Monday 17 October 2016

अंध-आस्था के नाम पर बंद हो भारतीय मुद्रा से खिलवाड़




उत्तर मध्य रेलवे का मुगलसराय-वाराणसी रेलखंड। वाराणसी स्टेशन से मुगलसराय जाने के क्रम में जैसे ही ट्रेन काशी से गंगा पर निर्मित मालवीय रेलवे ब्रिज पार करने लगी, कोच में मौजूद अधिकांश लोग विशेषकर प्रौढ़, वृद्ध यात्री अपने-अपने स्थान से उठकर गंगा को निहारते, प्रणाम करते हुए खिड़की से एक, दो या पाँच के सिक्के गंगा में फेंकने लगे। सिक्के इतनी संख्या में फेंके जा रहे थे कि ट्रेन के शोर के बीच भी लोहे के ब्रिज से टकराने से निकलने वाली सिक्के की छन-छनाहट को स्पष्ट सुना जा सकता था। फेंकने वालों में ऐसे भी लोग थे जो किसी भीख मांगने वाले को देखकर नाक-भौं सिकोड़ लेते थे। मेरे सामने बैठी एक वृद्ध माताजी ने तो 10 रुपए का नोट निकाला, अपने पोते के सिर पर तीन-चार बार नजर उतारने के क्रम में घुमाया और खिड़की के पार गंगा में फेंक दिया। उत्सुकतावश सिक्का फेंकने वाले एक सज्जन से ऐसा किए जाने का कारण जानना चाहा तो बहुत ही दार्शनिक अंदाज में उत्तर मिला कि गंगा में सिक्का फेंकना हमारी (हिंदुओं की) सभ्यता- संस्कृति में सदियों से चली आ रही परंपरा है। हमारे धर्म में गंगा को माता कहा जाता है जिसके पवित्र जल से भागीरथ के 60,000 पितरों को मुक्ति मिली थी। गंगा में स्नान करने से मनुष्य के पाप धुल जाते हैं, इसलिए लोग श्रद्धा से गंगा मईया को द्रव्य दान देते हैं। कुछ ऐसा ही एक अन्य नजारा हरिद्वार के हर की पौड़ी में भी देखने को मिला। एक बंधु गंगा में डुबकी लगाने से पहले एक सिक्का गंगा की तेज धारा में फेंकते हैं और डुबकी लगाते हैं। एक स्थानीय पुजारी से इस संदर्भ में बात किया तो पूर्व की भांति ही उत्तर मिला कि व्यक्ति द्वारा किए गए पाप को धुलकर पुण्य की प्राप्ति हेतु श्रद्धालु माँ गंगा को द्रव्य दान करते हैं। गंगा ही नहीं देश के अन्य तीर्थ स्थानों पर निर्मित कृत्रिम तालाबों के संबंध में भी यही मान्यता प्रचलित है। झारखंड राज्य में देवघर एक शैव तीर्थ है जो दो माह (सावन व भाद्रपद) तक चलने वाले श्रावणी मेले के लिए विश्वप्रसिद्ध है। शिवलिंग पर जलाभिषेक करने के उद्देश्य से श्रद्धालु मुख्यतः दो गंगा घाटों पर स्नान करते हैं - (1) सुल्तानगंज (भागलपुर, बिहार) का गंगा घाट तथा (2) सीमेरिया (बेगूसराय, बिहार) का गंगा घाट। इन दो महीनों में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु लगभग इतनी ही संख्या में सिक्के गंगा नदी में दान कर स्नान करते हैं। तत्पश्चात देवघर आकर लंकापति रावण द्वारा स्थापित शिवलिंग (दंतकथानुसार) पर जलाभिषेक करते हैं। मंदिर के नजदीक ही एक बड़ा तालाब शिवगंगाहै। श्रद्धालु इस शिवगंगा में भी पुण्य प्राप्ति के उद्देश्य से सिक्के दानकर स्नान करते हैं। हालांकि यहाँ के एक पुजारी जी का मानना है कि स्थानीय शिवगंगातालाब में द्रव्य दान की परंपरा मंदिर स्थापना काल से ही चली आ रही है। प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु इसमें स्नान करते हैं जिससे तालाब का पानी अशुद्ध हो जाता है। अतः पानी की शुद्धता को बनाए रखने के उद्देश्य से पहले तांबे के सिक्के को तालाब में डालने की प्रथा प्रचलित हुई लेकिन अब तांबे के सिक्के प्रचलन में नहीं है फिर भी तालाब में सिक्का डालना यहाँ का रिवाज बन गया है। इसी प्रकार गंगोत्री, यमुनोत्री, नर्मदा आदि नदियों सहित समय-समय पर उज्जैन, नासिक, इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ स्नान, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, अमावस्या, मकर संक्रांति, बिहार में प्रचलित कार्तिक स्नान, छठ पूजा के दौरान भी अरबों रुपए के सिक्के अंध-आस्था में नदियों में बहा दिये जाते हैं ।
 हालांकि यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण होगा कि सारे सिक्के गंगा नदी में बह जाते हैं । हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी सहित अन्य गंगा घाटों पर एक लंबी पतली रस्सी में चुंबक लगाकर सिक्के बीनते या गहरे पानी में गोता लगाकर सिक्के निकालतें सैकड़ों बच्चों व किशोरों को देखा जा सकता है। कई स्थानों पर तो इन सिक्कों को निकालने के लिए ठेके भी लिए-दिये जाते हैं। गोते लगाकर ये लोग सिक्के निकालने का काम करते हैं। फिर भी संभवतः ये प्रतिदिन नदी की तेज धार में डाले गए कुल सिक्कों का 50 प्रतिशत ही निकाल पाते होंगे। बाकी 50 प्रतिशत सिक्के या तो मिट्टी में दब जाते हैं या नदी की तेज धार में बहकर अन्यत्र चले जाते हैं जो शायद ही दुबारा भारतीय खजाने में वापस आ पाते होंगे। तालाब के सिक्कों को तो तालाब की सफाई के क्रम में निकाल लिया जाता है, जो मंदिर कोष में जमा कर लिया जाता है। लेकिन हर की पौड़ी, हरिद्वार की गंगा के तेज धारा या कोई पुल पर खड़ी बस या ट्रेन से फेंके गए सिक्के को निकालने का शायद ही कोई हिम्मत कर पाये। 
 नदियों में सिक्के फेंकने के पीछे कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता यह है कि विश्व की सभी मानव सभ्यताएँ शुद्ध जल प्रदान करने वाले नदियों के किनारे ही विकसित होते थे। निवासियों को पेय जल, सिंचाई के लिए नदियों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। इसलिए इन नदियों को पवित्र व आभारी मानकर इनकी पूजा किया जाता था तथा द्रव्य दान करना इस पूजा का ही हिस्सा होता था। एक अन्य मत है कि कुछ समुदाय इस वैज्ञानिक तथ्य से परिचित हुए कि तांबे में पानी के बैक्टीरिया को नष्ट करने की क्षमता होती है। चुकी खाद्यानों से उन्हें ताम्र धातु की प्राप्ति नहीं हो पाती थी। अतः उन्होनें इसका लाभ लेने के उद्देश्य से तांबे के सिक्कों को नदियों व तालाबों में डालना शुरू कर दिया। एक अन्य मान्यता यह है कि हिंदू धर्मावलंबी अपने मृतकों का दाह संस्कार नदियों में ही करते हैं। कई बार बिना जलाए ही मृत शरीर को विसर्जित कर दिया जाता है जिससे उस नदी का जल उस गलित शरीर के हानिकारक बैक्ट्रिया से प्रदूषित हो जाता है। अतः इस प्रदूषण से नदी को बचाने के लिए उसके जल की शुद्धि के लिए तांबे का सिक्का डालने का रिवाज था। 
 उपरोक्त मान्यताएँ सत्य हों या न हों लेकिन आज के समय में इन्हें प्रासांगिक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आज हमारे देश में तांबे का सिक्का प्रचलन में नहीं है। ऐसे में निकेल, स्टेनलेस स्टील या लौह धातु से निर्मित सिक्कों को नदियों में पानी शुद्ध करने के उद्देश्य से फेंकना कोई बुद्धिमानी नहीं बल्कि भारतीय मुद्रा के साथ खिलवाड़ करना है। रिजर्व बैंक से प्राप्त एक आर. टी. आई. के अनुसार आरबीआई को 10 रुपए जारी करने में लगभग 10 प्रतिशत का लागत आती है। अर्थात 10 रुपए का नोट जारी करने में रिजर्व बैंक को एक रुपए का खर्च आता है। इसी तरह 1 रुपए के नोट जारी करने में 1 रुपए 14 पैसे का खर्च आता है। एक या दो रुपए के सिक्के ढालने में भी लगभग इतना ही या इससे कुछ कम खर्च आता होगा। ऐसे में यदि प्रतिदिन पूरे देश में 1 लाख श्रद्धालु भी गंगा की तेज धार में सिक्के फेंकते हैं जिसमें से आधे यदि निकाल लिए जाते हैं। इसके बावजूद भी भारत सरकार को प्रतिदिन 50,000 रुपए का तथा सालाना 22 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। आज जबकि हमारे देश में महंगाई अपने चरमोत्कर्ष पर है, आर्थिक स्थिति से तंग आकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में जागरूकता फैलाकर भारतीय मुद्रा से हो रही खिलवाड़ रोककर देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है। भारत सरकार व भारतीय रिजर्व बैंक को इस दिशा में यथाशीघ्र उचित कदम उठाना चाहिए। जिस प्रकार भारतीय रिजर्व बैंक ने नोटों पर कुछ भी लिखना अपराध घोषित किया है, उसी तरह इस अंध-आस्था के कारण भारतीय मुद्रा को होनेवाले नुकसान से बचाने के लिए ऐसे ही कठोर कानून लाने की जरूरत है। यदि रोक नहीं लगाया गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा देश भी भयानक आर्थिक मंदी या मुद्रा की कमी से जूझ सकता है। 



(दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्स्प्रेस के 18/10/2016 के संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Tuesday 30 August 2016

शर्मसार होती इंसानियत के लिए जिम्मेदार हमारी संस्कृति

पिछले वर्ष सितंबर 2015 में सीरिया के समुद्री तट पर रेत में दबे एक 3 वर्षीय मृत किशोर एलेन की फोटो ट्विटर सहित समस्त सोसल मीडिया के एप्स पर वाइरल हुई थी । यह बच्चा उन 23 लोगों में से एक सदस्य था जो सीरिया के तनावपूर्ण स्थिति से त्रस्त होकर समुद्र मार्ग से ग्रीस पहुँचने की कोशिश कर रहे थे । लेकिन रास्ते में नाव पलट जाने से 23 में से 12 लोगों की मृत्यु हो गयी ।[1] इसे देखकर भारत सहित पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी तथा इसके लिए ISIS की काफी आलोचना हुई थी । इसके एक वर्ष बाद आज हमारे देश की एक घटना पूरे देश-विदेश की जुबान पर है । उड़ीसा का बहुत ही पिछड़ा जिला कालाहांडी जिले का एक गरीब आदिवासी दाना मांझी, टीबी बीमारी से मृत अपनी पत्नी के शव को अस्पताल से 60 किलोमीटर दूर स्थित अपने घर कांधे पर ले जाने को मजबूर है क्योंकि उसके पास एंबुलेंस या गाड़ी से शव को ले जाने के पैसे नहीं थे । अस्पताल ने कथित तौर पर एंबुलेंस मुहैया कराने से मना कर दिया था । हालांकि 10 किलोमीटर बाद ही एक स्थानीय पत्रकार अजीत सिंह व नागरिकों के सहयोग से जिलाधिकारी ने एंबुलेंस की व्यवस्था करवा दी । जिससे आगे के 50 किलोमीटर का सफर एंबुलेंस से तय किया गया । इसके अगले ही दिन एक और घटना उड़ीसा के ही बालासोर जिले में देखने को मिली, जो मालगाड़ी की टक्कर से मृत 76 वर्षीय वृद्ध विधवा सलमानी बेहरा की थी । उसके शव को सोरो स्थित स्थानीय हैल्थ सेंटर से 30 किलोमीटर दूर स्थित जिला अस्पताल बालासोर पोस्टमार्टम हेतु ले जाना था लेकिन उसे ले जाने के लिए रेलवे पुलिस को निर्धारित किराया 1000 रुपए में एंबुलेंस या कोई गाड़ी नहीं मिल रही थी । रेलवे पुलिस के अनुसार ऑटोवाले 3000 रुपए किराया मांग रहे थे । अंततः रेलवे पुलिस मजदूरों को कुछ पैसे देकर रेल से ही शव को जिला अस्पताल भेजने के लिए तैयार किया । अस्पताल कर्मचारियों की उदासीनता से एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण मृत शरीर ने अकड़ना शुरू कर दिया था । ढोने में होनेवाली असुविधा के कारण मजदूरों ने सोरो स्टेशन तक लाने के लिए अकड़ी शव को इतनी बेरहमी से अपने पैर से कूल्हे की हड्डी के पास से ऐसे तोड़ दिया, जैसे हाथ और पैर की सहायता से हम किसी लकड़ी को तोड़ते हैं । तत्पश्चात उसका गट्ठर बनाकर उस शव को पोस्टमार्टम हेतु ले जाया गया ।
उपरोक्त घटनाएँ साबित करती हैं कि आज भले ही हम शिक्षित, सुसंस्कृत होकर डिजिटल युग की ओर कदम बढ़ाते जा रहे हैं लेकिन इसके साथ ही हमारे अंदर इंसानियत की भावना खत्म होती जा रही है । क्योंकि आज की शिक्षा व्यवस्था हमें फैक्ट्री मजदूर बना रहा है, इंसान नहीं जो किसी के दुख, दर्द को समझ सकें । किसी के कूल्हे हो पैरों से तोड़ने के कल्पना कर ही हमारे शरीर में सिहरन होने लगती है फिर आखिर कैसे आखिर एक मजदूर ने ... । उस मजदूर, पास खड़े रेलवे पुलिस में क्या जरा भी इंसानियत नहीं थी । अक्सर इंसानियत को शर्मशार करने वाली घटनाओं का ठीकरा हम सामंती विचारधारा वाले अमीरों, पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों के सिर पर फोड़ देते हैं लेकिन उपरोक्त घटनाएँ यह साबित करती है कि गरीब, मध्यम व निचले स्तर पर काम करनेवाले अधिकारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । दोनों (कालाहांडी व बालासोर) घटनाओं में विलन के रूप में मरीजों को जीवन देने वाला “एंबुलेंस” कटघरे में खड़ा है । दाना मांझी को भी शव ले जाने के लिए “एंबुलेंस” नहीं मिल पाता है । सलमानी बेहरा के शव को भी ले जाने के लिए “एंबुलेंस” नहीं मिल पाता है । ऐसे में इस अमानवीय घटना के लिए किसे दोष दिया जाय ? राज्य सरकार को ! रेल पुलिस या अस्पताल प्रशासन को ! एंबुलेंस के चालक को ! या दाना मांझी, सलमानी बेहरा के आदिवासी बैक्ग्राउण्ड को । राज्य सरकार के अनुसार 2013 से ही राज्य में मृतक के अंतिम संस्कार हेतु हरिश्चंद्र योजना जारी है । इसके बावजूद दोनों ही घटनाओं में इसका फायदा नागरिकों को मिलता दिख नहीं रहा है । सरकार फरवरी 2016 से ही महाप्रयाण योजना की शुरुआत करने की घोषणा कर चुकी थी लेकिन इस घटना के दिन तक यह लागू नहीं किया जा सका था । हालांकि आलोचना से बचने के लिए इसके अगले ही दिन उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ने सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक शव पहुंचाने के लिए निःशुल्क परिवहन सुविधा उपलब्ध कराने के लिए महाप्रयाण योजना हेतु 40 शव वाहन का लोकार्पण कर दिया । यह बात काफी हास्यास्पद लगती है कि पॉकेटमारों व अन्य अपराधियों की नकेल कसते हुए, रेल यात्रियों की सुरक्षा करने के साथ-साथ रेलवे के सामान्य डब्बों में बाहर से कमाकर आ रहे गरीब मजदूरों के बैग टटोलने, डरा धमकाकर पैसे ऐंठनेवाले, छोटे-छोटे सब्जी या फल  व्यापारियों, वेंडरों से हफ्ता वसूल करनेवाले रेलवे पुलिस को 1000 रुपए में भी कोई एंबुलेंस या औटोवाला नहीं मिला । हफ्ता वसूली में जो आँखें वेंडरों को दिखाते हैं वैसे ही किसी एंबुलेंस कर्मचारी या औटोवाले को दिखा देते तो 30 किलोमीटर दूर बालासोर जिला अस्पताल तक जाने के लिए 10 लोग तैयार हो जाते । लेकिन किराए भत्ते के रूप में मिलनेवाले 1000 में से आधे बचना था । इसलिए 200 या 250 के रेट से 2 मजदूर कर लिए बाकी 500-600 रुपए अपने खाते में डाल लिए । सरकारी अस्पताल कर्मियों की भ्रष्ट गतिविधियों से पूरा देश परिचित है । लेखक के व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार यदि आप अच्छे व महंगे वस्त्र पहने, गोरे-सुंदर व शहरी दिखने वाले हैं तो अस्पतालकर्मी से अच्छे व्यवहार की उम्मीद कर सकते हैं अन्यथा यदि आप गंदे, मैले-कुचैले कपड़े पहने गरीब ग्रामीण दिखते हैं तो अच्छे व्यवहार व किसी प्रकार के सुविधा की उम्मीद ही नहीं कीजिये । ऐसे में एक गरीब आदिवासी दाना मांझी के साथ कैसा व्यवहार हुआ होगा, समझा जा सकता है । ऐसा नहीं है कि कालाहांडी के जिस अस्पताल में दाना मांझी की पत्नी का इलाज़ हुआ वो एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं कर सकता था वास्तविकता ये है कि उनके पास सैकड़ों निजी एंबुलेंस वालों से जान पहचान होंगे लेकिन एक गरीब आदिवासी के लिए कौन ये सिरदर्द उठाए । लाश ले जाने से मना करनेवाले एंबुलेंस या ऑटो चालक की भी उतनी ही गलती है जितनी राज्य सरकार, अस्पताल कर्मी व  रेलवे पुलिस की । लेकिन इसके लिए भी जिम्मेदार हम खुद व हमारी सभ्यता संस्कृति है । हमारा समाजीकरण ही ऐसे किया जाता है कि बचपन से ही हमें गलत शिक्षा दी जाती हैं ये अस्पृश्य हैं, ये पाप है, ये घृणात्मक हैं । इसे करने से बचना चाहिए । इन्हें छूने से अपवित्र हो जाता है । स्नान करने या संबन्धित वस्तु को धोने के बाद ही शुद्ध हो पाता है । और भी न जाने क्या क्या ? इन अमानवीय घटनाओं के लिए सर्वप्रमुख रूप से जिम्मेदार है हजारों वर्षों से चले आ रही हमारी अपरिवर्तनीय संस्कृति, जिसमें जिंदा इंसान को “इंसान” समझा जाता है और मरे हुए इंसान को एक अपवित्र “मुर्दा” । राह चलते यदि कोई शव-यात्रा दिख जाय तो उसे पवित्र मानकर हम दूर से ही सही लेकिन हाथ को माथे व सीने से लगाकर यह सोचकर प्रणाम कर लेते हैं कि चलो आज का दिन शुभ होगा (जैसे कहीं यात्रा पर जाने से पहले मछ्ली देखना शुभ होता है) । लेकिन किसी शवयात्रा में शामिल होना पड़े तो यह कहकर नाक-भों सिकोड़ लेते हैं कि “यदि शामिल हुए तो अपवित्र हो जाएंगे, स्नान करना पड़ेगा, बाल भी मुंडवाना पड़ेगा” । एंबुलेंस के चालक को बीमार मरीज को लाने-ले-जाने में कोई कठिनाई नहीं होती कौन नहीं चाहता है अपनी आमदनी करना । लेकिन “लाश” का नाम सुनते ही उनके साथ साथ अन्य लोगों में भी अपवित्रता व घृणा की भावना कर जाती है । उदाहरण के लिए हाल ही के मध्यप्रदेश के दमोह घटना को देखा जा सकता है जिसमें एक बस में एक व्यक्ति अपनी बीमार पत्नी व 5 दिन की बेटी के साथ अस्पताल जा रहा था लेकिन बस में ही उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाती है । मृत्यु की बात सुनकर बस वाले ने उस व्यक्ति को बीच जंगल में ही पत्नी के शव व 5 दिन की बच्ची के साथ उतार दिया । हालांकि बाद में दो वकीलों ने प्राइवेट एंबुलेंस बुलाकर शव को मृतक के घर भेजा । इस संदर्भ में जब बस कंडक्टर से बातचीत किया गया तो उसने बताया कि अन्य यात्रियों को शव के साथ सफर करने में दिक्कत पेश आ रही थी ।[2] इसलिए यात्रियों की जिद पर उनलोगों को बस से उतारा । बस यात्रियों की नज़र में एक “लाश” कितनी अपवित्र चीज है, इस घटना से समझा जा सकता है । इसी अपवित्रता के मिथक का ही परिणाम है कि कोई भी एंबुलेंस, औटोवाला या अन्य गाड़ी वाला लाश को अपने वाहनों में ढोना नहीं चाहते । परिणामस्वरूप ऐसे अमानवीय कृत्य जगह-जगह दृष्टिगत होते रहते हैं केवल इस घटना की तरह वे मीडिया में नहीं आ पाते हैं । ऐसे इंसानियत को शर्मशार करनेवाले कृत्यों को रोकने के लिए जरूरत है शव को अपवित्र मानने की परंपरा को खत्म करने की ।
                                                                 
(दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस के 31/08/2016 के संपादकीय में प्रकाशित) 






[1] https://www.theguardian.com/world/2015/sep/02/shocking-image-of-drowned-syrian-boy-shows-tragic-plight-of-refugees
[2] http://khabar.ndtv.com/news/india/wife-died-on-bus-man-little-girl-forced-to-exit-it-in-rain-and-forest-1451184

Wednesday 17 August 2016

“सबका साथ – सबका विकास”: कितना प्रासांगिक ?

काँग्रेस के भ्रष्टाचार व घोटालों से भरे कार्यकाल से ऊबकर, भारतीय जनमानस ने नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में एनडीए सरकार को जब प्रचण्ड बहुमत द्वारा 26 मई 2014 को केंद्रीय सत्ता की कमान सौंपी तो यह अपेक्षा की जा रही थी कि अन्ना हज़ारे, बाबा रामदेव का आंदोलन रंग लाएगा । भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कोई प्रभावी कानून लाया जाएगा । स्विस बैंक सहित अन्य विदेशी बैंकों में व्यापारियों, नेताओं, अभिनेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों के जमा काला धन पर हमारे देश का अधिकार होगा । हमारे बैंक के खाते में 15 लाख आए या न आए लेकिन इस कमर तोड़ महंगाई से मुक्ति जरूर मिलेगी । साहूकारों, बैंकों के कर्ज़ तले दबकर आत्महत्या करते किसानों को भी नए सरकार से काफी उम्मीदें थी । क्योंकि देशवासियों ने अपना मुखिया बिलकुल ऐसे ही चुना जैसे प्राचीन भारतीय राजतंत्रात्मक व्यवस्था में जनता ने  अराजकता पूर्ण स्थिति से खिन्न होकर शिशुनाग वंश के संस्थापक शिशुनाग तथा पाल वंश के संस्थापक गोपाल को अपने राजा के रूप में चुना ।[1] इतिहासकारों के अनुसार ये दोनों ही शासक अपने प्रजा की अपेक्षाओं पर खरे उतरे । अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भारतीय जनमानस की अपेक्षाओं पर कितना खरे उतरे हैं अभी कहना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी ।
          लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अपने चुनावी घोषणापत्र में बीजेपी “सबका साथ, सबका विकास” करने के साथ-साथ “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” बनाने की बात कर देशवासियों का दिल जीतने का प्रयास काफी सफल रहा ।[2] फलस्वरूप अपने स्थापना काल के तीन दसक बाद पहली बार लोकसभा चुनाव 2014 में (1999 के 183 सीट की अपेक्षा) 282 सीट लाकर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई । अपने सहयोगी पार्टियों को मिला कर 336 सीट के साथ एनडीए के नाम से केंद्र में सरकार बनाने के पश्चात इसी वर्ष महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में पार्टी को सुखद समाचार मिले । 288 सीट वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 2009 के चुनाव में मिले 46 सीट की अपेक्षा 2014 में 122 सीट पर जीत दर्ज़ की ।[3] हरियाणा में 2009 के 4/90 की अपेक्षा 2014 में 47/90 सीट मिले ।[4] झारखंड में 2009 की अपेक्षा 2014 में 19 सीट[5] व उड़ीसा में भी 4 सीटों का फायदा हुआ ।[6] इस दौरान  की लोकप्रियता का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि 2016 तक देश के 8 राज्यों में बीजेपी की बहुमत सरकार है जबकि अन्य 6 राज्यों में एनडीए गटबंधन की सरकार है[7] । इस तरह वर्तमान समय में यह देश की सबसे लोकप्रिय सरकार है । लेकिन पिछले 2 वर्ष के दौरान सत्ता के मद में चूर होकर जिस तरह पार्टी के कद्दावर नेता व कार्यकर्ता विधानसभा चुनाव को देखते हुए हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए लव जिहाद, गौ हत्या, धर्मांतरण, मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या, वंदे मातरम, राष्ट्रवाद आदि के नाम पर अनर्गल बयानबाजी व हँगामा कर मुसलमानों, इसाइयों व वामपंथियों पर हमला करने, सवर्णों को गोलबंद करने के लिए आरक्षण पर बवाल किए हैं, इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा । परिणामस्वरूप एक ओर जहां 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 2010 की अपेक्षा 38 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा[8] वहीं दूसरी ओर दिल्ली विधानसभा चुनाव में 2013 के चुनाव में 31 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी बीजेपी केवल 3 सीट पर ही जीत दर्ज़ कर पाई । 2016 विधानसभा चुनाव में भी असम के 126 सीटों में 86 सीट को छोड़कर सभी जगह से निराशा ही हाथ लगी । तमिलनाडु में जहां पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया वहीं पश्चिम बंगाल में 294 सीट में केवल 3 व केरल के 140 सीटों वाले में से केवल 1 सीट से ही संतोष करना पड़ा ।
          उपर्युक्त चुनाव परिणाम से स्पष्ट है कि बीजेपी की लोकप्रियता दिनों-दिन घटती ही जा रही है । अपने चुनावी घोषणापत्र में बीजेपी काँग्रेस के 10 वर्ष के कार्यकाल को “गिरावट के दसक” के रूप में यह कहते हुए वर्णित करती है कि इस दौरान शासन, अर्थव्यवस्था, सीमापार घुसपैठ, भ्रष्टाचार, घोटाले, महिलाओं के साथ होनेवाले अपराध आदि समस्याओं से निपटने में गिरावट ही आई है[9] आज एनडीए शासन के सवा दो वर्ष बीतने के बाद कहा जा सकता है कि बीजेपी भी इसी गिरावट की दिशा में अग्रसर है । अर्थव्यवस्था की बात करें तो पूरे देश में महंगाई चरम पर है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दामों में प्रति बैरल आधे से भी अधिक गिरावट आने के बावजूद काँग्रेस काल की अपेक्षा 10 रुपए में कमी आई है । डॉलर के मुक़ाबले रुपया काँग्रेस काल से भी कमजोर हो गया है । पाकिस्तान की ओर से न ही घुसपैठ में कोई कमी आई है न ही चीन अपनी आँखें दिखाना बंद किया है । हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इस दौरान बीजेपी सरकार ने कोई उपलब्धि हाशिल नहीं की है । लेकिन उपलब्धि जहां दहाई अंकों में है तो मानवाधिकार उल्लंघन, पार्टी या सहायक संगठन कार्यकर्ताओं द्वारा सांप्रदायिक, जातिगत टिप्पणी, भेदभाव जैसे आलोकप्रिय कार्य सैकड़ों में । आम जनता के मूलभूत आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी के स्थान पर भारत माता की जय, वंदे मातरम, गौ माता, राष्ट्रवाद, जाति व धर्म के नाम पर भेदभाव टीका-टिप्पणियों को मुद्दे बनाकर देश को विकास नहीं विनाश के पथ पर ले जा रही है । इन्हीं टिप्पणियों, भेदभाव से आज हमारा संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष देश “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” नहीं बल्कि स्वतंत्रता पूर्व के धर्म-जाति पर आधारित विभक्त भारत बनने के कगार पर है । आगामी चुनाव को देखते हुए मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र कैराना (उत्तर प्रदेश) में हिंदुओं के विस्थापन संबंधी झूठे आंकड़े दिखाकर हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़काने की साजिश । ऊना (गुजरात) में गौरक्षकों द्वारा मृत गायों के खाल उतारते दलितों की बर्बर पिटाई, मुस्लिम अतिवाद व गौ हत्या को ढाल बनाकर पार्टी समर्थित संगठन के कार्यकर्ता जिस प्रकार मुसलमान, दलित के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार कर हैं और सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से उनका सहयोग कर रही है, इन क्रियाकलापों से “सबका साथ-सबका विकास” का नहीं, बल्कि “हिंदुओं का साथ – सवर्णों का विकास” का संदेश दिया जा रहा है । इसी नारे का ही परिणाम है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आज हमारा देश सबसे बड़ा दलित आंदोलन का गवाह बन रहा है । ऊना घटना के विरोध में गुजरात के दलितों ने मृत पशुओं के शवों के निस्तारण से इनकार कर दिया है ।[10] छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव में भी आदिवासियों ने उनकी सांस्कृतिक भावनाओं के खिलाफ नारे लगानेवाले ब्राह्मणवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है । इसी वर्ष 12 मार्च को एक समूह ने मार्च निकालते हुए “महिषासुर के औलादों को, जूते मारो सालों को जैसे भड़काऊ नारा दिया था । बावजूद इसके प्रदेश की बीजेपी सरकार आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर पायी है ।[11] ईसाई धर्मावलम्बी भी इन सरकार समर्थित संगठन से पीड़ित हैं जिन्हें बजरंगदाल के कार्यकर्ता धर्मपरिवर्तन कराने के आढ़ में मार पीट करते हैं । इसमें कोई शक नहीं कि ये मिशनरी आदिवासियों को ईसाई बनाते हैं लेकिन दलित व आदिवासी जबरन नहीं बल्कि ऊना जैसी घटना से आहत होकर अस्पृश्यता, शोषण से मुक्ति पाने के लिए स्वेच्छा से बौद्ध[12], ईसाई या इस्लाम[13] धर्मांतरण करते हैं । इससे भी बड़ा कड़वा सत्य यह है कि इन क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप हिंदू धर्म भी दो धड़ों में विभाजित हो गया है – जयिष्णु हिंदू धर्म एवं सहिष्णु हिंदू धर्म  । जयिष्णु हिंदू धर्म का तात्पर्य आक्रामक हिंदू धर्म से है जबकि सहिष्णु का अर्थ है सहनशील और क्षमाशील । जयिष्णु हिंदू धर्म के ये अनुयायी सहिष्णु हिंदू धर्म के अनुयायियों को उतना ही नापसंद करते हैं जितना कि मुसलमानों, दलितों, इसाइयों, वामपंथियों, आदिवासियों व सेकुलरों को । इतने वर्गों को नापसंद करने की स्थिति में बीजेपी के “सबका साथ – सबका विकास” नारे की हक़ीक़त को समझा जा सकता है । 
साकेत बिहारी
शोधार्थी – पीएच.डी
म.गां.अं.हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 

(दैनिक समाचार पत्र "वुमेन एक्सप्रेस" के 02/08/2016 के संपादकीय में प्रकाशित)







[1] Singh upinder,A History of ancient and Early Medieval India” Pearson Publication, Delhi, 2013
[2] http://www.bjp.org/images/pdf_2014/full_manifesto_english_07.04.2014.pdf
[3] http://www.mapsofindia.com/assemblypolls/maharashtra/election-results.html
[4] http://www.mapsofindia.com/assemblypolls/haryana/election-results.html
[5] http://www.elections.in/jharkhand/
[6] http://www.mapsofindia.com/assemblypolls/odisha/election-results.html
[7] http://www.oneindia.com/feature/states-of-india-ruled-by-congress-bjp-after-assembly-elections-2016-2105534.html
[8] http://www.elections.in/bihar/
[9] http://www.bjp.org/images/pdf_2014/manifesto_hindi_2014_07.04.2014.pdf
[10] http://www.jansatta.com/rajya/ahmedabad/gujarat-dalits-refuse-to-dispose-dead-cattle/125292/
[11] https://www.forwardpress.in/2016/07/mahishasur-ka-apaman_sanjeev-chandan/
[12] http://timesmedia24.com/hindi/the-event-will-follow-a-buddhist-dalits-angry-una-gujarat-1000/
[13] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/07/160728_dalit_conversion_to_islam_ts.shtml

Wednesday 8 June 2016

कहानी भारत के एक लाल महान की

आओ सुनाएँ हम एक कहानी
भारत के उस लाल महान की
जिसने हमको पाठ पढ़ाया
समता और आत्मसम्मान की
अस्पृश्यता का दंश झेलकर भी
अस्पृश्य समाज का जिसने किया कल्याण  
गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को जिसने
नवयान द्वारा दिया एक नया आयाम  
हजारों वर्षों से शोषित जनसमूह को जिसने
संविधान द्वारा निःशस्त्र न्याय दिलवाया था  
स्त्रियों के हितों के लिए जिसने
निःस्वार्थ हिंदू कोड बिल बनाया था
यूँ तो साहित्य में वे भारतीय संविधान के जनक कहलाते हैं  
पर जनमानस में तो वे
बाबासाहब भीम राव अम्बेडकर के नाम से जाने जाते हैं
महाद टैंक सत्याग्रह से जिसने
ब्राह्मणवादी मानसिकता को ललकारा था
दलितों को सम्मान दिलाने के लिए जिसने
फुले के मशाल को आगे बढ़ाया था
अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश भी जिनकी विद्वता का करते थे सम्मान  
उस महान विभूति को अपने ही देश में
समय-समय पर सहना पड़ा अपमान
फिर भी इस लाल ने हिम्मत कभी न हारी   
जाति व्यवस्था को खुलकर ललकारी
लाख कष्ट सहते हुए भी, अस्पृश्यता पर करके प्रहार
आखिर हमें दिया एक दिन समानता का उपहार  
यही है कहानी भारत के उस लाल महान की
जिसने हमको पाठ पढ़ाया, समता और आत्मसम्मान की ।

                                                                            
(भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका "द बुद्धिस्ट टाइम्स" के अप्रैल 2016 विशेषांक में प्रकाशित)



Friday 29 April 2016

देश को आवश्यकता है जल संरक्षण क्रांति की

विगत दो वर्षों में जलवायु परिवर्तन, अल-निनो प्रभावस्वरूप कम बारिश होने के कारण दक्षिण पूर्वी एशियाई देश थाईलैंड[1] सहित भारत के मराठवाड़ा, विदर्भ, बुंदेलखंड, क्षेत्र सहित 12 राज्यों की 35 करोड़[2] जनता भयानक पेय जल संकट व सूखे की चपेट में है । दोनों ही देशों के जलश्रोत, नदी-तालाब लगातार सूखते जा रहे हैं । थाईलैंड इस सूखे से निपटने के लिए जहां फायर ब्रिगेड की मदद से पानी अपने नागरिकों तक पहुंचा रही है । वहीं भारत सरकार द्वारा भी सूखा प्रभावित क्षेत्रों में रेलमार्ग द्वारा पानी पहुंचाने के साथ-साथ इस आपदा से निपटने हेतु 10,000 करोड़ रुपए भी जारी किए गए हैं ।[3] ऐसे सूखे की स्थिति में चैत्र मास में ही रेकॉर्ड तोड़ गर्मी “एक तो कड़वा करेला ... दूजा नीम चढ़ा” वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है । भीषण गर्मी, लू के थपेड़ों से एक ओर जहां जनजीवन अस्त-व्यस्त  हो गया है वहीं जल संकट और भी विकराल समस्या का रूप लेता जा रहा है । कोलकाता, पटना, नागपुर, वर्धा सहित देश के अन्य शहरों के तापमान पिछले 50 वर्षों के रेकॉर्ड को ध्वस्त कर नए कीर्तिमान बनाने में लगे हैं । अप्रैल महीने में ही देश में तापमान 44, 45, 46 डिग्री छूती जा रही है । ऐसा प्रतीत होता है कि मई-जून माह तक हमारा देश भी विश्व के 10 सबसे गर्म स्थान की सूची में 10 वें स्थान पर काबिज सऊदी अरब के जद्दा (52 डिग्री से.)[4] को भी पीछे छोड़ देगा । इस विकराल जल संकट से अच्छी मानसूनी बारिश वाले राज्य व नदियों का राज्य कहलानेवाले उत्तर प्रदेश व बिहार की स्थिति भी बदहाल है । बिहार के सिमुलतला घाटी (जमुई) का एक कुआं जिसका जलस्तर स्थानीयों के अनुसार पिछले वर्ष तक मानसून आगमन के पूर्व तक 8-10 फुट रहता था आज उसका जलस्तर 20 फुट नीचे चला गया है ।[5] उत्तर प्रदेश का भूजल स्तर भी लगातार गिरता जा रहा है । जौनपुर, हथरस, वाराणसी का जलस्तर 50 से घटकर जहां 80 फूट हो गया है वहीं आगरा में यह 200-250 फुट नीचे चला गया है । आलू की खेती हेतु वृहत्त पैमाने पर नलकूप के निर्माण से प्रत्येक वर्ष औषतन 1.5 फूट की कमी रेकॉर्ड की गयी है ।[6] मनुष्य के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं के लिए भी यह जल संकट काल बनता जा रहा है । उत्तर प्रदेश के बहराइच जिला स्थित कतरानिया वन्य क्षेत्र के अंतर्गत गेरुवा नदी का पानी सिंचाई विभाग द्वारा निकाल लिए जाने से संरक्षित डोल्फिन जो विलुप्ति के कगार पर है, के अस्तित्व पर संकट हो गया है ।[7] पूरे देश के अन्य भागों से चीतल, हिरण सहित हिंसक तेंदुओं के पानी की तलाश में गाँव में घुसने की खबर भी आती रहती है ।
          आश्चर्य की बात है कि जिस पृथ्वी का 70 प्रतिशत भाग पानी से भरा है उन्हीं पृथ्वीवासियों को आज पानी की एक एक बूंद के लिए तरसना पड़ रहा है । महाराष्ट्र के लातूर, अहमदनगर में पानी के लिए लोग आपस में झगड़ रहे हैं । सरकार को स्थिति नियंत्रित करने के लिए धारा 144 लगानी पड़ी ।[8] मध्य प्रदेश के सूखा प्रभावित क्षेत्र डिंदौरी क्षेत्र के भँवरखंडी गाँव के ग्रामीणों को कुएं में उतरकर चम्मच से पानी भरने की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है ।[9] पानी के लिए इस प्रकार तरसने के लिए जिम्मेदार भी हम स्वयं ही हैं । बहुत कम लोगों को पता है कि इस 70 प्रतिशत भाग का मात्र 2 प्रतिशत ही मानव प्रयोग के लायक है जो हमें कुछ वर्षा जल के रूप में नदियों द्वारा तो कुछ भू जल के रूप में मिलता है । ऐसे में अपने निजी स्वार्थ के लिए लगातार पेड़ पौधों को काटकर एक तरफ वर्षा के लिए प्रतिकूल जलवायु का निर्माण कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उद्योग धंधों के विकास के नाम पर भू जल का वृहत पैमाने पर दोहन करते जा रहे हैं । सेव गंगा मूवमेंट के एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के विभिन्न उद्योगों में साफ पानी की खपत 600 करोड़ घन लीटर है ।[10] जिसकी आपूर्ति नदियों व भू-जल स्त्रोतों से की जाती है । जिस तरह हमारी नीतियाँ उद्योग धंधों के विकास की है, आने वाले 20-25 वर्षों में इसके खपत में अप्रत्याशित होने की पूरी संभावना है । ऐसे विकास को रोका भी नहीं जा सकता । अतः पेय जल व घटते भू-जल स्तर के लिए प्रबंधन करना हमारे समक्ष ये एक बहुत बड़ी चुनौती है । इस संदर्भ में सरकार के साथ साथ हम नागरिकों को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है ।
          मौसम वैज्ञानिकों के इस वर्ष अच्छे संकेत मिलने के बाद सूखे की इस विकट परिस्थिति से निपटने के लिए सभी प्रभावित राज्य अपने-अपने स्तर पर मानसून आने से पूर्व खेत तालाब बनाने के साथ-साथ अनेक योजनाएँ बनाना शुरू भी कर दिये हैं । केंद्र सरकार भी प्रभावित राज्यों को आपदा प्रबंधन के नाम पर 10000 करोड़ की राशि स्वीकृत कर राहत दिया है । लेकिन इन पैसों व अस्थायी योजनाओं से जल संकट को अस्थायी रूप से हल तो किया जा सकता है लेकिन स्थायी नहीं । ऐसी स्थिति में जल संरक्षण क्रांति ही एकमात्र स्थायी व प्रभावी तकनीक है जिसे अपनाकर भू-जल स्तर को नियंत्रित व बढ़ाया जा सकता है । जिस प्रकार भूकंप से होने वाली क्षति से बचने के लिए भवन निर्माण के समय ही भूकंप रोधी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है वैसे ही केंद्र या राज्य सरकार द्वारा एक कानून लाया जाना चाहिए जिसमें यह प्रावधान हो कि “बिना जल संरक्षण तकनीक इस्तेमाल किए कोई भी भवन का नक्शा पास न किया जाएगा” । साथ ही हम नागरिकों का भी यह कर्तव्य बनता है बारिश के पानी को संरक्षित करने के लिए अपने-अपने घरों में “वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम” अनिवार्य रूप से लगाएँ । हरित क्रांति की तरह इसे भी एक क्रांति का रूप देने की आवश्यकता है । अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब जल संकट के कारण हमारा देश भी खाड़ी देशों की श्रेणी में गिना जाने लगेगा ।




[1] http://www.bbc.com/hindi/multimedia/2016/04/160427_thaidrought_dunia_ik?ocid=socialflow_facebook
[2] जनसत्ता 26 अप्रैल 2016 नई दिल्ली संस्करण, पृष्ठ सं. 5
[3] जनसत्ता 27 अप्रैल 2016 नई दिल्ली संस्करण, पृष्ठ सं. 7 
[4] http://gulfnews.com/guides/going-out/travel/the-10-hottest-places-in-the-world-1.1529139
[5] हिंदुस्तान 17 अप्रैल, 2016, भागलपुर संस्करण, पृष्ठ सं. 4
[6] हिंदुस्तान 20 अप्रैल, 2016, भागलपुर संस्करण, पृष्ठ सं. 15
[7] जनसत्ता 24 अप्रैल 2016 नई दिल्ली संस्करण, पृष्ठ सं. 5
[8] http://www.dnaindia.com/india/report-maharashtra-drought-section-144-lifted-from-water-crisis-hit-latur-2200584
[9] http://www.bhopalsamachar.com/2016/04/blog-post_388.html
[10] https://scontent.fbom1-1.fna.fbcdn.net/v/t1.0-9/12794448_1592412234347433_1913284798964185448_n.jpg?oh=4c51906f808fb3813b5e3ff3a1ed6c0f&oe=57AA81A9



(Women Express Newspaper 30/04/2016 के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)