Thursday, 15 April 2021

वह ममतामयी पंडूकी

पक्षियों में वीरभद्र को दो पक्षी विशेष प्रिय हैं - एक तो कबूतर दूसरा पंडुकी। दोनों के रंग भले ही अलग-अलग हैं लेकिन कद-काठी में दोनों एक जैसे ही लगते हैं जैसे गोरा और काला जुड़वां भाई या बहन। इन दोनों के साथ उसकी बहुत ही मधुर याद जुड़ी हुई है। कबूतर के साथ खेलते हुए उसका बचपन बीता। बड़े वाले कबूतर नहीं, उनके बच्चे के साथ। दरअसल उसके गांव प्रधानचक स्थित पुश्तैनी घर में व्यापार के उद्देश्य से इसे बड़े पैमाने पर पाला जाता था। दो तरह के लोग इसे खरीद कर ले जाते थे। एक तो मांस के शौकीन, दूसरे स्थानीय देवी-देवताओं को पूजा में बली देने वाले। जैसे कई लोग चिकन खाने के शौकीन होते हैं वैसे ही वीरभद्र के गाँव के तरफ बहुत से लोग एक समय कबूतर के मांस के शौकीन होते थे, आज भी हैं। इसके अलावा ग्रामीण देवी-देवता जैसे जखराज, जियर बाबा से लेकर घरेलू देवताओं जैसे ढाढ़िया, हारा बाबा आदि की पूजा में कबूतर के बच्चे की बलि दी जाती थी। वीरभद्र के चचेरे चाचा जी इस व्यवसाय से जुड़े थे। उनकी देखा-देखी वीरभद्र के परिवार ने भी कुछ संख्या में कबूतर पाल रखे थे। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद उसके दादा जी गायत्री परिवार के संपर्क में आकर शाकाहारी हो गए थे, पिताजी भी मांस मछली नहीं खाते थे। इसके बावजूद यह कबूतर उसके घर में पाला जाता था। इस संदर्भ में एक बार जब वह अपनी मां से पूछा तो पता चला कि उनकी ज़िद से इसे पाला जाता था। ताकि समय-समय पर इस के मांस का सेवन कर उनके बच्चे मजबूत तंदुरुस्त हो सकें। मां यह भी बताई कि कबूतरों को पालने की जरूरत नहीं पड़ी, बस आधे दर्जन मिट्टी निर्मित हांडी को दीवार तथा खपरैल के छप्पर के बीच रस्सी की सहायता से कुछ इस प्रकार लटका दिया जाता था कि वह बिल्ली की पहुंच से दूर रहे। चाचा जी के कबूतर खुद वहां आकर अपना अलग आशियाना बना लिया।

तब वीरभद्र 5 साल का था जब उसके पिताजी जो धनबाद में शासकीय सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत थे, का स्थानांतरण जमुई शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कृत्यानंद मध्य विद्यालय, मलयपुर में हो गया। इस दौरान वे सपरिवार अपने पैतृक घर-गांव छोड़कर जमुई शहर में बस गए। दस 15 दिनों के अंतराल पर वीरभद्र के दादाजी या पिताजी गांव जाते रहते थे और खेती किसानी से लेकर उस आधे दर्जन कबूतर की भी देखभाल और खरीद बिक्री करते रहते थे। कभी-कभी वीरभद्र और उसके भैया श्रवण भी उनके साथ गांव चल देते थे। जाते ही कुछ करें या ना करें बांस की सीढ़ी लगाकर उन कबूतरों के खोंढी (हांडी के अंदर स्थित घोंसला) को देखते जरूर थे। खोंढी के अंदर अंडों पर बैठे कबूतरों को देखने, उनके साथ छेड़छाड़ में उन्हें काफी मजा आता था। छेड़छाड़ के दौरान अपने पंख से जब वह हमें झपट्टा मारती थी तो उस झपट्टा से बचने और उसे चिढ़ाने में अलग ही आनंद आता था। दोनों भाइयों को कबूतर के बच्चों से इतना लगाव हो गया था कि उसके दादाजी या पिताजी उन बच्चों को झोले में डालकर जमुई ले आते थे। दोनों भाई स्कूल से आते ही इनके साथ खेलने लग जाते थे। उन्हें नहीं पता था कि उन्हें भी हमारी ही तरह समय-समय पर भूख भी लगती है। उनको नाश्ता, लंच और डिनर कराने का काम वीरभद्र की माताजी करती थी। माताजी इतना प्यार से उन कबूतरों को उनके चोंच खोलकर चावल या गेहूं खिलाती थी कि इसे यह देख कर कोई भी भाव-विभोर हो जाए। धीरे-धीरे दोनों भाई भी देखते-देखते उनके चोंच को खोल कर खिलाना सीख गए। वे न केवल उनको भरपेट खिलाते थे बल्कि उनकी सुरक्षा का भी पर्याप्त ध्यान रखते थे। उनको बिल्ली जैसे प्राणी से बचाने के लिए हमेशा अपने पास ही रखते थे। वे उन्हें घोंसले का सुख तो नहीं दे पाते थे लेकिन उनके लिए जो व्यवस्था करते थे वह किसी घोसले से कम नहीं था। बेकार फटा-चिटा कपड़ा से एक मोटा तह बनाकर नीचे जमीन पर डालकर उन्हें उस पर बैठाकर बांस निर्मित टोकरी से ढक देते थे। टोकरी के ऊपर 1 पसेरी वजन का पत्थर रख देते थे ताकि बिल्ली उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सके।

जमुई में उनका नया निर्मित घर कुछ इस प्रकार था कि एक फ्लैट बना हुआ था जिसमें सभी लोग रहते थे दूसरा फ्लैट नहीं बना हुआ था। केवल कमरे का खाका बनाकर उसे मिट्टी से पाट दिया गया था। चहारदीवारी की तरह चारों ओर से 7 फीट ऊंची दीवार से घेर दिया गया था। सर्दियों के दिनों में उनका अधिकांश समय यहीं खेलते हुए गुजरता था। खाली समय में वीरभद्र के पिताजी यहां कुछ-कुछ सब्जियां लगाते थे। उन्हें एक सब्जी जो सबसे प्रिय लगती थी, वह थी सेम। लताओं में फलने वाली सेम को जहां जगह मिलता है फैल जाती है। वीरभद्र के पिताजी उसको फैलने के लिए उस 7 फीट ऊंची दीवार पर बांस और लिप्टस की टहनियों से एक मंडप जैसी आकृति बना दिए थे। साथ ही उसकी इतनी निराई गुड़ाई करते थे कि गोबर से लेकर रसायनिक खाद का पान कर वह हरी-भरी होने के साथ ही बहुत ही घनी रूप से फैल जाती थी। उसका यह हरा भरा स्वरूप भंवरों, तितलियों के साथ-साथ हमारे परिवेश के लगभग सभी छोटे-छोटे पक्षियों को आकर्षित करता था। उनका वहां आना जाना लगा रहता था। उनमें सबसे ज्यादा आकर्षित एक पांडुकी का जोड़ा हुआ। उन्हें देखकर वीरभद्र को उनके घर के कबूतर याद आने लगते थे। उनका रंग रूप, घूमना फिरना इतना सौम्य था कि उसे देख कर बिना मुस्कुराए कोई रह ही नहीं सकता।

सेम, बांस और लिप्टस की लकड़ियों से आच्छादित मंडप के बीचो-बीच उस पांडूकी जोड़े ने घास के तिनकों को बुनकर एक बहुत ही खूबसूरत घोसला बनाया। स्कूल से आने के बाद वीरभद्र और श्रवण का सारा ध्यान उस घोसले के विकास का जायजा लेने में लगा रहता था। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने इस घोसले को बनते देखा। घोसला तैयार होने के कुछ ही दिनों बाद एक खूबसूरत अंडे भी उसमें देखे गए। अंडे देने के बाद वह पंडूकी अंडों पर लगातार बैठी रहती थी। कभी-कभी दोनों भाई कबूतर की तरह ही उसे परेशान करने के लिए पहुंच जाते थे। लेकिन पिताजी का सख्त आदेश था कि कोई उसे परेशान नहीं करेगा। इसलिए वे लोग दूर से ही देख कर दिल को तसल्ली देते थे। एक दिन सुबह उठते ही वीरभद्र जब उस घोसले के नजदीक जब पहुंचा तो एक अंडे को टूटा हुआ जमीन पर गिरा पाया। हमें डर लगने लगा था कि ये हरकत कहीं बिल्ली का तो नहीं है। यह बात उसने अपनी मां को बताया। मां देखने आई तो उनकी नजर एक बहुत ही छोटे बच्चे पर पड़ी। दरअसल उस पांडूकी का बच्चा अंडे से बाहरी दुनिया में आ चुका था। समय बीतता गया, उसके बच्चे बड़े होते गए। एक महीने बाद उसके बच्चे इतने बड़े हो गए थे कि उनमें छोटे-छोटे पंख आ गए। 7 फीट की ऊंचाई पर स्थित उस घोसले में रहने वाले बच्चे को दोनों भाई कुर्सी या टेबल पर चढ़कर ऐसे ही निहारा करते थे जैसे खोंढी मैं बैठे कबूतर को। कबूतर तो नहीं भागती थी लेकिन पांडूकी हम से थोड़ी डर कर जरूर थोड़ी दूर पर बैठ जाती थी। दोनों भाई जी भर कर उसके बच्चे को देख लेते और अपने खेल में लग जाते। जैसे-जैसे उसका बच्चा बड़ा हो रहा था, उसकी मां भी काफी देर तक उसे अकेला छोड़ कर भोजन की तलाश में चली जाती थी। धीरे-धीरे उनकी हरकतें भी बढ़ती जा रही थी। अब वे सिर्फ उसे देखने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उसके बच्चे को प्यार से छूने, सहलाने का भी काम करने लगे। शुरुआत में उसका बच्चा जरूर डर जाता लेकिन जल्द ही सहज भी हो जाता।

एक दिन ऐसे ही अचानक से दोनों भाई उसके सामने ऐसे प्रकट हो गए कि घबराकर वह अपने पंख फड़फड़ाती उड़ने लगी। हालांकि वह उड़ तो नहीं पाई और थोड़ी दूर जाकर जमीन पर गिर पड़ी। दोनों उसे उठाने का प्रयास तो किया लेकिन वह इससे पहले कि वे उस तक पहुंचते डर कर वह उड़ जाती। अंततः वह ऐसे जगह पर उड़ कर बैठी जो उनकी पहुंच से बिल्कुल बाहर थी। दोनों भाई उनको उनकी स्थिति पर छोड़ कहीं और व्यस्त हो गए। दो दिनों तक उसकी मां घोसले के पास आती, बच्ची के वियोग में करुण स्वर में गुटूर गू करती। दोनों भाइयों को यह देख कर बहुत ही अफसोस होता था।

इसी बीच वीरभद्र के पिताजी गांव गए और कबूतर का एक बच्चा ले आए। उस बच्चे के साथ दोनों भाई पूर्व की तरह ही खेलने लगे। अभी तक उसने खुद से दाना चुगना नहीं सीखा था। इसलिए उनकी मां उसे अपने हाथों से गेहूं के दाने खिलाकर उस चारदीवारी में ही स्वतंत्र रूप से छोड़ देती थी। घर वालों को जब जिसको मन होता था उसे पकड़ कर, प्यार से पुचकारने, खेलाने के बाद वापस उसके स्थान पर छोड़ देता। ठुमक ठुमक कर दिन भर वह घूमती रहती थी। इस दौरान पांडूकी का भी वहां आना जाना लगा रहा। दिनभर में दो-तीन झलक दिखा ही जाती थी।

          इसी बीच एक ऐसी घटना देखने को मिली जिसकी किसी ने कभी कल्पना ही नहीं की थी। सुबह होते ही वीरभद्र की माँ उसे टोकरी से निकाल घूमने के लिए छोड़ दी थी। चूल्हा चौका करने के बाद उनको लगा कबूतर के बच्चे को दाना खिला दिया जाए। जैसे ही वह उसे उठाई वह हैरान रह गई देखकर कि उस कबूतर का पेट बिल्कुल भरा था। उनका हैरान होना स्वभाविक था क्योंकि सुबह से लेकर अभी कोई भी परिवार के सदस्य उस कबूतर के बच्चे से मिला ही नहीं था। तो फिर उसे खिलाया आखिर कौन? उसी दिन ही चार - पाँच घंटे बाद इस प्रश्न का जवाब मिल गया जब सभी लोग वहां बैठे अपने-अपने काम में लगे थे। वह पंडूकी आती है और थोड़ी दूर पर स्थित कबूतर को अपने चोंच में भरकर लाए दाने को बिल्कुल ऐसे खिलाने लगती हैं जैसे वह कबूतर उसका ही बच्चा हो। यह दृश्य देखकर सभी लोग अवाक रह गए कि ऐसा कैसे हो रहा है। यह दृश्य किसी चमत्कार को देखने जैसा था। उस पंडूकी की ममता देखकर वे फूले नहीं समा रहे थे। कोई संदेह नहीं कि वह पांडूकी उस कबूतर को अपना बच्चा समझ बैठी थी। 10 दिनों तक लगातार यह चमत्कार तब तक दिखा जब तक कि वह कबूतर अपने पंख से उड़कर आंखों से ओझल नहीं हो गया।

 

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