से अधिकांश किसी स्कूल (विशेषकर सरकारी स्कूल) के शिक्षक की नौकरी पा जाने
के बाद एक अदृश्यरूपी अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं। अधिकांश मामलों में हमें इस
संक्रमण का पता नहीं होता लेकिन वास्तव में हम इस अहंकार के साथ अपनी भूमिका, ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहे होते हैं। इस अहंकार का संबंध ज्ञान या बड़ी
डिग्री पाने से कम, हर महीने मिलने वाली मोटी तंख्वाह से
ज्यादा होता है। इस अहंकार में जीते हुए एक तो हमारी वाणी कठोर हो जाती है दूसरा यह
कि हम यह भूल जाते हैं कि बच्चों को हमारे इस उच्च डिग्रीधारी, ज्ञानी होने के अहंकार से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें सिर्फ इस बात
से मतलब होता है कि उसके प्रति आपका व्यवहार कैसा है? उनकी
बातों को आप कितना तवज्जो देते हैं? उनसे आप कितना घुल-मिलकर
रहते हैं? इस अहंकारपूर्ण व्यवहार का दुष्परिणाम यह होता है
कि बच्चे आपसे दूरी तो बना ही लेते ही हैं, साथ ही बातचीत
करने की कला जो वे परिवार, समाज में रहकर सीखते हुए स्कूल
में दाखिला लेते हैं, वह भी भय वाले वातावरण में रहकर कुंद
हो जाती है। इस भय के माहौल में वे उन बातों, विचारों को भूलने
लगते हैं जो उनके मन-मस्तिष्क में होती है। अतः शिक्षा बच्चों के लिए तभी रुचिकर
होगी जब आप उनकी अभिव्यक्ति को सम्मान देंगे जिन्हें वे बोलने के अतिरिक्त लिखने व
चित्रकला के माध्यम से व्यक्त करते हैं। कक्षाकक्ष में हम यदि कुछ प्रश्न उनसे
करें तो ये ध्यान रखें कि वे जो भी उत्तर दे रहे हैं उनको सम्मान दें, भले ही वे गलत ही उत्तर दें। गलत बोलने पर उनके साथ डांट-फटकार न करें। वह
हमारे-आपके अनुसार गलत हो सकता है लेकिन वह जो भी बोलते हैं अपने अनुभव के आधार पर
बोलते हैं। यदि उनका तर्क बिलकुल भी गलत हो तो भी यह कहकर हम उनका उत्साहवर्धन
करें कि, ‘आपने अच्छा प्रयास किया’। चिंता की कोई बात नहीं इस गलती को फिर कभी सुधारा जा सकता है। लेकिन इस
मौके से उसके अंदर आत्मविश्वास का संचार होगा। इस मित्रतापूर्ण व्यवहार से ही वे
आपसे घुल-मिल सकेंगे और आपकी बात को पूर्ण रुचि से सुनेंगे। साथ ही बच्चों के बीच कविताओं
को पूरे हाव भाव के साथ नृत्य या नाटकीय शैली में बच्चों के साथ यदि रखते हैं तो
यह बच्चों को आपसे जोड़ने का काम करेगी। और यह तब तक नहीं होगा जब तक आप अपने औरों
से ज्ञानी, श्रेष्ठ होने के अहंकार को खत्म नहीं करते।
2)
बॅकबेंचर्स को सम्मान दें
कक्षाकक्ष में बच्चे
स्वेच्छा से अपनी सीट पर बैठते नज़र आते हैं, कुछ शिक्षक के
बिलकुल नजदीक यानि आगे तो कुछ उनके पीछे मध्य भाग में। प्रत्येक कक्षा में कुछ ऐसे
बच्चों का समूह अवश्य होता है जो अक्सर इन दोनों से भी पीछे की सीट पर ही बैठना
पसंद करते हैं भले ही वे कक्षा में सबसे पहले क्यों न आए हों। इन बच्चों को हम बैक
बेंचर के नाम से जानते हैं। पिछली बेंच पर यह इसलिए बैठते हैं कि शिक्षक इन्हें
देख नहीं पाएँ या ये खुद शिक्षक से नज़रें चुरा सकें। स्कूल छोड़ने वालों में
सर्वाधिक संख्या इसी समूह की होती है। क्योंकि अक्सर शिक्षक इनके साथ भेदभावपूर्ण
व्यवहार दिखाते हैं। वे या तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं, मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें भरी कक्षा में अनावश्यक उपमा देकर उनको
अपमानित करते हैं, या फिर क्षमता संवर्धन के लिए उन्हें अलग
बैठा देते हैं ताकि उनके साथ अलग से काम कर सकें। उपरोक्त तरीके उन्हें शिक्षा, शिक्षक तथा स्कूल से दूर करने का काम करती है। खुद को अलग-थलग पाकर आत्मग्लानि
या अपमान से ग्रसित होकर वे अपने ही साथियों के साथ नज़र मिला नहीं पाते हैं। अतः
उनके साथ भी हमें समान रूप से पेश आने की, उनका आत्मविश्वास
बढ़ाने की जरूरत है जैसा तथाकथित तेज माने जाने वाले विद्यार्थियों के साथ हम
व्यवहार करते हैं। फर्ज़ करें कि आप किसी बैठक में हैं उस बातचीत के स्तर से आप खुद
को जोड़ नहीं पा रहे हैं ऐसे में बैठक आयोजित करने वाला सुविधादाता आपके इस क्षमता
का मज़ाक बना दें तो आप कैसा महसूस करेंगे? जैसा आप अनुभव
करेंगे, ये पिछली बेंच पर बैठने वाले बच्चे भी बिल्कुल वैसा
ही अनुभव करते हैं। सभी बच्चों को एक समान भाव से देखिये वे आपसे स्नेह रखते हुए
कक्षा में पढ़ाई करने में रुचि लेने लगेंगे।
3)
पढ़ाने की तकनीक में बदलाव करें
बच्चों को पढ़ाई की ओर
मोड़ने के लिए आपको हर विषय में पुरानी की जगह नई तकनीक प्रयुक्त करना चाहिए। भाषा
में पुरानी तकनीक को त्यागने व नई तकनीक को अपनाने का अर्थ है बच्चों को पढ़ाने की
शुरुआत संबंधित भाषा के वर्णमाला से नहीं बल्कि ध्वनि की समझ से हो। कहने का
तात्पर्य यह है कि पहली कक्षा में नामांकन होने पर पढ़ाई की शुरुआत यदि हम सीधे
बच्चों को वर्णमाला याद कराने व लिखाने से करने लगेंगे तो आगे चलकर उसके रट्टू
तोता बनने की पूरी संभावना रहेगी। जिसे संबंधित विषय के वर्णमाला का ज्ञान तो होगा
लेकिन समझ नहीं। इसलिए इसके स्थान पर यदि किसी भी भाषा के कविता या कहानी के
माध्यम से उनके बीच वाक्य पट्टी, शब्द पट्टी व ध्वनि पट्टी जैसे
टीएलएम (शिक्षण सहायक सामग्री) के माध्यम से उनकी मातृभाषा में बात किया जाए तो वे
पूरी समझ के साथ ध्वनि तथा लिपि या अक्षर, संकेत के बीच
समानता को अच्छी तरह समझ सकेंगे। इस पद्धति से काम करने पर पढ़ाई छूट जाने पर भी
उनके दिमाग से भूलने की संभावना बहुत कम होगी। हालांकि इस पद्धति की जगह यदि समग्र
भाषा पद्धति का उपयोग करें तो यह और भी प्रभावी होगा। उनके साथ ऐसे कविता-कहानियों
पर काम करें जो उनके परिवेश से सीधे जुड़ती हो। जिन पशु-पक्षियों, फल-फूल-सब्जियों से वे परिचित हों, जिन्हें वे पसंद
करते हों, उनपर चॉक, बोर्ड, चित्र का अधिकाधिक प्रयोग करते हुए बातचीत करें। उनसे टूटी फूटी ही सही
उस फल, फूल, सब्जी का चित्र बोर्ड पर
बनाने के लिए प्रेरित करें। बीच-बीच में कुछ नए शब्दों का भी समावेश करें। इससे न
केवल वे उस कविता-कहानी में रुचि लेंगे बल्कि नए-नए शब्दों को भी सीख सकेंगे। कक्षा
को प्रिंटरिच बनाएँ। प्रिंटरिच बनाने से तात्पर्य है कक्षा में उन पाठ्य सामग्री, चित्रों को लगाना जो पाठ्यक्रम तथा उनके परिवेश से जुड़ती हो, जैसे फल, फूल, सब्जी के चार्ट
आदि।
कुछ ऐसे ही गणित विषय में भी प्रयोग कर
सकते हैं – गणित में भी अंकों को सिखाने में हम रट्टामार तकनीक ही प्रयुक्त करते
हैं। एक से सौ तक हम गिनती तो सीखा देते हैं लेकिन उस समय हम उस संख्या का उतने
वस्तुओं से संबंध जोड़ना दिखा नहीं पाते हैं।
4)
स्कूल में घर जैसा माहौल
विकसित करें
घर के बाद स्कूल ही एक
ऐसा स्थान है जहां वे सबसे अधिक समय बिताते हैं। ऐसे में यदि स्कूल के माहौल को भी
यदि घर जैसा ही विकसित कर सकें तो स्कूल व बच्चे के बीच के संबंध मजबूत होंगे। घर जैसे
माहौल देने के लिए हम (शिक्षक) बच्चों के साथ ऐसे ही पेश आएँ जैसे उनके माता पिता
उनके साथ घुल मिलकर रहते हैं। स्कूल आने पर कक्षाकक्ष में किसी पाठ पर बातचीत करने
से पूर्व उनसे बातचीत करें कि घर से स्कूल आते समय रास्ते में उन्होंने गाँव के
किन-किन लोगों को देखा? उनके नाम,
उनसे रिश्ते के बारे में पूछें। घर में खाने में क्या-क्या बना था? आदि। बच्चों को खेलना सबसे प्रिय लगता है। घर में जैसे बेफिक्र होकर वे
खेलते हैं स्कूल में भी यदि ऐसी या इससे भी अच्छी व्यवस्था मिल जाए तो उन्हें
स्कूल से जुड़ते देर नहीं लगती। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि अलग-अलग तरह के खेल के
सामान वे न केवल बच्चों को उपलब्ध कराएं बल्कि रेफरी या सहयोगी की भूमिका में वे
खुद इसमें सहभागी रहें। कक्षा में जो भी कविता पर काम किए हों उसे कक्षाकक्ष से
बाहर के परिसर में पूरे हावभाव व गतिविधि से करवाएँ तो बच्चे आपसे सहृदय जुड़ेंगे
जैसे वे घर के सदस्यों से जुड़ते हैं।
5)
बच्चों की मातृभाषा को सम्मान
दें –
हम सभी इस तथ्य से
परिचित हैं कि बच्चे अपने घरेलू परिवेश में परिवार के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त किए
जाने वाले भाषा को अपने अभिव्यक्ति हेतु उपयोग में लाने लगते हैं, स्कूल जाने से पूर्व वे इस भाषा में परिपक्व हो चुके होते हैं। ऐसे में
जब वे स्कूल में शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली भाषा जो उनके लिए अज्ञात
होती है, से जब उनका सामना होता है तो स्कूल से या संबंधित
कक्षा के पाठ्यपुस्तक से उन्हें विरक्ति होने लगती है। ऐसे में शिक्षक को चाहिए कि
आरंभिक कक्षाओं विशेषकर पहली तथा दूसरी में वे उनकी मातृभाषा को बातचीत हेतु अधिक
से अधिक शामिल करें। पाठ्यपुस्तक के साथ-साथ स्थानीय भाषा के उन बालसाहित्यों का
प्रयोग करें जो उनके परिवेश के साथ जुड़ती हों। हालांकि इसके साथ-साथ शिक्षक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि अन्य द्वितीय भाषा के शब्दों का
भी कक्षा में अध्यापन के दौरान प्रयोग में लाते रहें ताकि वे अपनी मातृ भाषा के
साथ-साथ इन भाषा के शब्दों के साथ भी सामंजस्य बना सकें।
6)
प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग
लेते रहें –
अक्सर हम (शिक्षक) इस
भ्रम में जी रहे होते हैं कि मैंने एम.ए, बी. एड. और कई
डिग्रियाँ प्राप्त कर शिक्षक के पेशे में आया हूँ। छात्र जीवन में ही इतना पढ़ लिख
चुका हूँ, अब जरूरत ही नहीं कुछ और पढ़ने की। इसी पढ़ाई का
जीवनभर उपयोग करता रहूँगा। शिक्षक के इस तरह के दावे में कोई दो राय नहीं कि इतनी
बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ पाने के बाद वह प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्तर के पाठ्यपुस्तक
तो पढ़ा ही लेगा। लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि सरकारी शिक्षक के रूप
में सेवा देते हुए हमारे पास कई तरह की जिम्मेदारियाँ आ जाती है जैसे मध्यान भोजन, जनगणना, छात्रवृत्ति आदि। इन्हें चाहे-अनचाहे हमें
करना ही पड़ता है। परिणामस्वरूप छात्र-जीवन में अर्जित ज्ञान धीमे-धीमे धूमिल पड़ती
जाती है। इस धूमिल ज्ञान के साथ यदि हम बच्चों के बीच जाते हैं तो किसी मुद्दे पर
पूरे आत्मविश्वास के साथ बातचीत नहीं कर पाते हैं। अतः शिक्षकों को चाहिए कि थोड़ा
समय राज्य सरकार या अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन जैसे संस्थाओं द्वारा समय-समय पर
संचालित विषयवार प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सम्मिलित हों,
जहां अक्सर इस बात पर चर्चा होती रहती है कि किसी विषय के विषयवस्तु को बच्चों के
बीच कैसे ले जाएँ कि उन्हें वह विषयवस्तु
रुचिकर लगे।
बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए और भी
कई तरीके हैं लेकिन शिक्षक यदि उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए यदि बच्चों
के साथ कार्य करें तो बच्चे निश्चित रूप से शिक्षा ग्रहण करने में रुचि लेंगे। स्कूल
छोड़ने जैसी घटना पर विराम लगेगी।
साकेत
बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छ.ग.)
(शुरुआत : एक ज्योति शिक्षा की, संस्था एवं अल्हड़ चौपाल द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में इस आलेख को प्रथम स्थान से सम्मानित किया गया)