Sunday, 25 April 2021

अन्न का मोल

वीरभद्र पढ़ाई करने के साथ-साथ डेयरी चलाने में अपने भैया की भी मदद किया करता था। उनकी अनुपस्थिति में दूध के लेन-देन का हिसाब-किताब रखने, डेयरी के केयरटेकर की भूमिका में रहने के साथ-साथ वहाँ के डेयरी कर्मचारियों के साथ मिलकर दूध भी पैक कर दिया करता था। वीरभद्र एक बहुत ही मितव्ययी परिवार का सदस्य था। उसके घरवाले अन्न के महत्व को समझते थे और बहुत ही नपे तुले मात्रा में भोजन बनाते। ऐसा करने के बावजूद कभी-कभी उसके घर दिन का या रात का भोजन बच जाता था। हालांकि उसके पिताजी, माँ या घर के अन्य सदस्य उस बासी भोजन को भी गरम कर खा लेते थे। विषम परिस्थिति में ही भोजन बचा रह जाता था। ऐसे में उस बचे भोजन को डेयरी के गायों को दे दिया जाता था। वे उसे बिना कोई नखरा किए चाव से खा लेती थी।

          एक दिन शाम को जब वीरभद्र डेयरी जा रहा था तो उसकी भाभी ने उसे एक बर्तन देते हुए कहा वीरू इसमें परसों की रोटी, थोड़ा चावल और थोड़ा दाल है जिसका स्वाद खट्टा हो गया है, इसे गाय को दे दीजिएगा वो खा लेगी”। वीरभद्र उस बासी खाने से भरा बर्तन लेकर डेयरी पहुंचा ही था कि उसे किसी व्यक्ति के ज़ोर से गुस्से में बड़बड़ाने का शोर सुनाई दिया। एक लगभग 50 वर्ष का अधेड़ व्यक्ति डेयरी के कर्मचारी वकील पर चिल्ला रहा था –

“कामा कराय लेन्ही और पैसबा नाय देन्हीं, कुछो खायो ले नाय देन्हीं। फ्री में के करतो कामा? हम नाय करबो अब। हमर कोय इज्जत नाय? ई बड़का गो खटल्बा हमरे, हमें मालिकबा और हमहीं खटबो करय हिये और हमरे कोई चाय, पानी, शर्बत तक नाय पूछय है। अपने दाल-भात-तरकारी खाएके दिनभर सुतल रहै हीं कान में तेल देके! जो हम नाय रहबो अब! 10 रुपैया भाड़ा दे, हम जाय हिये ससरार(ससुराल)”।

          वीरभद्र को पूरा मामला समझते देर नहीं लगा। दरअसल बात ये थी कि वह गुस्सैल स्वभाव का व्यक्ति अपने समय का काफी पढ़ा-लिखा, समझदार, मज़ाकिया स्वभाव का, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति शिवनारायण था। एक दुर्घटना के कारण उसका मानसिक संतुलन थोड़ा बिगड़ गया था। इस कारण घरवालों, पड़ोसियों से हमेशा कुछ न कुछ बात को लेकर लड़ाई-झगड़े करता रहता। घरवाले भी रोज की किच-किच से परेशान होकर उसकी तरफ उतना ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप वह घर से हमेशा भागा रहता। भोजन और आश्रय की तलाश में अपने रिश्तेदारों से लेकर अलग-अलग गाँव भटकता रहता। 10 किलोमीटर के दायरे का शायद ही कोई गाँव उसके चरण चिन्ह से अछूता हो। इन गांवों में शादी, श्राद्ध, धार्मिक आयोजन की टोह वह हमेशा लेता रहता था। क्योंकि ऐसे आयोजनों में ही उसके पेट की आग को पूर्ण तृप्ति मिलती थी। सभी लोग शिवनारायण के इस आवश्यकता का खूब फायदा उठाते थे। शादी, श्राद्ध जैसे अपने घरेलू आयोजनों में उनसे कमर तोड़ काम करवाते। इन कामों में भोजन बनाने हेतु मोटे-मोटे लकड़ी के कुंदों को कुल्हाड़ी से फाड़कर चूल्हे में जलाने योग्य बनाने से लेकर कुएं से ड्रम में पानी ढोकर भरने, जूठे पत्तल उठाने तक शामिल थे। इन आयोजनों में जितने भी तथाकथित निम्न दर्जे के काम होते थे, उसके ही जिम्मे आते थे। बदले में आयोजक खाना खिलाकर बिना मजदूरी दिये या नाम मात्र मजदूरी देकर उसे चलता कर देते। अपने कमरतोड़ श्रम का कभी उसे वास्तविक मोल नहीं मिलता था। कुछ रिश्तेदार थोड़ा दरियादिली दिखाते और काम के बदले पैसे से लेकर उसकी आवश्यकता की चीजें जैसे पुराने कपड़े, टॉर्च (अक्सर रात के अंधेरे में भी वह अपने निर्धारित गंतव्य के लिए निकल जाता था) छाता आदि दे देते थे। अधिकांशतः मृतक से संबंधित उपयोग की वस्तुएँ उसके जिम्मे आते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो काम कराने के बदले बेमन से वास्तविक मजदूरी दे देते थे केवल अपने सम्मान बचाने के लिए। क्योंकि जिन लोगों से शिवनारायण को काम कराने के बदले उसके मन मुताबिक पैसे नहीं मिलते थे उसके बारे में वह जहां भी जाता प्रचारित करता रहता था कि फलां आपन बेटा/बेटी के शादी, किरिया (श्राद्ध) में कामा कराय लेलके और पैसबो नाय देल्के घरेलू समारोहों से फुर्सत मिलती तो खेतों में काम करने लग जाता। यहाँ भी अधिकांश लोग अपने फसल की निराई-गुड़ाई करवा लेते, धान-गेंहू के फसल खेतों से खलिहान पर ढुलवा लेते और मजदूरी मांगने पर उल्टे घुड़की देकर दो-तीन दिन तक भरपेट खाते रहने की बात कर उसे भागा देते थे। बेचारा क्रोध में जलकर गाली-गलौज कर वह संतुष्ट हो लेता। पेट की आग बुझाने के लिए वह विक्षिप्तावास्ता में दर-दर भटकता रहता। कभी-कभी पूरे दिन खाना भी नसीब नहीं होता था। ऐसी ज़िंदगी से हताश होकर विक्षिप्तअवस्था में वह हमेशा कुछ ना कुछ बड़बड़ाता रहता था। उसके बड़बड़ाहट में उसके साथ हुए अन्याय, ज्यादिति के किस्से होते थे।

          ऐसा नहीं है कि वह गरीबी के कारण अन्न के लिए मोहताज था। बल्कि वह एक धनाद्य तथा भरे पूरे संयुक्त परिवार से आता था। जमीन जायदाद के मामले में उसका परिवार 400 परिवार वाले गांव में दूसरे या तीसरे स्थान पर गिना जाता था। सम्मिलित रूप से उसके परिवार के पास 30 बीघा जमीन थी। इतनी जमीन भले ही आपके नजर में बिल्कुल पिद्दी सा लगे, लेकिन उस क्षेत्र में इतनी भी जमीन जिसके पास होती थी उसका ओहदा गांव के राजा के समान होता था। चार भाइयों में वह तीसरे नंबर पर आता था। दोनों बड़े भाई सरकारी नौकरी से जुड़े हुए थे। एक रेलवे में ड्राइवर के पद पर था तो दूसरा धनबाद के कोयला खदान में एक अच्छे पद पर। धन दौलत की कोई कमी नहीं थी। कृषि से संबंधित काम उसके पिताजी और छोटे भाई के जिम्मे था। छोटे भाई को पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था लेकिन खेती करवाने में वह उस्ताद था। शिव नारायण उच्च शिक्षा प्राप्त कर अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर बनना चाहता था। वह भी 1980 के दसक में। इससे उसके सोचने के दायरे और प्रतिभा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अपने समय का वह उस गांव-क्षेत्र का एकमात्र बंदा था जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता था। उसकी बातों-विचारों को सुनकर लोग अवाक रह जाते थे। एक प्रतिष्ठित खानदानी परिवार में विवाह के पश्चात एक दुर्घटना से उसके मानसिक संतुलन को आघात लगा। इसके पश्चात उसकी पत्नी उसके बदले व्यवहार को सह नहीं पाई और आत्महत्या कर ली। इस घटना ने उसे और विक्षिप्त बना दिया। इसके पश्चात घर वाले ने मानसिक संतुलन की बात को छुपाते हुए उसकी दूसरी शादी करा दी। उसकी दूसरी पत्नी बहुत दिनों तक उसकी हरकतों को बर्दाश्त करते हुए परिवार को आगे बढ़ाती रही। दो बच्चे के साथ-साथ अपने पति की भी काफी दिनों तक देखरेख की। लेकिन एक ऐसा भी समय आया जब अपने पति की उटपटांग हरकतें उससे भी बर्दाश्त नहीं होने लगी। धीरे-धीरे वह भी अपने पति के हरकतों पर टोका टिप्पणी करने लगी। कई बार इसकी वजह से हिंसक मारपीट होने लगे।

          इस झगड़े से खुन्नस खाकर शिवनारायण गुस्से में घर से निकल जाता और दो-तीन दिनों तक अपने रिश्तेदारों में या इधर-उधर विक्षिप्त रूप बनाए घूमता रहता। कहीं खाना मिल गया तो खा लेता नहीं तो भूखे ही घूमता रहता। दूसरी तरफ उसकी पत्नी खेती-बाड़ी से लेकर बच्चों के खान-पान, पढ़ाई लिखाई का भार अच्छी तरह संभाले हुए थी। खेतों में गर्मी, बारिश, ठंड की परवाह किए बिना कमरतोड़ काम करती। धीरे-धीरे उसे भी अपने पति का घर से दूर रहना सुकून देने लगा। कम से कम कलह तो नहीं होता था। यही कारण है कि जब भी शिवनारायण इधर-उधर से घूम कर आता उसकी पत्नी उससे झगड़ा कर फिर से भागने पर मजबूर कर देती। बेचारे शिवनारायण के पास इधर-उधर भटकने के अलावा कोई चारा नहीं होता था। ऐसे में वह अपना एक स्थायी ठिकाना ढूँढने की कोशिश में लगा रहता। लेकिन बिना धन कहाँ स्थायी ठिकाना मिलता है।

          इसी दौरान शिवनारायण के गांव से 5 किलोमीटर की दूरी पर ही नए जिले के रूप में मान्यता मिलने के बाद प्रधानपुर शहर में काफी तेजी से सरकारी इमारतें व निजी घर बन रहे थे। शिवनारायण के गांव के बहुत सारे लोग वहां राजमिस्त्री से लेकर मजदूर के रुप में काम करते थे। उसकी स्थिति पर तरस खाकर वे लोग उसे कुछ ना कुछ काम दिला देते थे। घर से दूर दिन भर वह काम करता और रात को उसी बन रही इमारत में ही सो जाता। वह इमारत उसे अपना घर ही लगता था। अपना घर समझ कर पूरी ईमानदारी से वह उसके निर्माण में लगा रहता। उसकी मानसिक विक्षिप्तता का फायदा उठाने से कोई चूकता नहीं था। मालिक या ठेकेदार उसकी मजदूरी से 10-20 रुपए काटकर उसे देते थे। जो पैसे मिलते थे उसे देख कर ही वह इतना खुश हो जाता था कि उसे पता ही नहीं होता था कि सामने वाला उसे पूरे पैसे दे रहा है या नहीं। उसे बस नियमित पैसे मिलने की खुशी होती थी कम मिला या अधिक मिला इस बात की उसे इस दौरान कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। उसे जितना मिलता उतने में दो से तीन समय सत्तू खाकर खुश रहता।

          उसकी ये कहानी जानकर हम आप भले ही गम में डूब गए हों लेकिन इतनी भी गमगीन नहीं थी उसकी जिंदगी। क्योंकि वह क्या कर रहा है? क्या बोल रहा है? इसका सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आदि बातों का उसे कोई खास आभास नहीं होता था। पूरा दिन जितना वह काम करता था उससे दुगना-तिगुना अधिक इधर-उधर की बातें कर हंसते-हँसाते-बड़बड़ाते रहता था। 10 मिनट तक उसकी बात सुनकर सामने वाला कोई भी व्यक्ति कितना भी उदास क्यों न हो बिना हंसे नहीं रह पाता था। सामने वाले को हंसते देख अनायास उसे भी हंसी आ जाती थी। बस इसी तरह गमों के बोझ तले हंसते मुस्कुराते हुए उसकी जिंदगी कट रही थी। यही नहीं अमिताभ बच्चन का वह जबरदस्त प्रशंसक था। लावारिस फिल्म का एक गाना 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' उसका सबसे पसंदीदा गाना होता था। दिन-रात उसे गुनगुनाते हुए सहकर्मियों का मनोरंजन करता रहता था। इसी दौरान जब महफिल जमती तो अंग्रेजी के लेक्चरर वाला रूप उसमें जाग जाता था। वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने लगता था। उसकी अंग्रेजी बोलने की प्रतिभा देखकर साथ में काम करने वाले सभी लोग उसके मजे लेना छोड़कर शांत, मायूस हो जाते थे। सब की आँखें छलक आती थी। चूंकि उसे बोलने की कोई सुध बुध नहीं होती थी ऐसे में वह अक्सर ऐसी बातें भी बोल जाता था जो किसी को बर्दाश्त नहीं हो। जिससे वह उसे वहां से भगा देते थे।

          वीरभद्र का घर बनाने में भी उसने अपने खून पसीने लगाए। उसके घर की एक-एक दीवार उसकी ईमानदारीपूर्वक काम की प्रत्यक्ष गवाह है। वीरभद्र के दादाजी जो प्रधानपुर शहर में नए घर बनवा रहे थे एक बहुत ही नेक दिल इंसान थे, उसके खाने-पीने का पर्याप्त ध्यान रखते थे, नए गमछे, लुंगी के साथ-साथ पुराने छोटे हो चुके कपड़े, धूप, बारिश से बचने के लिए छतरी, स्वेटर आदि बेझिझक दे दिया करते थे। इस कारण वीरभद्र के घर से शिवनारायण को विशेष लगाव रहता था। गृह निर्माण पूर्ण हने के बाद भी सप्ताह में एक दिन इधर-उधर से घूमकर घर पर आ ही जाता था। वीरभद्र की मां को उसके स्थिति पर बहुत दया आती थी लेकिन कर भी क्या सकती थी? गृह निर्माण में उसकी ईमानदारी पूर्वक कम से वह प्रभावित हुई थी इसलिए जब भी वह आता तो जो भी बना हो घर में निःसंकोच खिलाती थी। उसका उतरा चेहरा देखकर ही उन्हें पता चल जाता था कि उन्हें कई दिनों से खाना नहीं मिला है। खाना यदि नहीं भी बना हो तो चावल के भूँजे (मूढ़ी), चूड़ा-चीनी, या सत्तू खाने के लिए दे देती थी। बदले में स्वाभिमानी शिवनारायण कुछ न कुछ काम बिना बोले ही कर जाता था। अगले 10 वर्षों तक उसकी जिंदगी ऐसे ही चलती रही।

          10 वर्ष पश्चात वीरभद्र के भैया श्रवण ने अपने घर से थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा डेयरी फार्म खोला। 10 गायों की देखभाल के लिए 'वकील' नाम का एक व्यक्ति दिन रात लगा रहता था। उनके रहने का इंतजाम डेयरी में ही था। गाय की देखरेख करने के बाद वह रोज दोनों समय खुद से खाना बनाता। भूखे प्यासे घूमने से शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो चुके शिवनारायण को इन दिनों भवन निर्माण में काम नहीं मिल रहा था। ऐसे में वीरभद्र के भैया की इस छोटी सी डेयरी में उसे आशा की एक किरण दिखी। उसने वीरभद्र के भैया श्रवण से डेयरी में काम करने की इच्छा जताई। काफी कुछ सोचने विचारने के बाद उन्होंने उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए मना कर दिया। बावजूद इसके वह डेयरी में आता-जाता रहता था। डेयरी की साफ सफाई, घास काटने, गायों को नहलाने, दूध-दुहने, खिलाने पिलाने से लेकर और सभी काम वह दिन-रात, हंसी-मजाक करते, लड़ते-झगड़ते वकील के साथ दिल खोलकर करता रहता था। बदले में वकील उसे खिलाता-पिलाता रहता। पेट तो उसका भर जाता लेकिन पैसे कमाने की भी तो चाहत थी। उसका क्या करें? उसके काम से खुश होकर वीरभद्र के भैया 20-30 रुपए प्रतिदिन दे देते थे। चूंकि वीरभद्र भैया की अनुपस्थिति में सुबह शाम डेयरी आता जाता रहता था। ऐसे में उसके संवेदनशील स्वभाव ने शिवनारायण की ज़िंदगी को नजदीकी से जानने के लिए प्रेरित करता था। खाली समय में वह शिवनारायण के जीवन संघर्ष को खोद-खोद पर पूछते रहता। शिवनारायण को मलाई बर्फ खाना बहुत अच्छा लगता था, उसे जब भी पता चलता कि शिवनारायण डेयरी पर आया हुआ है तो भैया की जगह वह खुद चला आता, रास्ते में मलाई बर्फ खरीदते हुए। वह डेयरी के कामकाज देखने कम शिवनारायण की बातें सुनने ज्यादा आता था। पता नहीं उसे उसके जीवन संघर्ष सुनने से इतना लगाव क्यों था? समय परिवर्तन के साथ शिवनारायण के अंग्रेजी बोलने की धार भले ही कुंद पड़ गई लेकिन उसके साथ अंग्रेजी में बात कर वीरभद्र को बहुत ही सुकून मिलता था। धीरे-धीरे वकील का उसके प्रति स्वभाव बदलने लग गया। जो काम पहले वह शिवनारायण के साथ मिलकर करता था अब अधिकांश काम वीरभद्र के भैया की अनुपस्थिति में उसके जिम्मे डालकर उसपर हुकुम चलाता रहता था। खाना मिलने की मजबूरी के वशीभूत होकर वकील के आदेशों को मानने के अलावा शिवनारायण के पास कोई और चारा नहीं होता था। इस क्रम में दोनों के बीच लगातार गृहयुद्ध की स्थिति बनी रहती थी। कई बार वकील उसे खदेड़ कर भगा भी देता था। लेकिन एक-दो दिन भटकने के बाद थक हार कर फिर से डेयरी ही चला आता था। चारा कटवाना, गायों को खिलवाना, गोबर फेंकवाना आदि काम करवाने के बाद वकील अब खाना खिलाने के स्थान पर 10 रुपए देकर बहलाने लगा था। बेचारा 10 रुपए का सत्तू लेकर कहीं से नमक प्याज की व्यवस्था कर पेट भर लेता था। वीरभद्र को जब उसके भूखे होने की बात पता चलती तो कभी-कभी अपने पैकेट मनी से 10-20 रुपए दे देता कुछ खाने के लिए।  

          एक दिन वीरभद्र के भैया को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। ऐसे में डेयरी पर शाम की ड्यूटी वीरभद्र के जिम्मे आ गया। भाभी द्वारा गाय को दिये जाने वाले दिए गए बदबू मारती रोटी, चावल और दाल को वीरभद्र एक बर्तन में लेकर डेयरी पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही उसे शिवनारायण की वकील पर दहाड़ भरी आवाज सुनी। यह रोज की बात थी इसलिए वीरभद्र ने इसकी परवाह किए बिना केन को खोलकर बेकार पड़े खाने को गाय की नांद में डालने के लिए बढ़ा। अचानक से उसे एक ज़ोर की डांट पड़ी।

'हों रे रे! पढ़ल लिखल के टोपी नाय, और कुतबा के पैजामा' तोहरा कुछ बुझाए हो, एसीया से निकलनहिं और आए गेल्हीं खटलबा पर। तनियो सा चिंता हौ कि शिव भैया दु दिन से भुक्खल छटपटाव करै है तो कुछ खाइल दिये। तोरी काल के ई बकिलबो कामा कराय लेलको और 10 रुपैया थमाय देल्को कि जो सत्तू खाय लियहें। 10 रुपैया के सत्तू में पेट भरय है। तोहरा री दूधा बेच-बेच के बिल्डिंग पीट लेनही, और हम दिन रात भटकेत रहै हिये। हमर मोन नाय होबे है एसीया में रहेके। चल एसीया में नाय रहबे दाल, भात तरकारियो से खाय से गेलिए। जेकरा खिलाबे के ओकरा न खिलाय के गइया के दाल भात खिलबैए है। ला छोड़ हमरा दे। गइया पाहुन है जे दाल भात तरकारी खिलाब करेहीं।

शिवनारायण ने वीरभद्र के हाथों से बदबू मार रहे खाने से भरे केन को झटके में छीनकर एक जगह बैठ गया। उस केन में चार रोटियां, काफी मात्रा में दाल और चावल थे। दाल में भीगकर रोटियाँ पिलपिली हो गई थी। वह खाने लायक था ही नहीं। इसे देखकर वीरभद्र ने उसे खाने से बहुत मना किया -

शिव दा, एकरा नाय खा, ई खनमा महैक गेले है, तबीयत खराब होय जैतअ। हमरा से तोएँ 50 रुपैया ले ल, मुर्गा भात बाजार में खाय लेअ, लेकिन एकरा नाय खा

शिवनारायण ने वीरभद्र की एक नहीं सुनी, उल्टा डांट दिया –

तोरा कुछ बुझावै हो, 50 टका कमावे में केतना मेहनत लगए है। अभी बाप के होटल में खाय हीं इसलिए न समझ में आवै हो। जहिया अपने से कमयभीं ताहिया पता चलतओ।

          डांटने के साथ-साथ एकदम प्रसन्नचित भाव से शिवनारायण इतनी तेजी से गबागब खाए जा रहा था जैसे किसी निर्जला उपवास रखा व्यक्ति उपवास टूटते ही मसालेदार मैगी पर टूट पड़ता है। चेहरे पर कोई शिकन नहीं कि रोटी भीगकर पिलपिली हो गई, भात गल गए हैं, दाल खट्टी लग रही है। वीरभद्र एक टक उसे देखता ही रह गया। इतने में ही खाने के बाद चापाकल पर जाकर केन को धोया। और एक लंबी डकार लेते हुए कहा –

'दु दिन बाद अइसन बढ़िया और एतना खाना मिललइ। खाय के मज़ा आय गेलो

यह सुनकर वीरभद्र की आँखों से आँसू छलक आए। वह सोच में पड़ गया कि यह पेट की आग व्यक्ति को कितना मजबूर कर देती है कि वह अन्न के एक-एक दाने का मोल समझने लगता है। उस दिन उसे एहसास हुआ कि अन्न के मोल के अलग-अलग मायने हैं। आपका पेट यदि भरा हो तो बासी खाने आपके लिए बेकार हो जाते हैं लेकिन एक भूखे को वही खाना अमृततुल्य स्वादिष्ट लगता है। इससे पहले कि वीरभद्र उससे कुछ कहता शिवनारायण वकील को ताना मारते हुए कि – रे वकीलवा, कामा कराय लेन्हीं और पैसबा नाय न देन्ही, कहियो पुछ्बो तोरा' अपना झोला-डंडा लिया और शाम के अंधेरे में गुम हो गया।

          अगले दिन वीरभद्र अपने पैकेट मनी से 100 निकाल कर ले गया यह सोच कर कि आज शिवनारायण को वह बगल वाले होटल में बैठा कर भर पेट मुर्गा-भात खिलाएगा। लेकिन उसका यह ख्वाब कभी पूरा नहीं हुआ। क्योंकि उसके बाद वह दोबारा डेयरी पर दिखा ही नहीं।

          इस घटना के 2 साल बाद वीरभद्र को वह अपने घर से 100 किलोमीटर दूर मधुपुर रेलवे स्टेशन पर दिखा। प्रधानपुर की ओर जाने वाले ट्रेन दो मिनट के लिए मधुपुर स्टेशन रुकी। ट्रेन रुकते ही उसे उसी प्लेटफॉर्म पर बड़े-बड़े उलझे बाल, दाढ़ियों में मैले-कुचैले कपड़े पहने एक शख्स दिखा जो एक खोमचे से मूँगफली चुरा रहा था। खोमचे वाले ने उसे ज़ोर से डांटा तो वीरभद्र का ध्यान उस विक्षिप्त की ओर गया। वह देखते ही पहचान गया और झट से गाड़ी से उतर शिवनारायण को जोर से झकझोरा। ' शिबू दा!' उस विक्षिप्त शख्स ने वीरभद्र की ओर ध्यान से देखा लेकिन कोई उत्तर नहीं दिया। सिर झुकाए, कहीं खोए शांत खड़ा रहा। खोमचे वाले ने पूछा, 'आप पहचानते हैं इसे क्या?’ वीरभद्र ने सिर हिला कर हां में जवाब दिया। 'कैसे लोग हैं आप? ले जाइए इसे अपने घर, बेड़ी में जकड़ कर रखिए घर पर। 1 साल से मधुपुर में पड़ा है। कहां से आया है, कुछ बोलता नहीं है, बस दिन-रात हम खोमचे वालों की नाक में दम कर रखा है।' खोमचे वाले ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला। वीरभद्र की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे ले जाए तो कहाँ ले जाए, किसकी ज़िम्मेदारी पर ले जाए? कौन रखेगा इस विक्षिप्त को? इतने में ट्रेन खुलने का हॉर्न बजा। वह बेमन से ट्रेन में चढ़ा। चलती ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा होकर शिवनारायण को तब तक निहारता रहा जबतक कि वह उसकी आँख से ओझल नहीं हो गया। रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि हमेशा बड़बड़ाकर लोगों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला शख्स जिसने उसे अन्न के मोल का ज्ञान दिया आखिर कैसे खामोश हो गया?

 

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