Monday, 3 September 2018

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को 'अर्बन नक्सली' कहना कितना उचित?

जून 2018 में भीमा-कोरेगांव से जुड़े मामले में पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं सुधीर धवाले, महेश राऊत, सोमा सेन, रोमा विल्सन, मानवाधिकार अधिवक्ता सुरेन्द्र गाडलिंग को दिल्ली, मुंबई, नागपुर आदि विभिन्न स्थानों से गिरफ्तार किया था। इनसे संबंध होने के शक के आधार पर पुनः 29 अगस्त 2018 को पुणे पुलिस ने 5 अन्य सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वेरनोन गोन्जाल्विस और अरुण परेरा को गिरफ्तार किया। हैरत की बात यह है कि भीमा-कोरेगांव में दलितों के शौर्य प्रदर्शन कार्यक्रम का आयोजन करनेवाले लोगों की पहचान कर गिरफ्तार किया जा रहा है लेकिन इस कार्यक्रम पर हमले कर हिंसा फैलाने का आरोपी संभाजी भिड़े, मिलिंद एकबोटे आदि सत्ता संरक्षण का फायदा उठाते हुए खुलेआम घूम रहे हैं। मामले को संगीन बनाने के लिए इनके पास से प्रधानमंत्री की हत्या करनेसंबंधी एक पत्र भी बरामद होने की बात के आधार पर इस शौर्य प्रदर्शन को माओवादियों से जोड़ा जा रहा है। जबकि इन सभी कार्यकर्ताओं की पृष्ठभूमि यदि खंघालें तो सभी अत्यधिक पढ़े-लिखे, तार्किक-वैचारिक, मृदुल स्वभावी, समाज विज्ञानी, समानता के पोषक, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं जो कभी भी नक्सली हिंसा का समर्थन करते हैं। बावजूद इसके सामाजिक न्याय का संदेश देने वाले इन कार्यकर्ताओं को सरकार वामपंथी रुझान रखने वाले मानती है। यदि ये सामाजिक न्याय की बात करते भी हैं तो ये संवैधानिक ही है। फिर सरकार को आखिर इनसे समस्या क्या है?
          इनकी गिरफ्तारी के बाद एक नया शब्द अर्बन नक्सलवादआजकल विमर्श का मुद्दा बना हुआ है। आखिर क्या है यह अर्बन नक्सलवाद’? सुरक्षा एजेंसियां इसे इस रूप में व्याख्यायित करती है कि यह माओवादियों की एक तरह की रणनीति है, जिसमें शहरों में नक्सल गतिविधि व नेतृत्व तलाशने हेतु मध्यवर्गीय कर्मचारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों व धार्मिक अल्पसंख्यकों को जोड़ते हुए उन्हें नक्सल बनने का प्रशिक्षण देने का काम किया जाता है। सरकार मानती है कि अर्बन नक्सलवादसंबंधी इस योजना की जानकारी उन्हें 2007 में बिहार के जमुई जिले में हुई नक्सलियों के नौवें कांग्रेस से प्राप्त दस्तावेजों के माध्यम से मिली। सरकार मानती है कि ये अर्बन नक्सली राज्य की शासन व्यवस्था को कमजोर करने का काम करती है, जंगलों में रहनेवाले नक्सलियों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराती है। सरकार के खिलाफ माहौल बनाकर उन्हें भड़काती है।
          इस संबंध में मेरा मानना है कि 2007 में सुरक्षा एजेंसियों के हाथ लगे ये अर्बन नक्सलीसंबंधी दस्तावेज़ भी जून 2018 में गिरफ्तार अर्बन नक्सलियों के पास से प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले दस्तावेज़ की तरह ही फर्जी हो सकते हैं। इन फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सत्ता अपने विरोधियों के आवाज़ दबाने, उन्हें कुचलने के लिए माध्यम के रूप में प्रयुक्त करती रही है। यहाँ सवाल उठता है कि शोसितों के लिए आवाज़ उठाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को नक्सलवादियों के फ्रेम में डालना कितना उचित है? उत्तरस्वरूप कुछ बातों को समझना आवश्यक है-
          यह लड़ाई दो विचारधाराओं की है। जिसमें एक तरफ है कट्टर हिंदुवादी वर्ग जिन्हें सामाजिक समानता से कोई विशेष मतलब नहीं है तो दूसरी तरफ हैं सामाजिक न्याय व समानता की बात करने वाले तार्किक बुद्धिजीवी वर्ग। सत्ताधारी हिंदू विचारधारा वाले एक रणनीति के तहत उनके विचारों से मेल नहीं रखनेवालों को ऐसे ही किसी न किसी संगीन मामलों में फाँसती रही है। इस कारण मुस्लिम-ईसाई व वामपंथी विचारधारा वालों से इनकी झड़प हमेशा चलती रहती है। साथ ही सत्तानसीं होने का इन्हें पर्याप्त लाभ भी मिलता है। इसे इस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है कि आज यदि कोई मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति किसी संदिग्ध गतिविधियों में हथियार के साथ गिरफ्तार होता है तो हिंदू धार्मिक-वैचारिक कट्टरता का लबादा ओढ़े मीडिया, लोग न्यायालय के फैसले के पूर्व ही उसके नाम के साथ आतंकी शब्द जोड़ सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय को आतंकी, देशद्रोही घोषित कर देते हैं। देश-समाज में उनके प्रति इतनी नफरत फैला देते हैं कि निर्दोषों में भी बाकी जनता को आतंकी नज़र आने लगता है। लेकिन ऐसे ही मामलों में गिरफ्तार हिंदू युवकों के लिए न आतंकी शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाता न ही सम्पूर्ण हिंदू समुदाय को आतंकी घोषित कर दिया जाता है। चाहे वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करने में राजस्थान से गिरफ्तार हिंदू व्यवसायी हो, अमृतसर से गिरफ्तार रवि, बीजेपी आईटी सेल में काम करने वाला ध्रुव सक्सेना के साथ हो या हाल ही में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा विस्फोटक सामग्रियों के साथ गिरफ्तार सनातन संस्था के 5 हिंदू युवक हों। ये सारे मामले एक से दो दिन में ज़मींदोज़ कर दिये जाते हैं। 
          इन कट्टर हिंदुवादी विचारधारा के लोगों को सबसे ज्यादा समस्या पढ़े-लिखे तार्किक लोगों से है। क्योंकि उनके समक्ष इनकी आस्था, अंधविश्वास ध्वस्त हो जाती है। निरुत्तरता की स्थिति में ये उनके प्रति हिंसात्मक हो जाते हैं, जिसका शिकार नरेंद्र दाभोलकर, एस. एम. कलिबुर्गी, गोविंद पनसारे, गौरी लंकेश आदि हुए। इन्हें समस्या ऐसे लोगों से भी है जो उनकी भेदभाव आधारित जाति व्यवस्था, प्रजातीय श्रेष्ठता की आलोचना कर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय की बात करते हैं। ऐसे बुद्धिजीवी लोगों को ये वामपंथी विचारधारा के फ्रेम में रखते हैं। आज कट्टर हिंदुवादी विचारधारा की पहुँच समाज, मीडिया से लेकर औद्योगिक घरानों तक है। सत्ताधारियों से मिलकर उनके विशेषाधिकारों का गलत प्रयोग कर इस विचारधारा के उद्योगपति, पूंजीपति मानवाधिकार हनन की परवाह किए अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। इन कृत्यों से आहात शोषित जनता को मजबूरन क्षेत्र के बुद्धिजीवियों से संपर्क कर न्यायालय के शरण में जाना मजबूरी हो जाती है। ऐसे में एक पढ़े-लिखे, स्वतंत्र सोच के व्यक्ति यदि अपने स्वाभाविक गुण के कारण शक्ति संपन्न वर्ग द्वारा सामाजिक या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति, समुदाय पर होने वाले अन्याय बर्दास्त नहीं कर पाता है। उनके व्यक्तित्व में मौजूद मानवीय मूल्य उन्हें कमजोर या शोषितों के पक्ष में खड़ा होने को मजबूर कर देता है।
          ऐसी स्थिति में यदि कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता उन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, संसाधन विहीन जनता को कानूनी सलाह देने के साथ-साथ उन्हें अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक कराता है तो वह केवल अपने कर्तव्य का निर्वाहन करता है न कि उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काता है। न ही ये किसी हिंसात्मक कार्रवाई का सहारा लेने का निर्देश देते हैं। बावजूद इसके पूँजीपतियों, निजी कंपनियों द्वारा उन्हें विद्रोह भड़काने वाले एक शत्रु के रूप में देखा जाता है। परिणामस्वरूप पूँजीपतियों के इशारों पर इन्हें रास्ते से हटाने के लिए इनपर अर्बन नक्सलीका ठप्पा लगाकर सरकार द्वारा उन्हें नज़रबंद करवा दिया जाता है। न्यायप्रियता की यह भावना माक्र्स, लेनिन, माओत्से, गांधी, अम्बेडकर, फुले के विचारों को पढ़कर भी कोई भी जाति-धर्म से ऊपर उठकर शोषित दलित-आदिवासियों को न्याय दिलाने की भावना दिल में विकसित कर सकते हैं।
          पूँजीपतियों के साथ-साथ सत्तारूढ़ सरकार की आँखों में ये समाजसेवी चुभते हैं क्योंकि ये सत्ता के पीछे नहीं बल्कि उनके समानान्तर चलने, गलत नीतियों की आलोचना करने में विश्वास करते हैं। एक तरह ऐसा अतः सरकार को इन सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सलीकहना, उनपर हिंसा भड़काने का आरोप लगाना बेबुनियाद है। सरकार को चाहिए कि वह पूँजीपतियों नहीं बल्कि जनता के सेवार्थ काम करते हुए एक स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित करे।             
(मूलतः नई दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक समाचार पत्र वीक ब्लास्ट’ 01-15 सितंबर 2018 अंक में प्रकाशित)