दीपावली के अवसर पर सजी
बाजार में खूब रौनक थी। धनतेरस के दिन से ही लोगों की भीड़ को देखकर सभी दुकानदार, व्यवसायी के चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। कुछ व्यवसायी तो सुबह से ही
सामान देते-देते थककर चूर थे, लेकिन मुनाफे को और बढ़ाने की
चाहत उन्हें आराम करते नहीं देखना चाहती थी। सोने चांदी की दुकान, इलेक्ट्रॉनिक सामान, रेडीमेड कपड़ों की दुकान,
मिट्टी के दिये की दुकान, पटाखे की दुकान,
मिठाई की दुकान आदि पर जितनी भीड़ थी, आम
दिनों में उतनी भीड़ शायद ही कभी देखने को मिले। सभी लोग अपने-अपने जरूरत के समान
प्रसन्नता के साथ खरीद रहे थे। बाजार घूमते-घूमते अपने एक मित्र के मेडिकल की
दुकान पर उनसे भेंट-मुलाकात करने पहुंच गया। वहां भी भीड़ थी, लेकिन वह उस दिन के भीड़ से अलग थी। अब आपके परिजन अस्पताल में भर्ती हों,
और आप उनकी दवाई के लिए आए हों, तो स्वाभाविक
है आप थोड़े अलग नजर आएंगे ही। वहां बैठा ही था कि दोस्त ने एक जगह साथ चलने को कह
दिया। हम दोनों फुटपाथ किनारे लगे एक अस्थाई दुकान, जो दोस्त
के किसी जान-पहचान वाले की दुकान थी, और उन्होंने केवल
दो-तीन दिनों के लिए लगाया था, पर पहुंचे। दोस्त ने लक्ष्मी-गणेश
की एक मूर्ति एवं उनसे संबंधित कुछ पूजन सामग्री खरीदी एवं अपने गंतव्य के लिए चल
दिए। जितनी भीड़ अन्य दुकानों पर थी जिसकी चर्चा मैंने पूर्व में की, उतनी ही भीड़ इन दुकानों पर भी थी। गरीब से लेकर अमीर तक के लोग इस दुकान
पर रुक कर अलग-अलग आकार वाले लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों को खरीद कर ले जा रहे थे। इस
तरह की दुकान देखना मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था, पिछले
25 वर्षों से इस तरह की दुकान दीपावली के अवसर पर सजी दिखती रही है। करीब 10-15
वर्ष पहले अपने मां-पिताजी के साथ आकर हमने भी ऐसी दुकानों से लक्ष्मी-गणेश की
मूर्ति एवं पूजन सामग्री खरीदने के लिए इस भीड़ का हिस्सा बने थे।
लेकिन इस बार की बात थोड़ी अलग थी।
तार्किक सोच/विचार के कौशल ने मुझे सोचने पर थोड़ा विवश किया। मेरे मन में विचार चलने
लगा कि सोने चांदी की दुकानों पर, इलेक्ट्रॉनिक समान की
दुकानों पर भीड़ इसलिए होती है कि धनतेरस एवं दीपावली को लोग शुभ अवसर मानते हैं। एवं
ऐसे मौकों पर वे अपने सुख-सुविधा की चीजों में इजाफा कर रहे होते हैं, इस अवसर पर कंपनियों की ओर से मिलने वाले छूट भी उन्हें आकर्षित करती हैं।
वे जो कुछ भी खरीद रहे होते हैं वह उनके जरूरत की चीज होती है, जो उनका मनोरंजन करने, काम को आसान बनाने, समृद्ध दिखने में मदद करती है। लेकिन मूर्तियों की दुकानों पर आने वाले
भीड़ को उन मूर्तियों को खरीदने से क्या फायदा मिलता है? इसके
उद्देश्य को समझने हेतु अपने दोस्त से बाइक पर बैठे-बैठे सवाल किया – ‘दुकान में तो मूर्ति लगी हुई है ही फिर यह नई मूर्ति ले जाने का क्या मतलब?’
(इसके पीछे निहित कारण को मैं भी भली-भांति जानता था, फिर भी कोई और बात निकल कर आए यह सोचकर पूछ लिया) दोस्त की तरफ से कोई नया
जवाब नहीं आया। बल्कि इस फालतू लगने वाले सवाल के लिए खरी-खोटी भी सुना दी, क्योंकि उसे पता था कि मैं इतना भी अज्ञानी नहीं हूँ जो इसके पीछे के कारण
को समझ न पाऊँ। फिर भी उसने मेरे एक शोधार्थी होने का मान रखा और बताया। उसके
अनुसार हर दीपावली को अपने घर, दुकान में हम लक्ष्मी गणेश की
मूर्ति स्थापित करते हैं। लक्ष्मी धन की देवी हैं, उनके
स्थापित रहने से घर, दुकान या किसी प्रतिष्ठान में सुख, समृद्धि आती है। प्रतिवर्ष इसे बदले जाने के कारण के संदर्भ में वह कुछ
बात नहीं पाया। गणेश प्रतिमा के 10 दिनों में विसर्जन के पीछे निहित कारण एक जगह
पढ़ा था कि 'धार्मिक ग्रंथों के अनुसार श्री वेदव्यास ने
गणेश चतुर्थी से महाभारत कथा श्री गणेश को लगातार 10 दिन तक सुनाई थी जिसे श्री
गणेश ने अक्षरशः लिखा था। 10 दिन बाद जब वेदव्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि 10
दिन की अथक मेहनत के बाद गणेश जी का तापमान बहुत बढ़ गया है। तुरंत वेद व्यास जी
ने गणेश जी को निकट के सरोवर में ले जाकर ठंडे पानी से स्नान कराया था, इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनको शीतल किया जाता है’।[i] (विसर्जन के इस तर्क को भी
स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह एक काल्पनिक कहानी जैसी ही प्रतीत होती है।)
गौर करने वाली बात यह है कि प्रतिवर्ष
दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी-गणेश भगवान की ये मूर्तियां मूर्तिकारों द्वारा काफी
बड़ी संख्या में बनाए जाते हैं, एवं दुकानदारों द्वारा
बेचे जाते हैं। मान्यता बस इतनी है कि घर, दुकान या किसी
प्रतिष्ठान में उनकी मूर्ति होने से वहाँ धन-सुख-संपदा-खुशियां आएंगे। अपना लाभांश
रखकर वह दुकानदारों को देते हैं, दुकानदार अपना लाभांश रखकर
ग्राहक को देते हैं। यहां तक धन का आवक तो समझ में आता है, लेकिन
किसी घर, दुकान या प्रतिष्ठान में इन मूर्तियों के होने से
धन का आना समझ से परे है। और इन मूर्तियों की वैधता केवल एक साल ही समझी जाती है। अगले
साल कोई और मूर्ति पहले की जगह लगाना ही होता है। हर साल एक निश्चित दिन पर लोग इन
मूर्तियों को अपने-अपने घर-दुकान ले जाते हैं, पंडित से
प्राण प्रतिष्ठा के बिना इन्हें वैधता नहीं मिलती है।
विडंबना ये है कि गृहस्थ और भगवान के बीच
मध्यस्तता करने वाला पुजारी के वैदिक या पौराणिक ग्रन्थों में लिखित मंत्र पढ़कर मूर्तियों
में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने का तात्पर्य है पहले
यह मूर्ति केवल पत्थर की थी, इस कर्मकांड के बाद स्वयं
भगवान इस मूर्ति में विराजमान हो जाते हैं। और जिस घर या दुकान में वह होते हैं,
वहां की सुरक्षा करते हैं, उसके यश कीर्ति में
मदद करते हैं, धन की वर्षा करते हैं। इसमें और भी कई शुभ
इच्छाएँ जोड़े जा सकते हैं। पुजारी के इतना करने के बाद भी उन मूर्तियों की उपस्थिति
में ही दुकानों/घरों में चोरी हो जाती है, शॉर्ट सर्किट होने
से दुकान/घर तबाह हो जाते हैं। यहाँ तक कि चोरी-डकैती भी हो जाती है। लेकिन ये मूर्ति कुछ कर नहीं पाती। बल्कि आग
लगने के बाद भी इन मूर्तियों को उस आग में जलकर या धुएं से काला होते भी देखा है। अर्थात
अपनी ही सुरक्षा नहीं कर पाती। मजे की बात ये है कि प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने
वाले पुजारी भी अपने घर, मंदिर में यदि कीमती सामान रखे हो,
तो उनको भी भगवान से ज्यादा ताला पर भरोसा होता है। उनके साथ-साथ
प्रत्येक सामान्य गृहस्थ को भी ताले पर ही भरोसा होता है, उन
मूर्तियों पर नहीं।
दीपावली के अवसर पर पुजारी द्वारा
मूर्तियों के प्राण प्रतिष्ठा की गतिविधि प्रतिवर्ष कराई जाती है लेकिन गृहस्थ की गरीबी
कभी दूर नहीं हो पाती। इसके पीछे दो कारण निहित हो सकते हैं – (1) मंत्र के माध्यम से प्राण प्रतिष्ठा एक ढोंग, दिखावा
है। (2) यदि प्राण प्रतिष्ठा ढोंग नहीं है तो ऐसे मूर्तियों
को अपने घर, दुकान में जगह देना इस कामना के साथ कि यह हमारी
गरीबी को दूर करेगी, हमारे घर/दुकान की रक्षा करेंगी,
पूरी तरह अंधविश्वास है। ऐसे
में आधुनिक काल अर्थात तार्किक युग में जीवन यापन कर रहे हम लोगों का एक परम
कर्तव्य है कि प्राचीन काल से ही फैले ऐसे अंधविश्वास, कर्मकांड
को अपने जीवन में न्यून स्थान दें। इस अंधविश्वास के पालन करते रहने से आपकी
समृद्धि तो नहीं लेकिन इन कर्मकांडों के करने पर अनावश्यक रूप से आपका धन जरूर
खर्च होगा। अर्थात आपके केवल धन की हानि हो सकती है, लाभ
नहीं। हालांकि हमारे जीन में घुसे-बैठे अंधविश्वास, पाखंड के
इस मकड़जाल से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल कार्य है, लेकिन
छोटे-छोटे लक्ष्य प्राप्त कर इस अंधविश्वास से ऊपर उठते हुए इससे मुक्त हुआ जा
सकता है।