ऋग्वैदिक
काल से लेकर आज तक हिंदू धर्म व्यवस्था में गर्भस्थ स्त्री के भ्रूण को बालक भ्रूण
(बालिका नहीं) के रूप में परिवर्तित करने के लिए गर्भावस्था के तीसरे माह के दौरान
पुंसवन संस्कार कराया जाता रहा है। इसके बावजूद भी केवल बालक का जन्म न होकर
बालिका का भी जन्म होना इस बात को प्रमाणित करता है कि वर्तमान में भी इस परंपरा
को ढोया जाना व्यर्थ ही है। प्राचीन काल या मध्यकाल में हमारे विचार इतने उन्नत
नहीं थे,
या हम इतने जागरूक नहीं थे कि इन परंपराओं के तह तक जाकर क्या सही
है और क्या गलत सोच सकें, इसलिए हम इससे पूर्व कभी भी इस बात
की सत्यता तक नहीं पहुंच सके। लेकिन अब हम प्राचीन या मध्यकाल में नहीं बल्कि
आधुनिक काल में जी रहे हैं। यूरोप में जहां यह आधुनिक सोच 14वीं - 15 वीं शताब्दी
में शुरू होती है। वही हमारे देश में इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी से मानी जाती है।
आज 200 साल बाद भी यदि हम प्राचीन या मध्यकाल में जी रहे हैं तो यह हमारे लिए
बिल्कुल ही हास्यास्पद बात है।
इस आधुनिक काल में भी हमारे ही समाज के
लोग इस अनचाहे मेहमान का स्वागत कुछ इस तरह करते हैं कि इसे सहने या सह देने का
मतलब है हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिन्ह लगना। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो पुंसवन
संस्कार के बाजजुद भी बालक के स्थान पर यदि बालिका का जन्म हो जाता है तो उस नवजात
के मुंह में एक मुट्ठी नमक डालकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाती है । ये कोई काल्पनिक
बातें नहीं बल्कि आज भी हमारे समाज के कुछेक उच्च वर्गों/जातियों में यह विद्यमान
है। यदि याज्ञिक कर्मकांड से लिंग परिवर्तन संभव है तो आसमान लिंगानुपात पर भारत सरकार
को हाय तौबा मचाने की क्या जरूरत है? हिंदू
धर्मज्ञों से कहा जाए कि ऐसे ही कोई संस्कार ईज़ाद करें जिससे बालक भ्रूण को बालिका
के भ्रूण में परिवर्तित किया जा सके। आसमान लिंगानुपात की कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी।
सिर्फ यही एक उदाहरण नहीं है। हिंदू व्यवस्था ही नहीं अन्य धर्मों में भी ऐसे असीमित अनर्गल प्रथाएँ विद्यमान हैं। आखिर कब तक इन फर्जी रीति-रिवाजों को हम ढोते रहेंगे? अपने विवेक, दिमाग से काम लेते हुए आज हमें अंधविश्वासों के मकड़जाल से आजाद होने की आवश्यकता है।