किसी के ’घर की इज्जत’ बताकर हम बेटियों को
हमारी ‘इज्जत’ खुद ही लूटते आए
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
‘रिश्तों का मर्म’ समझाकर हमें
खुद ही रिश्तों को शर्मसार करते आए
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
चाल-चलन-सोच तुम्हारे गंदे रहे
फिर भी कुल्टा, बदचलन के आरोप
हमपर लगाते रहे
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
हमारी यौनिकता पर पहरे लगाकर भी
वेश्याओं के पास भटकते रहे
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
तुम्हारे हर जुल्म, अन्याय बर्दास्त किए हमने
खुद को ‘घर की इज्जत’ जानकर ।
बस
बहुत कष्ट दिये हमें
इस ‘घर की इज्जत’ के मिथक ने
अब हमें इस मिथक को तोड़ना है,
और
जिस दिन हम इसे तोड़ने में सफल हो गए
तुम, तुम्हारे समाज के
मंत्री, संतरी, मठाधीश, धर्मरक्षक
कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे ।
(मूलतः पाक्षिक समाचार पत्र 'वीक ब्लास्ट' 1-15 अगस्त 2018 में प्रकाशित)