Monday, 19 June 2017

अनुसूचित जाति के राष्ट्रपति बनाने के पीछे कहीं कोई षड्यंत्र तो नहीं ।

18 जून 2017 को सत्तारूढ़ एनडीए द्वारा बिहार के वर्तमान राज्यपाल रामनाथ कोविंद जी को अपना उम्मीदवार बनाने के साथ ही मीडिया जगत में एक तरफ जहां खलबली आ गयी । वहीं कुछ सरकार समर्थित दलित चिंतक, कोविंद जी को जो अनुसूचित जाति पृष्ठभूमि से हैं, राष्ट्रपति पद जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान होने की कल्पना कर फूले नहीं समा रहे हैं । वास्तव में ये लोग इस मुगालते में जी रहे हैं कि एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के राष्ट्रपति बनने के बाद अनुसूचित जाति सहित समस्त वंचित जातियों, वर्गों का भला होगा । इन चिंतकों के साथ साथ देश की आम जनता भी यदि ये राय रखती है तो उनके लिए ओबीसी वर्ग के नरेंद्र मोदी के 3 साल का शासनकाल आइना है । ये तीन वर्ष आरक्षित वर्गों के साथ साथ अल्पसंख्यकों पर धर्म परिवर्तन, जातिवाद, गाय, हिन्दुत्व आदि के नाम पर हिंसा के नाम रहा । आरक्षित वर्गों के आरक्षण जैसे संवैधानिक अधिकारों को मज़ाक बनाने की कोशिश भी की गयी । संविधान को धता बताते हुए निजी नियम कानून द्वारा अनारक्षितों को 50.5 % अघोषित आरक्षण दिये जाने की खबर भी समाचार पत्रों के माध्यम से प्रसारित हुई । निस्संदेह ये आज भी अप्रत्यक्ष रूप से जारी होगा ही । पूर्व व्यवस्थानुसार आरक्षित वर्ग के प्रतिभागियों को open category में fight करने की छूट थी । लेकिन अब अघोषित रूप से आरक्षित वर्ग के प्रतिभागी को केवल आरक्षित श्रेणी में ही रहने की व्यवस्था कर दी गयी । उच्च शिक्षा में पिछले 10 वर्षों में प्रोफेसर सुखदेव थोराट के प्रयत्नस्वरूप आरक्षित वर्ग सही ट्रैक पर आ रहे थे, उन्हें शोधवृत्ति, उच्च शिक्षा की सीटों, उच्च शिक्षा बजट में कटौती कर उच्च शिक्षा से दूर किया जा रहा है । और तो और उच्च शिक्षा पर प्रहार करने वालों, वंचितों की आवाज बनने वाले को जातिवाद, फर्जी राष्ट्रवाद की आढ़ में हमले करवाकर उनके उत्साह को तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता है । इन सभी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है एक तथाकथित ओबीसी प्रधानमंत्रित्व के काल में ।
            ऐसे में इसमें कोई दो राय नहीं कि अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के कार्यकाल में भी इन घटनाओं में कोई कमी नहीं आनेवाली । कल तक जो सरकार मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का रोबोट बोलते थे । आज वही एक रोबोट राष्ट्रपति की तलाश में हैं ताकि बहुमत सरकार मनुवादि व्यवस्था लाने के लिए जो भी नीतियाँ बनाएँ बिना सोच विचार के पास कर दें । कोई सवर्ण राष्ट्रपति यदि इनके नीतियों को मंजूरी देगा तो बहुत सी उंगलियाँ सरकार पर उठेगी । लेकिन कोविंद जी के मामले में ऐसा नहीं हो सकेगा ।
            इसके अतिरिक्त मनुवादि व्यवस्था की समर्थक सरकार एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को केवल मुखौटा बनाकर बहुसंख्य अनुसूचित जातियों को वोट बैंक बनाने की फिराक में है । बावजूद इसके हमारे देश की निरंतर पॉलिटिक्स में literate होती जनता इसके पीछे की पॉलिटिक्स समझेगी और अताताइयों के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी, इसकी उम्मीद है ।