बचपन में हमें 3 दिन का
विशेष रूप से इंतजार होता था – शुक्रवार, शनिवार, रविवार। मनोरंजन की दृष्टि से सप्ताह के यह तीन दिन काफी महत्वपूर्ण दिन
होते थे। शुक्रवार और शनिवार को रात के 9:30 बजे दूरदर्शन चैनल पर फिल्म दिखाया
जाता था, वहीं रविवार को शाम के 4:00 बजे का समय इसके लिए
निर्धारित था। उस दौर में घर में बैठकर खेले जाने वाले खेल की अपेक्षा घर के बाहर भाग
दौड़ वाले खेल ज्यादा लोकप्रिय थे। गर्मी के दिनों में ही केवल कड़ी धूप या गर्मी के
दौरान इनडोर खेल ज्यादा खेले जाते थे। पूरा दिन स्कूल में बिताने, तत्पश्चात भाग दौड़ वाले खेल खेलने के बाद रात के 9:00 बजे तक इतना सामर्थ
नहीं होता था कि इससे ज्यादा जागने के लिए अपनी आँखों को मना सकें। अर्थात 9:00
बजे रात तक स्वाभाविक रूप से नींद आ जाती थी। किसी दिन यदि जागे रह भी जाते तो माँ, पिताजी या दादाजी द्वारा डांट फटकार सुनने को मिल जाती इस स्टेटमेंट के साथ
कि ‘Early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and
wise’ और अंततः प्रवचन
सुनकर सोना ही पढ़ता था। अगले दिन स्कूल में जब दो-तीन साथी रात की
फिल्मों का जिक्र कर रहे होते थे तो एक अफसोस था होता था कि काश हम भी फिल्म देख
सके होते।
ऐसे में फिल्म देखने के लिए रविवार का
दिन मिलता था। 4:00 बजने का बेसब्री से इंतजार होता था। लेकिन तब भी इतना भी आसान
नहीं होता था फिल्म देख पाना क्योंकि तब आज की तरह 24 घंटे बिजली भी नहीं रहती थी, इनवर्टर, सौर ऊर्जा का नाम किसी ने सुना भी नहीं था।
ऐसे में बिजली न होने पर 12 या 24 वोल्ट के बैटरी पर हमारी निर्भरता ज्यादा होती
थी। उसे दौर में जिन घरों में टीवी होते थे, वहां वोल्टेज
बढ़ाने के लिए स्टेबलाइजर, चार्जर और बैटरी भी होते थे। जिस समय
बिजली होती थी बैटरी चार्ज किया जाता था, बिजली न होने पर टीवी
में जब कुछ देखना हो तो बैटरी से टीवी चलाया जाता था। हम भी अपने ब्लैक एंड व्हाइट
टीवी को बैटरी से चला कर फिल्मों का आनंद लिया करते थे। कभी-कभी जब कोई बहुत ही चर्चित
फिल्म आती तो बिजली एवं बैट्री चार्ज न होने की स्थिति में गाँव के किसी के ट्रैक्टर
की बैटरी निकलवा कर फिल्मों को देखा जाता था।
उसे समय आज की तरह बहुत सारे चैनल भी
नहीं हुआ करते थे, एकमात्र दूरदर्शन चैनल ही हमारे
डिजिटल मनोरंजन का सहारा होता था। हां ! एंटीना को इधर-उधर घुमाने पर डीडी मेट्रो
जरूर आता था, लेकिन उसे देखने या ना देखने का कोई मतलब ही
नहीं होता था, क्योंकि वह केवल बड़े-बड़े शहरों में दिखाए
जाते थे, बहुत ही कम सिग्नल गांव तक आते थे। उस दौर में हमने
नया-नया पढ़ना सीखा था, ऐसे में हर लिखी हुई चीज को पढ़ने का
एक जुनून था। यही कारण है कि फिल्म की कास्टिंग से लेकर फिल्म के अंत तक जो भी
लिखित सामग्री आई थी, उसे बिना पढ़े छोड़ते नहीं थे। कुछ को
समझते थे, कुछ सर के ऊपर से निकल जाते थे। जिज्ञासा तो होती
थी सर के ऊपर से निकलने वाले कंटैंट के मायने को समझने की, लेकिन
कोई समझा भी नहीं पाते थे। lyricist/lyrics, choreography ऐसे
ही कुछ शब्द थे। यह अलग बात है कि उस अंग्रेजी शब्द के मायने समझने वाले कोई नहीं
थे। फिल्म शुरू होते ही हम कलाकार के नाम से लेकर फिल्म बनाने में सहयोग देने वाले
लोगों के नाम पढ़ते थे। इस दौरान एक सीन को हम लोग अक्सर पूरा नहीं पढ़ पाते थे,
लेकिन हां! इतना देखने में जरुर सफल हो जाते थे कि फिल्म कितने रील
की है। अधिकांश फिल्म 16-17 या 18 रील के होते थे। वह दिखाई जाने वाली चीज सेंसर
बोर्ड के द्वारा जारी किया गया एक सर्टिफिकेट होता था, जिसमें
यह प्रमाणित होता था कि यह फिल्म किस
दर्शक वर्ग के लिए बनी है? अधिकांश प्रसारित फिल्में U,
U/A प्रमाणित होते थे। हालांकि दिखाए जा रहे इन सर्टिफिकेट के
वास्तविक मायने की समझ तो उस दौर के पेरेंट्स को पता भी नहीं थे। आज भी फिल्म देखनेवाले
आधे से ज्यादा जनसंख्या को इसके मायने नहीं पता होंगे।
आज 25 वर्ष बाद का दौर बिल्कुल उसके उलट
है। तब बहुत सीमित संख्या में ऐसे मनोरंजक वीडियो बनते थे, बहुत ही सीमित नायक-नायिकाएँ-विलन होते थे। आज वीडियो या फिल्म देखने के
लिए शुक्रवार, शनिवार, रविवार जैसे
किसी दिन विशेष का इंतजार नहीं करना पड़ता। फेसबुक, इंस्टाग्राम,
यूट्यूब खोलिए तरह-तरह के वीडियो आपकी सेवा में हाजिर है। स्मार्ट/मोबाइल
फोन, सोशल मीडिया के क्षेत्र में आई क्रांति ने देश के
प्रत्येक नगर, गांव को एक मिनी फिल्म इंडस्ट्री बना दिया है।
युवा से लेकर वृद्ध तक सभी अपने अभिनय कौशल, नृत्य कौशल,
संगीत कौशल, मस्करी करने का कौशल आदि के दम पर
खुद के घर में ही मिनी फिल्म इंडस्ट्री स्थापित कर लिया है। यह उनके अभिव्यक्ति
कौशल को निखारने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त भी कर रहा है। विज्ञापन के
माध्यम से होने वाले आय से वे आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे हैं। यही कारण है कि आए
दिन हम मुख्य धारा के मीडिया चैनलों द्वारा 'यूट्यूबरों का
गांव' जैसे स्टोरी कवर करते देखते सुनते रहते हैं।
इनमें से अधिकांश युवा/लोग छोटे-छोटे 5
से 10 मिनट के वीडियो बनाकर उसे अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपलोड कर देश- विदेश
के लोगों को मनोरंजित कर रहे हैं। इनके माध्यम से वे नए-नए ज्ञान, मनोरंजन करने के साथ-साथ जीवंत उदाहरणों द्वारा उन मूल्यों को भी
प्रसारित करने का कार्य कर रहे हैं जिसकी अपेक्षा हमारा भारतीय संविधान हमसे करता
है। इन मूल्यों के साथ जीना सिखाने में प्राथमिक कक्षाओं में नैतिक शिक्षा विषय के
अंतर्गत, या हिंदी विषय के अंतर्गत कविता कहानियां के सार के
रूप में एक स्तर पर समझ बना चुके होते हैं। ऐसे में जब वीडियो के माध्यम से उन बातों
का दोहराव होता है तो उसके प्रासंगिक/अप्रासंगिकता के बारे में हम सोचना- विचारना
शुरू कर देते हैं। वीडियो बनाने का प्रभाव जब इस रूप में परिलक्षित होता है तो एक
यूट्यूबर के लिए यह गौरवशाली पल होता है। गौरवशाली पल से इसलिए संबोधित किया जा रहा
है कि आपके वीडियो को देखकर दर्शक वर्ग आत्मावलोकन करते हैं एवं जहां खुद में
सुधार लाने की गुंजाइश होती है, उसे पर वे कार्य करते हैं।
इसका एक दूसरा पक्ष भी है। दर्शक वीडियो
को शुरू से अंत तक दर्शक देख सकें इसके लिए ऐसे भड़कदार विषय पर वास्तविक लगने
वाले वीडियो बनाए जाने का चलन बढ़ रहा है जिससे लोग प्रभावित होकर उसे वायरल कर
दें। जैसे - कुछ यूट्यूबर तीन-चार पात्रों को मिलाकर पैसे के लिए ब्लैकमेलिंग करने
जैसे पटकथा लिखकर उसका वीडियो बनाते हैं और ऐसे दावों के साथ साझा करते हैं जैसे
वे वास्तविक हों। इन कहानियों में एक शोषक एवं एक शोषित आसानी से देखे जा सकते
हैं। इस दौरान वे दर्शकों के भी स्वाद का ध्यान रखते हैं, जैसे वीडियो में दिख रही लड़की को पूरे मेकअप के साथ भड़कदार कपड़े पहनाना
नहीं भूलते। ऐसे ही ब्लेकमेल करने, उसका पर्दाफास कर तथाकथित
शोषित को शोषण से मुक्त करवा कर खुद को हीरो के रूप में दिखाने वाली कहानियों को
थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ दूसरे चैनल को भी ऐसी सामग्री परोसते हुए देखा जा सकता
है।
कुछ यूट्यूबर भूत की हंटिंग करने जैसे
कार्य में लगे हुए हैं, भूतों वाले मास्क लगाकर,
10 से 15 मिनट की कहानी को अपने ओवर एक्टिंग से इतना भयावह बना देते
हैं, कि लोग इसे देखते ही भूत को सच मानकर धड़ाधड़ लाइक शेयर
करना शुरू कर देते हैं, जिससे उनकी व्यू इतनी बढ़ जाती है कि
जो वीडियो को नहीं भी देखे हैं उनमें भी उत्सुकता आ जाती है कि आखिर क्या है इसमें?
ऐसा कर वे वैज्ञानिक सोच की जगह अंधविश्वास फैलाने का कार्य कर रहे
होते हैं। देखकर हैरानी होती है कि वीडियो में दिखने वाले भूत या चुड़ैल वीडियो
में दिख रहे जांबाज़ भूत पकड़ने वालों के हाथ पैर खींच रहे होते हैं लेकिन उनके
साथ-साथ उनके पीछे दौड़ रहे कैमरामैन को वह छू भी नहीं पाते। जिनके पास आलोचनात्मक
चिंतन करने का कौशल है वह कमेंट सेक्शन में जाकर उनकी पोल खोल रहे होते हैं,
उनके बेवकूफ बनाने को अपशब्द कह रहे होते हैं। लेकिन वीडियो बनाने
वालों पर इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे जानते हैं कि उनके
सब्सक्राइबर को संवेदनशील/हॉरर कंटेंट देखना और शेयर करना पसंद है। क्योंकि वे भूत
के अस्तित्व में होने को अपने दिलों दिमाग में बसाए बैठे हैं। ऐसे में भूत दिखना
उनके लिए कौतूहल वाला विषय होता है।
इन वीडियो को अलग-अलग दर्शक वर्ग अपने
अपने स्वार्थ के अनुसार उसे वीडियो को काट छांटकर अपने अकाउंट से पोस्ट कर रहे
होते हैं। हाल ही में एक फेसबुक ग्रुप जो ब्राह्मणवाद के खिलाफत के लिए आवाज उठाने
का काम करता था, पर एक वीडियो शेयर किया गया। वह वीडियो एक
स्क्रिप्ट वीडियो का छोटा सा भाग था, मनोरंजन के लिए इस
ड्रामे को बनाया गया था। इस वीडियो में यह दिखाया गया था कि एक अधेड़ उम्र का
व्यक्ति अपनी बेटी समान एक बालिका को अनाथ आश्रम से उठा लाया और उससे विवाह कर
लिया। वास्तविकता यह है कि अनाथ आश्रम से किसी भी बालिका को लाकर उससे विवाह कर
लेना कोई आसान काम नहीं है। अनाथ आश्रम वाले अपने बच्चों को यूं ही नहीं किसी के
पास भेज देते हैं। इसका एक प्रोटोकॉल होता है। कैमरा के एंगल, मूवमेंट से लेकर आवाज की शुद्धता तक अवलोकन करने से पता लगा कि यह एक
ड्रामा वीडियो है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन हो सकता है। लेकिन उसे पेज के
द्वारा इसे एक ब्राह्मण द्वारा अपनी बेटी की उम्र के लड़की के साथ विवाह करने जैसे
दावे के साथ साझा किया जा रहा था। उसके
कमेंट सेक्शन में जब गया तो पता चला कि उसे पेज की विचारधारा को फॉलो करने वाले
सभी लोग ब्रह्मा सरस्वती आदि का जिक्र करते हुए उस जाति के लोगों को पानी पी पीकर
कोस रहे थे। वीडियो पर कमेंट करने वाले लोग इस घटना को सही मानकर इसे शेयर भी कर
रहे थे। उन्हें पता ही नहीं था कि वे वास्तविक नहीं ड्रामा वीडियो को शेयर कर रहे
हैं,
जो वास्तविकता से कोसो दूर हो सकते हैं। वीडियो के सभी पात्र अभिनय कर
रहे होते हैं। इसके कुछ दिनों पूर्व ही उसी पुरुष अभिनेता की जयमाला स्टेज पर एक
सुंदर लड़की द्वारा उसे दुत्कार कर भाग जाने का एक शॉर्ट वीडियो वायरल हुआ था। तब
भी लोग इसे सच मानकर मुस्लिम कीवर्ड के साथ साझा कर रहे थे।
ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे कंटेंट को
देखना हमें झकझोरने जैसा होता है, जो हमारी भावनाओं को ठेस
पहुंचाए। यूट्यूबर हमारी आपकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अपने लिए पैसे बनाने की
फिराक में लगे रहते हैं। ऐसे सेंसिटिव कंटेंट पर वीडियो बनाने से उस विडियो को देखने
वाले की संख्या लाखों-करोड़ों में बहुत जल्दी चली जाती है जिससे पैसे कमाना आसान
हो जाता है।
ऐसे शॉर्ट वीडियो के प्रदर्शन को
नियंत्रित करने के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं होता। ऐसे में हमारी आपकी जिम्मेदारी
हो जाती है कि इस तरह के वीडियो के झांसे में आकर कोई असंवैधानिक कदम न उठाएं। या आपसी
फूट को बढ़ावा न दें। किसी भी वीडियो को देखने के लिए उसके वास्तविकता तक पहुंचाने
के लिए खुद में आलोचनात्मक चिंतन करने का कौशल विकसित करें, एवं समझदारी से उन वीडियो को देखें एवं शेयर करें।