अपने विचारों को लाखों करोड़ों लोगों तक पहुंचने के लिए वर्तमान समय में सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। फेसबुक व्हाट्सएप ट्विटर (वर्तमान X) पर अपने फॉलोवर बढ़ाओ, अपने विचार प्रेषित करो और लाखों करोड़ों लोगों तक इसे फैला दो। वरदान के साथ-साथ यह प्रगति अभिशाप भी है। पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश की एक अग्रणी फ़िल्म इंडस्ट्री ‘बॉलीवुड’ के बहिष्कार करने का ट्रेंड बनाया जा रहा है। प्रसिद्ध एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद कंगना रनौत से लेकर अलग-अलग लोगों के द्वारा ‘नेपोटिज़्म’ पर विमर्श करने के पश्चात् ‘बॉयकॉट बॉलीवुड’ का ट्रेंड कुछ ज्यादा ही विस्तृत हो गया है। नेपोटिज़्म की आड़ में रणबीर कपूर, हृतिक रोशन, आलिया भट्ट, और स्टारकिड होने के नाते इन्हें लगातार अपनी फिल्मों में मौके देने वाले करण जौहर से लेकर उन सभी स्टार किड्स वो भी घसीटा गया जिन्होंने अपनी अभिनय दक्षता से लोगों के दिलो-दिमाग में एक अमिट छाप छोड़ते हुए फिल्मी दुनिया में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया।
इनके
साथ-साथ इन बायकॉट गैंग के शिकार बने पिछले तीन दशक से बॉलीवुड के साथ-साथ हिंदी
फ़िल्म को देश-विदेश तक पहचान दिलाने में एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाले खान तिकड़ी
(शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान)। आमिर खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा की रिलीज के
दौरान बायकॉट बॉलीवुड गैंग कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखे। आमिर खान की यह फ़िल्म एक
हॉलीवुड फ़िल्म की रीमेक थी, जिसे दर्शक ओटीटी प्लैटफॉर्म पर
पहले ही देख चूके थे। जिससे कि दर्शकों को थिएटर की ओर खींचने में यह फ़िल्म सफल
नहीं रही। हालांकि यह झूठ फैलाने में बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग जरूर सफल रहे कि हमारे
प्रयास से आमिर खान की फ़िल्म फ्लॉप हो गयी। झूठ इस सेंस में कहा जा सकता है कि इसी
गैंग ने कंगना रनौत की धाकड, तेजस से लेकर इमर्जेन्सी फिल्मों के लिए खूब फील्डिंग
की, लेकिन ये सभी फ़िल्में दर्शक मिलने के लिए तरसती रही। इससे यह साबित हो गया कि किसी
फ़िल्म के चलने या ना चलने का बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग से किसी प्रकार का लेना देना
नहीं है। दर्शकों को जिस फ़िल्म में मनोरंजन मिलेगा, कहानी से लेकर अभिनय अच्छी
मिलेंगी उसे वे देखने जाएंगे ही। आप कितना भी बायकॉट बायकॉट चिल्ला लीजिए। शाहरुख
खान की फ़िल्म पठान और जवान ने इसे साबित कर दिखाया।
मजेदार
बात यह है कि कंगना रनौत, विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर आदि की फ़िल्में बॉलीवुड की
धरती पर ही निर्मित होती हैं। लेकिन इस दौरान यह गैंग चूहे के बिल में घुसे नजर
आएँगे। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि इनकी नजर बॉलीवुड में अपनी योग्यता से पैर
जमाए मुस्लिम अभिनेताओं के फिल्मों के बॉयकॉट करने पर केवल होती है। चाहे वो समाज को
एक अच्छा संदेश देने वाला ही क्यों न हो? इन्हें सांप सूंघ जाता है जब 'ओ माई गॉड' फ़िल्म की बात आती है। क्योंकि उसमें इनकी
सोच को ओछी साबित करने वाला नायक (परेश रावल) इनके धर्म से संबंधित है। P K
फ़िल्म का नायक मुस्लिम है इसलिए उसपर ही हमला करना है।
अलग
अलग नाम से प्रोफाइल बनाते हुए बॉयकॉट बॉलीवुड का ट्रेंड चलाने वाले लोगो के फेसबुक
वॉल पर पी के फ़िल्म का वह सीन अक्सर देख जाता है जिसमे पी के शिव का वेश धरे एक थियेटरकर्मी
को परेशान कर रहे होते हैं। वे इसे हिंदू आस्था पर हमला कहते हुए आमिर खान को
गन्दी गन्दी गालियाँ दे रहे होते हैं। आखिर इसमें आमिर खान का क्या कसूर? आमिर खान
तो केवल उस स्क्रिप्ट को अभिनय के माध्यम से प्रदर्शित या जीवंत कर रहे होते हैं, जिसे
फ़िल्म के लेखक एवं डायरेक्टर ने जीवंत करने की जिम्मेदारी दी है। हैरत की बात यह
है कि ऐसा अभिनय करने के लिए आमिर खान को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है लेकिन
पीके फ़िल्म की कहानी लिखने वाले लेखक राजकुमार हीरानी या अभिजीत जोशी को कुछ नहीं
बोलते। क्योंकि लेखक हिंदू धर्म से संबंधित है। इन ‘बायकॉट बॉलीवुड गैंग’ वालों को
यह लगता है कि बॉलीवुड अब हिंदू धर्म की महत्ता को दिखानेवाले फ़िल्में नहीं बनाते
हैं बल्कि उनका अपमान करने से संबंधित फिल्मों को बनाने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। ‘बायकॉट
बॉलीवुड गैंग’ इस बात को भूल जाते हैं, या शायद उन्हें यह जानकारी ही नहीं हो कि बॉलीवुड
का ये बायकॉट करते हैं उसी बॉलीवुड ने शुरुआत से लेकर आज तक हजारों की संख्या में भगवान
की भक्ति की चाशनी में डुबाने वाले फिल्में भी दी है। जय संतोषी माँ फ़िल्म के बाद
एक काल्पनिक देवी के आपको देशभर में लाखों मंदिर देखने को मिल जाएंगे। जय माँ
वैष्णो देवी फ़िल्म आने के बाद वैष्णो देवी यात्रियों की संख्या में अप्रत्याशित
वृद्धि हुई।
इन्हें
इस बात का ज्ञान नहीं है कि समय के साथ फ़िल्म
बनाने के ट्रेंड्स परिवर्तित होते रहे हैं, दर्शकों
द्वारा कभी भक्ति फ़िल्में पसंद की जाती थी, उस समय की फ़िल्में ऐसी बनी। फिर पारिवारिक
प्रेम केंद्रित फ़िल्में बनीं, इसी तरह प्रेम कहानी में सुखद अंत वाली फ़िल्में आईं,
डाकुओं पर केंद्रित फ़िल्में आई। और भी अनगिनत ट्रेंड देखने को मिलते हैं। कहने का
तात्पर्य यह है कि जब तक लोगों के दिलोदिमाग पर अंधविश्वास हावी था तब तक
अंधविश्वास में डुबाने वाली फिल्में बनी। जब आम लोगों के साथ-साथ फिल्मों की पटकथा
लिखने वाले लेखक तार्किक सोच वाले बने तब
से फ़िल्म बनाने के ट्रेंड में बदलाव आया। हॉलीवुड फ़िल्मों के साइंस फ्रिक्शन फिल्मों
में रुचि लेने वाले लोगों को यदि बॉलीवुड फ़िल्म देखने की और लुभाना है, तो उसे कुछ
ना कुछ यह बहुत कुछ साइंस फ्रिक्शन या तार्किक चीजों को अपनी फ़िल्म में स्थान देना
पड़ेगा।
Pk फ़िल्म को ही देखें तो बहुत ही तार्किक बातों पर आधारित यह फ़िल्म थी। लेकिन
बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग को यह फूटी आंख नहीं सुहाती, उन्हें तो वही अंधविश्वास में डूबी,
अंधविश्वास परोसती फ़िल्में ही पसंद आती है। केवल अंधविश्वासियों, और जिनकी दुकान अंधविश्वास के भरोसे चलती है उसी को बॉलीवुड के इस trend
से मिर्ची लगती है।