Tuesday, 26 January 2016

बिहार के सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत महिला आरक्षण एक प्रशंसनीय कदम

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात संविधान द्वारा भारत के समस्त वर्ग सहित स्त्रियों को भी मौलिक अधिकार के अंतर्गत समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, सांस्कृतिक एवं शिक्षा के अधिकार मिले जिससे वी सदियों से वंचित थी । समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14-18) के तहत सभी नागरिकों सहित स्त्रियों को राज्य की तरफ से अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के समक्ष समानता मिली, अनुच्छेद 15 जो कि सामाजिक समानता की बात करता है, द्वारा उन्हें राज्य में जाति, लिंग के भेदभाव से मुक्ति मिली । अनुच्छेद 16 द्वारा राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के संबंध में समानता मिली । अनुच्छेद 17 के तहत छुवाछुत या अस्पृश्यता को समाप्त कर इन्हें व्यवहार में लाना अपराध घोषित किया गया । स्वतन्त्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19-22) के तहत राज्य द्वारा समस्त नागरिकों सहित स्त्रियों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभा करने की स्वतन्त्रता, संघ बनाने की स्वतन्त्रता, भ्रमण की स्वतन्त्रता, आवास की स्वतन्त्रता, पेशा, व्यापार एवं व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है । शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) के अंतर्गत न केवल मनुष्यों या स्त्रियों का वस्तुओं की भांति क्रय-विक्रय बल्कि स्त्रियों व बच्चों के अनैतिक व्यापार को भी निषिद्ध किया गया है ।[1]  इस प्रकार भारतीय संविधान द्वारा हजारों वर्षों से राजतंत्रात्मक शासन पद्धति में उपेक्षित एवं शोषित स्त्री वर्ग को अनेक अधिकार प्राप्त हुए जो उनकी दशा एवं दिशा बदल सकते थे । लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के डेढ़ दसक बीत जाने के बाद मौलिक अधिकारों को दिये जाने के बाद भी भारतीय स्त्रियों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया । 60 के दसक में भी रोजगार, शिक्षा, न्याय तथा राजनीतिक क्षेत्र तक स्त्रियों की पहुँच आदि क्षेत्रों में बहुत कम रही । समानता के अधिकार के बावजूद राज्य में लिंग भेद की प्रथा विद्यमान थी । बालिका भ्रूण हत्या का प्रचलन ज़ोरों पर था । स्त्रियाँ अब भी चहरदिवारी में कैद थी । सरकारी नौकरियों में भी नाम मात्र की भागीदारी थी ।
          अतः भारतीय समाज में महिला की स्थिति के अध्ययन के लिए 1972 ई. में एक राष्ट्रीय समिति का गठन हुआ जिसने 1974 ई. में अपनी रिपोर्ट सी.एस.डब्लू. आई. 1974(द रिपोर्ट ऑफ द कमेटी ऑन द स्टेटस ऑफ वुमेन इन इंडिया) प्रस्तुत की जो कि स्वतंत्र भारत का स्त्रियों की दशा से संबन्धित 473 पन्नों का 9 अध्यायों में बंटा पहला दस्तावेज़ था जिसे टूवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है । इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, राजनीतिक भागीदारी आदि सभी क्षेत्रों में स्त्रियों की दुर्दशा के चौंकानेवाले तथ्य सामने आए ।[2] इसके पश्चात स्त्रियों के गिरते सामाजिक स्तर के प्रति चिंता जागी, फलतः एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय, मुंबई ने 1974 में महिला की असमान सामाजिक स्थिति पर शोध के उद्देश्य से महिला अध्ययन केंद्र का गठन किया । इसके साथ ही स्त्रियों को अपने अधिकारों का ज्ञान कराने के उद्देश्य से हमारे देश में स्त्री अध्ययन पाठ्यक्रम की शुरुवात हुई । इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि आज बिना आरक्षण के ही बोर्ड या इंटरमिडिएट सहित समस्त प्रतियोगी परीक्षाओं में लड़कों के मुक़ाबले न केवल अधिक संख्या में सफल हो रही हैं बल्कि सरकारी सेवाओं में भी अच्छी संख्या में नियुक्त हो रही हैं । यही कारण है कि देशभर के छोटे बड़े शहरों में महिला डॉक्टर, वकील, पुलिस, के साथ साथ कार व स्कूटर चलती स्त्रियाँ आज के आम दृश्य हो गए हैं ।
          विधानसभा चुनाव के पूर्व 29 अगस्त 2015 को पटना में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सत्ता में आने से पूर्व अपने आगामी पाँच वर्षीय विजन डोक्यूमेंट का उल्लेख करते हुए वादा किया था कि अगली बार सत्ता में आए तो राज्य के सरकारी नौकरियों में स्त्रियों को 35 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा ।[3] ऐसे में पुनः सत्ता में आने के बाद नितीश कुमार द्वारा बिहार के सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान स्त्रियों को न केवल सामाजिक व आर्थिक रूप से स्त्रियों को सशक्त करेगा बल्कि निजी क्षेत्रों सहित सार्वजनिक क्षेत्रों में इनकी पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी । विशेषकर खेतिहर मजदूर, बीड़ी, हथकरघा उद्योग जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम करनेवाले स्त्रियों के लिए यह नीति वरदान साबित होगी । आज आवश्यकता है पूरे देश मैं ऐसी नीतियाँ लाने व लागू करने की । जब बिहार जैसा विकास के पथ पर अग्रसर, कम विकसित राज्य अपने राजकीय सेवाओं की सुदृढ़ता के लिए स्थानीय निकाय में 50 प्रतिशत पुलिस और कांस्टेबल भर्ती में 35 प्रतिशत तथा सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत आरक्षण दे सकता है तो अन्य राज्यों को भी इस संबंध में सोचना चाहिए । हालांकि इसके पूर्व अक्तूबर 2015 में ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान[4] ने तथा अक्तूबर 2014 में गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन राज्य के सरकारी सेवाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया था ।[5] ऐसी स्थिति में जब केंद्र सरकार महिला आरक्षण बिल 18 वर्ष बाद भी, लोक सभा तथा विधानसभा में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के बिल को 2010 में ही राज्यसभा से पास कराने के बावजूद भी पास नहीं करवा पा रही है, नितीश कुमार, आनंदी बेन तथा शिवराज सिंह चौहान द्वारा स्त्रियों को विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी की वृद्धि के लिए इस नीति को लागू किए जाने का कदम स्वागत योग्य है । ऐसे नीतियों से न केवल हमारे समाज से लैंगिक भेदभाव खत्म होगा बल्कि बेटी को भार समझकर कन्या भ्रूण हत्या पर भी लगाम लगाया जा सकेगा । आज बिहार राज्य के सरकारी सेवा में स्त्रियों की भागीदारी लगभग 10 प्रतिशत है ।[6] जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह भागीदारी 25.51 प्रतिशत है ।[7] उम्मीद है आनेवाले दिनों में यह राष्ट्रीय स्तर को पार कर 50 प्रतिशत हो जाएगा ।

(Women Express के 27/01/2016 के संपादकीय में प्रकाशित)










[1] त्रिवेदी, आर एन, राय एम पी, “भारतीय संविधान” कॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 2009 
[2] Sharma Kumud, Sujaya C.P,Towards Equality : Report of the Committee on the   Status of Women in India, Pearson Publication, Delhi, 1974
[3] http://www.freepressjournal.in/bihar-cm-promises-35-reservation-in-govt-jobs-for-women/655385
[4] http://www.ndtv.com/india-news/33-per-cent-quota-for-women-in-government-jobs-in-madhya-pradesh-1237476
[5] http://www.ahmedabadmirror.com/ahmedabad/civic/33-reservation-for-women-in-all-state-government-jobs/articleshow/44807085.cms
[6]http://in.reuters.com/article/india-women-employment-bihar-idINKCN0UY25D
[7] http://labour.nic.in/content/division/women-labour.php