Sunday, 9 August 2020

कोरोना महामारी के दौर में मंदिर-मूर्ति पर विमर्श क्यों?

 

पिछले 8 माह के दौरान कोरोना वायरस ने सभी धर्मों के देवी-देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। त्रस्त जनता को देखकर कष्ट से उबारने या किसी न किसी रूप में आकर लोगों की जान बचाने के लिए जाने जाने वाले देवी-देवताओं को भी अपने भक्तों की चिंता नहीं है। ऐसा इन देवी-देवताओं के सबसे बड़े पुजारी या भगवान, ईश्वर, अल्लाह के सबसे करीब होने का दावा करने वाले लोगों के संक्रमित होने के आधार पर कहा जा सकता है। उन्हें अपने ही आराध्य की अलौकिक शक्ति पर विश्वास नहीं है। इसीलिए अपनी रक्षा के लिए ये लोग खुद तो मास्क पहन रहे हैं, मंदिर-मस्जिद में सैनीटाइजर का प्रयोग कर रहे हैं ही, साथ ही अपने आराध्य को भी मास्क पहना रहे हैं। कई मंदिरों में तो मंदिर प्रबंधन समिति को यहाँ तक डर है कि श्रद्धालुओं द्वारा मूर्ति को हाथ लगाने से उनके आराध्य न संक्रमित हो जाएँ व अन्य को संक्रमित कर दें। इसलिए श्रद्धालुओं को मूर्तियों को हाथ तक नहीं लगाने दे रहे हैं। दूर से प्रणाम कर यथाशीघ्र दर्शन कर गर्भगृह से निकलने का निर्देश दे रहे हैं। अधिकांश मंदिरों के कपाट इस महामारी ने बंद करवा दिये हैं। यदि खुले भी हैं तो गर्भगृह में श्रद्धालुओं का प्रवेश वर्जित है। पूरे विश्व के कट्टर धार्मिक समुदायों में हाहाकार मचा हुआ है, क्योंकि कर्मकांड करने/कराने के एवज में मिलने वाले परिश्रमिक/दान से होने वाली आय से महरूम हो गया है। विज्ञान की आलोचना करने वाले ये कट्टर धार्मिक वर्ग आज वैज्ञानिकों की तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि कब इसका टीका मिले और हालात सामान्य हो। नास्तिक (भगवान, ईश्वर, अल्लाह के अस्तित्व को नहीं मानने/चुनौती देने वाले) लोग मौके का फायदा उठाते हुए इन धार्मिक कट्टरपंथियों को छेड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। इससे पूर्व से ही वे इस तथ्य के आधार पर भगवान, अल्लाह के अस्तित्व को नकार रहे हैं कि 500 वर्ष पूर्व जब मंदिर टूटा तो खुद राम भी अपने जन्मस्थान स्थित मंदिर को टूटने से बचा नहीं पाए। एकमात्र अमर देवता राम के परम भक्त हनुमान भी मंदिर को टूटने से बचा नहीं सके। इसी तरह 1992 में मस्जिद को टूटने से अल्लाह भी नहीं बचा सके। नहीं बचा सके तो भी कोई बात नहीं। अगले दिन खुद की अलौकिक शक्ति से ही बनवा कर अपने अस्तित्व का प्रमाण देते। लेकिन वह भी नहीं हुआ। यह हाल है पूरे दिन भर देवी-देवताओं, अल्लाह, ईश्वर, वाहेगुरु की उपासना करने वाले पुरोहित वर्ग का।

          दूसरी तरफ हैं हमारे देश के शासक वर्ग अर्थात सत्तानसीं संवैधानिक पदों पर बैठे अलग-अलग पार्टियों, विचारधारा के जनप्रतिनिधि। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त परिस्थितियों से वे परिचित नहीं हैं। बावजूद इसके वे स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी जैसे जन-समस्याओं को दरकिनार कर मीडिया चैनलों, समाचारपत्रों के माध्यम से धार्मिक मुद्दों को उछालने और इसपर विमर्श करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। ताकि खुद को संबंधित धर्म के लोगों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर सकें। इनके इस रवैये के कारण अन्य पार्टियों को भी चाहे-अनचाहे इस तरह के विमर्श में कूदना ही पड़ता है खुद को उस धर्म विशेष का हितैषी बताने के लिए। पार्टी विशेष द्वारा समर्थित मीडिया विपक्षी पार्टियों को इस विमर्श में भाग लेने को मजबूर कर देता है। क्योंकि कोई भी पार्टी बहुसंख्यक वोट बैंक को चाहे-अनचाहे खोना नहीं चाहती। परिणामस्वरूप मीडिया के साथ-साथ आम जनता में विमर्श की धारा ही बदल जाती है। और वे समस्याएँ दब जाती है जिनपर बात किया जाना चाहिए और सत्तारूढ़ सरकार को उस समस्या के समाधान की बात पहुंचानी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हाल ही की घटना 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह को लें तो पूरे देश में हिंदू लोग इस दिन को जश्न के रूप में मनाए जो स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जैसे ही घोषणा की कि अयोध्या से 3 किलोमीटर दूर सरयू नदी के तट पर स्थित एक गाँव में भगवान श्री राम की 251 मीटर ऊंची मूर्ति बनाई जाएगी, इसी राज्य के दो प्रमुख विपक्षी पार्टियां समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी विकास दुबे एनकाउंटर के बाद भाजपा से नाराज ब्राह्मण वोटरों को खुश करने के लिए क्रमशः परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित करने, परशुराम के नामपर अस्पताल बनवाने की घोषणा कर दी। रोचक बात यह है कि कभी मायावती ने ही दलितों व पिछड़ों का वोट पाने के लिए तिलक, तराजू का नारा दिया था। और अब ...। 2022 में कौन सी पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाती है कौन नहीं? इसका फैसला तो जनता करेगी। लेकिन यह उपयुक्त समय नहीं है मूर्ति निर्माण पर बात करने का। क्योंकि इस अनावश्यक विमर्श से देश में विमर्श का मुद्दा परिवर्तित हो जा रहा है। जिसे देखो राम मंदिर, मस्जिद, मूर्ति पर बहस कर रहा है। कोरोना महामारी कितनी तेजी से अपने पैर फैला रहा है, इससे मजदूर वर्ग, निर्धन किसान, डॉक्टर, छोटे-छोटे व्यवसायी किस तरह परेशान हो रहे हैं जैसे मुद्दे चर्चा से गायब हो गए।

          मीडिया चैनलों में जहां विमर्श अस्पताल, स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने, बेरोजगारी की मार झेल रही जनता को रोजगार या नौकरी देने, शिक्षा से दूर होते देश के भावी भविष्य के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने पर होनी चाहिए, उसका स्थान मंदिर-मूर्ति निर्माण ले लेता है। आनेवाले समय में कोरोना महामारी से उपजे हालात के कारण जहां देश की जीडीपी में जबरदस्त गिरावट आने की भविष्यवाणी अर्थशास्त्री कर रहे हैं, ऐसे में हमारे प्रतिनिधियों द्वारा 2 वर्ष बाद रोजगार सृजन, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की बात न कर बड़े-बड़े मूर्तियों को बनाकर देश की अर्थव्यवस्था डुबाने की बात करना कोई बुद्धिमानी वाली बात नहीं है। वह भी तब जब जनता यह जान चुकी है कि कोरोना से लड़ने के लिए अत्याधुनिक सुविधाएं युक्त अस्पताल की आवश्यकता है मंदिर, मस्जिद या मूर्तियाँ बनाने से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है।  अतः जनता भी यह मांग करे कि सरकार, जनप्रतिनिधि सैकड़ों एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर इतने ऊंचे मूर्ति निर्माण पर व्यय होने वाली कम से कम हजारों करोड़ रुपए जैसी बड़ी धनराशि स्वास्थ्य सुविधा सुधार हेतु करे। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो आने वाले चुनाव में देश की जनता को आने वाले विषम हालात को ध्यान में रखते हुए ऐसे मानसिक दिवालिये जनप्रतिनिधियों को आने वाले चुनाव में सबक सिखाने की जरूरत है। उनको चुनने की जरूरत है जो जनता के इन बुनियादी सुविधाओं के लिए आवाज़ उठाए।