यायावरी साहित्यकार के नाम
से प्रसिद्ध महापंडित राहुल सांकृत्यायन की गणना ऐसे महान विद्वानों के साथ किया
जाता है जिन्होंने कहानीकार, संस्मरणकार, इतिहासकार के रूप में हिंदी भाषा साहित्य को समृद्ध करने का कार्य किया। साहित्य
की शायद ही कोई विधा उनसे अछूती रही हो। अपनी लेखनी से जहां इन्होंने हिंदी भाषा
साहित्य को समृद्ध किया वहीं यायावरी जीवन के माध्यम से बौद्ध साहित्यों के
संरक्षण के लिए इन्हें पूरी दुनिया सम्मानित नज़र से देखती है। इस योगदान के लिए प्रेमचंद
मई 1933 में उनकी प्रशंसा करते हुए में लिखते हैं, ‘राहुल जी कदाचित वह पहले बौद्ध सन्यासी हैं,
जिन्होंने तीन वर्ष तिब्बत में रहकर पालि का ज्ञान प्राप्त किया और वहाँ से बौद्ध
साहित्य की लगभग 10 हज़ार प्राचीन पुस्तकें लेकर भारत लौटे’।[1] ज्ञात हो कि बौद्ध धर्म पर शोध
के दौरान उन्होंने भारत, तिब्बत, नेपाल,
श्रीलंका, चीन, जापान,
ईरान, रूस, इंग्लैंड आदि
देशों की यात्रा किया, वहां के इतिहास,
भूगोल, संस्कृति को जाना समझा, वहाँ के
साहित्यों को भारत लाया, इसका अध्ययन किया एवं इसके संबंध
में अपने यात्रा वृतांत में लेखबद्ध किया। इन साहित्यों को भारत लाने के लिए
उन्होंने तिब्बत व अन्य देशों के उन दुर्गम स्थानों की भी यात्रा की जहां पैर रखने
का कोई भी साहस नहीं कर सका था, जहां जाने में लोग भय खाते
थे।[2] अलग-अलग देशों से लाए इन
साहित्यों को पटना संग्रहालय में देखा जा सकता है। 9 अप्रैल 1893
ई. को पंदहा गाँव आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्मे राहुल सांकृत्यायन जी को बचपन में
केदारनाथ पांडे के नाम से जाना जाता था। यायावर जीवन जीते हुए 1930 में श्रीलंका
यात्रा के दौरान उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। तब उनका नाम 'राहुल' हो गया। साथ ही संकृति गोत्र से संबंधित होने
के कारण अपने नाम के अंत में 'सांकृत्यायन’ उपनाम लगाते थे। इससे पूर्व कुछ दिनों तक बाबा रामउदार के नाम से परसा (बिहार)
स्थित एक मठ के उत्तराधिकारी के रूप में भी कार्य किया। अपने 70 वर्षों के जीवन
में उन्होंने 140 प्रकाशित रचनाओं से हिंदी साहित्य को एक विशिष्ट मुकाम दिया।
इसके उप्लक्ष्य में 1958 ई. में उन्हें साहित्य जगत के शिखर पुरस्कार ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से एवं 1963 ई. में भारत
सरकार द्वारा प्रतिष्ठित ‘पद्म भूषण’
पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राहुल
सांकृत्यायन की गिनती साहित्यकार, इतिहासकार के साथ-साथ अपने
समय के एक प्रसिद्ध तर्कशास्त्री के रूप में की जाती है। अपने वैज्ञानिक चिंतन एवं
तार्किक कौशल का उपयोग करते हुए उन्होंने समाज से अंधविश्वास उन्मूलन के लिए
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दिया। 1914- 15 ई. के दौरान वे आर्य समाज के
संपर्क में रहे जिसके पश्चात समाज में प्रचलित धर्म संबंधी मिथ्या धारणाओं के खंडन
करने की प्रवृति उनमें जागृत हुई। वे ईसाई, इस्लाम, यहूदी, बौद्ध के साथ-साथ हिंदू धर्म के अनेक संप्रदायों
को झूठा धर्म, वेद एवं विज्ञान के प्रकाश में शीघ्र ही लुप्त
हो जाने वाला धर्म समझते थे। वे उपयुक्त तर्क एवं दलील द्वारा प्रतिद्वंदी को अपने
रास्ते पर लाने के पक्षपाती थे।[3] अपने कालपी प्रवास के दौरान
राहुल सांकृत्यायन द्वारा एक आर्यसमाजी विचारक के रूप में ईसाई पादरियों, एवं सनातन धर्म के विद्वानों से शास्त्रार्थ में भाग लिए जाने का उल्लेख जगदीश
प्रसाद बरनवाल राहुल सांकृत्यायन पर लिखे जीवनी में करते हैं।
एक आर्यसमाजी
के रूप में राहुल सांकृत्यायन ने हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म को भी काफी गहराई
के साथ समझा। बौद्ध धर्म के संपर्क में वे पहली बार तब आए जब उनके राजनीतिक जीवन
की शुरुआत हुई। 29 अक्टूबर 1922 को छपरा जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री चुने जाने
के पश्चात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की गया में हुई बैठक में 16 दिसंबर 1922 को
शामिल होते हुए यह प्रस्ताव रखा थी बोधगया का महाबोधि मंदिर बौद्धों का है उन्हें
वापस मिलना चाहिए। इस घटना के पश्चात उनके मन में बौद्ध धर्म के प्रति एक
सहानुभूति पैदा हुई। इसके कुछ दिन पश्चात ही जनवरी 1923 ई. में जिला कांग्रेस
कमेटी के मंत्री पद से इस्तीफा देने के पश्चात नेपाल की यात्रा पर वे निकल गए। इस
यात्रा के दौरान वे वहां के अनेक बौद्ध स्थल, बौद्ध धर्म
गुरु के संपर्क में आए। यात्रा से वापस आने के पश्चात पुनः वे राजनीतिक जीवन में सक्रिय
हुए। इसी क्रम में 1925 ई. में उनका परिचय बौद्ध भिक्षु भदंत आनंद कौशल्यायन से
हुआ।
बौद्ध
धर्म संबंधित अध्ययन के उद्देश्य से तिब्बत
यात्रा के दौरान न केवल वहां के बौद्ध सांस्कृतिक-एतिहासिक विरासतों को काफी गहराई
से समझने का प्रयास किया बल्कि वहाँ बौद्ध धर्म में व्याप्त झूठी धारणाओं, मान्यताओं जो तार्किकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, पर भी प्रहार किया। 5 अगस्त 1934 को तिब्बत यात्रा के दौरान लिखे एक पत्र
में उन्होंने तिब्बत के साथ-साथ अपने देश भारत में भी बौद्ध धर्म में मौजूद झूठे
मान्यताओं पर कटाक्ष किया है। अपने यात्रा वृतांत को इस पत्र में लिखते हुए वे
कहते हैं 'सभी धर्म स्थान झूठ के अड्डे हैं। शायद उतनी
झूठी कथाएं और जगह नहीं मिलेंगे, जितनी धर्म के दरबार में।
धर्म वस्तुतः झूठ की आयु को लंबा करने में बड़ा सहायक होता है'। तिब्बत के एक स्थान (रे- दिङ लामा से संबंधित)
का उल्लेख करते हुए राहुल सांकृत्यायन वहां प्रचलित एक दंतकथा का उल्लेख करते हैं।
वह कहते हैं कि ‘रे- दिङ लामा (जिनकी आयु उस दौरान 22
वर्ष की थी) के पैर का एक काले पत्थर पर निशान कांच के भीतर रखा हुआ है। श्रद्धालु
भक्तों से कहा जाता है कि बचपन में लामा रिंपो छे ने पैर को महज स्वभाव से पत्थर
पर रख दिया था और उस पर यह निशान उतर आया। यदि समंतकूट और नर्मदा नदी की पहाड़ी पर
बुद्ध के बड़े-बड़े पद चिन्ह उतर सकते हैं, तो यहां एक
अवतारी लामा के छोटे से पद चिन्ह के उतरने में कौन सी असंभव बात हो सकती है’?[4]
राहुल
सांकृत्यायन 25 नवंबर 1904 को अपने लिखे एक अन्य पत्र में तिब्बती लामा (ग्य-गर
लामा) द्वारा उनके मेजबान रहे एक स्थानीय बूढ़े-बूढ़ी की कांच की मालाओं में जप को
और पुण्यदायी बनाने के उद्देश्य से फूँक मारने के प्रकरण पर सवाल उठाते हैं।[5]
[1]
बरनवाल
जगदीश प्रसाद (2019) राहुल सांकृत्यायन जिन्हें सीमाएं नहीं रोक सकी, लोकभारती
प्रकाशन, प्रयागराज, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 9
[2]
वही, पृष्ठ सं. 9
[3]
बरनवाल
जगदीश प्रसाद (2019) राहुल सांकृत्यायन जिन्हें सीमाएं नहीं रोक सकी, लोकभारती
प्रकाशन, प्रयागराज, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 16
[4] सांकृत्यायन
पंडित राहुल (2022) मेरी तिब्बत यात्रा, लोक भारती
प्रकाशन (चतुर्थ संस्करण) नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 23
[5] सांकृत्यायन
पंडित राहुल (2022) मेरी तिब्बत यात्रा, लोक भारती प्रकाशन
(चतुर्थ संस्करण) नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 39