Tuesday, 29 September 2020

भारत में स्त्री प्रश्न के जनक : दरभंगा महाराजा माधव सिंह

आधुनिक भारत में स्त्री प्रश्नों का उदय कोई आकस्मिक घटना नहीं थी बल्कि साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसकी नींव तैयार करने का कार्य किया। अपनी पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति को हिंदुओं की सभ्यता-संस्कृति से श्रेष्ठ दिखाने के लिए साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने जब तत्कालीन हिंदू समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर सवाल उठाए तो प्रतिक्रिया स्वरूप पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा स्त्रियों की स्थिति का अवलोकन करने तथा उनकी स्थिति में सुधार लाने की दिशा में प्रयास शुरू हुआ। साम्राज्यवादी इतिहासकारों की बातों का खंडन भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राच्यवादी इतिहासकारों द्वारा लिखित साहित्य के साथ-साथ प्राचीन संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर साबित किया कि हिंदू समाज में स्त्रियों की स्थिति ऐसी नहीं थी जैसा वर्तमान में है। इसी क्रम में राजा राममोहन राय ने संस्कृत साहित्यों का अध्ययन कर सती प्रथा को शास्त्र संवत नहीं मानते हुए इसका विरोध किया। यही कारण है कि राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण या समाजसुधार आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है।

          यहां सवाल उठता है कि क्या राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय/हिन्दुस्तानी थे जिन्होंने स्त्री प्रश्न उठाने का कार्य किया? क्या इससे पहले हिंदुस्तानियों में बौद्धिक चेतना का विकास नहीं हुआ था? क्या सामाजिक कुप्रथाओं को वे आलोचनात्मक नज़र से नहीं देखते थे? स्कूली पाठ्यपुस्तकों से लेकर अधिकांश साहित्य का फिलहाल तो यही मानना है। जबकि वास्तविकता यह है कि राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि से भी पूर्व स्त्रियों की चिंताजनक स्थिति पर विचार करने का कार्य दरभंगा महाराजा माधव सिंह (1775-1807 ई.) ने किया। जिस प्रकार राजा राम मोहन राय को सती प्रथा के अंत के लिए जाना जाता है उसी प्रकार दरभंगा महाराजा माधव सिंह को वैवाहिक सुधार, मिथिला क्षेत्र में कुलीन घरानों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा को खत्म करने के लिए जाना जाता है जो मुख्यतः ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों में प्रचलित थी। इस दिशा में राजा माधव सिंह के योगदानों को देखते हुए स्वयं राजा राममोहन राय अपने एक आलेख में लिखते हैं –

द हॉरर ऑफ दिस प्रैक्टिस (पॉलीगेमी) इज सो पैनफूल टू द नैचुरल फीलिंग्स ऑफ मेन देट ईवन माधव सिंह द लेट राजा ऑफ तिरहुत (दाऊ अ ब्राह्मण हिमसेल्फ), थ्रू कंपाइसन, टूक अपॉन हिमसेल्फ (आई एम टोल्ड) विदीन द लास्ट सेंचुरी टू लिमिट द ब्राह्मन्स ऑफ हिज स्टेट टू फोर वाइफ़ ओन्ली। (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ राजा राममोहन राय, नई दिल्ली, 1977, पृष्ठ सं.171)

 

          राजा राम मोहन राय की तरह ही राजा माधव सिंह ने इस कुप्रथा को काफी नजदीक से महसूस किया। जटाशंकर झा की पुस्तक ‘बायोग्राफी ऑफ एन इंडियन पेट्रीओट महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ऑफ दरभंगा’ के अनुसार अपने पूर्ववर्ती राजा प्रताप सिंह (1760-1775 ई.) के एक कृत्य ने उन्हें इस प्रथा की खिलाफत के लिए मजबूर किया। अल्सर से गंभीर रूप से पीड़ित राजा प्रताप सिंह अपनी मृत्यु के 3 महीने पूर्व ही एक कम उम्र की कन्या के साथ विवाह किया था। एक कम उम्र की कन्या का तीन महीने में ही विधवा जीवन जीते देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगा था।

आखिर क्या थी ‘बिकउवा’ प्रथा?

बंगाल के कुलीन प्रथा की तरह मिथिला में भी इसी प्रकार की एक ‘बिकउवा’ प्रथा यहाँ के राजा, उनके सामंतों सहित धनी लोगों के वंशावली में प्रचलित थी। मध्यकाल में मिथिला के ब्राह्मणों के बीच वंशावली बनाने की प्रथा विकसित हुई ताकि वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ जातिगत शुद्धता बनी रहे। इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मणों में एक नया समूह विकसित हुआ जिसे ‘बिकउवा’ ब्राह्मण कहा जाता था। इस नवीन प्रथा के सृजन के परिणामस्वरूप मिथिला क्षेत्र के ब्राह्मण दो उपजातियों में विभक्त हो गए – पंजीकृत (बिकउवा) तथा गृहस्थ ब्राह्मण। ये पंजीकृत ब्राह्मण ही ‘बिकउवा’ ब्राह्मण कहे जाते थे तथा खुद को ब्राह्मणों की सर्वोच्च उपजाति मानते थे। गृहस्थ ब्राह्मण अपनी सामाजिक स्थिति को उन्नत करने के लिए ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने से उनकी निम्न स्थिति उच्च हो जाती है। यही कारण है कि ‘गृहस्थ ब्राह्मण’ बिकउवा ब्राह्मण से वैवाहिक संबंध बनाने के लिए लालायित रहते थे। ‘बिकउवा’ ब्राह्मण द्वारा ‘गृहस्थ’ ब्राह्मण की बेटी से विवाह कर उसे विधवा के रूप में छोड़ दिया जाता था। उसे पुनर्विवाह करने की इजाजत नहीं होती थी। हैरत की बात यह थी कि ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के लिए उम्र की कोई बाध्यता नहीं होती थी, वह दूध पीता बच्चा से लेकर मरणासन्न वृद्ध तक हो सकता था। अपने सम्पूर्ण जीवन काल में वह जितनी चाहे उतनी शादी कर सकता था। यह संख्या 10, 20, होते हुए 50, 60 तक चली जाती थी। इस ‘बिकउवा’ प्रथा ने मिथिला क्षेत्र में न केवल ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति को प्रभावित किया बल्कि इससे उत्पन्न परिस्थिति ने समाज में बाल विवाह, बेमेल विवाह को बढ़ावा देते हुए स्त्रियों की स्थिति को और भी बदतर करने का कार्य किया।

          इस ‘बिकउवा’ प्रथा की विभीषिका को इस आधार पर समझा जा सकता है कि 1795 ईस्वी में राजा माधव सिंह ने तिरहुत दीवानी न्यायालय में इस प्रथा के खिलाफ याचिका दायर करते हुए लिखा था ‘‘बिकउवा ब्राह्मण’ व्यक्तिगत रूप से 50 से 60 स्त्रियों से विवाह कर उसे उसके मायके छोड़ आते हैं। अपने पति से नजरअंदाज हो कर स्त्रियां तनावग्रस्त महसूस करती हैं। लेकिन अपने सम्मान की रक्षा के लिए अदालत नहीं जा पाती। इसलिए अदालत को उनपर जुर्माना या सजा देने का प्रावधान लागू करना चाहिए'(झा, जटाशंकर, एन अर्ली अटेम्प्ट एट मैरेज रिफॉर्म इन मिथिला (संपा.) (1981)‘ पृष्ठ सं. 536) तिरहुत के दीवानी न्यायालय ने मामले को संगीन मानते हुए यह निर्णय दिया कि कोई भी ब्राह्मण 4 से अधिक विवाह नहीं कर सकता।

          हालांकि 1876 ई. के एक सर्वे से यह पता चलता है कि कानून बनने के बाद भी यह प्रथा खत्म नहीं हुई। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार कुल 54 ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के मरने से 665 जवान तथा कुछ कम उम्र की स्त्रियाँ विधवा हो गई थी। एक सदी बाद दरभंगा राज्य के ही महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के प्रयास से इस प्रथा का अंत हुआ। (झा, जटाशंकर ‘बायोग्राफी ऑफ एन इंडियन पेट्रीओट महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ऑफ दरभंगा’ पृष्ठ 138)

          इस आधार पर कहा जा सकता है कि स्त्रियों की समस्याओं के खिलाफ सोचने का कार्य राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर से भी पूर्व दरभंगा महाराजा माधव सिंह ने किया। 

(मूलतः 30 सितंबर 2020 के Educational News में प्रकाशित) 

Sunday, 9 August 2020

कोरोना महामारी के दौर में मंदिर-मूर्ति पर विमर्श क्यों?

 

पिछले 8 माह के दौरान कोरोना वायरस ने सभी धर्मों के देवी-देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। त्रस्त जनता को देखकर कष्ट से उबारने या किसी न किसी रूप में आकर लोगों की जान बचाने के लिए जाने जाने वाले देवी-देवताओं को भी अपने भक्तों की चिंता नहीं है। ऐसा इन देवी-देवताओं के सबसे बड़े पुजारी या भगवान, ईश्वर, अल्लाह के सबसे करीब होने का दावा करने वाले लोगों के संक्रमित होने के आधार पर कहा जा सकता है। उन्हें अपने ही आराध्य की अलौकिक शक्ति पर विश्वास नहीं है। इसीलिए अपनी रक्षा के लिए ये लोग खुद तो मास्क पहन रहे हैं, मंदिर-मस्जिद में सैनीटाइजर का प्रयोग कर रहे हैं ही, साथ ही अपने आराध्य को भी मास्क पहना रहे हैं। कई मंदिरों में तो मंदिर प्रबंधन समिति को यहाँ तक डर है कि श्रद्धालुओं द्वारा मूर्ति को हाथ लगाने से उनके आराध्य न संक्रमित हो जाएँ व अन्य को संक्रमित कर दें। इसलिए श्रद्धालुओं को मूर्तियों को हाथ तक नहीं लगाने दे रहे हैं। दूर से प्रणाम कर यथाशीघ्र दर्शन कर गर्भगृह से निकलने का निर्देश दे रहे हैं। अधिकांश मंदिरों के कपाट इस महामारी ने बंद करवा दिये हैं। यदि खुले भी हैं तो गर्भगृह में श्रद्धालुओं का प्रवेश वर्जित है। पूरे विश्व के कट्टर धार्मिक समुदायों में हाहाकार मचा हुआ है, क्योंकि कर्मकांड करने/कराने के एवज में मिलने वाले परिश्रमिक/दान से होने वाली आय से महरूम हो गया है। विज्ञान की आलोचना करने वाले ये कट्टर धार्मिक वर्ग आज वैज्ञानिकों की तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि कब इसका टीका मिले और हालात सामान्य हो। नास्तिक (भगवान, ईश्वर, अल्लाह के अस्तित्व को नहीं मानने/चुनौती देने वाले) लोग मौके का फायदा उठाते हुए इन धार्मिक कट्टरपंथियों को छेड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। इससे पूर्व से ही वे इस तथ्य के आधार पर भगवान, अल्लाह के अस्तित्व को नकार रहे हैं कि 500 वर्ष पूर्व जब मंदिर टूटा तो खुद राम भी अपने जन्मस्थान स्थित मंदिर को टूटने से बचा नहीं पाए। एकमात्र अमर देवता राम के परम भक्त हनुमान भी मंदिर को टूटने से बचा नहीं सके। इसी तरह 1992 में मस्जिद को टूटने से अल्लाह भी नहीं बचा सके। नहीं बचा सके तो भी कोई बात नहीं। अगले दिन खुद की अलौकिक शक्ति से ही बनवा कर अपने अस्तित्व का प्रमाण देते। लेकिन वह भी नहीं हुआ। यह हाल है पूरे दिन भर देवी-देवताओं, अल्लाह, ईश्वर, वाहेगुरु की उपासना करने वाले पुरोहित वर्ग का।

          दूसरी तरफ हैं हमारे देश के शासक वर्ग अर्थात सत्तानसीं संवैधानिक पदों पर बैठे अलग-अलग पार्टियों, विचारधारा के जनप्रतिनिधि। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त परिस्थितियों से वे परिचित नहीं हैं। बावजूद इसके वे स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी जैसे जन-समस्याओं को दरकिनार कर मीडिया चैनलों, समाचारपत्रों के माध्यम से धार्मिक मुद्दों को उछालने और इसपर विमर्श करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। ताकि खुद को संबंधित धर्म के लोगों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर सकें। इनके इस रवैये के कारण अन्य पार्टियों को भी चाहे-अनचाहे इस तरह के विमर्श में कूदना ही पड़ता है खुद को उस धर्म विशेष का हितैषी बताने के लिए। पार्टी विशेष द्वारा समर्थित मीडिया विपक्षी पार्टियों को इस विमर्श में भाग लेने को मजबूर कर देता है। क्योंकि कोई भी पार्टी बहुसंख्यक वोट बैंक को चाहे-अनचाहे खोना नहीं चाहती। परिणामस्वरूप मीडिया के साथ-साथ आम जनता में विमर्श की धारा ही बदल जाती है। और वे समस्याएँ दब जाती है जिनपर बात किया जाना चाहिए और सत्तारूढ़ सरकार को उस समस्या के समाधान की बात पहुंचानी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हाल ही की घटना 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह को लें तो पूरे देश में हिंदू लोग इस दिन को जश्न के रूप में मनाए जो स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जैसे ही घोषणा की कि अयोध्या से 3 किलोमीटर दूर सरयू नदी के तट पर स्थित एक गाँव में भगवान श्री राम की 251 मीटर ऊंची मूर्ति बनाई जाएगी, इसी राज्य के दो प्रमुख विपक्षी पार्टियां समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी विकास दुबे एनकाउंटर के बाद भाजपा से नाराज ब्राह्मण वोटरों को खुश करने के लिए क्रमशः परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित करने, परशुराम के नामपर अस्पताल बनवाने की घोषणा कर दी। रोचक बात यह है कि कभी मायावती ने ही दलितों व पिछड़ों का वोट पाने के लिए तिलक, तराजू का नारा दिया था। और अब ...। 2022 में कौन सी पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाती है कौन नहीं? इसका फैसला तो जनता करेगी। लेकिन यह उपयुक्त समय नहीं है मूर्ति निर्माण पर बात करने का। क्योंकि इस अनावश्यक विमर्श से देश में विमर्श का मुद्दा परिवर्तित हो जा रहा है। जिसे देखो राम मंदिर, मस्जिद, मूर्ति पर बहस कर रहा है। कोरोना महामारी कितनी तेजी से अपने पैर फैला रहा है, इससे मजदूर वर्ग, निर्धन किसान, डॉक्टर, छोटे-छोटे व्यवसायी किस तरह परेशान हो रहे हैं जैसे मुद्दे चर्चा से गायब हो गए।

          मीडिया चैनलों में जहां विमर्श अस्पताल, स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने, बेरोजगारी की मार झेल रही जनता को रोजगार या नौकरी देने, शिक्षा से दूर होते देश के भावी भविष्य के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने पर होनी चाहिए, उसका स्थान मंदिर-मूर्ति निर्माण ले लेता है। आनेवाले समय में कोरोना महामारी से उपजे हालात के कारण जहां देश की जीडीपी में जबरदस्त गिरावट आने की भविष्यवाणी अर्थशास्त्री कर रहे हैं, ऐसे में हमारे प्रतिनिधियों द्वारा 2 वर्ष बाद रोजगार सृजन, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की बात न कर बड़े-बड़े मूर्तियों को बनाकर देश की अर्थव्यवस्था डुबाने की बात करना कोई बुद्धिमानी वाली बात नहीं है। वह भी तब जब जनता यह जान चुकी है कि कोरोना से लड़ने के लिए अत्याधुनिक सुविधाएं युक्त अस्पताल की आवश्यकता है मंदिर, मस्जिद या मूर्तियाँ बनाने से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है।  अतः जनता भी यह मांग करे कि सरकार, जनप्रतिनिधि सैकड़ों एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर इतने ऊंचे मूर्ति निर्माण पर व्यय होने वाली कम से कम हजारों करोड़ रुपए जैसी बड़ी धनराशि स्वास्थ्य सुविधा सुधार हेतु करे। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो आने वाले चुनाव में देश की जनता को आने वाले विषम हालात को ध्यान में रखते हुए ऐसे मानसिक दिवालिये जनप्रतिनिधियों को आने वाले चुनाव में सबक सिखाने की जरूरत है। उनको चुनने की जरूरत है जो जनता के इन बुनियादी सुविधाओं के लिए आवाज़ उठाए।    

Monday, 3 August 2020

हिंदू धर्म में नदियों के उद्गम तथा संगम स्थल को अत्यधिक महत्व क्यों दिया जाता है?


गंगोत्री (गंगा का उद्गम), यमुनोत्री (यमुना का उद्गम), केदारनाथ (मंदाकिनी का उद्गम) बद्रीनाथ (अलकनंदा का उद्गम) अमरकंटक (सोन व नर्मदा का उद्गम) की यात्रा करने के बाद भी एक सवाल का उत्तर नहीं मिला कि आखिर हिंदू/सनातन धर्म में नदियों के उद्गम तथा संगम स्थान को इतना अधिक मान्यता क्यों दिया जाता है? इसका उत्तर आज गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित, रामेश्वर मिश्र 'पंकज' जी की एक पुस्तक 'नदियां और हम' पढ़ते हुए मिला -
ऋग्वेद के एक श्लोक (आठवां मंडल, छठा सूक्त, अट्ठाईसवां श्लोक) के अनुसार, 'बोध की प्राप्ति हमारे पूर्वजों को पर्वतों की घाटियों और नदियों के संगम पर हुई"। (उपह्वरे गिरिणाम संगथे च नदीनाम् । धियो विप्रो अजायत्॥ इस संकेत में यह निहित है कि जो भी व्यक्ति गिरी आश्रय में या नदी के संगम में ध्यान मनन अवधारण करेगा, उसे बोध की, पवित्र धी (बुद्धि) की प्राप्ति होगी।

Sunday, 2 August 2020

प्रेमचंद्र के रचनाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता


अपने छात्र जीवन में हम कुछ ऐसे यादगार पात्रों के बारे में पढ़े होते हैं जो कभी भुलाए नहीं जाते। यदि थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएँ तो इन पात्रों की चर्चा होते ही पूरी कहानी हमारी आँखों के सामने आ जाती है। इन पात्रों में कुछ के नाम लिए जा सकते हैं। जैसे हमीद (ईदगाह), हल्कू (पूस की रात), हीरा मोती बैल (दो बैलों की कहानी) आदि। तब हमें पता नहीं था कि इन रोचक कहानियों के लेखक प्रेमचंद्र कौन हैं? लेकिन आज जब हमें इनके लेखक के बारे में जान कर बहुत ही खुशी हो रही है कि इन कहानियों के लेखक की गणना हमारे देश के सबसे महान लोकप्रिय साहित्यकारों में की जाती है। 31 जुलाई 1880 ईस्वी को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद की साहित्य की कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण आदि विधाओं में उनकी विशेष रूचि थी। यही कारण है कि हिंदी साहित्य जगत में उन्हें उपन्यास सम्राट के उपनाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने लेखन की शुरुआत जमाना पत्रिका से की। इस क्रम को जारी रखते हुए, कागज को अपनी कर्मभूमि बनाते हुए अपने छोटे से जीवन में उर्दू व हिंदी भाषा में कुल 15 उपन्यास, व 300 से भी अधिक कहानियां लिखी। निर्मला, गबन, कफन, गोदान, रंगभूमि आदि प्रेमचंद की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाएं हैं। उनके बेटे द्वारा लिखित पुस्तक 'कलम का सिपाही' उनकी पत्नी द्वारा लिखित पुस्तक 'प्रेमचंद्र घर में' आदि पुस्तकों की सहायता से हम उनके जीवन संघर्ष को समझ सकते हैं।
प्रेमचंद्र की लेखनशैली
          प्रेमचंद्र का साहित्य को देखने की दृष्टि बिल्कुल अलग थी। वह इस बात को स्वीकार नहीं करते थे कि जो कुछ भी लिख दिया जाए वह सब का सब साहित्य है। 9-10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक मंच के प्रथम अधिवेशन में सभापति के रूप में विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं, साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, इसमें जीवन की सच्चाइयाँ व्यक्त की गई हो। जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण होउपरोक्त कथित सभी तत्वों को उनके उपन्यास, कहानियों में देखा जा सकता है। प्रेमचंद्र के पूर्व के कहानीकारों की कहानी का स्वरूप मुख्यतः धार्मिक तथा काल्पनिक होती थी, जिनका मुख्य उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन, मन-बहलाव करना होता था। प्रेमचंद्र ने इस धारा को परिवर्तित करते हुए तिलिश्म, स्त्री-पुरुष प्रेम – वियोग, भूत-प्रेत पर आधारित अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले काल्पनिक कहानियों की जगह वास्तविक पात्र, वास्तविक जीवन-समस्याओं (सवा सेर गेंहू) पर आधारित कहानियों को लिखने की शुरुआत किया। उन्होंने अपने आसपास की दुनिया, सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण जीवन को अपने साहित्य में स्थान दिया। फलस्वरूप साहित्य में न केवल तत्कालीन सामाजिक जीवन से संबंधित समस्याओं, मुद्दों का स्वतः ही समावेश हुआ, बल्कि पाठक वर्ग इन समस्याओं, कुरीतियों के बारे में सोचने, इसका समाधान करने, इनपर विजय प्राप्त करने हेतु उपाय खोजने को प्रेरित हुए।  
          प्रेमचंद्र की रचनाओं में गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव आदि बुराइयों का समावेश देखने को मिलता है। कहानी सवा सेर गेंहू में शोषण संबंधी सवाल, पूस की रात गरीबी की समस्या, कहानी सद्गति में जातिगत भेदभाव को दिखाया गया है। ये कहानियाँ आम जनमानस में एक गहरी छाप छोड़ती है क्योंकि पाठक खुद को इन कहानियों के पात्रों (विशेष रूप से शोषित पात्र) से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। ये कहानियां पाठकों को सामाजिक चिंतन, विमर्श की ओर ले जाती है। यही कारण है कि किशोरों में सामाजिक चिंतन की समझ संबंधी कौशल विकसित करने के लिए प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शालाओं के भाषा पाठ्यक्रम में इन कहानियों को सरकार द्वारा शामिल किया गया है। इन कहानियों के माध्यम से हम अपने बच्चों का सामाजिकरण इस प्रकार कर सकते हैं कि वह आगे चलकर एक ऐसे नागरिक बन सकें जिसकी अपेक्षा भारतीय संविधान करता है।
          ऐसे ही उनकी एक रचना है 'पूस की रात' संक्षेप में वाचन करते हैं, तत्पश्चात इसका विश्लेषण करेंगे किन-किन समस्याओं के प्रति इस कहानी में बात की गई है।
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा - सहना आया है। लाओ जो रुपए रखे हैं उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे। उसकी पत्नी जो झाड़ू लगा रही थी पीछे फिर कर बोली 3 रुपए ही तो हैं। दे दोगे तो कंबल कहां से आएगा माघ पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उसे कह दो फसल पर दे देंगे। अभी नहीं है।
हल्कू एक क्षण के लिए अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह तो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमाएगा, गालियां देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला दे दे गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई और उपाय सोचुँगा।
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कहानी सुनने के बाद कुछ पहलुओं पर बात करना आवश्यक है ताकि प्रेमचंद्र के रचनाओं की खूबसूरती को समझा जा सके। यदि पूछा जाए कि
·       इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद किस सामाजिक समस्या को दिखाने का प्रयास किया है? आपके संभावित उत्तर होंगे - समाज में व्याप्त गरीबी को,  किसानों की समस्या को, साहूकारों के घृणित व्यवहार को।
·       आपको यह कहानी काल्पनिक लगी या वास्तविक? तो आपके संभावित उत्तर दोनों हो सकते हैं। ज्यादा संभावना होगी कि उत्तर वास्तविक के पक्ष में आएँ।  
·       क्या आप खुद को हल्कू की जगह महसूस कर पा रहे थे? उत्तर स्वाभाविक रूप से हाँ ही होगी।
उपरोक्त प्रश्नों के आपके उत्तर यदि बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसा विकल्प में कहा गया है, तो इसका अर्थ है कि आपने भी इस कहानी को खुद के ऊपर ले कर जिया है। प्रेमचंद की रचनाओं की यही खूबसूरती है कि वे जनसाधारण की उन समस्याओं पर कहानियों के माध्यम से बातचीत करते हैं जिनसे वे पीड़ित हैं। हम खुद को उन संदर्भों/ समस्याओं से जोड़ पाते हैं जिसकी चर्चा प्रेमचंद अपनी रचनाओं में करते हैं। यही जुड़ाव आप तक भी महसूस करेंगे जब आप उनकी सद्गति, ठाकुर का कुआं कहानी को पढ़ेंगे। इन दो कहानियों के माध्यम से वे समाज में व्याप्त घृणित जातिगत भेदभाव की समस्या को उजागर करते हैं। ऐसे ही जब हम ' सवा सेर गेहूं' कहानी पढ़ते हैं तो इसके माध्यम से एक गरीब किसान जो बाद में मजदूर बन जाता है, का दर्द, बंटवारे के दर्द, महाजनों के स्वार्थी प्रवृत्ति, गुलाम बनने के कारणों को महसूस कर सकते हैं। यह भी महसूस कर सकते हैं कि उच्च कुल/जाति में जन्म लेने वालों के लिए स्वर्ग और नरक के क्या मायने हैं? सद्गति कहानी के माध्यम से नज़राना प्रथा, जातिगत भेदभाव के दर्द का पता चलता है।  
प्रेमचंद्र की कहानियों की वर्तमान में प्रासंगिकता  
यहां सवाल उठता है कि प्रेमचंद्र की मृत्यु के आठ दसक (84 वर्ष) बाद प्रेमचंद्र और उनकी रचनाओं को याद करने की क्या जरूरत है? प्रेमचंद की कहानियां उपन्यास आदि के अवलोकन करने के बाद हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद्र अपने साहित्य में अनेक प्रकार के सामाजिक बुराइयों को मुख्य रूप से उठाने का प्रयास किया है। अपनी कहानियों, उपन्यासों के माध्यम से वे जिन समस्याओं से हमें अवगत कराते हैं वर्तमान समाज में यह आज भी जीवित हैं। चाहे वह भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव, दहेज प्रथा या सामंती प्रवृत्ति हो? उदाहरण के लिए यदि हम बात पंच परमेश्वर की बात करें तो यह कहानी स्वार्थी प्रवृत्ति त्यागने का संदेश देते हुए न्याय व्यवस्था की वकालत करती है। आज के समय में देखा जाए तो हम इस तरह के सोच से जी रहे होते हैं कि यह हमारे मित्र हैं या अपने हैं तो इनको लाभ पहुंचाना है चाहे वह कितनी भी गलत हों। यह कहानी हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि हमारे आपसी संबंध भले ही अच्छे हो या बुरे हो, सभी के साथ न्याय होना चाहिए। जो जैसा करे उसे वैसा फल प्राप्त हो।
          एक श्रेष्ठ, जिम्मेदार नागरिक बनने की सीख देने वाली प्रेमचंद्र की रचनाएं केवल पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने का काम ना करें बल्कि हमें उन समस्याओं पर चिंतन मनन करने की प्रेरणा प्रदान करे, इस उद्देश्य से प्रेमचंद्र जयंती के अवसर पर उनके साहित्य पर चर्चा करना आवश्यक है।

Wednesday, 29 July 2020

स्त्रियों के प्रति हमारे समाज की संकीर्ण सोच


प्राचीन, मध्य होते हुए हम आधुनिक काल में प्रवेश कर गए हैं जहां हम खुद को अपने पूर्वजों से सभ्य व बुद्धिमान होने का दावा करते हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति हमारी सोच वही प्राचीनकाल वाली ही है, आधुनिक नहीं हो पाई है। इस संकीर्ण सोच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हम इनको नीचा दिखाने के लिए सैकड़ों निम्न दर्जे के लोकोक्तियाँ, मुहावरे प्रयुक्त करने से नहीं चूकते। इनमें से एक है – “दो स्त्रियां कभी आपस में चुप नहीं बैठ सकती”। अर्थात किसी भी स्थान पर यदि दो स्त्रियां मिल जाएं तो वे कुछ न कुछ बात निकाल ही लेती हैं अपना टाइम पास करने के लिए। हद तो इस बात की है कि उनकी बातचीत को बातचीत नहीं, बल्कि चुगली करने के रूप में देखा जाता है। इस बातचीत को समाज की तरह यदि आप भी स्वस्थ संवाद न मानकर चुगली मानते हैं तो आप भी समाज की तरह मानसिक रूप से विकृत हैं। क्योंकि चुगली करने पर किसी खास जेंडर का एकाधिकार नहीं होता है। दो बातचीत पसंद पुरुष यदि एक जगह मिल जाएँ और राजनैतिक या सामाजिक मुद्दों पर बातचीत करते हुए किसी पार्टी, विचारधारा की आलोचना करें तो उसे चुगली नहीं माना जाता। यदि इसे चुगली ही माना जाए तो स्त्रियाँ इस मामले में भी दूसरे नंबर पर होगी। अव्वल स्थान पर वे पुरुष वर्ग होंगे जो चौक-चौराहों पर कैमरे की तरह हमेशा यह ताकते रहते हैं कि किसकी बहू-बेटी कहां आ-जा रही है? क्या पहन रही है? कोई दिखी नहीं कि अपने साथियों से कानाफूसी शुरू।  
          यदि दो स्त्रियाँ लंबे समय तक बात भी करती है तो इसमें गलत क्या है? पितृसत्तात्मक समाज ने जब निजी क्षेत्र या गृह कार्य स्त्रियों के, और पुरुषों को बाहरी दुनिया का ठेका दे दिया। ऐसे में लगातार झाड़ू-पोछा, बर्तन, दो से तीन टाइम खाना बनाने, बच्चों की देखभाल करने आदि कार्य से निवृत्त होकर दो स्त्रियाँ यदि आपस में मिलकर अपने निजी क्षेत्र संबंधी कुछ बात कर ही लेती हैं तो इसमें गलत क्या है? कोई दावा के साथ कह भी नहीं कर सकता कि दोनों मिलकर किसी की बुराई ही करती हैं। एक समय था, जब आप उसे पढ़ाई-लिखाई, सामाजिक कार्य, राजनीति से दूर रखते थे, उस दौरान इस बात की थोड़ी-बहुत संभावना रहती होगी। लेकिन आज वह समय नहीं बल्कि कुछ और है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार से लेकर अनेक प्रकार के अधिकार का उपयोग कर आज वे सार्वजनिक क्षेत्रों में भी पुरुषों को टक्कर दे रही हैं। इस स्तर की यदि दो स्त्रियां आपस में मिलती हैं तो आप की तरह ही वह भी सामाजिक बदलाव, राजनीतिक घटनाक्रम से लेकर अन्य कई प्रकार के सार्थक बातचीत करती हैं। अतः जरूरत है हम आप को स्त्रियों को देखने के अपने नजरिए में परिवर्तन लाने की। इस संकीर्ण सोच से खुद को उबारने की।
(मूलतः पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'एजुकेशनल न्यूज़' के 4 अगस्त 2020 के अंक में प्रकाशित)  

Sunday, 19 July 2020

मूर्त वस्तुओं द्वारा गणितीय अवधारणा की समझ।


गणित रटने नहीं, बल्कि समझने का विषय है आरंभिक कक्षा में अध्ययन के दौरान गुरुजी के इस प्रवचन ने मेरे जैसे रट्टू तोतों को भूगोल, इतिहास विषय की तरह गणित को रटने नहीं दिया। परिणामस्वरूप गणित में 40 से ज्यादा अंक कभी नहीं ला पाए। एक बार कक्षा 3 की मासिक परीक्षा में तो 100 में 4 नंबर लाकर पूरे स्कूल में इतिहास रच दिये। जोड़, घटाव, गुणा, भाग सभी अवधारणाओं को गुरुजी उस अध्याय में प्रयुक्त मानक विधि के आधार पर सवाल हल करना बताया। इस मानक विधि को हम मन-ही-मन तबतक दुहराते थे जब तक कि ये विधि हमें याद न हो जाए। इसी तरह पढ़ते हुए पास होने योग्य नंबर लाते हुए जैसे तैसे गणित से पीछा छुड़ाया। गणित सीखने के क्रम में जो महत्वपूर्ण चीज छूटता गया वह था इस मानक विधि के पीछे का तर्क। यह तर्क यदि उस दौरान समझ पाता तो शायद कुछ अंक और लाते हुए गुरुजी के साथ-साथ घरवालों के प्रकोप से बच पाता।
          आज एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए एहसास होता है कि आरंभिक स्तर पर गुरुजी ने हमें गणित समझ कर नहीं बल्कि रट्टा मार तकनीक से ही पढ़ाया। अर्थात उन्होंने हमें जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग करना सिर्फ मानक विधि को रटा कर सिखाया। इस मानक विधि के पीछे के तर्क को नहीं बताया। दरअसल गणित एक ऐसा विषय है जिसमें हम बच्चों को जोड़, घटाव, गुणा, भाग जैसे अमूर्त विषयवस्तु या अवधारणाओं को मूर्त वस्तुओं की सहायता से सिखाते हैं। बच्चों को मूर्त वस्तुओं से (समझाने हेतु ठोस वस्तुओं का उपयोग) अर्द्ध मूर्त (चित्रों से समझाना) तत्पश्चात अमूर्त (गणितीय प्रतीक चिन्ह) तक लाते हैं। लेकिन इस दौरान अधिकांश शिक्षक मूर्त व अर्द्धमूर्त को छोडकर अमूर्त रूप में ही सिखाने लगते हैं। परिणामस्वरूप 125 x 2 = 150 होता है, यह जान तो जाते हैं लेकिन इसके पीछे का तर्क पता नहीं होता। आपका बच्चा भी परीक्षा में यदि 100 में 90-100 नंबर ले आ रहा है लेकिन संख्या की अवधारणा की समझ यदि नहीं है, अर्थात वे समझ नहीं पा रहे कि 125 वस्तुओं के समूह में कितने इकाई, दहाई व सैकड़ा वस्तुओं के समूह हैं, तो समझ जाइए कि वे भी गणित को समझकर नहीं बल्कि रट्टा मारकर ही पढ़ रहे हैं।  
          विद्यालयों में आज भी काफी संख्या में ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो संख्या 37 को 73 या 73 को 37 लिख देते हैं। इनमें सुधार करने के लिए अक्सर हम शिक्षक एक विधि अपनाते हैं। इन दोनों संख्याओं को स्लेट या कॉपी पर बच्चे से इतना लिखवाते हैं कि वह इसे याद कर लेता है कि 37 या 73 को ऐसे ही लिखा जाता है। हम यह नहीं समझ पाते कि यदि वह बच्चा ऐसी गलती कर रहा है तो इसका तात्पर्य है कि वह संख्या 37 या 73 की अवधारणा को समझ नहीं पा रहा है। ऐसे में उस संख्या का पैटर्न रटाने की जगह यदि हम प्रत्येक संख्या को मूर्त वस्तुओं की सहायता से संख्या, संख्यानाम तथा प्रतीक के अंतरसंबंध को समझाएँ तो वह संख्या 37 के साथ-साथ 1 से 100 तक की संख्या के मायने को आसानी से समझ सकेगा। इसी तरह 1 से 100 तक की संख्या को एक एक मूर्त वस्तुओं की संगत कराते हुए बच्चों को गिनना सिखाते हैं तो शायद ही वह गिनती करने में गलती करेगा। ये मूर्त वस्तु कुछ भी हो सकते है जैसे बच्चों के खेलने वाले कंचे, स्कूली परिवेश में पाए जाने वाले कंकड़-पत्थर, बीज, बटन, कोल्डड्रिंक पीने वाले स्ट्रॉ, आदि।
          अतः हम शिक्षकों को चाहिए कि किसी भी गणितीय अवधारणा पर कार्य मूर्त वस्तुओं की सहायता से करें। इनका प्रयोग करने के साथ-साथ उन अवधारनाओं को सरल तरीके से समझाएँ। अर्थात बच्चों को बताएं कि जोड़ने का तात्पर्य है किसी एक समूह की वस्तु को गिनने के बाद दूसरे समूह के वस्तु को आगे की ओर गिनना। अर्थात दो वस्तुओं की संख्या को एकत्र कर कुल संख्या बताना। घटाने से तात्पर्य है किसी समूह से कुछ वस्तुएँ निकाल कर शेष बचे वस्तु की संख्या बताना । गुणा का तात्पर्य है किसी वस्तु को बार-बार जोड़ना (2 x 3 = 2 + 2 + 2) इसी तरह भाग का तात्पर्य है किसी वस्तु को बराबर भागों में बांटना या समूहीकरण करना। इतना सिखाने के बाद मानक विधि पर आना चाहिए।
                                                साकेत बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छत्तीसगढ़)
(मूलतः पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'एजुकेशनल न्यूज़' के 21 जुलाई 2020 के अंक में प्रकाशित) 

Friday, 3 July 2020

भारत की ऋतुएँ


संस्कृत ग्रंथ ऋग्वेद तथा रामायण में भारत की ऋतुओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में 5 तथा रामायण में 6 ऋतुओं का उल्लेख मिलता है।
1.     वसंत (Spring)March-April
2.     ग्रीष्म (Summer) – May - June
3.     वर्षा (Rainy Season) – July - August
4.     शरद (Autumn) – September- October
5.     हेमंत (Winter) – November - December
6.     शिशिर (Severe Winter) – January - February