पिछले वर्ष सितंबर 2015 में सीरिया के समुद्री तट पर रेत में दबे एक 3 वर्षीय
मृत किशोर एलेन की फोटो ट्विटर सहित समस्त सोसल मीडिया के एप्स पर वाइरल हुई थी । यह
बच्चा उन 23 लोगों में से एक सदस्य था जो सीरिया के तनावपूर्ण स्थिति से त्रस्त
होकर समुद्र मार्ग से ग्रीस पहुँचने की कोशिश कर रहे थे । लेकिन रास्ते में नाव
पलट जाने से 23 में से 12 लोगों की मृत्यु हो गयी ।[1] इसे देखकर भारत सहित पूरी
दुनिया स्तब्ध रह गयी तथा इसके लिए ISIS की काफी आलोचना हुई थी । इसके एक वर्ष बाद आज हमारे देश की एक घटना पूरे
देश-विदेश की जुबान पर है । उड़ीसा का बहुत ही पिछड़ा जिला कालाहांडी जिले का एक
गरीब आदिवासी दाना मांझी, टीबी बीमारी से मृत अपनी पत्नी के
शव को अस्पताल से 60 किलोमीटर दूर स्थित अपने घर कांधे पर ले जाने को मजबूर है
क्योंकि उसके पास एंबुलेंस या गाड़ी से शव को ले जाने के पैसे नहीं थे । अस्पताल ने
कथित तौर पर एंबुलेंस मुहैया कराने से मना कर दिया था । हालांकि 10 किलोमीटर बाद
ही एक स्थानीय पत्रकार अजीत सिंह व नागरिकों के सहयोग से जिलाधिकारी ने एंबुलेंस
की व्यवस्था करवा दी । जिससे आगे के 50 किलोमीटर का सफर एंबुलेंस से तय किया गया ।
इसके अगले ही दिन एक और घटना उड़ीसा के ही बालासोर जिले में देखने को मिली, जो मालगाड़ी की टक्कर से मृत 76 वर्षीय वृद्ध विधवा सलमानी बेहरा की थी । उसके
शव को सोरो स्थित स्थानीय हैल्थ सेंटर से 30 किलोमीटर दूर स्थित जिला अस्पताल
बालासोर पोस्टमार्टम हेतु ले जाना था लेकिन उसे ले जाने के लिए रेलवे पुलिस को निर्धारित
किराया 1000 रुपए में एंबुलेंस या कोई गाड़ी नहीं मिल रही थी । रेलवे पुलिस के
अनुसार ऑटोवाले 3000 रुपए किराया मांग रहे थे । अंततः रेलवे पुलिस मजदूरों को कुछ
पैसे देकर रेल से ही शव को जिला अस्पताल भेजने के लिए तैयार किया । अस्पताल
कर्मचारियों की उदासीनता से एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण मृत शरीर ने
अकड़ना शुरू कर दिया था । ढोने में होनेवाली असुविधा के कारण मजदूरों ने सोरो
स्टेशन तक लाने के लिए अकड़ी शव को इतनी बेरहमी से अपने पैर से कूल्हे की हड्डी के
पास से ऐसे तोड़ दिया, जैसे हाथ और पैर की सहायता से हम किसी
लकड़ी को तोड़ते हैं । तत्पश्चात उसका गट्ठर बनाकर उस शव को पोस्टमार्टम हेतु ले जाया
गया ।
उपरोक्त घटनाएँ साबित करती हैं कि आज भले ही हम शिक्षित, सुसंस्कृत होकर डिजिटल युग की ओर कदम बढ़ाते
जा रहे हैं लेकिन इसके साथ ही हमारे अंदर इंसानियत की भावना खत्म होती जा रही है ।
क्योंकि आज की शिक्षा व्यवस्था हमें फैक्ट्री मजदूर बना रहा है, इंसान नहीं जो किसी के दुख, दर्द को समझ सकें । किसी
के कूल्हे हो पैरों से तोड़ने के कल्पना कर ही हमारे शरीर में सिहरन होने लगती है
फिर आखिर कैसे आखिर एक मजदूर ने ... । उस मजदूर, पास खड़े
रेलवे पुलिस में क्या जरा भी इंसानियत नहीं थी । अक्सर इंसानियत को शर्मशार करने वाली
घटनाओं का ठीकरा हम सामंती विचारधारा वाले अमीरों,
पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों के सिर पर फोड़ देते हैं
लेकिन उपरोक्त घटनाएँ यह साबित करती है कि गरीब, मध्यम व निचले
स्तर पर काम करनेवाले अधिकारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । दोनों (कालाहांडी व
बालासोर) घटनाओं में विलन के रूप में मरीजों को जीवन देने वाला “एंबुलेंस” कटघरे
में खड़ा है । दाना मांझी को भी शव ले जाने के लिए “एंबुलेंस” नहीं मिल पाता है । सलमानी
बेहरा के शव को भी ले जाने के लिए “एंबुलेंस” नहीं मिल पाता है । ऐसे में इस
अमानवीय घटना के लिए किसे दोष दिया जाय ? राज्य सरकार को ! रेल
पुलिस या अस्पताल प्रशासन को ! एंबुलेंस के चालक को ! या दाना मांझी, सलमानी बेहरा के आदिवासी बैक्ग्राउण्ड को । राज्य सरकार के अनुसार 2013
से ही राज्य में मृतक के अंतिम संस्कार हेतु हरिश्चंद्र योजना जारी है । इसके
बावजूद दोनों ही घटनाओं में इसका फायदा नागरिकों को मिलता दिख नहीं रहा है । सरकार
फरवरी 2016 से ही महाप्रयाण योजना की शुरुआत करने की घोषणा कर चुकी थी लेकिन इस
घटना के दिन तक यह लागू नहीं किया जा सका था । हालांकि आलोचना से बचने के लिए इसके
अगले ही दिन उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ने सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक शव
पहुंचाने के लिए निःशुल्क परिवहन सुविधा उपलब्ध कराने के लिए महाप्रयाण योजना हेतु
40 शव वाहन का लोकार्पण कर दिया । यह बात काफी हास्यास्पद लगती है कि पॉकेटमारों व
अन्य अपराधियों की नकेल कसते हुए, रेल यात्रियों की सुरक्षा
करने के साथ-साथ रेलवे के सामान्य डब्बों में बाहर से कमाकर आ रहे गरीब मजदूरों के
बैग टटोलने, डरा धमकाकर पैसे ऐंठनेवाले, छोटे-छोटे सब्जी या फल
व्यापारियों, वेंडरों से हफ्ता वसूल करनेवाले रेलवे
पुलिस को 1000 रुपए में भी कोई एंबुलेंस या औटोवाला नहीं मिला । हफ्ता वसूली में
जो आँखें वेंडरों को दिखाते हैं वैसे ही किसी एंबुलेंस कर्मचारी या औटोवाले को
दिखा देते तो 30 किलोमीटर दूर बालासोर जिला अस्पताल तक जाने के लिए 10 लोग तैयार
हो जाते । लेकिन किराए भत्ते के रूप में मिलनेवाले 1000 में से आधे बचना था ।
इसलिए 200 या 250 के रेट से 2 मजदूर कर लिए बाकी 500-600 रुपए अपने खाते में डाल लिए
। सरकारी अस्पताल कर्मियों की भ्रष्ट गतिविधियों से पूरा देश परिचित है । लेखक के
व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार यदि आप अच्छे व महंगे वस्त्र पहने, गोरे-सुंदर व शहरी दिखने वाले हैं तो अस्पतालकर्मी से अच्छे व्यवहार की
उम्मीद कर सकते हैं अन्यथा यदि आप गंदे, मैले-कुचैले कपड़े
पहने गरीब ग्रामीण दिखते हैं तो अच्छे व्यवहार व किसी प्रकार के सुविधा की उम्मीद
ही नहीं कीजिये । ऐसे में एक गरीब आदिवासी दाना मांझी के साथ कैसा व्यवहार हुआ
होगा, समझा जा सकता है । ऐसा नहीं है कि कालाहांडी के जिस
अस्पताल में दाना मांझी की पत्नी का इलाज़ हुआ वो एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं कर
सकता था वास्तविकता ये है कि उनके पास सैकड़ों निजी एंबुलेंस वालों से जान पहचान होंगे
लेकिन एक गरीब आदिवासी के लिए कौन ये सिरदर्द उठाए । लाश ले जाने से मना करनेवाले एंबुलेंस
या ऑटो चालक की भी उतनी ही गलती है जितनी राज्य सरकार,
अस्पताल कर्मी व रेलवे पुलिस की । लेकिन
इसके लिए भी जिम्मेदार हम खुद व हमारी सभ्यता संस्कृति है । हमारा समाजीकरण ही ऐसे
किया जाता है कि बचपन से ही हमें गलत शिक्षा दी जाती हैं ये अस्पृश्य हैं, ये पाप है, ये घृणात्मक हैं । इसे करने से बचना
चाहिए । इन्हें छूने से अपवित्र हो जाता है । स्नान करने या संबन्धित वस्तु को
धोने के बाद ही शुद्ध हो पाता है । और भी न जाने क्या क्या ?
इन अमानवीय घटनाओं के लिए सर्वप्रमुख रूप से जिम्मेदार है हजारों वर्षों से चले आ
रही हमारी अपरिवर्तनीय संस्कृति, जिसमें जिंदा इंसान को “इंसान”
समझा जाता है और मरे हुए इंसान को एक अपवित्र “मुर्दा” । राह चलते यदि कोई
शव-यात्रा दिख जाय तो उसे पवित्र मानकर हम दूर से ही सही लेकिन हाथ को माथे व सीने
से लगाकर यह सोचकर प्रणाम कर लेते हैं कि चलो आज का दिन शुभ होगा (जैसे कहीं
यात्रा पर जाने से पहले मछ्ली देखना शुभ होता है) । लेकिन किसी शवयात्रा में शामिल
होना पड़े तो यह कहकर नाक-भों सिकोड़ लेते हैं कि “यदि शामिल हुए तो अपवित्र हो
जाएंगे, स्नान करना पड़ेगा, बाल भी
मुंडवाना पड़ेगा” । एंबुलेंस के चालक को बीमार मरीज को लाने-ले-जाने में कोई कठिनाई
नहीं होती कौन नहीं चाहता है अपनी आमदनी करना । लेकिन “लाश” का नाम सुनते ही उनके
साथ साथ अन्य लोगों में भी अपवित्रता व घृणा की भावना कर जाती है । उदाहरण के लिए
हाल ही के मध्यप्रदेश के दमोह घटना को देखा जा सकता है जिसमें एक बस में एक
व्यक्ति अपनी बीमार पत्नी व 5 दिन की बेटी के साथ अस्पताल जा रहा था लेकिन बस में
ही उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाती है । मृत्यु की बात सुनकर बस वाले ने उस व्यक्ति
को बीच जंगल में ही पत्नी के शव व 5 दिन की बच्ची के साथ उतार दिया । हालांकि बाद
में दो वकीलों ने प्राइवेट एंबुलेंस बुलाकर शव को मृतक के घर भेजा । इस संदर्भ में
जब बस कंडक्टर से बातचीत किया गया तो उसने बताया कि अन्य यात्रियों को शव के साथ
सफर करने में दिक्कत पेश आ रही थी ।[2] इसलिए यात्रियों की जिद पर
उनलोगों को बस से उतारा । बस यात्रियों की नज़र में एक “लाश” कितनी अपवित्र चीज है, इस घटना से समझा जा सकता है । इसी अपवित्रता के मिथक का ही परिणाम है कि
कोई भी एंबुलेंस, औटोवाला या अन्य गाड़ी वाला लाश को अपने
वाहनों में ढोना नहीं चाहते । परिणामस्वरूप ऐसे अमानवीय कृत्य जगह-जगह दृष्टिगत
होते रहते हैं केवल इस घटना की तरह वे मीडिया में नहीं आ पाते हैं । ऐसे इंसानियत
को शर्मशार करनेवाले कृत्यों को रोकने के लिए जरूरत है शव को अपवित्र मानने की
परंपरा को खत्म करने की ।
(दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस के 31/08/2016 के संपादकीय में प्रकाशित)