Thursday, 11 June 2020

अलेक्ज़ेंडर महान ‘सिकंदर’ की विश्व की बाह्य सीमा निर्धारण नीति

इतिहास के छात्र से लेकर इतिहास को बोझिल मानने वाले सभी सिकंदर के नाम से विश्वप्रसिद्ध अलेक्ज़ेंडर महानसे परिचित होंगे ही। वही सिकंदर जिसपर इतिहास को बोझिल विषय मानने वाले छात्रों के लिए एक गाना बना था जो आपलोगों ने भी सुना ही होगा –

सिकंदर ने पोरस ...

से की थी लड़ाई...

जो की थी लड़ाई...

तो मैं क्या करूँ ?

जी हाँ, ये वही सिकंदर है जिसके बारे में हम बचपन में नादानी से कहा करते थे कि न ये सिकंदर हमारे देश आता न ये ई. सन रटने वाला बोझिल विषय हमें पढ़ना पड़ता। सिकंदर के संबंध में हमें बहुत ही सीमित जानकारी मिलती है कि विश्वविजय के क्रम में सिकंदर हिंदुस्तान (भारत) के पश्चिमी प्रांत पंजाब तक पहुँच गया था जहां के शासक पोरस से उसकी लड़ाई हुई। पोरस पराजित हुआ और सिकंदर ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। उसके प्रदेशों को वह वापस कर विश्वविजय के लिए आगे बढ़ गया। हालांकि वह रावी नदी से आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। एक सामाजिक विज्ञान शिक्षक/छात्र होने के नाते हमारा यह कार्य है कि सिकंदर के बारे में हम कुछ और भी जानें ताकि न सिर्फ बच्चों की जिज्ञासा को शांत कर सकें बल्कि उनके साथ-साथ खुद के ज्ञान को भी और समृद्ध कर सकें।

          शुरुआत करते हैं इस बात से कि प्राचीन दौर के एक महान व्यक्ति के रूप में याद किये जाने वाले सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे निहित उद्देश्य क्या थे? सिर्फ अपने साम्राज्य का विस्तार या कुछ और? उत्तर है कि सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे एक उद्देश्य तो अपने साम्राज्य का विस्तार करना तो था ही, एक दूसरा उद्देश्य भी था विश्व की बाहरी सीमा का पता लगाना।[1] क्योंकि एक शासक होने के साथ-साथ वह एक भूगोलविद भी था। वह यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू के अनेक शिष्यों में से एक था। उसके विश्वविजय अभियान के पीछे उसके गुरु अरस्तू की शिक्षा का भी पर्याप्त योगदान था, जो अपने अपने शिष्यों में किसी भी सिद्धान्त को प्रत्यक्ष अवलोकन करने की एक प्रबल इच्छा जागृत की। अरस्तू अपने शिष्यों को यह सिखाया करते थे कि जाओ और देखो और स्वतः निर्णय करो कि क्या कोई सिद्धांत स्वीकार योग्य है या अस्वीकार योग्य?[2] भूगोलविद माजिद हुसैन के अनुसार अरस्तू के इस शिक्षा का उनके सबसे उत्साही शिष्य एलेक्जेंडर (सिकंदर) पर गहरा प्रभाव हुआ जो तत्कालीन मकदूनिया के शासक फिलिप द्वितीय का पुत्र था। सिकंदर के पिता फिलिप द्वितीय ने अपने दम पर अपने राज्य मकदूनिया की सेना को एक ऐसे प्रभावशाली उच्च प्रशिक्षित सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया जिसने सिकंदर को तत्कालीन सर्वाधिक शक्तिशाली फारस साम्राज्य को पराजित करने में अद्भुत प्रतिभा दिखाई।

          सिकंदर की सौतेली बहन की शादी में उनके पिता फिलिप द्वितीय की हत्या उनके ही एक गार्ड द्वारा कर दिए जाने के पश्चात नए राजा बनने के लिए संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। इस संघर्ष में सिकंदर ने अपने एक सौतेले भाई फिलिप एरिडाइस को छोड़कर सभी उत्तराधिकार पद के दावेदारों व अन्य विरोधियों का क्रूरता से सफाया कर 20 साल की उम्र में राजा बने। अपने 12 वर्ष के शासनकाल के दौरान अपने सैनिकों के साथ 12000 मील की विजय यात्रा (पश्चिम में यूनान से लेकर पूर्व में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र तक) करते हुए खुद को एक प्रभावशाली सैनिक कमांडर के रूप में किया। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ विश्व की बाहरी सीमा निर्धारित करने के उद्देश्य से एक प्रशिक्षित सेना लेकर दक्षिण व पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। वह जानना चाहता था कि फारस साम्राज्य के उस पार दूर के क्षेत्रों में वस्तुतः है क्या जहां के विषय में अनेक कहानियाँ तथा किंवदंतियाँ प्रचलित थी। 330 – 323 ई. की अवधि के दौरान वह देश विदेश की सूचनाओं को प्राप्त करने व उन्हें रिकॉर्ड करने विशेषज्ञों को लेकर फारस से भारत तक आया और एक सच्चे खोजी की तरह दूसरे रास्ते से लौटा।[3]

          अपने विद्यार्थी जीवन में तीन वर्षों तक सिकंदर (343-340 ई. पू.) अरस्तू के पास अध्ययन किए। मकदूनिया का शासक बनने के पश्चात सिकंदर ने यूनानी साम्राज्य का विस्तार पूरे विश्व में करने की योजना बनाई। इस क्रम में दक्षिणी क्षेत्र (मिश्र) को विजित करने के पश्चात वह पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। 327 ई. पू. में हिंदुकुश पर्वत पार करते हुए खैबर दर्रे के रास्ते सिंधु नदी (पंजाब) क्षेत्र में प्रवेश किया। उसे यह विश्वास था कि अब वह पूर्व की ओर आवासित जगत की सीमा से कुछ ही दूर है। वह आगे बढ़ कर उस सीमा तक जाना चाहता था लेकिन दुर्भाग्यवश उसके सैनिकों ने उसका साथ नहीं दिया। सिकंदर ने उनमें उत्साह जगाने की पूरी कोशिश की लेकिन बुरी तरह थक चुके सैनिकों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। कुछ ने तो विद्रोह तक कर दिया।

          वापसी के दौरान सिकंदर ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक टुकड़ी को नियरकस के सेनापतित्व में सिंधु नदी, सिंधु नदी मुहाने, अरब सागर, फारस की खाड़ी होते हुए भेजा, दूसरी टुकड़ी को खुद थलमार्ग होते हुए मकरान, बलूचिस्तान, ईरान के रास्ते मेसोपोटामिया के लिए बढ़ी। थल मार्ग से बढ़ते हुए 323 ई. पू. रास्ते में बेबीलोन में सिकंदर की मृत्यु हो गई। इस तरह विश्व की बाहरी सीमा निर्धारण को निकले सिकंदर का कार्य पूर्ण तो नहीं हो पाया लेकिन अपने इस विश्वविजयी अभियान के माध्यम से उसने यूनानियों को उन प्रदेशों का ज्ञान कराया जो उनके ज्ञान के दायरे से बाहर के थे। यूनानियों को फारस, मध्य एशिया, अफगानिस्तान, हिंदुस्तान तथा ईरान के तटीय क्षेत्रों की भौतिक स्थिति, इन क्षेत्रों के जन-जातियों, पेड़ पौधों का ज्ञान हो पाया।



[1] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 18 

[2] वही, पृष्ठ सं. 18 

[3] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 102