बचपन से ही हमें पढ़ाया जाता रहा है कि स्त्री और पुरुष हमारे समाज रुपी गाड़ी
के दो पहिये हैं । एक भी पहिया कमजोर हुआ तो समाज व्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता ।
यदि हम दोनों पहिये के वास्तविक जीवन में झांक कर देखें तो वास्तविकता कुछ यूं नज़र
आती है कि हमारे पितृसत्तात्मक समाज (ऐसा समाज जिसमें समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था, निर्णय लेने की स्वतंत्रता पुरुषों के हाथों में स्थित हो)
में समाज के साथ-साथ परिवार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद, स्त्री की अपेक्षा पुरुष को ज्यादा वरीयता दिया जाता है ।
भारतीय संविधान द्वारा लैंगिक आधार पर समानता व स्वतन्त्रता का अधिकार दिये जाने
के बावजूद इनकी स्थिति आज भी शोषितों जैसी ही बनी है । हालाँकि 1974 ई. के बाद स्त्रियों की स्थिति में सुधार की दिशा में
कार्य करते हुए भारत सरकार ने गंभीरता पूर्वक अनेक कानून बनाये । इसके बावजूद आजादी
के 65 वर्ष बाद भी इनकी स्थिति संतोषजनक कही नहीं जा सकती । अनेक
क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां आजादी की रोशनी इन्हें देखने को भी नहीं मिलती । महाराष्ट्र के शनि शिंगनापुर स्थित शनि धाम के
चबूतरे पर महिला प्रवेश निषेध के बाद महिलाओं के एक समूह द्वारा इस परंपरा को तोड़े
जाने के लिए आंदोलन के मूड में है । इस घटना ने एक विमर्श को जन्म दिया है कि क्या
हमारा धर्म स्त्री द्वेषी है?
उत्तर स्वरूप कहा जा सकता है कि हमारा वर्तमान भारतीय समाज
हिन्दू,
मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म-संप्रदायों के अनुयायियों से आबाद एक पितृसत्तात्मक मिश्र
समाज है । घर से बाहर तो हम संवैधानिक विचारधारा पर चलने को मजबूर हैं लेकिन घर
प्रवेश करने के साथ ही पुनः धर्मग्रंथों के सिद्धांतों की जकड़न में कैद हो जाते
हैं । इस कारण सभी समाज में स्त्रियों की दशा लगभग एक जैसी ही है और हो भी क्यों
नहीं ! हमारे समाज के 90 प्रतिशत से भी अधिक लोग धर्मं पर आधारित नियमों, रीति रिवाजों का ही पालन करते हैं और जब धर्मं ही स्त्री
द्वेषी हो तो इस बात की तो पूरी गारंटी है कि समाज भी स्त्री द्वेषी ही होगा ।
जहाँ तक हिन्दू
धर्म के स्त्रियों की बात है इस धर्म के अनुयायी आपको मनुस्मृति के उस श्लोक की
दुहाई देते मिल जाएंगे जिसमें कहा गया है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” अर्थात जहां स्त्रियों की पूजा या सम्मान होती है वहाँ
देवताओं का वास होता है । लेकिन वास्तविकता कुछ और है । सदियों से धर्म को कंधे पर
ढोने के बावजूद जन्म से लेकर अंत्येष्ठी संस्कार तक इन्हें इस भावना से देखा जाता
है कि जैसे ये इस समाज के प्राणी ही नहीं हों । राजस्थान की स्त्रियाँ तो जन्म से
मृत्यु तक घूंघट में ही दम तोड़ देती है । परिवार में गर्भ धारण की हुई महिला को बड़े
बुजुर्ग आपको हमेशा यही आशीर्वाद देते मिल जायेंगे “पुत्रवती भव” कोई भी पुत्री की कामना नही करता या “पुत्रीवती भव” का आशीर्वाद नहीं देता क्योंकि मनु के अनुसार परिवार में
पुत्र का जन्म ही पिता को मुक्ति दिलाता है । ये जानते हुए भी कि मानव प्रजाति को
बढ़ने के लिए यह अनिवार्य है की लड़कियां जन्म ले, बिना इनके पीढ़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती । फिर भी ये ही अपेक्षा
की जाती है कि इनकी संख्या लड़कों की संख्या से ज्यादा नहीं होने पाए । भले ही वह
उच्च वर्ण या जाति वाले परिवार से सम्बंधित क्यों न हो, पुत्री का जन्म लेना दुर्भाग्य का कारण माना जाता है । यही
कारण है कि गर्भस्थ माता एवं परिवार द्वारा गर्भ में मौजूद शिशु को पुत्र में
बदलने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ, कर्मकांड, टोटके, पुंसवन संस्कार किये/कराये जाते हैं । यदि एक लड़की अपने भाई
की मृत्यु के बाद जन्म लेती है या उसके जन्म लेने के तुरंत बाद परिवार में कोई
लड़का मर जाता है तो दोनों ही स्थिति में वह लड़की ही परिवार एवं पड़ोसियों द्वारा
लड़के की मृत्यु के कारण के रूप में देखी जाती है और तब तक वह कोसी जाती है जब तक
कि वह उस समाज का एक हिस्सा होती है । कभी कभी तो उसपर गुस्सा उतारते हुए यहां तक
कह दिया जाता है कि “अरे
दुष्ट लड़की तू उसकी जगह पर क्यूँ नही मर गयी” । ऐसा सुनने के बाद शायद ही कोई लड़की अगले जन्म में एक लड़की
के रूप में जन्म लेना चाहेगी । जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके साथ ऐसा व्यवहार किया
जाता है कि जैसे वह एक अनिमंत्रित मेहमान है । माहवारी के दौरान उन्हें एक अपवित्र
प्राणी के सदृश व्यवहार किया जाता है । मंदिर जाने या पूजा करने के अनुमति नहीं
होती । जैसे उसके छूने से उनके देवता अपवित्र हो जाएंगे । अनचाहे रूप से जन्म लेने
की स्थिति में उस नवजात बच्ची के मुंह में एक मुट्ठी नमक डालकर उसकी लीला जन्मवाले
दिन ही खत्म कर दी जाती है । ऐसे कुकर्म करते वही पकड़े जाते हैं जो खुद को कट्टर
हिंदू कहलाना पसंद करते हैं । यह स्त्री द्वेष नही तो क्या है !
विद्वानों का मानना है कि
किसी भी धर्मं की नींव उस धर्मं के धार्मिक पुस्तकों पर निर्भर करती है । हिन्दू धर्मं के धार्मिक पुस्तकों का हमारे ही
धार्मिक विद्वानों द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है कि रामायण और महाभारत दोनों ही
युद्ध एक स्त्री के कारण हुआ जबकि द्रौपदी को दांव पर लगाने वाले, उसकी अश्मिता लूटने का प्रयास करनेवाले, इस नग्न नृत्य का बैठे-बैठे तमाशा देखने वाले पुरुष थे ।
रामायण की बात करें तो इसमें भी इस युद्ध के लिए सीता और शूर्पनखा पर दोषारोपण
किया जाता है जबकि राम-लक्ष्मण द्वारा शूर्पनखा के नाक कान काट लिया जाना रावण
जैसे भाई के लिए बिलकुल अपमानजनक बात थी । दूसरा खुद रावण जिसने अपमान का बदला
लेने के लिए सीता का धोखे से अपहरण कर लिया । दोनों ही उदाहरण में एक पुरुष वर्ग
दोषी है । लेकिन धर्म का वाचन करने वालों द्वारा इनकी जगह एक स्त्री पर दोष लगा
दिया जाता है । भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में पत्नी यदि भूल से या जान बूझकर कुछ
गलत कर दे तो पति उसके साथ कुछ भी कर सकता है क्योंकि वह उसके अधीन होती है । पति
द्वारा जुल्म करने की स्थिति में भी उससे पति के खिलाफ विरोध नहीं करने की अपेक्षा
की जाती है क्योंकि हिन्दू धर्म में एक स्त्री द्वारा अपने पति को पलटकर जवाब देना
अच्छा नहीं माना जाता है । ये स्त्री द्वेष नही तो क्या है !
इस्लाम की बात करें
तो सैद्धान्तिक रूप से तो इस्लाम में स्त्री पुरुष को समान दर्जा दिया गया है
लेकिन व्यावहारिक रूप में स्त्री-पुरुष में भेद किया जाता है । इस्लाम के उदय का
एक अन्य कारण यह भी था कि इस्लाम के उदय के पूर्व अरब समाज में अनेक कुप्रथाएँ थी
जिससे स्त्रियों का जीवन नरक समान हो गया था । पिता के मरने पर पिता के पत्नियों
का बंटवारा भी पुत्रों में हो जाता था । इतना ही नहीं जहां बेटे पिता की पत्नी को
रखैल बना लेते थे वहीं बाप भी इस कुकर्म में पीछे नहीं रहता । इस्लाम महिलाओं को
मस्जिद में जाकर नमाज़ पढने का अधिकार नही होता जबकि कुरआन में ऐसा कहीं भी देखने
को नही मिलता, जबकि
मुहम्मद साहब की मृत्यु के काल तक स्त्रियों को मस्जिद में जाकर नमाज पढने का
अधिकार था लेकिन जब इस्लाम में खलीफा राज की शुरुवात हुई और उमर पहले खलीफा बने तो
उसी समय एक पढ़ी लिखी स्त्री से इनकी कुरआन सम्बन्धी किसी नियम पर बहस हो गयी । उमर
को ये बहस, बहस कम
अपमान ज्यादा लगा । इसके पश्चात उन्होंने स्त्रियों के मस्जिद में कुरआन पढ़ने पर
रोक लगा दिया । काफी दिनों के पश्चात उनको केवल घर पर कुरआन पढ़ने का अधिकार मिला ।
कुरआन में कहीं भी ये नहीं लिखा है कि स्त्रियों को बुर्का पहनना चाहिए । इसके
बावजूद इनपर बुर्का लाद दिया गया । हिन्दू के साथ साथ इस्लाम में भी स्त्री के
जन्म को अभिशाप माना जाता है । जन्म लेने के पश्चात इनको कभी दूध में डुबाकर, कभी उसके मुंह में अफीम डालकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी
जाती है । ये स्त्री द्वेष नही तो क्या है ?
इसाई धर्म में भी बाइबिल का पुराना संस्करण (ओल्ड
टेस्टामेंट) जिसका स्वरुप मातृसत्तात्मक था, 15वीं शताब्दी में नया संस्करण (न्यू टेस्टामेंट) लाकर इसका
स्वरूप पितृसत्तात्मक कर दिया गया । ये
स्त्री द्वेष नही तो क्या है ?
अतः कहा जा सकता है कि हमारा धर्म/समाज प्राचीन काल से ही
स्त्री द्वेषी रहा है । समस्त धर्मों/संप्रदायों में इसके साक्ष्य भरे पड़े हैं ।
हालांकि राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, सावित्री बाई फुले, पंडिता रमा बाई सरस्वती, डॉ कर्वे आदि ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने में उल्लेखनीय
योगदान दिया । यही कारण है कि आज स्त्रियाँ जागरूक होकर देश समाज से अपनी स्थिति
में परिवर्तन लाने को प्रयत्नशील हैं । शनि शिंगनापुर के शनि धाम के चबूतरे पर
प्रवेश हेतु संघर्ष इसी परिवर्तन लाने की एक कड़ी है ।
(वुमेन एक्सप्रेस दैनिक समाचार पत्र के 01/02/2016
के संपादकीय में प्रकाशित)