Saturday, 20 June 2020

संस्कृत ग्रंथों में वर्णित 10 दिशाएँ (Ten Directions) एवं उसके स्वामी


ऋग्वेद में 4 दिशाओं पूरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण का वर्णन मिलता है, जबकि इनके बाद रचित पौराणिक ग्रंथों में 10 दिशाओं तथा उनके स्वामी का उल्लेख मिलता है जो निम्न हैं -
पूरब – इंद्र
पश्चिम – वरुण (जल का स्वामी)
उत्तर – कुबेर (धन का स्वामी)
दक्षिण – यम
आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) – अग्नि
नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) – नीरित
वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) – मारुत (वायु/पवन देव)
ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) – ईशा
आकाश – ब्रह्मा
पाताल – शेषनाग

Thursday, 11 June 2020

अलेक्ज़ेंडर महान ‘सिकंदर’ की विश्व की बाह्य सीमा निर्धारण नीति

इतिहास के छात्र से लेकर इतिहास को बोझिल मानने वाले सभी सिकंदर के नाम से विश्वप्रसिद्ध अलेक्ज़ेंडर महानसे परिचित होंगे ही। वही सिकंदर जिसपर इतिहास को बोझिल विषय मानने वाले छात्रों के लिए एक गाना बना था जो आपलोगों ने भी सुना ही होगा –

सिकंदर ने पोरस ...

से की थी लड़ाई...

जो की थी लड़ाई...

तो मैं क्या करूँ ?

जी हाँ, ये वही सिकंदर है जिसके बारे में हम बचपन में नादानी से कहा करते थे कि न ये सिकंदर हमारे देश आता न ये ई. सन रटने वाला बोझिल विषय हमें पढ़ना पड़ता। सिकंदर के संबंध में हमें बहुत ही सीमित जानकारी मिलती है कि विश्वविजय के क्रम में सिकंदर हिंदुस्तान (भारत) के पश्चिमी प्रांत पंजाब तक पहुँच गया था जहां के शासक पोरस से उसकी लड़ाई हुई। पोरस पराजित हुआ और सिकंदर ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। उसके प्रदेशों को वह वापस कर विश्वविजय के लिए आगे बढ़ गया। हालांकि वह रावी नदी से आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। एक सामाजिक विज्ञान शिक्षक/छात्र होने के नाते हमारा यह कार्य है कि सिकंदर के बारे में हम कुछ और भी जानें ताकि न सिर्फ बच्चों की जिज्ञासा को शांत कर सकें बल्कि उनके साथ-साथ खुद के ज्ञान को भी और समृद्ध कर सकें।

          शुरुआत करते हैं इस बात से कि प्राचीन दौर के एक महान व्यक्ति के रूप में याद किये जाने वाले सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे निहित उद्देश्य क्या थे? सिर्फ अपने साम्राज्य का विस्तार या कुछ और? उत्तर है कि सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे एक उद्देश्य तो अपने साम्राज्य का विस्तार करना तो था ही, एक दूसरा उद्देश्य भी था विश्व की बाहरी सीमा का पता लगाना।[1] क्योंकि एक शासक होने के साथ-साथ वह एक भूगोलविद भी था। वह यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू के अनेक शिष्यों में से एक था। उसके विश्वविजय अभियान के पीछे उसके गुरु अरस्तू की शिक्षा का भी पर्याप्त योगदान था, जो अपने अपने शिष्यों में किसी भी सिद्धान्त को प्रत्यक्ष अवलोकन करने की एक प्रबल इच्छा जागृत की। अरस्तू अपने शिष्यों को यह सिखाया करते थे कि जाओ और देखो और स्वतः निर्णय करो कि क्या कोई सिद्धांत स्वीकार योग्य है या अस्वीकार योग्य?[2] भूगोलविद माजिद हुसैन के अनुसार अरस्तू के इस शिक्षा का उनके सबसे उत्साही शिष्य एलेक्जेंडर (सिकंदर) पर गहरा प्रभाव हुआ जो तत्कालीन मकदूनिया के शासक फिलिप द्वितीय का पुत्र था। सिकंदर के पिता फिलिप द्वितीय ने अपने दम पर अपने राज्य मकदूनिया की सेना को एक ऐसे प्रभावशाली उच्च प्रशिक्षित सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया जिसने सिकंदर को तत्कालीन सर्वाधिक शक्तिशाली फारस साम्राज्य को पराजित करने में अद्भुत प्रतिभा दिखाई।

          सिकंदर की सौतेली बहन की शादी में उनके पिता फिलिप द्वितीय की हत्या उनके ही एक गार्ड द्वारा कर दिए जाने के पश्चात नए राजा बनने के लिए संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। इस संघर्ष में सिकंदर ने अपने एक सौतेले भाई फिलिप एरिडाइस को छोड़कर सभी उत्तराधिकार पद के दावेदारों व अन्य विरोधियों का क्रूरता से सफाया कर 20 साल की उम्र में राजा बने। अपने 12 वर्ष के शासनकाल के दौरान अपने सैनिकों के साथ 12000 मील की विजय यात्रा (पश्चिम में यूनान से लेकर पूर्व में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र तक) करते हुए खुद को एक प्रभावशाली सैनिक कमांडर के रूप में किया। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ विश्व की बाहरी सीमा निर्धारित करने के उद्देश्य से एक प्रशिक्षित सेना लेकर दक्षिण व पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। वह जानना चाहता था कि फारस साम्राज्य के उस पार दूर के क्षेत्रों में वस्तुतः है क्या जहां के विषय में अनेक कहानियाँ तथा किंवदंतियाँ प्रचलित थी। 330 – 323 ई. की अवधि के दौरान वह देश विदेश की सूचनाओं को प्राप्त करने व उन्हें रिकॉर्ड करने विशेषज्ञों को लेकर फारस से भारत तक आया और एक सच्चे खोजी की तरह दूसरे रास्ते से लौटा।[3]

          अपने विद्यार्थी जीवन में तीन वर्षों तक सिकंदर (343-340 ई. पू.) अरस्तू के पास अध्ययन किए। मकदूनिया का शासक बनने के पश्चात सिकंदर ने यूनानी साम्राज्य का विस्तार पूरे विश्व में करने की योजना बनाई। इस क्रम में दक्षिणी क्षेत्र (मिश्र) को विजित करने के पश्चात वह पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। 327 ई. पू. में हिंदुकुश पर्वत पार करते हुए खैबर दर्रे के रास्ते सिंधु नदी (पंजाब) क्षेत्र में प्रवेश किया। उसे यह विश्वास था कि अब वह पूर्व की ओर आवासित जगत की सीमा से कुछ ही दूर है। वह आगे बढ़ कर उस सीमा तक जाना चाहता था लेकिन दुर्भाग्यवश उसके सैनिकों ने उसका साथ नहीं दिया। सिकंदर ने उनमें उत्साह जगाने की पूरी कोशिश की लेकिन बुरी तरह थक चुके सैनिकों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। कुछ ने तो विद्रोह तक कर दिया।

          वापसी के दौरान सिकंदर ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक टुकड़ी को नियरकस के सेनापतित्व में सिंधु नदी, सिंधु नदी मुहाने, अरब सागर, फारस की खाड़ी होते हुए भेजा, दूसरी टुकड़ी को खुद थलमार्ग होते हुए मकरान, बलूचिस्तान, ईरान के रास्ते मेसोपोटामिया के लिए बढ़ी। थल मार्ग से बढ़ते हुए 323 ई. पू. रास्ते में बेबीलोन में सिकंदर की मृत्यु हो गई। इस तरह विश्व की बाहरी सीमा निर्धारण को निकले सिकंदर का कार्य पूर्ण तो नहीं हो पाया लेकिन अपने इस विश्वविजयी अभियान के माध्यम से उसने यूनानियों को उन प्रदेशों का ज्ञान कराया जो उनके ज्ञान के दायरे से बाहर के थे। यूनानियों को फारस, मध्य एशिया, अफगानिस्तान, हिंदुस्तान तथा ईरान के तटीय क्षेत्रों की भौतिक स्थिति, इन क्षेत्रों के जन-जातियों, पेड़ पौधों का ज्ञान हो पाया।



[1] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 18 

[2] वही, पृष्ठ सं. 18 

[3] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 102 

Sunday, 7 June 2020

कोरोना के दौर में आरंभिक भाषा शिक्षण एवं अभिभावक


कोरोना दौर जारी है, बाज़ार, फैक्ट्री से लेकर शिक्षण संस्थाएं सभी बंद पड़ने के बाद धीरे-धीरे खुलने शुरू हो गए हैं। निजी व शासकीय प्राथमिक शालाओं के फिलहाल खुलने पर थोड़ा संशय बना हुआ है क्योंकि बात बच्चों की है। वैसे हम सभी इजरायल, फ्रांस आदि देशों में इस दौरान स्कूल खुलने से बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की घटना से हम सभी वाकिफ हैं। यदि हमारे देश में भी ऐसी परिस्थितियाँ बनती है तो अन्य देशों की तरह हमारे देश के स्कूल भी अनिश्चित काल के लिए बंद हो जाने की संभावना बनती है। यदि पूरी सावधानी रखते हुए विद्यालय खुल भी जाएँ तो इस बात की भी पूरी संभावना हो सकती है कि शिक्षक या स्कूल से पर्याप्त सहयोग न मिल पाए जैसा इससे पूर्व मिलता आया है जिससे आपके बच्चे का भाषाई कौशल विकास अवरुद्ध हो सकता है। परिणामस्वरूप आत्मविश्वासी, तेज़ तर्राक, चालाक की जगह आपका बच्चा दब्बू, बुद्धिहीन भी हो सकता है। ऐसा कहने का आधार प्रसिद्ध भाषाविद, दार्शनिक नॉम चोम्सकी का भाषा विकास के सिद्धान्त है, जिसके अनुसार भाषा का विकास मनुष्य की एक संपत्ति है जो स्वतंत्र रूप से बुद्धि का कार्य करता है। इसलिए जैसे हमारी ताकत का आधार इस बात पर सर्वाधिक निर्भर करता है कि हमारा सुबह का नाश्ता पौष्टिक तत्वों से कितना समृद्ध है। वैसे ही अपने बच्चे इस दृष्टिकोण से बच्चे के भाषाई विकास में जरा सा भी लापरवाही करना आपको महंगा पड़ सकता है। यहाँ सवाल उठता है कि आखिर आरंभिक भाषा शिक्षण है क्या? तो आरंभिक भाषा शिक्षण से तात्पर्य है कि कक्षा पहली से पाँचवीं तक बच्चों को भाषा (हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू आदि सहित अन्य भाषा) विषय के माध्यम से वांछित कौशल का विकास कराया जाना। इन कौशल विकास का अधिकांश दायित्व भाषा विषय तथा भाषा शिक्षक के कंधे पर होता है। इन कौशलों का सही तरीके से विकास होगा तभी अन्य विषयों के अध्ययन से खुद को ये पूरी रुचि के साथ जोड़ पाएंगे। उदाहरण के लिए यदि तर्क लगाने के कौशल का विकास नहीं हो पाता है तो उसे गणित, विज्ञान विषय रुचिकर नहीं लगेगा। यदि सुनने, समझने का कौशल विकसित नहीं होता है तो कोई विषय रुचिकर नहीं लगेगा आपके बच्चे को।       
          जिन कौशलों के विकास की बात उपरोक्त पंक्तियों में की गई है, वह हैं – किसी भी कविता, कहानी को सुनकर उसके अर्थ को आत्मसाथ कर पाने का कौशल, उन कविता-कहानियों को हाव भाव के साथ कहने का कौशल, उस कविता को पढ़ने का कौशल, कविता-कहानी में आए पात्रों से परिचित होने के साथ-साथ उनसे संबंधित सवाल पूछने एवं उससे संबंधित सवालों के उत्तर देने का कौशल, संबंधित भाषा विषय के ध्वनि, अक्षर, मात्राओं को समझने का कौशल, इन अक्षर व मात्राओं के संयोग से निर्मित शब्द बनाने व समझने का कौशल, शब्द भंडार बढ़ाने का कौशल,  मौलिक चिंतन-लेखन करने, तर्क करने, कल्पना करने, विश्लेषण करने का कौशल, पूछे गए प्रश्न के जवाब देते हुए नए-नए शब्दों का चयन करने का कौशल, संक्षेप या विस्तार में कहने-लिखने का कौशल, लिंग, वचन के भेद को समझने का कौशल, कविता-कहानी को संवाद के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ने व सुनाने का कौशल, शब्द, वाक्य व अनुच्छेद के बीच के अंतर समझ पाने का कौशल, चित्र या अभिनय के माध्यम से कविता या कहानी को समझाने का कौशल, स्वतंत्र रूप से कविता या कहानी बुनने का कौशल आदि। ताकि बच्चा रट्टा मार कर नहीं बल्कि स्वयं से कुछ कर उस अवधारणा के संबंध में अपनी समझ बना सके।
          जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि बच्चों में इन कौशलों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी मुख्यतः स्कूल शिक्षक पर होती थी। लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में जिस तरह बच्चे का शिक्षक और स्कूल से दूरी सी बनती जा रही है, ऐसे में बेहतर होगा कि अपने बच्चों के बेहतर विकास के लिए अभिभावक खुद ही भाषा शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करें। सीखने हेतु भय-मुक्त वातावरण उपलब्ध कराने के दृष्टिकोण से यह एक अच्छा कदम होगा क्योंकि घरेलू परिवेश में बच्चा भयमुक्त होकर सीखता है। घरेलू परिवेश में ही कक्षा जैसा अनुभव देकर आप अपने बच्चे को मौखिक रूप से मुखर बना सकते हैं। हालांकि यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि बिना शिक्षकीय प्रशिक्षण के अभिभावक घर पर कैसे शिक्षक की भूमिका निभाएँ? आप यह काम अच्छे से कर सकते हैं इसमें कोई दो राय नहीं। क्योंकि यदि आप अपने बच्चे को स्कूल भेजने से पूर्व भाषाई रूप से वयस्क (नोम चोम्सकी के भाषा विकास सिद्धांत के अनुसार) कर सकते हैं तो अपनी क्षत्र-छाया में रखकर उनमें उपरोक्त कौशलों को विकसित भी कर सकते हैं। स्कूल जाने से पूर्व ही बच्चों के भाषाई रूप से वयस्क हो जाने की बात आपको आश्चर्यचकित कर सकता है लेकिन यह सत्य है। विडम्बना यह है कि इस बात की जानकारी अभिभावक को भी नहीं होती, वे इस तथ्य से अनजान होते हैं। अपने बच्चे के भाषाई कौशल के विकास में आप निम्न रूप से योगदान दे सकते हैं -
·       सीखने के प्रतिफल जानने-समझने का प्रयास करें –
राष्ट्रीय शिक्षा एवं अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा 2016-17 से प्राथमिक से लेकर माध्यमिक कक्षा स्तर पर पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों जैसे भाषा, गणित, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों के शुरुआत में सीखने के प्रतिफल खंड शामिल किया गया है, जिसका उद्देश्य है शिक्षकों, अभिभावकों को इस बात से अवगत कराना कि अलग-अलग दर्जे में बच्चों में कौन-कौन से कौशल विकसित किया जाना चाहिए। यह सीखने का एक मापदंड है जिसके आधार पर बच्चे का आकलन किया जाता है। एनसीईआरटी के अतिरिक्त एससीईआरटी ने अपने-अपने राज्यों के शासकीय शालाओं के पाठ्यपुस्तकों में इसे शामिल किया है। आपके बच्चे का नामांकन यदि किसी निजी विद्यालय में है तो उनके पाठ्यपुस्तक में यह संभवतः नहीं भी हो सकता है। ऐसे में आप इसे एनसीईआरटी या एससीईआरटी के वैबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं। अभिभावक को भी यदि यह पता हो कि उनका बच्चा यदि पहली कक्षा में है और इस दौरान उनमें कौन-कौन से कौशल विकसित होना चाहिए तो वह भी वैसे ही योगदान दे सकते हैं जैसे अपने बच्चे को पूर्व में शिक्षक के लिए निर्धारित कार्य गिनती, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू या अन्य भाषाओं के ध्वनि, वर्णमाला का ज्ञान करा देते हैं।
·       कविता-कहानी में आए संदर्भों पर बात करें –
प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों के भाषाई कौशल के विकास हेतु साहित्य की दो विधाएँ - कविता एवं कहानी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कोई दो राय नहीं कि स्कूल भेजने से पूर्व अभिभावक अपने बच्चे को 4 से 8 लाइन की कम-से-कम दर्जनों कविता-कहानियाँ याद करा ही देते हैं। आरंभिक कक्षा की कविता कहानियाँ चाहे वह किसी भी भाषा (हिंदी, अंग्रेजी, या अन्य क्षेत्रीय भाषा) की हो, काफी मनोरंजक या गुदगुदाने वाली होती है। जिसे बच्चे पूरे आनंद लेते हुए सुनते, बोलते, पढ़ते, लिखते हैं। इन कविता-कहानियों में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो सीधे उनके परिवेश से जुड़े होते हैं जैसे जानवर या पशु-पक्षियों में कबूतर, खरगोश, गाय, तोता, फल-सब्जियों में आलू, बैगन, टमाटर, गाजर, सेब, केला। इन परिचित वस्तुओं के साथ-साथ कई ऐसे शब्द या अवधारणा आते हैं जो उनके परिवेश से संबंधित नहीं होने के कारण उनके नाम वे पहली बार सुन रहे होते हैं जैसे – जेब्रा, दरियाई घोड़ा, गैंडा, डाइनाशोर आदि। एक भाषा शिक्षक का यह काम होता है कि उस कविता-कहानी में आए नए शब्द, अवधारणा को रोचक तरीके से बताना, ताकि उनके शब्दभंडार संदर्भ के साथ बढ़ाया जा सके। ऐसे में यह कदम अब अभिभावक स्वयं उठाते हुए उन कविता-कहानियों को न सिर्फ बच्चों को सुनाएँ, बल्कि उसमें आए अवधारणा पर खुलकर बात करें। कोशिश करें बच्चे से ही कल्पना करवाने, अनुमान लगवाने का कि कविता/कहानी में यदि ऐसा होता तो क्या होता?
·       घर को बनाएँ प्रिंट-रिच
बच्चे के भाषाई कौशल विकास के लिए प्रिंटरिच वातावरण एक महत्वपूर्ण उपकरण होता है। स्कूली कक्षा में बच्चों को यह वातावरण तो मिलता ही है, घर पर भी ऐसे माहौल विकसित किए जाने चाहिए। वर्तमान में बच्चे जब स्कूल से दूर होते जा रहे हैं, हमारा प्रयास हो घर के किसी कमरे या पूरे घर को ही प्रिंटरिच बनाने की। आपका बच्चा जिस कक्षा में है उस कक्षा के पाठ्यपुस्तक के प्रकृति अनुसार अनेक तरह की कविताएं, कहानियाँ एक रीडिंग कोर्नर में संकलित कर सकते/सकती हैं। यहाँ सवाल हो सकता है कि आखिर प्रिंटरिच वातावरण का निर्माण कैसे करें? जवाब है बिलकुल वैसे ही जैसे चिड़ियाँ अपना घोसला बुनती है। पहली व दूसरी कक्षा की बात करें तो उन्हें ध्वनि, वर्णमाला से परिचित करवाने के उद्देश्य से उनके परिवेश से जुडते विभिन्न उत्पादों के विज्ञापन, जिनसे वे परिचित हों, जैसे जो भी टॉफी, बिस्कुट, चिप्स, आइसक्रीम आदि आपके बच्चे खाते हों उसके रैपर, विज्ञापन, प्रिंटरिच सामग्री हो सकती है। इनके साथ काम करते हुए उन्हें उस रैपर में छपे प्रिंट के अर्थ से अवगत कराएं। इस दौरान इस बात का भी ध्यान रखें कि आपके बच्चे यदि इनसे परिचित हो गए हैं तो इसे बदलकर उन सामग्रियों को प्राथमिकता दें जो उनके पाठ्यपुस्तक से जुड़ते हों। बच्चे के कक्षानुसार पाठ्यपुस्तकों की मांग के आधार पर इन सभी प्रिंटरिच सामग्री को बदलते भी रहें। ये प्रिंटरिच सामग्री बच्चों को बाल साहित्य की तरफ ले जाने में सहायक होगा। इसके पश्चात उनके लिए एक छोटा सा पुस्तकालय स्थापित कर उन्हें पढ़ने-लिखने के मौके देकर उन्हें भाषाई रूप में समृद्ध कर सकते हैं।
·       अपने बच्चों को सवालीराम बनाएँ –
अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बच्चे को स्कूल में सवाल पूछना सिखाया ही नहीं जाता, जिसका परिणाम यह होता है कि किसी शब्द या अवधारणा को समझने में यदि उसे समस्या आ रही है तो वह उसे पूछ नहीं पाता? यदि यह हमारे व्यक्तित्व में घर कर जाए तो पूरी ज़िंदगी वह इससे उबर नहीं पाता है। वह एक पढ़ा-लिखा नागरिक तो बन जाएगा लेकिन जागरूक नागरिक नहीं। इसलिए अपने बच्चे को प्रश्न पूछने के भरपूर मौके दें। अक्सर हम (शिक्षक/अभिभावक) बच्चों के किसी प्रकार के प्रश्न पूछने पर डांटकर उसे चुप करा देते हैं, ऐसा हम तब करते हैं जब हमारे पास उनके प्रश्न का जवाब नहीं होता। शर्मिंदा होने से बचने के लिए हम उनको ऐसा डरा देते हैं कि दुबारा वह प्रश्न पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता। मेरा मानना है कि हमें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं। हमें ये ज्ञान होना चाहिए कि हर कोई किसी विषय का विशेषज्ञ नहीं होता जो उसे सब कुछ आएगा ही। कोई मुझसे गणित में कुछ पूछ ले तो मैं खुद तारे गिनने लग सकता हूँ। ऐसा में होना ये चाहिए कि हम अलग-अलग स्त्रोत से जानकारी प्राप्त कर बच्चे की जिज्ञासा शांत करें दमन नहीं। क्योंकि बच्चे किसी भी चीज को तब तक गहराई से नहीं सीख पाएंगे जब तक कि उसके अनेक पहलुओं को सवालों के माध्यम से जानेंगे या समझेंगे नहीं। ऐसे में उन्हें सवालीराम बनने के मौके दें।
·       प्रतिदिन कौशल विकास का आकलन करें -
अभिभावक स्वयं से प्रतिदिन उनके कौशल विकास का आकलन करें। आकलन के दौरान यह समझने का प्रयास करें कि आपके बच्चे में कक्षानुसार सीखने के प्रतिफल के अनुरूप कौशल विकसित हो पा रहा है या नहीं। यदि कहीं कोई समस्या आ रही है तो पहले के तरीके की जगह आप अलग-अलग रोचक तरीके अपना सकते हैं। कोशिश यह रहना चाहिए कि बच्चे को पता न चल पाएँ कि उनका आकलन किया जा रहा है। अक्सर आकलन के संबंध में जानकारी मिलते ही बच्चे किसी अवधारणा को समझना छोड़कर उसके संबंध में रट्टा मारकर उसे आत्मसाथ कर लेते हैं जो दीर्घकालिक नहीं होते। कोशिश करें कि इसे खेल-खेल में करने की। बच्चे में यदि वह कौशल विकसित नहीं हो पा रहा है तो उस तरीके में बदलाव करते हुए अलग गतिविधि अपना सकते हैं।
          अब सवाल उठता है कि अभिभावक इसके लिए अपने व्यस्त दैनिक जीवन से समय कब और कैसे निकालें ? ये निकालना तो पड़ेगा ही अपने बच्चे के भविष्य को सँवारने हेतु। कभी माँ को तो कभी पिता को। कोई आवश्यकता नहीं है स्कूल के पाठ्यक्रम को पूरा कराने की। आप अपने स्तर से अलग-अलग गतिविधि कराकर अपने बच्चे में इन सीखने के प्रतिफलों को समाहित करवा सकते हैं। यदि ऐसा करवा पाए तो पाठ्यपुस्तक के सवालों को हल करना आपके बच्चे के लिए चुटकी का काम होगा। और यदि ऐसा संभव हो पाता है तो वह दिन दूर नहीं जब असर-2019 की रिपोर्ट कि ‘8वीं तक के बच्चे 2सरी कक्षा की पुस्तक पढ़ नहीं पाते हैं” झूठी साबित होगी।
                                                          साकेत बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छ.ग.)


(मूलतः दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र women express के 8 जून 2020 अंक के संपादकीय में प्रकाशित)


Wednesday, 13 May 2020

बच्चों के बीच प्रारंभिक शिक्षा को रुचिकर कैसे बनाएं?


अभिभावक, शिक्षक के लिए हमेशा से यह समस्या रही है कि आखिर तमाम प्रयासों के बावजूद उनके बच्चे पढ़ने-लिखने में रुचि क्यों नहीं लेते? अभिभावक इसके लिए शिक्षक को, शिक्षक अभिभावक के साथ-साथ बच्चों को इसके लिए दोषी ठहराते देखे जा सकते हैं। शिक्षक-अभिभावक के बीच की इस लड़ाई से बच्चे इतने हतास हो जाते हैं कि तनाव में आकर उनकी उन गतिविधियों से भी विरक्ति होने लगती है जिसमें उनकी रुचि होती है। परिणामस्वरूप बच्चों को पढ़ाई-लिखाई छोड़ते देखे जा सकते हैं। हालांकि फेल नहीं करने की नीति (नो डिटेन्सन पॉलिसी) लागू होने के बाद स्थिति में कुछ सुधार होने की उम्मीद जागी थी लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं पाया है अबतक, जिसके आधार पर कहा जा सके कि बच्चे पढ़ाई के प्रति रुचि लेने लगे हैं। अपने छात्र जीवन में यदि हम झाँकें तो गुरुजी की छड़ी जबरन हमें शिक्षा में रुचि लेने के लिए मजबूर करती थी क्योंकि कोई विकल्प ही नहीं था पिटाई से बचने के लिए पढ़ाई में रुचि लेने के अलावा। पिटाई से बचने के लिए ऊपरी मन से रट्टा मार कर याद तो कर लिए लेकिन छात्र जीवन तक उसके संबंध में बुनियादी समझ नहीं बन सकी। कमोबेश यही स्थिति आज के बच्चों के साथ भी है। फेल नहीं करने की नीति के कारण हमारे स्कूल का वातावरण कुछ इस प्रकार बन गया है कि निर्भय बच्चे को गुरुजी के छड़ी का कोई भय ही नहीं। ऐसे में शिक्षकों के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है कि छड़ी रूपी हथियार का उपयोग किए बिना बच्चों को शिक्षा के प्रति रुचि कैसे पैदा करें? हालांकि यह थोड़ा कठिन है लेकिन असंभव नहीं। कुछ बातों को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाकर वे बच्चों की शिक्षा को रुचिकर बनाकर बच्चों द्वारा स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति पर काबू पा सकते हैं।
1)   स्कूल में भय-मुक्त वातावरण विकसित करें -  
बच्चों की शिक्षा के प्रति रुचि तब तक जगाई नहीं जा सकती जब तक हम (शिक्षक) उनके वैचारिक स्तर तक जाकर उनके साथ मित्रवत व्यवहार, उनकी भाषा में बात नहीं करते। अक्सर हममें से अधिकांश किसी स्कूल (विशेषकर सरकारी स्कूल) के शिक्षक की नौकरी पा जाने के बाद एक अदृश्यरूपी अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं। अधिकांश मामलों में हमें इस संक्रमण का पता नहीं होता लेकिन वास्तव में हम इस अहंकार के साथ अपनी भूमिका, ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहे होते हैं। इस अहंकार का संबंध ज्ञान या बड़ी डिग्री पाने से कम, हर महीने मिलने वाली मोटी तंख्वाह से ज्यादा होता है। इस अहंकार में जीते हुए एक तो हमारी वाणी कठोर हो जाती है दूसरा यह कि हम यह भूल जाते हैं कि बच्चों को हमारे इस उच्च डिग्रीधारी, ज्ञानी होने के अहंकार से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें सिर्फ इस बात से मतलब होता है कि उसके प्रति आपका व्यवहार कैसा है? उनकी बातों को आप कितना तवज्जो देते हैं? उनसे आप कितना घुल-मिलकर रहते हैं? इस अहंकारपूर्ण व्यवहार का दुष्परिणाम यह होता है कि बच्चे आपसे दूरी तो बना ही लेते ही हैं, साथ ही बातचीत करने की कला जो वे परिवार, समाज में रहकर सीखते हुए स्कूल में दाखिला लेते हैं, वह भी भय वाले वातावरण में रहकर कुंद हो जाती है। इस भय के माहौल में वे उन बातों, विचारों को भूलने लगते हैं जो उनके मन-मस्तिष्क में होती है। अतः शिक्षा बच्चों के लिए तभी रुचिकर होगी जब आप उनकी अभिव्यक्ति को सम्मान देंगे जिन्हें वे बोलने के अतिरिक्त लिखने व चित्रकला के माध्यम से व्यक्त करते हैं। कक्षाकक्ष में हम यदि कुछ प्रश्न उनसे करें तो ये ध्यान रखें कि वे जो भी उत्तर दे रहे हैं उनको सम्मान दें, भले ही वे गलत ही उत्तर दें। गलत बोलने पर उनके साथ डांट-फटकार न करें। वह हमारे-आपके अनुसार गलत हो सकता है लेकिन वह जो भी बोलते हैं अपने अनुभव के आधार पर बोलते हैं। यदि उनका तर्क बिलकुल भी गलत हो तो भी यह कहकर हम उनका उत्साहवर्धन करें कि, आपने अच्छा प्रयास किया। चिंता की कोई बात नहीं इस गलती को फिर कभी सुधारा जा सकता है। लेकिन इस मौके से उसके अंदर आत्मविश्वास का संचार होगा। इस मित्रतापूर्ण व्यवहार से ही वे आपसे घुल-मिल सकेंगे और आपकी बात को पूर्ण रुचि से सुनेंगे। साथ ही बच्चों के बीच कविताओं को पूरे हाव भाव के साथ नृत्य या नाटकीय शैली में बच्चों के साथ यदि रखते हैं तो यह बच्चों को आपसे जोड़ने का काम करेगी। और यह तब तक नहीं होगा जब तक आप अपने औरों से ज्ञानी, श्रेष्ठ होने के अहंकार को खत्म नहीं करते।
2)   बॅकबेंचर्स को सम्मान दें
कक्षाकक्ष में बच्चे स्वेच्छा से अपनी सीट पर बैठते नज़र आते हैं, कुछ शिक्षक के बिलकुल नजदीक यानि आगे तो कुछ उनके पीछे मध्य भाग में। प्रत्येक कक्षा में कुछ ऐसे बच्चों का समूह अवश्य होता है जो अक्सर इन दोनों से भी पीछे की सीट पर ही बैठना पसंद करते हैं भले ही वे कक्षा में सबसे पहले क्यों न आए हों। इन बच्चों को हम बैक बेंचर के नाम से जानते हैं। पिछली बेंच पर यह इसलिए बैठते हैं कि शिक्षक इन्हें देख नहीं पाएँ या ये खुद शिक्षक से नज़रें चुरा सकें। स्कूल छोड़ने वालों में सर्वाधिक संख्या इसी समूह की होती है। क्योंकि अक्सर शिक्षक इनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार दिखाते हैं। वे या तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं, मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें भरी कक्षा में अनावश्यक उपमा देकर उनको अपमानित करते हैं, या फिर क्षमता संवर्धन के लिए उन्हें अलग बैठा देते हैं ताकि उनके साथ अलग से काम कर सकें। उपरोक्त तरीके उन्हें शिक्षा, शिक्षक तथा स्कूल से दूर करने का काम करती है। खुद को अलग-थलग पाकर आत्मग्लानि या अपमान से ग्रसित होकर वे अपने ही साथियों के साथ नज़र मिला नहीं पाते हैं। अतः उनके साथ भी हमें समान रूप से पेश आने की, उनका आत्मविश्वास बढ़ाने की जरूरत है जैसा तथाकथित तेज माने जाने वाले विद्यार्थियों के साथ हम व्यवहार करते हैं। फर्ज़ करें कि आप किसी बैठक में हैं उस बातचीत के स्तर से आप खुद को जोड़ नहीं पा रहे हैं ऐसे में बैठक आयोजित करने वाला सुविधादाता आपके इस क्षमता का मज़ाक बना दें तो आप कैसा महसूस करेंगे? जैसा आप अनुभव करेंगे, ये पिछली बेंच पर बैठने वाले बच्चे भी बिल्कुल वैसा ही अनुभव करते हैं। सभी बच्चों को एक समान भाव से देखिये वे आपसे स्नेह रखते हुए कक्षा में पढ़ाई करने में रुचि लेने लगेंगे।
3)   पढ़ाने की तकनीक में बदलाव करें
बच्चों को पढ़ाई की ओर मोड़ने के लिए आपको हर विषय में पुरानी की जगह नई तकनीक प्रयुक्त करना चाहिए। भाषा में पुरानी तकनीक को त्यागने व नई तकनीक को अपनाने का अर्थ है बच्चों को पढ़ाने की शुरुआत संबंधित भाषा के वर्णमाला से नहीं बल्कि ध्वनि की समझ से हो। कहने का तात्पर्य यह है कि पहली कक्षा में नामांकन होने पर पढ़ाई की शुरुआत यदि हम सीधे बच्चों को वर्णमाला याद कराने व लिखाने से करने लगेंगे तो आगे चलकर उसके रट्टू तोता बनने की पूरी संभावना रहेगी। जिसे संबंधित विषय के वर्णमाला का ज्ञान तो होगा लेकिन समझ नहीं। इसलिए इसके स्थान पर यदि किसी भी भाषा के कविता या कहानी के माध्यम से उनके बीच वाक्य पट्टी, शब्द पट्टी व ध्वनि पट्टी जैसे टीएलएम (शिक्षण सहायक सामग्री) के माध्यम से उनकी मातृभाषा में बात किया जाए तो वे पूरी समझ के साथ ध्वनि तथा लिपि या अक्षर, संकेत के बीच समानता को अच्छी तरह समझ सकेंगे। इस पद्धति से काम करने पर पढ़ाई छूट जाने पर भी उनके दिमाग से भूलने की संभावना बहुत कम होगी। हालांकि इस पद्धति की जगह यदि समग्र भाषा पद्धति का उपयोग करें तो यह और भी प्रभावी होगा। उनके साथ ऐसे कविता-कहानियों पर काम करें जो उनके परिवेश से सीधे जुड़ती हो। जिन पशु-पक्षियों, फल-फूल-सब्जियों से वे परिचित हों, जिन्हें वे पसंद करते हों, उनपर चॉक, बोर्ड, चित्र का अधिकाधिक प्रयोग करते हुए बातचीत करें। उनसे टूटी फूटी ही सही उस फल, फूल, सब्जी का चित्र बोर्ड पर बनाने के लिए प्रेरित करें। बीच-बीच में कुछ नए शब्दों का भी समावेश करें। इससे न केवल वे उस कविता-कहानी में रुचि लेंगे बल्कि नए-नए शब्दों को भी सीख सकेंगे। कक्षा को प्रिंटरिच बनाएँ। प्रिंटरिच बनाने से तात्पर्य है कक्षा में उन पाठ्य सामग्री, चित्रों को लगाना जो पाठ्यक्रम तथा उनके परिवेश से जुड़ती हो, जैसे फल, फूल, सब्जी के चार्ट आदि।
          कुछ ऐसे ही गणित विषय में भी प्रयोग कर सकते हैं – गणित में भी अंकों को सिखाने में हम रट्टामार तकनीक ही प्रयुक्त करते हैं। एक से सौ तक हम गिनती तो सीखा देते हैं लेकिन उस समय हम उस संख्या का उतने वस्तुओं से संबंध जोड़ना दिखा नहीं पाते हैं।
4)     स्कूल में घर जैसा माहौल विकसित करें
घर के बाद स्कूल ही एक ऐसा स्थान है जहां वे सबसे अधिक समय बिताते हैं। ऐसे में यदि स्कूल के माहौल को भी यदि घर जैसा ही विकसित कर सकें तो स्कूल व बच्चे के बीच के संबंध मजबूत होंगे। घर जैसे माहौल देने के लिए हम (शिक्षक) बच्चों के साथ ऐसे ही पेश आएँ जैसे उनके माता पिता उनके साथ घुल मिलकर रहते हैं। स्कूल आने पर कक्षाकक्ष में किसी पाठ पर बातचीत करने से पूर्व उनसे बातचीत करें कि घर से स्कूल आते समय रास्ते में उन्होंने गाँव के किन-किन लोगों को देखा? उनके नाम, उनसे रिश्ते के बारे में पूछें। घर में खाने में क्या-क्या बना था? आदि। बच्चों को खेलना सबसे प्रिय लगता है। घर में जैसे बेफिक्र होकर वे खेलते हैं स्कूल में भी यदि ऐसी या इससे भी अच्छी व्यवस्था मिल जाए तो उन्हें स्कूल से जुड़ते देर नहीं लगती। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि अलग-अलग तरह के खेल के सामान वे न केवल बच्चों को उपलब्ध कराएं बल्कि रेफरी या सहयोगी की भूमिका में वे खुद इसमें सहभागी रहें। कक्षा में जो भी कविता पर काम किए हों उसे कक्षाकक्ष से बाहर के परिसर में पूरे हावभाव व गतिविधि से करवाएँ तो बच्चे आपसे सहृदय जुड़ेंगे जैसे वे घर के सदस्यों से जुड़ते हैं।
5)   बच्चों की मातृभाषा को सम्मान दें –
हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि बच्चे अपने घरेलू परिवेश में परिवार के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले भाषा को अपने अभिव्यक्ति हेतु उपयोग में लाने लगते हैं, स्कूल जाने से पूर्व वे इस भाषा में परिपक्व हो चुके होते हैं। ऐसे में जब वे स्कूल में शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली भाषा जो उनके लिए अज्ञात होती है, से जब उनका सामना होता है तो स्कूल से या संबंधित कक्षा के पाठ्यपुस्तक से उन्हें विरक्ति होने लगती है। ऐसे में शिक्षक को चाहिए कि आरंभिक कक्षाओं विशेषकर पहली तथा दूसरी में वे उनकी मातृभाषा को बातचीत हेतु अधिक से अधिक शामिल करें। पाठ्यपुस्तक के साथ-साथ स्थानीय भाषा के उन बालसाहित्यों का प्रयोग करें जो उनके परिवेश के साथ जुड़ती हों। हालांकि इसके साथ-साथ शिक्षक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि अन्य द्वितीय भाषा के शब्दों का भी कक्षा में अध्यापन के दौरान प्रयोग में लाते रहें ताकि वे अपनी मातृ भाषा के साथ-साथ इन भाषा के शब्दों के साथ भी सामंजस्य बना सकें। 
6)   प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेते रहें –
अक्सर हम (शिक्षक) इस भ्रम में जी रहे होते हैं कि मैंने एम.ए, बी. एड. और कई डिग्रियाँ प्राप्त कर शिक्षक के पेशे में आया हूँ। छात्र जीवन में ही इतना पढ़ लिख चुका हूँ, अब जरूरत ही नहीं कुछ और पढ़ने की। इसी पढ़ाई का जीवनभर उपयोग करता रहूँगा। शिक्षक के इस तरह के दावे में कोई दो राय नहीं कि इतनी बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ पाने के बाद वह प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्तर के पाठ्यपुस्तक तो पढ़ा ही लेगा। लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि सरकारी शिक्षक के रूप में सेवा देते हुए हमारे पास कई तरह की जिम्मेदारियाँ आ जाती है जैसे मध्यान भोजन, जनगणना, छात्रवृत्ति आदि। इन्हें चाहे-अनचाहे हमें करना ही पड़ता है। परिणामस्वरूप छात्र-जीवन में अर्जित ज्ञान धीमे-धीमे धूमिल पड़ती जाती है। इस धूमिल ज्ञान के साथ यदि हम बच्चों के बीच जाते हैं तो किसी मुद्दे पर पूरे आत्मविश्वास के साथ बातचीत नहीं कर पाते हैं। अतः शिक्षकों को चाहिए कि थोड़ा समय राज्य सरकार या अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन जैसे संस्थाओं द्वारा समय-समय पर संचालित विषयवार प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सम्मिलित हों, जहां अक्सर इस बात पर चर्चा होती रहती है कि किसी विषय के विषयवस्तु को बच्चों के बीच कैसे ले जाएँ कि उन्हें वह विषयवस्तु  रुचिकर लगे।   
          बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए और भी कई तरीके हैं लेकिन शिक्षक यदि उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए यदि बच्चों के साथ कार्य करें तो बच्चे निश्चित रूप से शिक्षा ग्रहण करने में रुचि लेंगे। स्कूल छोड़ने जैसी घटना पर विराम लगेगी।
                                                          साकेत बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छ.ग.)

(शुरुआत : एक ज्योति शिक्षा की, संस्था एवं अल्हड़ चौपाल द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में इस आलेख को प्रथम स्थान से सम्मानित किया गया)  


Monday, 11 May 2020

सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता क्यों?


मनुष्य के सामाजिक क्रियाकलापों का अध्ययन ही सामाजिक अध्ययन है। एक अकादमिक विषय के रूप में समस्त विश्व सहित हमारे देश में भी प्राथमिक स्कूल से लेकर कॉलेज, विश्वविद्यालय स्तर तक इसका अध्ययन/अध्यापन कराए जाते हैं। इसके अध्ययन की शुरुआत तो हालांकि महान दार्शनिक प्लेटो के काल से ही शुरू हो गई थी लेकिन मध्यकाल में अल-बेरुनी, तत्पश्चात 18वीं सदी में यूरोपीय देशों में ज्ञानोदय काल में रूसो, दिदरो, इमाइल दुर्खीम, औगस्ट कामते, चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर आदि दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों द्वारा इसके व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत हुई। उस समय इसे 'मोरल फिलॉस्फी' के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे सामाजिक विज्ञान के नाम से संबोधित किया जाने लगा। औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के अध्ययन ने इसे विज्ञान के समान ही लोकप्रिय बनाने का कार्य किया। जिसकी झलक हमें 1824 ई. में विलियम थोम्पसन की पुस्तक “An Inquiry into the principles of the distribution of the wealth” में देखने को मिलती है। इसी पुस्तक में सर्वप्रथम सामाजिक विज्ञान शब्द प्रयुक्त किया गया।[i] इसी क्रम में 1924 ई. में तत्कालीन समाजशास्त्रियों द्वारा इस विषय पर विस्तृत अध्ययन हेतु एक सोसल साइन्स सोसाइटी की स्थापना की गई। तब से ही समस्त वैश्विक जगत सहित हमारे देश में इसका अध्ययन अनवरत रूप से चलता रहा है।
          विज्ञान (भौतिकी, रसायनशास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान) गणित जैसे अन्य विषयों की अपेक्षा सामाजिक अध्ययन छात्र/छात्राओं को कोई विशेष लाभ वाला रोजगार उपलब्ध नहीं कराता। जैसे विज्ञान के विभिन्न विषयों का अध्ययन कर कोई छात्र/छात्रा इंजीनियर, वैज्ञानिक, डॉक्टर बन रोजगार प्राप्त कर सकता है लेकिन सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत के विषय जैसे इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र/राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवविज्ञान आदि अकादमिक व सेवा क्षेत्र को छोड़कर प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देने में असमर्थ है। इन विषयों का अध्ययन कर यदि कोई इतिहासकार, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, अर्थशास्त्री बन भी जाता है तो विज्ञान पृष्ठभूमि के लोगों से आजीविका कमाने की तुलना में कमतर ही होता है। वर्तमान में वैज्ञानिक युग में हमारी सरकार भी विज्ञान व प्रद्योगिकी ज्ञान से युक्त मानव संसाधन निर्माण पर ज्यादा ज़ोर दे रही है। आम भारतीय जनमानस भी सामाजिक अध्ययन को एक अनउपयोगी विषय मानता है। इस मुद्दे पर हुए अध्ययन भी साबित करते हैं कि शिक्षक भी इसे पढ़ाने में कोई विशेष रुचि नहीं लेते। केवल परीक्षा में पास कराने हेतु संबंधित पाठ बच्चों को पाठ पढ़ा देते हैं या कंठष्ट करा देते हैं। इस अरुचि का संज्ञान सरकार को भी है। बावजूद इसके प्रतिवर्ष विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक सामाजिक अध्ययन पर अरबों रुपए खर्च करती है। क्यों ? भारत सरकार के अलग-अलग समय पर निर्गत पाठ्यचर्या की रूपरेखा के माध्यम से इसे समझा जा सकता है -
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात एनसीईआरटी (NCERT) ने भारत में सामाजिक अध्ययन की वास्तविक स्थिति पर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उसे भारतीय समाज में प्रचलित स्कूलों की कई प्रकार की कमियाँ दिखी। फलतः 1963-64 ई. में 4 अखिल भारतीय कार्यशाला आयोजित किए गए जिसके पश्चात कक्षा 1 से 11 तक के लिए सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्धारित किए गए। कक्षा 3 से 5 तक के लिए राज्य, देश, तथा विश्व की जानकारी देनेवाले पाठ्यपुस्तकें तैयार की गई। कक्षा 6 से 8 तक के लिए इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र की अलग-अलग पाठ्यपुस्तक तैयार की गई। इसके 10 वर्ष पश्चात 1975 ई. में प्रथम बार पाठ्यचर्या की रूपरेखा बनाते हुए कक्षा 6 से 10 तक इतिहास, भूगोल तथा नागरिक शास्त्र की तीन अलग-अलग पाठ्यपुस्तकें तैयार की गई। इन तीनों को सम्मिलित रूप से सामाजिक विज्ञान कहा गया। सामाजिक विज्ञान का उद्देश्य निर्धारित किया गया –  बड़े हो रहे नागरिकों को समुदाय, राज्य तथा संसार की गतिविधियों में भाग लेने लायक बनाना। 1988 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में इसके अध्ययन के उद्देश्य को बढ़ाते हुए बच्चों को अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के प्रति समर्पित नागरिक समुदाय का निर्माण करना रखा गया।
          इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हमारे विद्यालयी पाठ्यचर्या में प्राथमिक स्तर पर कक्षा 3 से 5 तक पर्यावरण अध्ययन (ईवीएस), कक्षा 6 से 8 तक इतिहास, भूगोल तथा नागरिकशास्त्र तथा मध्यमिक स्तर पर इन तीनों के अतिरिक्त अर्थशास्त्र का अध्ययन/अध्यापन किया/कराया जाता है। कक्षा 3 से 5 तक के बच्चों के लिए पर्यावरण अध्ययन को सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में इसलिए शामिल किया गया कि बच्चों में प्राकृतिक तथा सामाजिक पर्यावरण के संबंधों को समझने की योगिता विकसित हो सके।
          सामाजिक अध्ययन हमें यह सिखाता है कि भाषा, धर्म, संप्रदाय, जाति, जनजातीय व भौगोलिक विविधता वाले, जटिल समाज वाले हमारे देश में हमें किस प्रकार किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाए बगैर एकता को बढ़ावा देते हुए मिल-जुल कर रहना है। यह हमें समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति से संबंधित क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं, समस्याओं का विश्लेषण, आलोचना करना सिखाता है ताकि इनपर विचार विमर्श करते हुए हम एक बेहतर भविष्य के निर्माण में योगदान दे सकें।
          राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शाला के बच्चों के लिए सामाजिक अध्ययन के निम्न उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं –
प्राथमिक स्तर पर
·       बच्चों में अपने घर समाज के आसपास की वस्तुओं को पहचानने तथा उसके वर्गीकरण करने की क्षमता विकसित करना।
·       बच्चों में प्राकृतिक तथा सामाजिक पर्यावरण के अंतरसंबंध संबंधित समझ विकसित करना।
उच्च प्राथमिक स्तर पर
·       समाज के सामाजिक आर्थिक समस्याओं जैसे गरीबी, निरक्षरता, जाति, वर्ग, जेंडर, पर्यावरण आदि से अवगत कराने के लिए।
·       विश्लेषणात्मक तथा रचनात्मक मस्तिष्क की नींव तैयार करना।
·       भारतीय संविधान के मूल्यों जैसे समानता, स्वतंत्रता, न्याय आदि को समझाना ताकि वे धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के महत्व को समझ सकें।
·       नागरिकों में स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता विकसित करने के साथ-साथ उन्हें उन सामाजिक बलों का सामना करने को तैयार करना जिनसे लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरा है।
·       बच्चों को प्रकृति तथा समाज के बीच के अंतरसबंध बताते हुए उस परिवेश या समाज के संबंध में आलोचनात्मक समझ विकसित करना जिसमें वे रहते हैं।
·       संबंधित राज्य, देश के सामाजिक-राजनैतिक संस्थाओं से बच्चों को परिचित कराना।   
·       विविध भाषा-संस्कृतियों वाले देश-समाज में जीवन यापन हेतु एक सहिष्णु वातावरण का निर्माण करना।
·       स्वच्छ लोकतंत्र निर्माण हेतु एक ऐसे नागरिक समूह का निर्माण करना जिन्हें अपने अधिकारों तथा जिम्मेदारियों का ज्ञान हो।
·       सामाजिक संस्थाओं, परंपराओं तथा समाज में व्याप्त अनेक विचारों के संबंध में बताना। उन्हें इस लायक बनाना कि वे इन परंपराओं, विचारों के संदर्भ में प्रश्न कर सकें, उनकी जांच पड़ताल कर सकें।
सामाजिक अध्ययन व सामाजिक विज्ञान की पहेली
वर्तमान में विद्यालयी पाठ्यक्रम में पर्यावरण अध्ययन, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र  आदि के अध्ययन को मिश्रित रूप से सामाजिक विज्ञान विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है। इन विषयों के लिए कभी सामाजिक विज्ञान तो कभी सामाजिक अध्ययन शब्दावली भी प्रयुक्त की जाती है। ऐसे में विद्यार्थियों के लिए असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि इस अध्ययन क्षेत्र को सामाजिक अध्ययन या सामाजिक विज्ञान, क्या कहना उपयुक्त होगा? इस भ्रम की स्थिति को थोड़ा दूर करने का प्रयास किया है अमेरिकन काउंसिल ऑफ द सोसल स्टडीज़ ने, जिसके अनुसार, सामाजिक अध्ययन सामाजिक विज्ञान और ह्यूमनटीज़ (मानविकी) का मिश्रित अध्ययन है जिसका उद्देश्य है एक योग्य, समृद्ध नागरिक का निर्माण करना[ii] अब सवाल है कि किन-किन विषयों को हम सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत रखें और किन विषयों को मानविकी के अंतर्गत? सामाजिक विज्ञान अध्ययन का वह क्षेत्र है जिसके अंतर्गत समाज व सामाजिक संस्थाओं के साथ नागरिकों के संबंधों का वैज्ञानिक विधि द्वारा अध्ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत भूगोल, मानव विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र जैसे विषय आते हैं। वहीं मानविकी के अंतर्गत मनुष्य के व्यक्तिगत विचारों, क्रियाकलापों संबंधी अध्ययन आते हैं। जैसे इतिहास, कला, दर्शन, साहित्य, धर्म, संस्कृति संबंधी अध्ययन आदि।
          इस आधार पर यदि हम विद्यालय स्तर के सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम को देखें तो इसमें इतिहास विषय के अंतर्गत अतीत के लोगों के व्यक्तिगत विचारों (दर्शन), उनके लिखित दस्तावेज़ (साहित्य) उनके व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर बनाए गए रीति रिवाजों (धर्म, संस्कृति) का अध्ययन किया जाता है। वहीं नागरिक शास्त्र के अंतर्गत समाज की प्रशासनिक संस्थाओं, भूगोल के अंतर्गत समाज की विशेषताओं, स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर विद्यालय स्तर के सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम को सामाजिक अध्ययन कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। 
सामाजिक अध्ययन के विषय  
समाज संबंधी विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन के उद्देश्य से सामाजिक अध्ययन को कई शाखाओं में विभाजित किया गया है। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानव विज्ञान, भाषा विज्ञान, जनसंचार, शिक्षा शास्त्र, विधि (कानून) राजनीति शास्त्र, समाज कार्य, इतिहास, भूगोल आदि इसकी शाखाएँ हैं। विभिन्न समय अंतराल में विविन मानव प्रजातियों, समुदायों की भौतिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का अध्ययन मानव विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। संसार, प्राचीन काल से आज तक मनुष्य द्वारा आपसी बातचीत या संचार के साधनों के विकास का अध्ययन है। समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाज संबंधी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। औगस्ट कामते को समाजशास्त्र का जनक कहा जाता है। अर्थशास्त्र का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि किशोर जिस देश या समाज में रहता है उसकी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जान सके। इतिहास का अध्ययन इस दृष्टि से कराया जाता है कि हमें पता चल सके कि विभिन्न काल खंडों में हमारी सभ्यता संस्कृति कैसी थी? किस प्रकार इन में परिवर्तन आए। समाज के निवासियों के शासन व्यवस्था, उनके अधिकार व कर्तव्य का अध्ययन नागरिक शास्त्र/राजनीति विज्ञान के अंतर्गत करते हैं। एक विषय के रूप में नागरिक शास्त्र का अध्ययन औपनिवेशिक काल की देन है। हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज के प्रति बढ़ती निष्ठाहीनता को देखते हुए इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। ताकि संवेदनशील तथा उत्तरदायी नागरिक का निर्माण किया जा सके। भूगोल के अंतर्गत वैश्विक संदर्भ में अपने क्षेत्र, प्रदेश तथा देश के पर्यावरण, संसाधन की स्थिति का अध्ययन किया जाता है।