“महाराज, मैं आपको अपनी चिलम नहीं दे सकता”। वह बोला।
“भाई? स्वामी जी ने चौंककर कहा।
“ क्योंकि मैं जाति का भंगी (मेहतर) हूँ। आप कुलीन वंश
के सन्यासी और ... “।
स्वामी जी का हाथ स्वयं ही पीछे हट गया और वे अपने
रास्ते पर बढ़ चले। अभी वे 10 कदम ही चले थे कि मस्तिष्क में विस्फोट सा हुआ। ‘जिसे
जाति कुल और धन का अभिमान हो, वह कभी सन्यासी नहीं हो सकता’। परमहंस के शब्द जैसे उन्हीं
के स्वर में चेतना से टकरा रहे थे। ‘यह महीने क्या किया! जाति का क्यों अभिमान तो
मुझमें शेष रह गया, तभी तो मैंने उसे अछूत की चिलम न पकड़ी। मेरा ज्ञान और गुरु का उपदेश
मुझे कैसे विस्मृत हो गया? ठहर आत्माभिमान! अभी तुझे ठीक करता हूँ’। स्वामीजी
तत्काल उस मेहता के पास पहुंचे और उसके पास बैठकर बड़े आराम से चिलम पी और
आत्माभिमान का दमन किया।
राजस्वी एम. आई ‘विश्वगुरु विवेकानंद’ फिंगरप्रिंट प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2019 को पढ़ते हुए एहसास
हुआ कि आज स्वामी विवेकानंद को आदर्श मानने वाले लगभग सभी सन्यासी आज के समय में भयानक
जातीय कुंठा से ग्रसित मिलेंगे, जो किसी तथाकथित अस्पृश्य व्यक्ति को मंदिर के गर्भगृह
में प्रवेश करते बर्दास्त नहीं कर सकते, ये सभी यदि स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु
रामकृष्ण परमहंस के विचारों से प्रेरणा ले तो वह दिन दूर नहीं जब ‘अस्पृश्यता’ को हम
‘सती प्रथा’ की तरह इतिहास की किताबों में पढ़ा करेंगे।
राष्ट्रीय
युवा दिवस पर देश के युवा भी इस प्रेरणा को ग्रहण करें।