Sunday, 2 August 2020

प्रेमचंद्र के रचनाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता


अपने छात्र जीवन में हम कुछ ऐसे यादगार पात्रों के बारे में पढ़े होते हैं जो कभी भुलाए नहीं जाते। यदि थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएँ तो इन पात्रों की चर्चा होते ही पूरी कहानी हमारी आँखों के सामने आ जाती है। इन पात्रों में कुछ के नाम लिए जा सकते हैं। जैसे हमीद (ईदगाह), हल्कू (पूस की रात), हीरा मोती बैल (दो बैलों की कहानी) आदि। तब हमें पता नहीं था कि इन रोचक कहानियों के लेखक प्रेमचंद्र कौन हैं? लेकिन आज जब हमें इनके लेखक के बारे में जान कर बहुत ही खुशी हो रही है कि इन कहानियों के लेखक की गणना हमारे देश के सबसे महान लोकप्रिय साहित्यकारों में की जाती है। 31 जुलाई 1880 ईस्वी को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद की साहित्य की कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण आदि विधाओं में उनकी विशेष रूचि थी। यही कारण है कि हिंदी साहित्य जगत में उन्हें उपन्यास सम्राट के उपनाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने लेखन की शुरुआत जमाना पत्रिका से की। इस क्रम को जारी रखते हुए, कागज को अपनी कर्मभूमि बनाते हुए अपने छोटे से जीवन में उर्दू व हिंदी भाषा में कुल 15 उपन्यास, व 300 से भी अधिक कहानियां लिखी। निर्मला, गबन, कफन, गोदान, रंगभूमि आदि प्रेमचंद की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाएं हैं। उनके बेटे द्वारा लिखित पुस्तक 'कलम का सिपाही' उनकी पत्नी द्वारा लिखित पुस्तक 'प्रेमचंद्र घर में' आदि पुस्तकों की सहायता से हम उनके जीवन संघर्ष को समझ सकते हैं।
प्रेमचंद्र की लेखनशैली
          प्रेमचंद्र का साहित्य को देखने की दृष्टि बिल्कुल अलग थी। वह इस बात को स्वीकार नहीं करते थे कि जो कुछ भी लिख दिया जाए वह सब का सब साहित्य है। 9-10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक मंच के प्रथम अधिवेशन में सभापति के रूप में विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं, साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, इसमें जीवन की सच्चाइयाँ व्यक्त की गई हो। जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण होउपरोक्त कथित सभी तत्वों को उनके उपन्यास, कहानियों में देखा जा सकता है। प्रेमचंद्र के पूर्व के कहानीकारों की कहानी का स्वरूप मुख्यतः धार्मिक तथा काल्पनिक होती थी, जिनका मुख्य उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन, मन-बहलाव करना होता था। प्रेमचंद्र ने इस धारा को परिवर्तित करते हुए तिलिश्म, स्त्री-पुरुष प्रेम – वियोग, भूत-प्रेत पर आधारित अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले काल्पनिक कहानियों की जगह वास्तविक पात्र, वास्तविक जीवन-समस्याओं (सवा सेर गेंहू) पर आधारित कहानियों को लिखने की शुरुआत किया। उन्होंने अपने आसपास की दुनिया, सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण जीवन को अपने साहित्य में स्थान दिया। फलस्वरूप साहित्य में न केवल तत्कालीन सामाजिक जीवन से संबंधित समस्याओं, मुद्दों का स्वतः ही समावेश हुआ, बल्कि पाठक वर्ग इन समस्याओं, कुरीतियों के बारे में सोचने, इसका समाधान करने, इनपर विजय प्राप्त करने हेतु उपाय खोजने को प्रेरित हुए।  
          प्रेमचंद्र की रचनाओं में गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव आदि बुराइयों का समावेश देखने को मिलता है। कहानी सवा सेर गेंहू में शोषण संबंधी सवाल, पूस की रात गरीबी की समस्या, कहानी सद्गति में जातिगत भेदभाव को दिखाया गया है। ये कहानियाँ आम जनमानस में एक गहरी छाप छोड़ती है क्योंकि पाठक खुद को इन कहानियों के पात्रों (विशेष रूप से शोषित पात्र) से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। ये कहानियां पाठकों को सामाजिक चिंतन, विमर्श की ओर ले जाती है। यही कारण है कि किशोरों में सामाजिक चिंतन की समझ संबंधी कौशल विकसित करने के लिए प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शालाओं के भाषा पाठ्यक्रम में इन कहानियों को सरकार द्वारा शामिल किया गया है। इन कहानियों के माध्यम से हम अपने बच्चों का सामाजिकरण इस प्रकार कर सकते हैं कि वह आगे चलकर एक ऐसे नागरिक बन सकें जिसकी अपेक्षा भारतीय संविधान करता है।
          ऐसे ही उनकी एक रचना है 'पूस की रात' संक्षेप में वाचन करते हैं, तत्पश्चात इसका विश्लेषण करेंगे किन-किन समस्याओं के प्रति इस कहानी में बात की गई है।
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा - सहना आया है। लाओ जो रुपए रखे हैं उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे। उसकी पत्नी जो झाड़ू लगा रही थी पीछे फिर कर बोली 3 रुपए ही तो हैं। दे दोगे तो कंबल कहां से आएगा माघ पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उसे कह दो फसल पर दे देंगे। अभी नहीं है।
हल्कू एक क्षण के लिए अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह तो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमाएगा, गालियां देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला दे दे गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई और उपाय सोचुँगा।
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कहानी सुनने के बाद कुछ पहलुओं पर बात करना आवश्यक है ताकि प्रेमचंद्र के रचनाओं की खूबसूरती को समझा जा सके। यदि पूछा जाए कि
·       इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद किस सामाजिक समस्या को दिखाने का प्रयास किया है? आपके संभावित उत्तर होंगे - समाज में व्याप्त गरीबी को,  किसानों की समस्या को, साहूकारों के घृणित व्यवहार को।
·       आपको यह कहानी काल्पनिक लगी या वास्तविक? तो आपके संभावित उत्तर दोनों हो सकते हैं। ज्यादा संभावना होगी कि उत्तर वास्तविक के पक्ष में आएँ।  
·       क्या आप खुद को हल्कू की जगह महसूस कर पा रहे थे? उत्तर स्वाभाविक रूप से हाँ ही होगी।
उपरोक्त प्रश्नों के आपके उत्तर यदि बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसा विकल्प में कहा गया है, तो इसका अर्थ है कि आपने भी इस कहानी को खुद के ऊपर ले कर जिया है। प्रेमचंद की रचनाओं की यही खूबसूरती है कि वे जनसाधारण की उन समस्याओं पर कहानियों के माध्यम से बातचीत करते हैं जिनसे वे पीड़ित हैं। हम खुद को उन संदर्भों/ समस्याओं से जोड़ पाते हैं जिसकी चर्चा प्रेमचंद अपनी रचनाओं में करते हैं। यही जुड़ाव आप तक भी महसूस करेंगे जब आप उनकी सद्गति, ठाकुर का कुआं कहानी को पढ़ेंगे। इन दो कहानियों के माध्यम से वे समाज में व्याप्त घृणित जातिगत भेदभाव की समस्या को उजागर करते हैं। ऐसे ही जब हम ' सवा सेर गेहूं' कहानी पढ़ते हैं तो इसके माध्यम से एक गरीब किसान जो बाद में मजदूर बन जाता है, का दर्द, बंटवारे के दर्द, महाजनों के स्वार्थी प्रवृत्ति, गुलाम बनने के कारणों को महसूस कर सकते हैं। यह भी महसूस कर सकते हैं कि उच्च कुल/जाति में जन्म लेने वालों के लिए स्वर्ग और नरक के क्या मायने हैं? सद्गति कहानी के माध्यम से नज़राना प्रथा, जातिगत भेदभाव के दर्द का पता चलता है।  
प्रेमचंद्र की कहानियों की वर्तमान में प्रासंगिकता  
यहां सवाल उठता है कि प्रेमचंद्र की मृत्यु के आठ दसक (84 वर्ष) बाद प्रेमचंद्र और उनकी रचनाओं को याद करने की क्या जरूरत है? प्रेमचंद की कहानियां उपन्यास आदि के अवलोकन करने के बाद हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद्र अपने साहित्य में अनेक प्रकार के सामाजिक बुराइयों को मुख्य रूप से उठाने का प्रयास किया है। अपनी कहानियों, उपन्यासों के माध्यम से वे जिन समस्याओं से हमें अवगत कराते हैं वर्तमान समाज में यह आज भी जीवित हैं। चाहे वह भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव, दहेज प्रथा या सामंती प्रवृत्ति हो? उदाहरण के लिए यदि हम बात पंच परमेश्वर की बात करें तो यह कहानी स्वार्थी प्रवृत्ति त्यागने का संदेश देते हुए न्याय व्यवस्था की वकालत करती है। आज के समय में देखा जाए तो हम इस तरह के सोच से जी रहे होते हैं कि यह हमारे मित्र हैं या अपने हैं तो इनको लाभ पहुंचाना है चाहे वह कितनी भी गलत हों। यह कहानी हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि हमारे आपसी संबंध भले ही अच्छे हो या बुरे हो, सभी के साथ न्याय होना चाहिए। जो जैसा करे उसे वैसा फल प्राप्त हो।
          एक श्रेष्ठ, जिम्मेदार नागरिक बनने की सीख देने वाली प्रेमचंद्र की रचनाएं केवल पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने का काम ना करें बल्कि हमें उन समस्याओं पर चिंतन मनन करने की प्रेरणा प्रदान करे, इस उद्देश्य से प्रेमचंद्र जयंती के अवसर पर उनके साहित्य पर चर्चा करना आवश्यक है।