Tuesday, 13 April 2021

डॉ. भीमराव अंबेडकर : संक्षिप्त जीवन वृतांत

शुरुआत करते हैं हिस्ट्री टीवी 18 एवं सीएनएन-आईबीएन चैनल के द्वारा वर्ष अगस्त 2012 में आयोजित एक चुनाव सर्वेक्षण 'द ग्रेटेस्ट इंडियन आफ्टर गांधी' से जिसमें डॉक्टर अंबेडकर को प्रथम स्थान पर चुना गया।[i] उन्हें 2 करोड़ वोट मिले। अब सवाल ये है कि आखिर इस व्यक्तित्व में ऐसी क्या खास बात है/थी जो इनके अनुयायी इनको इतना सम्मान देते हैं, चौक-चौराहों पर इनके आदमकद मूर्तियाँ बहुतायत देखने को मिलती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर उनके जीवन-संघर्ष में झाँकने के बाद ही खोजा जा सकता है। तो आइये इसका उत्तर ढूँढने का प्रयास करते हैं –

            भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौर में डॉ. अंबेडकर को एक प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है। इस विषय में उनकी विद्वता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस, गांधीजी के कटु आलोचक होने के बावजूद भी 1947 में जब देश को स्वतंत्रता मिली और एक नए संविधान बनाने की बात की जा रही थी तब उन्हें न केवल प्रथम कानून मंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट में जगह मिली बल्कि संविधान बनाने वाली ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में भी नियुक्त किया गया। डॉ. अंबेडकर को सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में मुख्यतः तीन बड़े कार्यो के लिए भारत की बहुसंख्य जनता अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती हैं। यह 3 बड़े कार्य हैं - अछूतों को भारतीय राजनीति तथा विमर्श के केंद्र में लाने तथा सामाजिक न्याय दिलवाने हेतु उनका योगदान, भारतीय संविधान के प्रारूप निर्माण तथा विधि व्यवस्था संचालन हेतु योगदान, बौद्ध धर्म में एक नए आयाम 'नवयान' जोड़ने के लिए। इनमें से अधिकांश कार्य उन्होंने उस दौर के समानांतर में किए जब हमारे देश में गांधी, नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस आदि राजनीतिज्ञ देश को ब्रिटिश प्रभुत्व से आजाद कराने (राजनैतिक आजादी) हेतु काँग्रेस पार्टी के बैनर तले प्रयासरत थे। इसके समानांतर डॉ. अंबेडकर एक स्वतंत्र समाजसुधारक के रूप में देश की बहुसंख्य तथाकथित अछूत जाति के लोगों को सामाजिक भेदभाव से आजादी दिलाने हेतु सक्रिय रूप से प्रयासरत थे। भारत के राजनीतिक स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखता है। लेकिन हमारे देश की बहुसंख्य जनता को हिंदू धर्म की विकृत सामाजिक व्यवस्था से आजाद कराने (सामाजिक आजादी) के लिए उनका अद्वितीय योगदान है। यही कारण है कि आम जनमानस के बीच उन्हें बाबासाहब, बोधिसत्व, भारतीय संविधान के जनक, समाजसुधारक, भारत के प्रथम कानून मंत्री आदि उपनामों से जाना जाता है।

            डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 ई. को वर्तमान मध्य प्रदेश के महू नामक ग्राम में एक महार जाति में हुआ था। उस दौरान महार जाति के लोगों का पारंपरिक कार्य गांव से मृत जानवरों को बाहर ले जाना होता था। अन्य वर्ण-जाति के लोग इस कार्य को घृणित समझते थे। जिसके कारण हिंदू सामाजिक व्यवस्था में महारों की स्थिति अछूतों की थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में आने से उनकी स्थिति कुछ परिवर्तित हुई। कंपनी को अपने मिल से लेकर सेना के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी। ऐसे समय में अपने पारंपरिक कार्य को छोड़कर काफी संख्या में महार व अन्य अस्पृश्य जातियों के बहुसंख्य लोग कंपनी/ब्रिटिश सरकार की सेवा में मजदूर या सैनिक रूप में लग गए। अंबेडकर के दादा मालोजी सकपाल उनमें से एक थे। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल भी ईस्ट इंडिया कंपनी की ब्रिटिश भारतीय सेना के मऊ छावनी में सूबेदार के पद पर कार्यरत थे।

डॉ. अंबेडकर का शैक्षणिक जीवन

डॉक्टर अंबेडकर 3 साल के थे जब उनके पिताजी सेवानिवृत्त हुए। वे खुद अंग्रेजी तथा मराठी माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के स्कूल से पढ़े लिखे थे, शिक्षा के महत्व को वे अच्छी तरह समझते थे। इस कारण उन्होंने डॉ. अंबेडकर की शिक्षा का पर्याप्त ख्याल रखा। पढ़ाई-लिखाई में बेहतर होने के बावजूद तथाकथित अस्पृश्य जाति महार से संबंधित होने के कारण उन्हें बचपन से ही कदम-कदम पर जातिगत भेदभाव (अस्पृश्यता) का सामना करना पड़ा। उनका वास्तविक नाम रामजी सकपाल था। एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो 'अंबाबडे' नामक ग्राम (रामजी मालोजी सकपाल का भी पैतृक गाँव) से थे तथा इस कारण अपने नाम के साथ अंबडवेकर उपनाम लगाते थे, के निर्देश पर उनके नाम से सकपाल हटाकर अंबडवेकर (कालांतर में अंबेडकर) कर दिया गया। लेकिन इससे भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। चूंकि उनके पिताजी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में थे, इसलिए शिक्षा ग्रहण करने के राह में कोई विशेष कठिनाई नहीं आई। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा संचालित स्कूल में उन्हें प्रवेश मिल गया। लेकिन इस दौरान भी तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थानुरूप लोगों की सोच के कारण उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। क्योंकि तत्कालीन हिंदू परंपराओं के अनुसार अछूत जाति के लोगों को शिक्षा प्राप्त करने, संपत्ति रखने, उच्च जाति के हिंदुओं के संपर्क में आने का अधिकारी नहीं समझा जाता था।[ii]

            1897 ई. में डॉक्टर अंबेडकर का दाखिला मुंबई के एलफिंस्टन हाई स्कूल में हुआ जहां वे एकमात्र अस्पृश्य छात्र थे। 1907 ई. में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात अगले वर्ष 1908 ई. में मुंबई के ही एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। रोचक बात यह है कि एलफिंस्टन कॉलेज के वे पहले अस्पृश्य छात्र थे। बरौदा महाराजा की ओर से इस कॉलेज में अध्ययन करने हेतु छात्रवृत्ति भी मिली। इसी क्रम में 1913 ई. में उन्हें बड़ौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड तृतीय द्वारा स्थापित एक योजना के तहत न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने हेतु 3 साल के लिए 755 प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्राप्त हुई।[iii] इसके अंतर्गत 22 वर्ष की अवस्था में उन्हें अमेरिका जाकर पढ़ने का मौका मिला। इसी दौरान 9 मई 1917 को उन्होंने मानव विज्ञानी एलेग्जेंडर गोल्डनवेजर द्वारा आयोजित एक सेमिनार में "भारत में जातियां : प्रणाली उत्पत्ति और विकास" विषय पर एक लेख प्रस्तुत किया जो उनका पहला प्रकाशित कार्य था।[iv] अक्टूबर 1913 ई. में डॉ. अंबेडकर लंदन चले गए जहां उन्होंने विधि अध्ययन में स्नातक हेतु दाखिला लिया। इसी क्रम में इसके पश्चात 1922 ई. में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त किया। उनकी थीसिस ‘The Evolution of Provincial Finance in British India’ नाम से प्रकाशित हुई।[v]  

    इसी बीच जून 1917 ई. में वह अपने अध्ययन को अस्थाई रूप से बीच में छोड़कर भारत वापस आ गए और बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में कार्य करने लगे। जहां उन्हें सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। अंततः नौकरी छोड़कर एक शिक्षक तथा लेखाकार के रूप में काम करने लगे। इस दौरान बंबई में रहते हुए वकालत भी किया लेकिन इस क्षेत्र में वे असफल रहे। क्योंकि जातिगत भेदभाव के कारण उनको केस नहीं मिलते थे।[vi] 1920-1923 के दौरान लंदन विश्वविद्यालय से 'द प्रॉब्लम ऑफ रूपी' विषय पर अर्थशास्त्र में डी.एससी. की उपाधि प्राप्त की।[vii]

अप्रैल 1906 ई. में जब वे 15 वर्ष की अवस्था के थे तक डॉक्टर अंबेडकर का विवाह 9 वर्षीय रमाबाई आंबेडकर से हुआ था। उनकी मृत्यु के पश्चात मधुमेह बीमारी से अस्वस्थ डॉक्टर अंबेडकर अपने देखरेख के लिए 1948 में डॉक्टर सविता अंबेडकर के साथ दूसरा विवाह कर लिया।

समाजसुधारक के रूप में डॉ. अंबेडकर

भारत सरकार अधिनियम 1919 को तैयार कर रही साउथबॉरो समिति के समक्ष डॉ. अंबेडकर को जब आमंत्रित किया गया तो पर्याप्त साक्ष्य के आधार पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार से अछूतों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर पृथक निर्वाचन क्षेत्र और आरक्षण देने की मांग की। अछूतों के नेतृत्वकर्ता के रूप में डॉक्टर अंबेडकर को ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में अपना पक्ष रखने का मौका मिला जहां उन्होंने अछूतों तथा अन्य धर्मावलंबियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने के प्रावधान को रखा। गांधीजी इस प्रस्ताव के खिलाफ थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने भी 1932 में डॉ. अंबेडकर के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। और अछूतों तथा अन्य धर्मावलंबियों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की घोषणा हुई। ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय की खिलाफत में गांधीजी ने पुणे के यरवदा जेल में आमरण अनशन की घोषणा कर दी। हालांकि डॉ. अंबेडकर को गांधीजी की बात माननी पड़ी। सितंबर 1932 के पूना पैक्ट से इस बात पर सहमति बनी कि अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र नहीं होगा।

            इससे पूर्व 1920 ई. में मुंबई में रहते हुए ही उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र मूकनायक के प्रकाशन का कार्य शुरू किया। इसका इस्तेमाल वे रूढ़ीवादी हिंदू राजनेताओं तथा जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनीतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना के लिए करते थे। मुंबई हाईकोर्ट में वकालत की प्रैक्टिस करते हुए उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा को बढ़ावा दिया। इसके लिए उन्होंने 1923 ई. में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की इसका मुख्य उद्देश्य था महारों व अन्य अस्पृश्य जातियों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करना व इनके बीच शिक्षा तथा सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो का नारा दिया।

            इस दौरान उन्होंने अछूतों को मंदिर में प्रवेश हेतु (इस दौरान अछूतों का मंदिरों में प्रवेश निषेध था), सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के अधिकार (उच्च जाति के लोगों का आरक्षित तालाब होता था) दिलाने हेतु कई अहिंसक आंदोलन भी किया। अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले संस्कृत ग्रंथ मनुस्मृति की प्रति को भी उन्होंने 1925 में जलाकर अस्पृश्यता का प्रतिरोध किया। 1927 ई. में सवर्णों के लिए आरक्षित तालाब की परंपरा को तोड़ने के उद्देश्य से चावदार तालाब आंदोलन शुरू किया। सैद्धांतिक रूप से यह तालाब तो सभी के लिए खुला था लेकिन व्यावहारिक रूप से यह अछूतों के लिए बंद था। इसे महाद टैंक सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। हालांकि 1937 ई. तक न्यायालय के निर्णय आने तक यह तालाब अछूतों के लिए बंद ही रहा।

            इसी क्रम में 1930 ई. में उन्होंने नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए आंदोलन शुरू किया। जिसमें लगभग 15000 डॉ. अंबेडकर के समर्थकों ने भाग लिया था। जब सभी आंदोलनकारी मंदिर के गेट तक पहुंचे तो गेट पर खड़े ब्राह्मण अधिकारियों ने मंदिर के गेट को बंद कर दिया। विरोध प्रदर्शन उग्र होने पर गेट को खोल दिया गया। जिसके परिणाम स्वरूप दलितों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत मिली।

डॉ. अंबेडकर का राजनैतिक जीवन

1936 में डॉ. अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र लेबर पार्टी) की स्थापना की जिसने 1937 के केंद्रीय विधानसभा चुनाव में 15 सीट पर लड़े चुनाव में से 12 सीट जीती थी। चूंकि इस पार्टी के अधिकतर उम्मीदवार अछूत समुदाय से थे इसलिए बाद में उन्होंने इसका नाम परिवर्तित कर सीड्यूल कास्ट्स फेडेरेसन कर दिया। 1946 के चुनाव में इस पार्टी को बहुत नुकसान हुआ। यहाँ तक कि डॉ. अंबेडकर अपनी सीट भी नहीं बचा सके। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान डॉ. अंबेडकर कांग्रेस के खिलाफ तथा ब्रिटिश सरकार के पक्ष में खड़े रहे। ब्रिटिश सरकार के साथ खड़े होने के पीछे उनका तर्क था कि विदेशी शासन से मुक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण आंतरिक लोगों की दासता और शोषण से मुक्ति है।[viii] डॉ. अंबेडकर इसके लिए किसी भी भारतीय पार्टी से ज्यादा योगदान ब्रिटिश सरकार का मानते थे। वे यह मानते थे कि किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए लोगों को एकता के सूत्र में बंधना आवश्यक है। बिना इसके राष्ट्रवाद का कोई मतलब नहीं। यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी उनको एंटी नेशनल के रूप में प्रस्तुत कर रही थी। इस दौरान कॉंग्रेस तथा उनके बीच कई मुद्दों पर तीखी नोक-झोंक भी हुई।

भारतीय संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में योगदान

1946 के चुनाव में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन जिसमें डॉ. अंबेडकर खुद अपनी सीट भी नहीं बचा पाए थे, के बावजूद स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अस्तित्व में आई कांग्रेस सरकार ने गांधीजी के निर्देश पर डॉ. अंबेडकर को न केवल देश के प्रथम कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया बल्कि भारतीय संविधान के प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी निर्वाचित किया। डॉक्टर अंबेडकर की अध्यक्षता में तैयार किए गए भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को एक समान समझते हुए न केवल उनके स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी और सुरक्षा प्रदान की गई। बल्कि अपने धर्म को मानने की आजादी दी गई, अस्पृश्यता और भेदभाव के सभी रूपों को गैरकानूनी बनाया गया। स्त्री/ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों के लिए नागरिक सेवाओं तथा कॉलेजों में, नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था दी गई।

            26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के पश्चात पश्चिमी देशों की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते थे। इसके लिए 'हिंदू कोड बिल' लागू करने को लेकर संसद सदन के अधिकांश सदस्यों के साथ तालमेल नहीं बिठा सके। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इस बिल के पक्ष में थे। उनका मानना था कि भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के लिए यह बिल एक उपयुक्त कदम है। जबकि इसके विपरीत इस बिल का विरोध करने वाले सांसदों का मानना था कि यह बिल हिंदू सामाजिक व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर देगा। सांसदों के बढ़ते रोष को देखते हुए डॉक्टर अंबेडकर ने 1947 से 1951 तक कानून मंत्री के रूप में योगदान देने के पश्चात 27 सितंबर 1951 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 1952 में हुए चुनाव तथा उपचुनाव में वे अपनी सीट नहीं बचा सके। अपने मृत्यु के कुछ समय पूर्व 1956 में उन्होंने एक नई पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की।

डॉ. अंबेडकर के स्त्री संबंधी विचार

डॉ आंबेडकर के स्त्री दृष्टि की झलक उनकी पत्र-पत्रिकाओं में देखी जा सकती है। हिंदू धर्म में स्त्रियों की स्थिति से अवगत कराने के उद्देश्य से उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का काफी बारीकी से अध्ययन कर अनेक लेख लिखे। जैसे 'हिंदू नारी का उत्थान और पतन' 'नारी और प्रति क्रांति' आदि। स्त्रियों की खराब स्थिति के लिए वे पितृसत्तात्मक मानसिकता को जिम्मेदार मानते थे। लेकिन उनका यह भी मत था कि अलग-अलग धर्मों में इसके अलग-अलग स्तर हैं। इस आधार पर वे हिंदू या इस्लाम की अपेक्षा बौद्ध धर्म को स्त्रियों के लिए बेहतर मानते थे। हिंदू धर्म अंतर्गत अछूत जातियों के स्त्रियों को वे सर्वाधिक पीड़ित मानते थे क्योंकि उनका शोषण दोहरे स्तर पर होता था। एक तो पितृसत्तात्मक समाज-परिवार द्वारा दूसरा अछूत जाति में जन्म लेने के कारण। हिंदू धर्म में स्त्रियों की इस स्थिति के लिए वे हिंदू ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था जो मनुस्मृति पर आधारित थी, को जिम्मेदार मानते थे। यही कारण है कि हिंदू स्त्रियों की स्वतंत्रता, शिक्षा, संपत्ति अधिकार, तलाक आदि अधिकार छीनने वाले ग्रंथ मनुस्मृति की वे खुलकर आलोचना करते थे। साथ ही स्त्रियों की बेहतर स्थिति के लिए बौद्ध धर्म की तारीफ भी करते थे। क्योंकि हिंदू धर्म के विपरीत बौद्ध स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार था। स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए वे उनकी शिक्षा (जिसे वे उत्प्रेरक मानते थे) पर ज़ोर देते थे। 1927 में उनके संपादन में प्रकाशित पत्रिका 'बहिष्कृत भारत' के माध्यम से उन्होंने अस्पृश्यों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा का मुद्दा उठाते हुए अस्पृश्य स्त्रियों को शिक्षा के प्रति जागरूक किया। इसी क्रम में ज्योतिबा फुले की तरह उन्होंने भी अपनी अनपढ़ पत्नी रमाबाई को न केवल पूरी तल्लीनता के साथ पढ़ाया बल्कि वे उन्हें अपने साथ सभाओं में भी ले जाया करते थे। यही कारण है कि उनके आंदोलनों में स्त्रियों की सहभागिता को देखा जा सकता है। जल्दी ही उनकी पत्नी विभिन्न सभाओं में अपनी बात, अपनी समस्याएं खुल कर रखने लगी। डॉ. अंबेडकर द्वारा गठित समता सैनिक दल में एक महिला प्रकोष्ठ भी था जिसकी अध्यक्ष रमाबाई अंबेडकर थी।[ix] उन्होंने अन्य स्त्रियों को भी अपने साथ जोड़ने का कार्य किया। विशेष रूप से वेणुभाई भटकर, रंगूबाई शुभरकर उनके साथ सक्रिय रही। महाद टैंक सत्याग्रह, मनुस्मृति दहन से लेकर पुणे के काला राम मंदिर में प्रवेश में हजारों स्त्रियां सक्रिय रही। मनुस्मृति के प्रति को जलाने वाले आंदोलन में 50 से भी अधिक अशोक समुदाय की स्त्रियां शामिल थी। 12 अक्टूबर 1829 के पार्वती मंदिर में प्रवेश का नेतृत्व नानाबाई कांबले के जिम्मे था। कालाराम मंदिर प्रवेश के दौरान भी सीताबाई, गीताबाई, रमाबाई आदि स्त्रियां कार्यकर्ताओं के भोजन पानी के इंतजाम में लगी रही।[x] इस तरह गांधीजी के बाद डॉक्टर अंबेडकर को एक ऐसे दूसरे नेता के रूप में देखा जा सकता है जिन्होंने स्त्रियों को आंदोलन से जोड़ने का काम किया।

हिंदू कोड बिल द्वारा स्त्रियों को समानता का अधिकार देने का प्रयास

डॉ. अंबेडकर बहुसंख्य हिंदुओं के लिए एक ही प्रकार की संहिता तैयार करना चाहते थे। मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि धर्मों का व्यक्तिगत कानून तो था लेकिन इनकी तरह हिंदुओं का कोई एक समान नहीं बल्कि बिखरा हुआ कानून था। विवाह, उत्तराधिकार, दत्तक पुत्र/पुत्री रखने का एक समान कानून नहीं था। इस उद्देश्य से प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों/ स्मृति ग्रंथ/ शास्त्रों के अध्ययन के आधार पर डॉ. अंबेडकर ने सर अकबर हैदरी तथा सर बी. एन. राय की सहायता से हिंदू कोड बिल तैयार किया। यह बिल हिंदुओं के बिखरे नियम कानून को एक जगह समेट कर समय परिवर्तन के साथ उग आए खरपतवारों को नष्ट करने का एक माध्यम तो था साथ ही विवाह, तलाक, गोद लेने, पिता की संपत्ति में पुत्र के साथ पुत्री का भी भागीदार होना आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पक्ष थे, जो स्त्रियों के लिए वरदान साबित हो सकते थे। जैसे - स्वतंत्रता पूर्व तक हिंदू स्त्रियों को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं था, जबकि बृहस्पति स्मृति में स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिया गया है। तलाक का भी प्रावधान नहीं था, लेकिन कौटिल्य तथा पराशर स्मृति में तलाक का प्रावधान था। इसलिए अंबेडकर ने हिंदू स्त्रियों के लिए वरदान साबित होने वाले इन प्रावधान को अपने द्वारा तैयार किए गए हिंदू कोड बिल में जगह दिया। लेकिन दुर्भाग्य वश यह बिल काफी विरोध के कारण सदन में पास नहीं हो पाया।  

डॉ. अंबेडकर का पत्रकारिता जीवन

जिस उद्देश्य के साथ डॉ. अंबेडकर बढ़ रहे थे उसे पूर्ण करने में उन्होंने पत्रकारिता का भरपूर उपयोग किया। सत्यशोधक समाज के नेता ज्योतिबा फुले द्वारा 1877 में प्रकाशित पत्र 'दीनबंधु' से प्रेरणा लेते हुए वे इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए। व्यवस्थित रूप से उनकी पत्रकारिता जीवन की शुरुआत 1917 से ही शुरू हो जाती है जब बंबई (वर्तमान मुंबई) के 'सिडनेहम' कॉलेज में अध्यापक की नौकरी करने के साथ-साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में हाथ आजमाने कूद पड़े। तत्कालीन पत्रकारिता संस्थानों में उच्च जातियों के वर्चस्व से वे क्षुब्ध थे जो अस्पृश्यता उन्मूलन से संबंधित कोई भी लेख, विचार प्रेषित नहीं करते थे। समाचार पत्रों में सामाजिक, धार्मिक, जातिवादी व्यवस्था, पिछड़ों तथा अछूतों की दयनीय स्थिति या उनके शिक्षा से संबंधित सवालों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। इसलिए अस्पृश्यों को अपनी सामाजिक स्थिति से अवगत कराने तथा उन्हें संगठित करने के लिए उन्होंने समय-समय पर अनेक पत्रिकाओं का संपादन का प्रकाशन किया। उनकी पत्रकारिता के मुख्य मुद्दे होते थे - ब्रिटिश सत्ता, इसाई मिशनरियों द्वारा कराए जाने वाले धर्मांतरण का विरोध करना, अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले ब्राह्मणवादी सोच की आलोचना करना। इसी क्रम में 1920 ई. में सर्वप्रथम मराठी भाषा की पाक्षिक मूकनायक (1920-23) नामक पत्रिका को शुरू किया। कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस कार्य के लिए डॉक्टर अंबेडकर को ढाई हजार रुपये आर्थिक सहायता प्रदान किए। इस पत्रिका के लिए डॉक्टर अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हुए, अस्पृश्यों को जागृत एवं आपस में संगठित करने के लिए 40 लेख लिखे। इसके बाद के कुछ वर्षों में मराठी भाषा में ही बहिष्कृत भारत (1927-29)’, ‘समता/जनता (1928) प्रबुद्ध भारत (1954) आदि पत्रिकाओं का संपादन किया। इसके अलावा भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहे थे। उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य धन अर्जन करना नहीं था बल्कि उनका विश्वास वैकल्पिक पत्रकारिता में था। इस कल्याणकारी, अव्यवसायिक पत्रिका निकालने के कारण कई बार उन्हें कर्ज में डूबना पड़ा। पत्रकारिता के माध्यम से किस प्रकार पैसे बटोरे जा सकते हैं, इस बात का उन्हें ज्ञान था, लेकिन अपनी पत्रिका में भ्रम फैलाने वाले विज्ञापनों, विलायती शराब आदि के विज्ञापनों से वे परहेज करते थे।

डॉ. अंबेडकर का धार्मिक जीवन

1935 में एक सभा में सार्वजनिक रूप से उन्होंने कहा था 'मैंने एक हिंदू के रूप में जन्म लिया है लेकिन एक हिंदू नहीं मरूंगा'। ऐसा करने के पीछे एक मजबूत आधार था, वह आधार था - हिंदू सामाजिक व्यवस्था में जातिगत सर्वोच्चता के आधार पर व्यक्ति से भेदभाव। अपने इस संकल्प के पश्चात उन्होंने कई धर्मों जैसे इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध का काफी गहराई से अवलोकन, अध्ययन किया। और अंततः बौद्ध धर्म को एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में पाया। 14 अक्टूबर 1956 को अशोक (विजया) दशमी के दिन नागपुर में डॉ. अंबेडकर तथा उनके 5 लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

            इसके कुछ ही दिनों बाद 65 वर्ष की आयु में 6 दिसंबर 1956 को मधुमेह की बीमारी से लंबे समय तक लड़ते हुए डॉ. अंबेडकर की मृत्यु हो गई।

इस तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस प्रकार से संघर्ष कर देश के बहुसंख्य जनता को एक सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार दिलवाने में योगदान दिया उसके लिए देश की जनता उनके लिए कृतज्ञता प्रकट करती है। गांधीजी के बाद देश के सबसे महान व्यक्ति का खिताब जनता द्वारा डॉ. भीमराव अंबेडकर को दिया जाना इस कृतज्ञता का फल है।

साकेत बिहारी

अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छत्तीसगढ़)

अध्ययन हेतु प्रयुक्त सहायक ग्रंथ



[ii] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 6

[iii] Naudet Jules, Ambedkar and the critique of the caste society, laviedesidees.fr, 27 November 2009, Page No. 2

[v] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 7

[vi] Naudet Jules, Ambedkar and the critique of the caste society, laviedesidees.fr, 27 November 2009, Page No. 2

[vii] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 7

[viii] Ray Ishita Aditya, Ray SarbaPriya (2011) An Insight into B.R Ambedkar’s Idea of Nationalism in the context of India’s Freedom Movement, Developing Country Studies, Vol.1, No. 1, ISSN 2225-0565, Page No. 27

[ix] More, Vijay G. (2011) Dr. B. R. Ambedkar’s Contribution for Women’s Right, Variorum, Multi Disciplinary e Research Journal, Vol 2, Page No. 5

[x] मेघवाल, कुसुम (2010) भारतीय नारी के उद्धारक डॉ. बी. आर. अंबेडकर सम्यक प्रकाशन, पृष्ठ सं. 114