उत्तर मध्य रेलवे का मुगलसराय-वाराणसी रेलखंड । वाराणसी स्टेशन से मुगलसराय
जाने के क्रम में जैसे ही ट्रेन काशी से गंगा पर निर्मित मालवीय रेलवे ब्रिज पार
करने लगी, कोच
हालांकि यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण होगा कि सारे सिक्के
गंगा नदी में बह जाते हैं । हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी सहित अन्य गंगा घाटों पर एक लंबी पतली रस्सी में चुंबक
लगाकर सिक्के बीनते या गहरे पानी में गोता लगाकर सिक्के निकालते हजारों की संख्या
में बच्चों व किशोरों को देखा जा सकता है । कई स्थानों पर तो इन सिक्कों को
निकालने के लिए ठेके भी लिए-दिये जाते हैं । गोते लगाकर ये लोग सिक्के निकालने का
काम करते हैं । फिर भी संभवतः ये प्रतिदिन नदी की तेज धार में डाले गए कुल सिक्कों
का 50
प्रतिशत ही निकाल पाते होंगे । बाकी 50 प्रतिशत सिक्के या तो मिट्टी में दब जाते हैं या नदी की
तेज धार में बहकर अन्यत्र चले जाते हैं जो शायद ही दुबारा भारतीय खजाने में वापस आ
पाते होंगे । तालाब के सिक्कों को तो तालाब की सफाई के क्रम में निकाल लिया जाता
है, जो
मंदिर कोष में जमा कर लिया जाता है । लेकिन हर की पौड़ी, हरिद्वार की गंगा के तेज धारा या कोई पुल पर खड़ी बस या
ट्रेन से फेंके गए सिक्के को निकालने का शायद ही कोई हिम्मत कर पाये ।
नदियों में सिक्के फेंकने के पीछे कई मान्यताएँ प्रचलित हैं
। एक मान्यता यह है कि विश्व की सभी मानव सभ्यताएँ शुद्ध जल प्रदान करने वाले
नदियों के किनारे ही विकसित होते थे । निवासियों को पेय जल,
सिंचाई के लिए नदियों पर ही निर्भर रहना पड़ता था । इसलिए इन
नदियों को पवित्र व आभारी मानकर इनकी पूजा किया जाता था तथा द्रव्य दान करना इस
पूजा का ही हिस्सा होता था । एक अन्य मत है कि कुछ समुदाय इस वैज्ञानिक तथ्य से
परिचित हुए कि तांबे में पानी के बैक्टीरिया को नष्ट करने की क्षमता होती है ।
चुकी खाद्यानों से उन्हें ताम्र धातु की प्राप्ति नहीं हो पाती थी । अतः उन्होनें
इसका लाभ लेने के उद्देश्य से तांबे के सिक्कों को नदियों व तालाबों में डालना
शुरू कर दिया । एक अन्य मान्यता यह है कि हिंदू धर्मावलंबी अपने मृतकों का दाह
संस्कार नदियों में ही करते हैं । कई बार बिना जलाए ही मृत शरीर को विसर्जित कर
दिया जाता है जिससे उस नदी का जल उस गलित शरीर के हानिकारक बैक्ट्रिया से प्रदूषित
हो जाता है । अतः इस प्रदूषण से नदी को बचाने के लिए उसके जल की शुद्धि के लिए
तांबे का सिक्का डालने का रिवाज था ।
उपरोक्त मान्यताएँ सत्य हों या न हों लेकिन आज के समय में
इन्हें प्रासांगिक नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि आज हमारे देश में तांबे का
सिक्का प्रचलन में नहीं है । ऐसे में निकेल, स्टेनलेस स्टील या लौह धातु से निर्मित सिक्कों को नदियों
में पानी शुद्ध करने के उद्देश्य से फेंकना कोई बुद्धिमानी नहीं बल्कि भारतीय
मुद्रा के साथ खिलवाड़ करना है । रिजर्व बैंक से प्राप्त एक आर. टी. आई. के अनुसार
आरबीआई को 10 रुपए जारी करने में लगभग 10 प्रतिशत का लागत आती है । अर्थात 10 रुपए का नोट जारी करने में रिजर्व बैंक को एक रुपए का खर्च
आता है । इसी तरह 1 रुपए के नोट जारी करने में 1 रुपए 14 पैसे का खर्च आता है । एक या दो रुपए के सिक्के ढालने में
भी लगभग इतना ही या इससे कुछ कम खर्च आता होगा । ऐसे में यदि प्रतिदिन पूरे देश
में 1 लाख
श्रद्धालु भी गंगा की तेज धार में सिक्के फेंकते हैं जिसमें से आधे यदि निकाल लिए
जाते हैं । इसके बावजूद भी भारत सरकार को प्रतिदिन 50,000 रुपए का तथा सालाना 22 करोड़ रुपए का नुकसान होता है । आज जबकि हमारे देश में
महंगाई अपने चरमोत्कर्ष पर है, आर्थिक स्थिति से तंग आकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं । ऐसे
में जागरूकता फैलाकर भारतीय मुद्रा से हो रही खिलवाड़ रोककर देश की अर्थव्यवस्था को
सुदृढ़ किया जा सकता है । भारत सरकार व भारतीय रिजर्व बैंक को इस दिशा में यथाशीघ्र
उचित कदम उठाना चाहिए । जिस प्रकार भारतीय रिजर्व बैंक ने नोटों पर कुछ भी लिखना
अपराध घोषित किया है, उसी तरह इस अंध-आस्था के कारण भारतीय मुद्रा को होनेवाले
नुकसान से बचाने के लिए ऐसे ही कठोर कानून लाने की जरूरत है । यदि रोक नहीं लगाया
गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा देश भी भयानक आर्थिक मंदी या मुद्रा की कमी से
जूझ सकता है ।
(दिल्ली से प्रकाशित समाचार-पत्र वुमेन एक्सप्रेस के संपादकीय में प्रकाशित)