Thursday, 5 November 2015

मेरे बचपन का एक कोना

उम्र के 29 बसंत पार कर, आज जब मैं याद करता हूँ अपने बचपन को
तब सपने तो थे कि आगे चलकर ये बनूँगा, ये करूंगा
लेकिन आज की तरह भागमभाग वाली ज़िंदगी नहीं थी
घर से स्कूल की दूरी अक्सर कदमताल करते हुए तय किया करता था
कभी-कभी दादाजी-पिताजी की वो पुरानी साइकल
घर और स्कूल के बीच की दूरी कम कर देती
रिक्शे गाड़ी की कभी जरूरत महसूस नहीं हुए
पीठ पर बैग को लटकाए
कच्ची-पक्की सड़कों, गलियों में घूमते घूमते स्कूल पहुँच जाता
वहीं स्कूल के कंटीली तारों से बने चहारदिवारी के उसपार
एक कुल्फ़ीवाला खड़ा रहता था ।
सफ़ेद उजली दाढ़ी, लंबे बाल,
सफ़ेद लेकिन थोड़े गंदे कुर्ता पाजामा पहने
सफ़ेद रंग की कुल्फी पर लाल रंग की चेरी डाले
वो बूढ़ा बाबा हमारे इसे लेने की राह देखता ।
बीस पैसे का कुल्फी होता था तब
जेब खर्च के लिए गिनेचुने सिक्के ही मिलते थे तब
कभी कभी तो कुछ भी नहीं
फिर भी रोज उस बूढ़े बाबा के ठेले के पास
कंटीली तारों के इस पार से ही खड़े हो जाता
दोस्त लेते ... मैं यूं ही ललचाई नज़रों से खड़ा देखता रह जाता
एक रोज उन्होनें मुझसे कहा
“खाओगे मुन्ना”
मैंने कहा “नहीं” अच्छा नहीं लगता ।  
“पैसे नहीं हैं,
कोई बात नहीं कल दे देना”
कहकर उन्होनें एक कुल्फी मेरे हाथ में थमा दिया  
मुझे आज भी उसके पैसे देने हैं .....

क्योंकि उस दिन के बाद वह बूढ़े बाबा कभी दिखे नहीं ।