किसी भी धर्म चाहे वह हिन्दू हो या
इस्लाम, के हजारों वर्ष पूर्व बनाई धार्मिक
व्यवस्था को आंख मूंदकर follow करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। परिस्थितियां हमेशा एक सी
नहीं होती। उस समय कुछ थी आज कुछ और है। तब प्राचीन काल या आरंभिक मध्यकाल का दौर था।
उस दौर में हम उतने तार्किक नहीं थे जो इन रीति रिवाजों की प्रासंगिकता को आलोचनात्मक
नज़रिये से देख सकें। आज हम आधुनिक काल में जी रहे हैं। हमारे देश में इसकी शुरुआत हुए
200 वर्ष हो चुके हैं। इन दो सौ वर्षों में अनेक धर्म/समाज सुधारकों ने कुछ अनर्गल
प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए उसे कानूनन बंद करवाया। आज भी ऐसे कई कुप्रथाओं (व्रत, त्योहार) को हम जरूरी रीति रिवाज या नियम
कानून मानकर उसे ढोए जा रहे हैं। जिसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
ऐसे
रीति-रिवाजों, मान्यताओं को या तो खत्म कर देना चाहिए
या समय की प्रासंगिकता के अनुसार इनमें संसोधन होते रहना चाहिए, जैसा संविधान का होता है।