Monday, 23 June 2025

बायकॉट बॉलीवुड : कितना सार्थक?

अपने विचारों को लाखों करोड़ों लोगों तक पहुंचने के लिए वर्तमान समय में सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। फेसबुक व्हाट्सएप ट्विटर (वर्तमान X) पर अपने फॉलोवर बढ़ाओ, अपने विचार प्रेषित करो और लाखों करोड़ों लोगों तक इसे फैला दो। वरदान के साथ-साथ यह प्रगति अभिशाप भी है। पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश की एक अग्रणी फ़िल्म इंडस्ट्री ‘बॉलीवुड’ के बहिष्कार करने का ट्रेंड बनाया जा रहा है। प्रसिद्ध एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद कंगना रनौत से लेकर अलग-अलग लोगों के द्वारा ‘नेपोटिज़्मपर विमर्श करने के पश्चात् ‘बॉयकॉट बॉलीवुड’ का ट्रेंड कुछ ज्यादा ही विस्तृत हो गया है। नेपोटिज़्म की आड़ में रणबीर कपूर, हृतिक रोशन, आलिया भट्ट, और स्टारकिड होने के नाते इन्हें लगातार अपनी फिल्मों में मौके देने वाले करण जौहर से लेकर उन सभी स्टार किड्स वो भी घसीटा गया जिन्होंने अपनी अभिनय दक्षता से लोगों के दिलो-दिमाग में एक अमिट छाप छोड़ते हुए फिल्मी दुनिया में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया।

इनके साथ-साथ इन बायकॉट गैंग के शिकार बने पिछले तीन दशक से बॉलीवुड के साथ-साथ हिंदी फ़िल्म को देश-विदेश तक पहचान दिलाने में एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाले खान तिकड़ी (शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान)। आमिर खान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा की रिलीज के दौरान बायकॉट बॉलीवुड गैंग कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखे। आमिर खान की यह फ़िल्म एक हॉलीवुड फ़िल्म की रीमेक थी, जिसे दर्शक ओटीटी प्लैटफॉर्म पर पहले ही देख चूके थे। जिससे कि दर्शकों को थिएटर की ओर खींचने में यह फ़िल्म सफल नहीं रही। हालांकि यह झूठ फैलाने में बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग जरूर सफल रहे कि हमारे प्रयास से आमिर खान की फ़िल्म फ्लॉप हो गयी। झूठ इस सेंस में कहा जा सकता है कि इसी गैंग ने कंगना रनौत की धाकड, तेजस से लेकर इमर्जेन्सी फिल्मों के लिए खूब फील्डिंग की, लेकिन ये सभी फ़िल्में दर्शक मिलने के लिए तरसती रही। इससे यह साबित हो गया कि किसी फ़िल्म के चलने या ना चलने का बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग से किसी प्रकार का लेना देना नहीं है। दर्शकों को जिस फ़िल्म में मनोरंजन मिलेगा, कहानी से लेकर अभिनय अच्छी मिलेंगी उसे वे देखने जाएंगे ही। आप कितना भी बायकॉट बायकॉट चिल्ला लीजिए। शाहरुख खान की फ़िल्म पठान और जवान ने इसे साबित कर दिखाया।

मजेदार बात यह है कि कंगना रनौत, विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर आदि की फ़िल्में बॉलीवुड की धरती पर ही निर्मित होती हैं। लेकिन इस दौरान यह गैंग चूहे के बिल में घुसे नजर आएँगे। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि इनकी नजर बॉलीवुड में अपनी योग्यता से पैर जमाए मुस्लिम अभिनेताओं के फिल्मों के बॉयकॉट करने पर केवल होती है। चाहे वो समाज को एक अच्छा संदेश देने वाला ही क्यों न हो? इन्हें सांप सूंघ जाता है जब 'ओ माई गॉड' फ़िल्म की बात आती है। क्योंकि उसमें इनकी सोच को ओछी साबित करने वाला नायक (परेश रावल) इनके धर्म से संबंधित है। P K फ़िल्म का नायक मुस्लिम है इसलिए उसपर ही हमला करना है।

अलग अलग नाम से प्रोफाइल बनाते हुए बॉयकॉट बॉलीवुड का ट्रेंड चलाने वाले लोगो के फेसबुक वॉल पर पी के फ़िल्म का वह सीन अक्सर देख जाता है जिसमे पी के शिव का वेश धरे एक थियेटरकर्मी को परेशान कर रहे होते हैं। वे इसे हिंदू आस्था पर हमला कहते हुए आमिर खान को गन्दी गन्दी गालियाँ दे रहे होते हैं। आखिर इसमें आमिर खान का क्या कसूर? आमिर खान तो केवल उस स्क्रिप्ट को अभिनय के माध्यम से प्रदर्शित या जीवंत कर रहे होते हैं, जिसे फ़िल्म के लेखक एवं डायरेक्टर ने जीवंत करने की जिम्मेदारी दी है। हैरत की बात यह है कि ऐसा अभिनय करने के लिए आमिर खान को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है लेकिन पीके फ़िल्म की कहानी लिखने वाले लेखक राजकुमार हीरानी या अभिजीत जोशी को कुछ नहीं बोलते। क्योंकि लेखक हिंदू धर्म से संबंधित है। इन ‘बायकॉट बॉलीवुड गैंग’ वालों को यह लगता है कि बॉलीवुड अब हिंदू धर्म की महत्ता को दिखानेवाले फ़िल्में नहीं बनाते हैं बल्कि उनका अपमान करने से संबंधित फिल्मों को बनाने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। ‘बायकॉट बॉलीवुड गैंग’ इस बात को भूल जाते हैं, या शायद उन्हें यह जानकारी ही नहीं हो कि बॉलीवुड का ये बायकॉट करते हैं उसी बॉलीवुड ने शुरुआत से लेकर आज तक हजारों की संख्या में भगवान की भक्ति की चाशनी में डुबाने वाले फिल्में भी दी है। जय संतोषी माँ फ़िल्म के बाद एक काल्पनिक देवी के आपको देशभर में लाखों मंदिर देखने को मिल जाएंगे। जय माँ वैष्णो देवी फ़िल्म आने के बाद वैष्णो देवी यात्रियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।

इन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि समय के साथ  फ़िल्म बनाने के ट्रेंड्स परिवर्तित होते रहे हैं, दर्शकों द्वारा कभी भक्ति फ़िल्में पसंद की जाती थी, उस समय की फ़िल्में ऐसी बनी। फिर पारिवारिक प्रेम केंद्रित फ़िल्में बनीं, इसी तरह प्रेम कहानी में सुखद अंत वाली फ़िल्में आईं, डाकुओं पर केंद्रित फ़िल्में आई। और भी अनगिनत ट्रेंड देखने को मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक लोगों के दिलोदिमाग पर अंधविश्वास हावी था तब तक अंधविश्वास में डुबाने वाली फिल्में बनी। जब आम लोगों के साथ-साथ फिल्मों की पटकथा  लिखने वाले लेखक तार्किक सोच वाले बने तब से फ़िल्म बनाने के ट्रेंड में बदलाव आया। हॉलीवुड फ़िल्मों के साइंस फ्रिक्शन फिल्मों में रुचि लेने वाले लोगों को यदि बॉलीवुड फ़िल्म देखने की और लुभाना है, तो उसे कुछ ना कुछ यह बहुत कुछ साइंस फ्रिक्शन या तार्किक चीजों को अपनी फ़िल्म में स्थान देना पड़ेगा।  

Pk फ़िल्म को ही देखें तो बहुत ही तार्किक बातों पर आधारित यह फ़िल्म थी। लेकिन बॉयकॉट बॉलीवुड गैंग को यह फूटी आंख नहीं सुहाती, उन्हें तो वही अंधविश्वास में डूबी, अंधविश्वास परोसती फ़िल्में ही पसंद आती है। केवल अंधविश्वासियों, और जिनकी दुकान अंधविश्वास के भरोसे चलती है उसी को बॉलीवुड के इस trend से मिर्ची लगती है।

2 दिन पूर्व ही आमिर खान की नई फ़िल्म ‘सितारे जमीन पर’ रिलीज हुआ है। गैंग पूरी तरह सक्रिय है ‘बॉयकॉट बॉलीवुड’ ट्रेंड चलाने के लिए। उम्मीद करते हैं फ़िल्म अच्छी हो, अच्छी कमाई करते हुए इन धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले लोगों के मुँह काला करें।

Thursday, 19 June 2025

सम्राट अशोक के जनहित के कार्य

 चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित मौर्य वंश के तीसरे सम्राट के रूप में अशोक की गिनती एक ऐसे महान भारतीय सम्राट के रूप में की जाती है जिन्होंने लगभग 268 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व के बीच शासन किया। अपने दादा चन्द्रगुप्त मौर्य एवं पिता बिंदुसार की विरासत को बढ़ाते हुए अपने शासनकाल में इसे एक नई ऊँचाई (चरमोत्कर्ष) तक पहुंचाया। उस दौरान अशोक के राज्य को ‘मगध साम्राज्य’ के नाम से जाना जाता था। अशोक ने अपने कुशल नेतृत्व से भगत साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में बांग्लादेश तक, उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में चोल राज्य तक किया।

अशोक के शासनकाल को राजनीतिक एकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ उत्तम प्रशासनिक व्यवस्था, धार्मिक, सांस्कृतिक विकास के लिए भी जाना जाता है। अपने 36 वर्ष के शासन के दौरान लगभग संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। शुरुआत में यह विस्तार जहाँ अपने बाहुबल के दम पर, तो वहीं बाद में अहिंसा और करुणा के दम पर। सम्राट अशोक आपकी प्रशंसा उनके साम्राज्य विस्तार कौशल से कहीं ज्यादा उनके न्यायोचित कानून व्यवस्था, उत्तम प्रशासनिक व्यवस्था व जनहित कार्यों के लिए की जाती है। उनके कार्य आज भी अनुकरणीय हैं –

भारत और पाकिस्तान के अलग-अलग स्थान से प्राप्त अभिलेख, शिलालेखों से पता चलता है कि उन्होंने लोगों को नैतिकता और सदाचार का पालन करने के लिए प्रेरित किया। सत्य, अहिंसा, करुणा आदि महत्वपूर्ण मूल्यों को बढ़ावा दिया, गरीबों तथा असहायों की सहायता करने के लिए योजनाएं बनाए, समाज में एकता और सौहार्द को बढ़ावा दिया। अलग-अलग अवसरों पर की जाने वाली जानवरों की हत्या पर रोक लगाया। साथ ही उन पशुओं के लिए चिकित्सा सुविधाएं भी शुरू की। अपने राज्य में न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए उन्होंने न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति की जो निष्पक्ष और न्यायपूर्ण तरीके से निर्णय देते थे। न्याय सभी वर्गों के लिये समान होता था चाहे वह किसी भी वर्ग या जाति का हो। अपने साम्राज्य के लोगों के जीवन को सुधारने और उनकी भलाई के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए - मनुष्य तथा जानवरों के लिए चिकित्सा सुविधाएँ स्थापित किया। उनके लिए अस्पताल बनवाए, चिकित्सा सेवाओं को बढ़ावा दिया। सड़कों तथा कई नवीन मार्गों का निर्माण करवाया जिससे व्यापार व्यवस्था सुदृढ़ हुई, लोगों की सुविधा के लिए उन मार्गों पर विश्राम गृह तथा पेड़ों की छाया के लिए पेड़ लगवाए। सिंचाई तथा पेयजल की सुविधा के लिए नहरों तथा जलाशयों का निर्माण करवाया।

जिन मूल्यों को अपनाने और उनके साथ जीने की बात अशोक करते हैं, उससे पहले उन्होंने खुद अपनाया, उनके साथ जिया फिर लोगों को भी इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया। एक कट्टर हिंसक शासक से एक अहिंसा का समर्थक बनने का सफर आकस्मिक नहीं था। कलिंग (वर्तमान में उड़ीसा राज्य में स्थित) के युद्ध में सम्राट अशोक की जीत हुई, लेकिन इस युद्ध में हुई हिंसा और रक्तपात नहीं उन्हें प्रभावित किया। तत्पश्चात उन्होंने अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित बौद्ध धर्म अपना लिया और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए बौद्ध धर्म को अपने सूझबूझ से भारत के साथ-साथ श्रीलंका तक फैलाने का काम किया।

सम्राट अशोक के कार्यों का गहराई से विश्लेषण करें तो उनके कार्य आज भी अनुकरणीय हैं।

Saturday, 7 June 2025

व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी है आरंभिक शिक्षा

हमारे देश में कई ऐसे बुद्धिजीवी लोग हैं जिन्हें हमारी शिक्षा और उससे संबंधित नौकरी हेतु चयन की प्रक्रिया से शिकायत है। इनमें से एक हमारे मित्र भी हैं जो लगभग सात वर्षों से हमारे देश के युवाओं को चिकित्सा क्षेत्र में ले जाने हेतु आवश्यक प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कराते हैं। मेडिकल जगत को ही ध्यान में रखते हुए उनकी जो शिकायत है उसे यहाँ रखा जा रहा है,

‘हमारे देश में बच्चों को एक डॉक्टर बनने के लिए क्या-क्या करना होता है? उन्हें कक्षा नर्सरी से लेकर कक्षा 8 वीं तक कई प्रकार के विषय पढ़ने पड़ते हैं। भले ही इस दौरान आप कक्षा में टॉप पर क्यों ना रहे हों! ढेर सारे मैडल क्यों ना जीते हों? वे सभी के सभी धरे रह जाते हैं जब आप बारहवीं में आते हैं। बारहवीं पास कर लेने के बाद आपको एक इम्तिहान देना होता है ताकि आपका MBBS के लिए चयन हो जाए। इसकी तैयारी के लिए आप वही सब रटेंगे जो आपने बारहवीं में रटा था। इसके पश्चात यदि इस कोर्स में आपका चयन हो जाता है, तब अब तक आपने (नर्सरी से कक्षा 8 वीं तक) जो भी रटा था, इतनी मेहनत की, इतना दिन रात जगे, सब कुछ किया, वो सब अब किसी काम का नहीं होगा। अब आपको कुछ सालों तक डॉक्टर की पढाई करनी होगी, फिर उस पढाई के बाद आपकी ट्रेनिंग होगी। तब जा कर आप डॉक्टर बनेंगे। अब सवाल ये आता है कि जब डॉक्टर की पढाई करवाकर और फिर ट्रेनिंग देकर आपको डॉक्टर बनता है ये सिस्टम तो फिर वो आपको सीधे इसके लिए क्यूँ नहीं चयनित कर लेता है वो आपको कक्षा एक से लेकर 12वीं तक क्यूँ इतनी मेहनत करवाता है? तो इसका जवाब ये मिलता है कि इतने सारे लोग हैं, लाखों बच्चे हैं, सबको डॉक्टर बनना है, और सबको ऐसे ले लिया तो फिर इतने डॉक्टर किस काम के होंगे? इसलिए बनाना कम है, कम्पटीशन इसीलिए रखा जाता है.. सरकार इसीलिए सीट का कोटा बनती है.. ये नहीं कि आपके पास प्राइवेट कॉलेज है और आप दस लाख डॉक्टर अपने यहाँ से एक साल में निकाल दें.. फिर डॉक्टर की कोई वैल्यू नहीं रह जायेग। समझ रहे हैं आप इस खेल को? इसलिए आपसे कक्षा 12 तक कत्थक डांस करवाया जाता है। बाद में डाक्टरी की ट्रेनिंग होती है। उस कत्थक डांस का आपके भविष्य से कोई लेना देना नहीं होता है। वो ज्ञान किसी काम का नहीं होता है। मेरे अपने जीवन में वो कुछ भी कभी काम नहीं आया जो मैंने 12वीं तक पढ़ा।  और आप इस ज्ञान को इतना सीरियसली ले कर बैठे रहते हैं और अपने दो बच्चों को पढ़ाने में अपना सारा जीवन “नष्ट” कर देते हैं। वो ज्ञान जो किसी काम का नहीं उसमें आप “बीस” साल तक स्वयं पागल बने रहते हैं और अपने बच्चों को मानसिक उत्पीडन की हद तक पागल किये रहते हैं.. इस पर आपको सोचना चाहिए।

इनकी बातों का विश्लेषण किया जाए तो इनका यह मानना है कि बच्चों को पहली से आठवीं या बारहवीं तक पढ़ाई के नाम पर अलग अलग विषय पढ़ा कर इनका समय बर्बाद किया जाता है। जबकि ये होना चाहिए कि जिस बच्चे को मेडिकल जगत की और जाना है, उसे शुरुआत से ही मेडिकल से संबंधित पढ़ाई दिया जाना चाहिए। एक तरीके से वे प्रत्येक बच्चों को उस तरह की शिक्षा दिए जाने की बात करते हैं जैसे किसी के खेल में रुचि रखने वाले बच्चों को बचपन से ही उस खेल की ट्रेनिंग में शामिल कर दिया जाता है।

यहाँ इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि एक खेल के लिए बच्चों को ट्रेंड करना और चिकित्सा जगत में सेवा के लिए किसी बच्चे को प्रशिक्षित करना, दोनों अलग-अलग मायने रखते हैं। किसी भी खेल की अपनी अलग अलग स्तर की बारीकियां हैं। उन बारीक कौशलों (skills) को आत्मसात करने के बाद ही कोई उस क्षेत्र में सफल हो पाता है। ऐसे ही चिकित्सा जगत जैसे क्षेत्र में सफल रूप से सेवा देने के लिए जो आवश्यक कौशल होना चाहिए उसका विकास नर्सरी से आठवीं या बारहवीं कक्षा तक प्रमुखता से किया जाता है।

यदि हम केवल आंगनबाड़ी का ही उदाहरण लें तो तीन से 6 साल की अवस्था के दौरान ही बच्चों के शारीरिक विकास के साथ-साथ बौद्धिक विकास, भाषाई विकास, सामाजिक एवं भावनात्मक विकासरचनात्मक विकास से संबंधित कौशल पर गहराई से कार्य किया जाता है। इन पांच क्षेत्रों से संबंधित कौशल का विकास बच्चो में आठवीं से लेकर बारहवीं तक होता ही रहता है, जीवन पर्यंत भी होता है। पहली से 12 तक की शिक्षा बच्चों में अलग अलग प्रकार के भाषाई कौशल (समझ के साथ सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना, सोचना, विचार करना, मौखिक व लिखित रूप से अपने विचार अभिव्यक्त करना) गणितीय कौशल (तर्क करना/लगाना, दैनिक जीवन से संबंधित जोड़ने, घटाने, गुणा, भाग करने संबंधी गणितीय समस्याओं का समाधान करना) का विकास करने के लिए अति आवश्यक है। इसी तरह विज्ञान व सामाजिक विज्ञान से संबंधित कौशल जैसे किसी घटना का कार्य कारण संबंध जानना, किसी घटना का विश्लेषण करना, सर्वे करना, अवलोकन करना आदि कौशल/दक्षताऐं यदि आपमें नहीं होगा तो मेडिकल प्रवेश परीक्षा तक निकालने आपके लिए नाको चने चबाने जैसा है। एमबीबीएस करने के बारे में सोचना तो छोड़ ही दीजिए। उपरोक्त कौशल के बिना मेडिकल से लेकर इंजीनियर बनने की पढ़ाई केवल उच्चारण कर पढ़ने भर मात्र होंगे। इसलिए पहली से 12वीं तक की पढ़ाई आपके डॉक्टर के रूप में तैयार होने के लिए नींव तैयार करती है। इसमें value & disposition कौशल भी शामिल है। बिना इसके आपमे humanity आ ही नहीं सकती।

इसलिए अपने बच्चों को डॉ, इंजीनियर बनाने के सपने बाद में देखिए पहिले ये देखिए कि पहली से लेकर 12वीं कक्षा तक के अपेक्षित कौशल आपके बच्चे में हैं या नहीं। यदि नहीं है तो उसपर काम करने की आवश्यकता है।

कोई भाषा न श्रेष्ठ होती है न हीन

सोशल मीडिया फेसबुक पर ‘सरकारी स्कूल’ नामक पेज द्वारा साझा किए गए एक पोस्ट पढ़ने को मिला जो राजस्थान के एक जन सुनवाई से संबंधित था। राज्य के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर उस जन सुनवाई में थे। वहाँ एक छात्रा मंत्रीजी से अंग्रेजी भाषा में एक प्रश्न पूछती है जिसे सुनकर मंत्रीजी अपने कान पकड़ लेते हैं और छात्रा से कहते हैं कि ‘आप हिंदी में प्रश्न पूछें’। इसपर छात्रा बोलती हैं कि ‘आप तो शिक्षा मंत्री हो ...’।

            पोस्ट पर कई लोग अपने-अपने विचार रख रहे थे। अपनी-अपनी समझ के अनुसार अधिकांश मंत्री जी को बुरा-भला कह रहे थे। मैं भी खुद को रोक नहीं पाया। मैंने जो विचार रखे वह मंत्रीजी के पक्ष में जाते दिखे। दरअसल कोई भी व्यक्ति यदि शिक्षा मंत्री है तो यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं है कि उसके पास अंग्रेजी भाषा में अपनी बात अभिव्यक्त करने का या समझने का कौशल (skill) हो ही। वास्तव में वह एक जन प्रतिनिधि है वह भी ऐसे क्षेत्र का जहां के अधिकांश लोग आम बोलचाल में हिंदी या स्थानीय भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वह किसी स्कूल के अंग्रेजी विषय का कोई शिक्षक नहीं है जो कोई उससे अंग्रेजी भाषा में ही प्रत्युत्तर मिलने की अपेक्षा रखे।   

प्रश्न पूछने वाली छात्रा की बात की जाए तो ये अच्छी बात है कि निजी स्कूल में पढ़ते हुए उसे अंग्रेजी भाषा सीखने का अवसर मिला जिससे वह अंग्रेजी भाषा में बातचीत करना सीख पाई। उसे लगातार अंग्रेजी बोलने और समझने वाले सहपाठियों का लगातार साथ मिला फलस्वरूप उसके मन में उसी भाषा (अंग्रेजी) में विचार बनने लगे, जिससे अंग्रेजी बोलना प्रश्न पूछने वाले के लिए आसान हो गया। इसके विपरीत मंत्रीजी की परवरिश हिंदी बोलने वालों के बीच हुई इसलिए वह हिंदी में बातचीत करने में ज्यादा सहज हैं।

शिक्षा मंत्री व छात्रा दोनों ही भाषाई कौशल से लैस हैं। सुनकर, समझकर अपने विचार अभिव्यक्त करने की भाषाई कौशल (language skill) या दक्षता छात्रा के साथ-साथ उस मंत्री जी में कूट-कूट कर भरा है। इसलिए वह बोल भी रहे कि प्रश्न हिंदी में पूछो। और हिंदी में प्रश्न पूछने पर हिंदी भाषा में संतोषप्रद उत्तर दिया भी उन्होंने।

अपने विचार यदि कोई धड़ाधड़ अंग्रेजी भाषा में व्यक्त कर रहा है तो इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि धड़ाधड़ हिंदी बोलने वाला उससे कम है। जैसा कि इस संवाद/रिपोर्ट को लिखने वाले पत्रकार (journalist) ने किया। सब भाषा की एक समान श्रेष्ठता है न कोई किसी से कम है न कोई ज्यादा।