Wednesday 27 December 2017

‘वन्दे मातरम’ विमर्श की आवश्यकता क्यों?

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय लिखित उपन्यास आनंदमठ के गीत वन्दे मातरम के गायन को लेकर पिछले 3 वर्षों से हमारे देश के समाचार चैनल अखाड़ा बने हुए हैं। यह विवाद कोई नया नहीं है बल्कि इसकी जड़ स्वतन्त्रतापूर्व की रही है। स्वतंत्रता पूर्व इस बोल से घृणा करने की वजह थी कि जिस उपन्यास आनंद मठ से यह गीत लिया गया है उसमें मुसलमान शासकों को शोषक के रूप में दिखाते हुए, मुसलमानों के लिए ओछे शब्दों को प्रयुक्त कर उनके प्रति घृणा दिखाया गया है, जो प्रारम्भ में अंग्रेजों के लिए किया गया था। बाद में अंग्रेजों की जगह न केवल मुसलमानों को डाल दिया गया, बल्कि अंग्रेजों की जय-जयकार भी की गयी। इस गीत में हिंदू धार्मिक प्रतीकों की बहुलता होने के कारण ही  इसे राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, जबकि स्वतन्त्रता आंदोलन के समय में यह जनमानस में रवीद्रनाथ टैगोर की जन-गण-मन से भी अधिक लोकप्रिय था।
          23 दिसंबर 2017 को ‘सिर्डी साईं बाबा’ संस्थान द्वारा आयोजित ग्लोबल साईं मंदिर ट्रस्ट सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू द्वारा मुसलमानों द्वारा वंदे मातरम गाने की समस्या को लेकर उठाए गए सवाल के बाद यह विमर्श एवं विवाद का मुद्दा बन गया है। इस विमर्श में एक तरफ तथाकथित देशभक्त’(हिंदू सहित अन्य धर्मावलम्बी) हैं तो दूसरी तरफ तथाकथित अदेशभक्त (पारंपरिक इस्लामी धर्मावलम्बी) वर्ग। अदेशभक्त इस संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है कि तथाकथित देशभक्त वर्ग द्वारा वन्दे मातरम कहने को देशभक्ति का पैमाना बताया जा रहा है। गहराई से विचार किया जाए तो इस वन्दे मातरम विमर्श को बढ़ावा देने का उद्देश्य बाहर से दिखाने के कुछ और और अंदर से कुछ और ही प्रतीत होता है। वास्तविकता यह है कि वर्तमान में इस विवाद/विमर्श के बहाने सरकार इस्लामी समुदाय को देशभक्ति के सर्टिफिकेट देने की आड़ में उनकी कट्टर धार्मिक मान्यताओं की कमजोरी का फायदा उठाते हुए उन्हें अदेशभक्त घोषित कर केवल हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है।
          इस्लामी धर्मावलम्बियों द्वारा राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम का उच्चारण या गायन नहीं करना वर्तमान में कोई राष्ट्रवाद का नहीं बल्कि धार्मिकता का मामला है। यदि राष्ट्रीयता का मामला होता तो वे राष्ट्रगान जन गण मन गायन से भी परहेज करते। ऐसी स्थिति में बहुदेववाद सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले हिंदू धर्मावलम्बी निःसंकोच वन्दे मातरम बोलकर देशभक्त का तमगा तो पा जा रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ एकेश्वरवाद में विश्वास करने वाले कट्टर इस्लामिक धर्मावलम्बी इसके उच्चारण को लेकर थोड़े असहज हो जाते हैं, क्योंकि इस्लामी धार्मिक मान्यतानुसार एक इस्लामी धर्मावलम्बी को केवल अल्लाह की इबादत करना ही सुन्नत माना गया है। इनके अतिरिक्त अन्य किसी की इबादत के उद्देश्य से सजदा करने को इस्लामी परंपरा के खिलाफ माना जाता है। ऐसे में वे भारत को ईश्वरीय माता के रूप में मानते हुए उसकी इबादत में वंदना करना इस्लामिक धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ मानते हैं। ऐसी स्थिति में कट्टर इस्लामिक धर्मावलम्बी देशभक्ति के प्रमाणपत्र से वंचित हो जा रहे हैं। भले ही उनके दिल में कितना भी देश के लिए समर्पण की भावना क्यों न हो।
          हालांकि इस्लाम का दूसरा पक्ष सूफिवाद ऐसे सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि सूफी परंपरा में पीरी, मुरीदी (गुरु शिष्य) परंपरा में कदमबोशी व सजदा जैसे कर्मकांड अभी भी प्रचलन में हैं। प्रगतिशील सोच के इस्लामी धर्मावलम्बी भी इसके उच्चारण को लेकर असहज नहीं होते हैं। धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठ चुके आज के हजारों मुस्लिम युवा इसे न गाने को एक दक़ियानूसी सोच बताते हैं। जिनका मानना है कि यदि इसके उच्चारण से किसी का धर्म भ्रष्ट होता है तो न्यूज़ चैनलों पर वंदे मातरम विमर्श करने वाले मौलवी-मौलाना तो वाद विवाद में दर्जनों बार इसका उच्चारण करते हैं तो क्या इससे उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता है।
          इस्लामी धर्मावलम्बियों के इस कट्टर धार्मिकता पर उग्र हिन्दुत्व के लोग खुद को प्रगतिशील सोच/विचारधारा युक्त दिखाने के लिए इन पर आक्षेप लगाते देखे जा सकते हैं कि इतना भी धर्मांध होना ठीक नहीं। धर्म, राष्ट्र से सर्वोपरि नहीं होना चाहिए। ऐसे छद्म प्रगतिशील लोगों को यदि कहें कि विविध खान-पान की संस्कृतियों वाले हमारे इस धर्मनिरपेक्ष भारत देश में ईसाई, इस्लामी, हिंदू धर्म के अंतर्गत कुछ अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लोग गौमांस का बहुत ही चाव से सेवन करते हैं, इसलिए गौमांस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए और हो सके तो आपको भी इसका सेवन करना चाहिए, तो इनकी प्रगतिशील सोच की खाल ओढ़े धार्मिक कट्टरता को बेनकाब होने में जरा भी समय नहीं लगेगा। तुरंत यह गर्जना कानों को छेद देगी कि मैं हिंदू हूँ ... हमारे धर्म मे ...।
          इस संदर्भ में दोनों की धर्मांधता को समझा जा सकता है। जैसे हिंदू धर्मावलम्बी चिकन, बकरे का मांस तो खा सकते हैं लेकिन बीफ नहीं, क्योंकि उनका धर्म गौमांस सेवन की इजाजत नहीं देता। वह काम जैसे आपके धर्म में पाप समझा जाता है उसे आप नहीं कर सकते हैं, वैसे ही कट्टर इस्लामिक लोगों को उनका धर्म अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत/वंदना करना सुन्नत नहीं माना जाता। इसलिए वे धार्मिक प्रतीकों से युक्त इस राष्ट्रगीत (वन्दे मातरम) के गायन से हिचकते हैं। अन्य राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान जन गण मन बोलने/गायन से तो कभी कोई समस्या देखने सुनने को तो नहीं मिलती। अतः उनसे ऐसा जबरन बोलने के लिए मजबूर करना, किसी हिन्दू को जबरन गौ मांस खाने के लिए मजबूर करने जैसा ही है। दोनों धर्मावलंबियों की अपनी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं जिनका हर किसी को सम्मान करना चाहिए। सरकार को भी अपनी अखंडता बनाए रखने के लिए राष्ट्र, राष्ट्रगान व राष्ट्रगीतों को दैवीय रूप प्रदान करने से बचना चाहिए । संभव हो सके तो मुसलमानों के लिए अन्य राष्ट्रगीत गाने की छूट दे, क्योंकि राष्ट्रगीत का गायन ही राष्ट्रभक्ति का पैमाना है तो अनेकों राष्ट्रगीतों में से एक उनके लिए भी हो जिनमें धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग न हो।
          हालांकि मेरे विचार से आज के समय में दोनों ही विचार प्रासंगिक नहीं हैं। दोनों धर्मावलंबियों को इन पारंपरिक मान्यताओं को छोड़कर वर्तमान में समय की मांग के अनुसार आचरण करना चाहिए। ये विचार राजतंत्रीय शासन प्रणाली में एक पुरातन समय में प्रासंगिक होंगे जब राजा का धर्म ही प्रजा के लिए मान्य होता था। आज गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में हमें अपने विचार परिवर्तन करते हुए भारतीय संविधान के अनुसार आचरण करने की आवश्यकता है ।
                                                साकेत बिहारी
शोधार्थी – पीएचडी

हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
(मूल रूप से HASTKSHEP.COM Online Portal पर प्रकाशित 
http://www.hastakshep.com/hindiopinion/vandematram-16327) 

Tuesday 24 October 2017

चार दिवसीय अनुष्ठान छठ पूजा का मिथक एवं यथार्थ

हर वर्ष विक्रम संवत, चैत्र व कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से शुरू होकर षष्ठी तिथि तक चलनेवाला लोक आस्था का महापर्व छठ मूलतः बिहार, झारखंड व पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतना ही ज़ोरशोर से मनाया जाता है जितना ओणम केरल में, गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र में, रथयात्रा उड़ीसा में । यह त्योहार देश की सीमा के पार मौरिशस, नेपाल, फिजी, त्रिनिदाद, ब्रिटेन व अमेरिका आदि देशों में प्रवासी बिहारियों के माध्यम से अपनी पहचान बना चुका है । प्राचीन काल से ही चला आ रहा यह चार दिवसीय त्योहार ऋग्वैदिककालीन प्रमुख देवता “आदित्य या सूर्य” की उपासना के लिए जाना जाता है । देशभर में सूर्य उपासना से संबंधित अनेक त्योहार मनाए जाते हैं । जैसे मकर संक्रांति (सम्पूर्ण उत्तर भारत में), सम्ब दशमी (उड़ीसा में), रथ सप्तमी (आंध्र प्रदेश) में । इनमें से छठ पूजा का भी विशेष महत्व है । चैत्र व कार्तिक मास के षष्ठी तिथि को मनाए जाने के कारण यह आम जनमानस में षष्ठी पूजा के नाम से प्रचलित है । छठ पूजा इसका ही अपभ्रंश रूप है ।
          सामूहिक रूप से मनाए जाने के कारण धर्म व जातिगत भेदभावों वाले इस देश में यह त्योहार सामाजिक सद्भाव का संदेश देता है । पवित्रता का त्योहार होने के बावजूद पूजन हेतु हिंदू सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर स्थित डोम या अन्य जो बांस से दौरे, डलिया, सूप बनाने का काम करते हैं, दिया व प्रसाद हेतु मिट्टी के बर्तन बनानेवाले कुम्हार तक इस त्योहार के 4 दिनों तक भेदभाव से मुक्त देखे जा सकते हैं । इस दौरान श्रद्धालुओं को जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, महिला-पुरुष के बीच भेदभाव से रहित देखा जा सकता है । चैत्र व कार्तिक मास के चतुर्थी तिथि से नहाय-खाय जिसमें कद्दू भात (पका चावल) प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, से यह अनुष्ठान परिवार के वयोवृद्ध सदस्य द्वारा शुरू होता है । अगले दिन पंचमी को खरना के अंतर्गत अरवा चावल व दूध से बने प्रसाद का भोग लगाया जाता है । षष्ठी तिथि की संध्या को पकवानों, फल से सजे सूप, दौरे, डलिया को नदी, तालाब के किनारे दूध व जल से डूबते सूर्य को व सप्तमी को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही इस 4 दिवसीय अनुष्ठान का समापन हो जाता है । इस अनुष्ठान को हठयोग भी कहा जाता है क्योंकि व्रती को इन चार दिनों तक व्रत रखने के नियम पालन करने पड़ते हैं ।  
          हिंदू धर्मावलम्बियों के साथ-साथ कुछ अजलाफ़ मुस्लिम परिवारों जो कभी हिंदू धर्म के ही हिस्से हुए करते थे (कालांतर में अस्पृश्यता की समस्या या अन्य कारणों से धर्मांतरण कर लिए) को भी इस त्योहार में काफी सक्रिय देखा जा सकता है । गाँव, समाज का हिस्सा होने के कारण छठ पूर्व गाँव, नदी घाटों की साफ-सफाई से लेकर सप्तमी तिथि को अर्घ्य की समाप्ति (पारण) तक सेवाभावना से शामिल रहते हैं । मधेपुरा के अनेक मुस्लिम परिवार 2008 से ही लगातार छट पूजा करते आ रहे हैं ।[i] हालांकि पिछले 2 दसकों से लोगों पर बाजारवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता के हावी होने के कारण यह दृश्य लगातार लुप्त होता जा रहा है ।
          हिंदू धर्म के अन्य त्योहारों के विपरीत इसमें किसी पुजारी की कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होती है । सभी कर्मकांड व्रती द्वारा ही किए जाते हैं । हालांकि हाल के दिनों में पूजन घाटों पर सूर्य देवता की प्रतिमा स्थापना के बढ़ते प्रचलन से इसमें पुजारियों की भागीदारी दृष्टिगत होने लगी है । क्योंकि मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा बिना पुजारी की उपस्थिती व कर्मकांड के संभव ही नहीं । थोड़ा बहुत छोड़कर कोई ख़र्चीले कर्मकांड को अंजाम नहीं दिया जाता है । आडंबरों से दूर प्रकृति के देवता को समर्पित यह त्योहार लैंगिक असमानता को दूर करने का एक सार्थक संदेश देता है । क्योंकि इस व्रत को स्त्री पुरुष दोनों ही करने के अधिकारी होते हैं । सर्वाधिक संख्या स्त्रियों की ही देखी जाती है ।
          सूर्य उपासना या छठ मनाए जाने की रामायण व महाभारत के आख्यानों से संबंधित अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है । एक मान्यता के अनुसार छठ पूजा की शुरुआत सूर्यपुत्र कर्ण ने की थी जो प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे । पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य व लंबी उम्र के लिए सूर्य उपासना किए जाने संबंधी मिथक भी प्रचलित है । एक अन्य मान्यता के अनुसार वनवास के लिए जब राम, लक्ष्मण और सीता के साथ निकले थे तो सीता ने गंगा नदी पर स्थित मुगदल ऋषि के आश्रम में गंगा जी से सकुशल वनवास काल बीत जाने की प्रार्थना की थी । वनवास के बाद अयोध्या पहुँचकर जब राम ने राजसूय यज्ञ करने का संकल्प लिया तो गुरु वशिष्ठ जी के कहने पर कि बिना मुगदल ऋषि के आए राजसूय यज्ञ सफल नहीं होगा, राम और सीता मुगदल ऋषि के आश्रम आए जहां ऋषि ने सीता को छठ पूजन करने की सलाह दी । उनकी सलाह पर सीता ने मुंगेर स्थित गंगा नदी में एक टीले पर सूर्यदेव का पूजन कर पुत्र की कामना की ।[ii] मान्यता है कि मुगदल ऋषि के नामपर ही इस क्षेत्र का नाम मुगदलपुर से अपभ्रंश होकर मुंगेर हो गया ।[iii] मुंगेर में गंगा नदी के मध्य स्थित सीता के चरण-चिन्ह को इस मान्यता का आधार माना जाता है ।
          सीतापद मंदिर से ही संबंधित एक अन्य मान्यता आनंद रामायण में वर्णित है जिसके अनुसार राम द्वारा एक ब्राह्मण रावण के वध किए जाने पर जब राम को ब्रह्म हत्या का पाप लगा तो इस पाप से मुक्ति के लिए मुनि वशिष्ठ ने तत्कालीन मुंगेर अर्थात मुगदलपुरी में ऋषि मुग्दल के पास राम और सीता को भेजा । राम को ऋषि मुद्गल ने वर्तमान कष्टहरणी घाट में ब्रह्महत्या मुक्ति यज्ञ करवाया तथा सीता को अपने पति को ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त कराने के लिए षष्ठी व्रत करने का निर्देश दिया ।
          ऐसे दर्जनों किंवदंतियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं जिनमें कोई समानता नहीं है । सीतापद मंदिर से संबंधित दो अलग-अलग कथाएँ किसी को भी भ्रम में डाल देती हैं कि सत्य किसे मानें । हमारे देश में किसी भी स्थान को प्रसिद्धि दिलाने के लिए, श्रद्धालुओं, पर्यटकों को लुभाने के लिए उन्हें किसी मिथकीय कथाओं से संबद्ध करने की प्राचीन परंपरा रही है । उदाहरण के लिए झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक स्थित एक जल के स्त्रोत को देखें, जहां छठ पूजा में स्थानीय लोग अर्घ्य देते हैं । इस सोते (स्त्रोत) के बारे में मान्यता है कि द्रोपदी ने इस सोते के पास छठ किया था । सोचनेवाली बात है कहाँ उत्तर पश्चिम भारत में स्थित कुरुक्षेत्र, कहाँ पूर्वी भारत में स्थित रांची । वैज्ञानिक दृष्टि से इन किंवदंतियों की जांच करने पर अनेकों त्रुटि दृष्टिगत होती है । यदि मुगदल ऋषि वाले दंतकथा की प्रामाणिकता को ही विश्लेषित करें तो वर्तमान उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्या व बिहार राज्य स्थित मुंगेर (मुगदल ऋषि का आश्रम, किवदंती अनुसार) के बीच की दूरी 590 – 600 किलोमीटर है । औसतन 60 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से कोई आधुनिक टैक्सी 10 से 12 घंटे लगाएगी । त्रेता युगीन रथ से तो पूरे 2 दिन, जबकि वनवास के दौरान पैदल आने में पूरे एक सप्ताह भी लग जाएंगे । अयोध्या से दक्षिण चलते हुए राम द्वारा केवट की नाव से गंगा पार करने का उल्लेख तो मिलता है । लेकिन 600 किलोमीटर पूर्व आकर फिर से दक्षिण तरफ जाने की बात गलत लगती है । इसके अतिरिक्त रामायण में किसी मुगदल ऋषि का उल्लेख नहीं मिलता है, महाभारत में मुगदल ऋषि का उल्लेख मिलता है लेकिन उनका निवास स्थान कुरुक्षेत्र बताया गया है । ऐसे में षष्ठी पूजा का वास्तविक इतिहास जान पाना काफी कठिन कार्य है ।
          भारत में सूर्य पूजा काफी प्राचीन परंपरा रही है । इतिहासकार जयदेव मिश्र पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर बिहार में छठ पूजा की प्राचीनता 200 ई. पू. निर्धारित करते हैं । कुषाण वंश के सिक्कों से भी सूर्य उपासना का साक्ष्य मिलता है । राज्य में देव (औरंगाबाद) के अतिरिक्त अनेक प्राचीन सूर्य मंदिर पंडारक, मनेर, बड़गांव (नालंदा), सहरसा, से लेकर गया में देखे जा सकते हैं । कश्मीर के मातंग सूर्य मंदिर व उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर के विपरीत देव सूर्यमन्दिर को पूरे देश का एकमात्र सूर्यमंदिर माना जाता है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमभिमुख है ।[iv] इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल निर्धारन गुप्तोत्तर काल करते हैं ।[v] सूर्यपूजक कौन थे, उनके क्रमिक विकास का विस्तृत इतिहास आदि आज भी ऐसे अनछूए पहलू हैं जिनपर पर्याप्त शोध की संभावना है ।
                                                                          
                                                                                     साकेत बिहारी, वर्धा (महाराष्ट्र)

(नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस 25/10/2017 अंक के छठ पर्व विशेष पृष्ठ पर प्रकाशित)





[i] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/13/bihar-muslim-celebrate-chhath/
[ii] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/20/bihar-mother-sita-did-the-first-chhath/
[iii] http://livecities.in/munger/mother-sita-had-done-chhath-puja-here/
[iv] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/13/chhath-surya-mandir/
[v] https://timesofindia.indiatimes.com/city/patna/Sun-god-being-worshipped-since-Vedic-period/articleshow/44954463.cms

Sunday 6 August 2017

डॉ. अम्बेडकर के अपमान का सिलसिला कब तक ?


बचपन में नाई द्वारा बाल काटने से मना किए जाने के साथ शुरू हुआ डॉ. भीम राव अम्बेडकर के अपमान का सिलसिला 1956 ई. में बौद्ध धर्म अपनाने के पूर्व तक अनवरत चलता रहा । आज भारतीय स्वतन्त्रता के 70 वर्ष बाद भी यह अनवरत जारी है । कभी आजम खान द्वारा[i], कभी मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के शिक्षकों द्वारा[ii], कभी जैसलमेर के पार्क में लगी उनकी आदम कद प्रतिमा के साथ अभद्रता[iii], प्रहार कर आदि । अधिसंख्य मामले तो समाचार पत्रों में आते भी नहीं । ताज़ा मामला स्वच्छ भारत निर्माण कार्यक्रम की आड़ में भारत सरकार द्वारा जारी किये गए विज्ञापन का है ।[iv] यह विज्ञापन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर लगाया गया है, जिसमें चार्ल्स डार्विन के मानव विकास सिद्धान्त को चित्रात्मक रूप में दिखाते हुए डॉ. अम्बेडकर को विकसित मनुष्य के रूप में एक कचरे के डब्बे में आपके अंदर के बाबा साहब को जागृत करें” इस नारे के साथ कूड़ा फेंकते हुए दिखाया गया है । वास्तव में यह विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापन की आड़ में डॉ अम्बेडकर को अपमानित करने, उन्हें नीचा दिखाने की सोची समझी साजिश है ।
            केंद्र में सत्ता प्राप्त करने के साथ ही नव निर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 2 अक्तूबर 2014 को गांधी जयंती के दिन से इस संकल्प के साथ कि “गांधी जी के 150वें जयंती अर्थात 2 अक्तूबर 2019 तक पूरे देश को साफ सुथरा बना देंगे” स्वच्छ भारत निर्माण कार्यक्रम की नींव डाली थी ।[v] थोड़े बहुत विरोध के बीच पूरे देश की जनता ने स्वच्छता जागरूकता लानेवाले इस कार्यक्रम की तारीफ भी की । उनके आलोचक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी ने भी इसी तर्ज़ पर अपने राज्य में स्वच्छ दिल्ली अभियान कार्यक्रम भी संचालित किया ।  रेलवे में चाय के डिस्पोजल कप से लेकर नव प्रचलित 500, 2000 रुपए के नोट सहित कई उत्पादों पर भारत सरकार के इस कार्यक्रम के प्रचार को देखा जा सकता है । स्वच्छ भारत निर्माण हेतु भारत सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है । इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली जी ने 2015 में 0.5 प्रतिशत सेस (टैक्स) भी लगाने की घोषणा की थी ।[vi] प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दौर में कोई भी सरकार किसी कार्यक्रम को सफल बनाने, इसे आम जनमानस में पहुंचाने के लिए बॉलीवुड, खेल, समाज सेवा की दुनिया के मशहूर हस्तियों का ब्रांड एम्बेस्डर के रूप में चुनाव करती है । भारत सरकार ने ऐसा किया भी । अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शंकर महादेवन, सचिन तेंदुलकर, अनुष्का शर्मा[vii], कल्पना यादव[viii] प्रियंका चोपड़ा, बाबा रामदेव, काजोल[ix] बाबा राम रहीम आदि इस अभियान से समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर ब्रांड एम्बेस्डर, प्रशंसक के रूप में जुड़े । इस क्रम में फरवरी 2017 में बॉलीवुड अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी को भी स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम का ब्रांड एम्बेस्डर भी नियुक्त किया गया ।[x] ऐसे में नियमानुसार डॉ. अम्बेडकर की जगह शिल्पा शेट्टी को कूड़ा बीनते हुए दिखाया जाना चाहिए था । लेकिन इस विज्ञापन को बनानेवाले अंत्योदय ग्रुप और इसे अभिप्रमाणित करने वाले अधिकारी ने किया कुछ और ही । यदि डॉ. अम्बेडकर को ही स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम का प्रेरणा स्त्रोत बनाना था तो शिल्पा शेट्टी को ब्रांड एम्बेस्डर बनाने, इसपर लाखों-करोड़ों खर्च करने से मंत्रालय या सरकार को क्या लाभ हुआ ?
            भारतीय संविधान निर्माण से लेकर देश में समता मूलक समाज के निर्माण हेतु योगदान देने वाले डॉ अम्बेडकर के प्रति विज्ञापन निर्माताओं की सोच के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग कभी डॉ. अम्बेडकर के समाज सुधार के संबंध में पढ़ना तो दूर इनके उल्लेखनीय कार्यों के बारे में कभी सुना भी नहीं होगा । डॉ. अम्बेडकर के संबंध में पढ़ा होता तो पता चलता कि इस समाजसुधारक ने हाशिये पर स्थित समाज के एक बड़े हिस्से को नगर का कूड़ा, गंदगी बीनना नहीं बल्कि हजारों वर्षों से तथाकथित हिंदू समाज के उस गंदगी को साफ करने की बात सिखाई जो मानव-मानव में भेद-भाव को बढ़ावा दे रहा था । हिंदू सहित भारतीय समाज की जिस गंदगी को मिटाने की बात वे करते थे, उसे समूल नष्ट करने के लिए आज फिलहाल कम से कम दस प्रतिशत लोग जागरूक हो चुके हैं । जिस दिन 25-30 प्रतिशत जनमानस में इस गंदगी को मिटाने की भावना जागृत हो गयी उस दिन से धर्म, जाति व्यवस्था के नाम पर फैली गंदगी के साथ-साथ डॉ. अम्बेडकर को कूड़ा बीननेवालों के रूप में  रूप में प्रदर्शित करनेवालों के दिमाग में मौजूद कचरा, गंदगी भी खत्म हो जाएगी ।
            इस आलेख का तात्पर्य केवल इतना है कि डॉ. अम्बेडकर से ईर्ष्या रखनेवाले समाज के प्रबुद्ध वर्ग से एक अपील है कि आप पर किसी सत्ता, संस्था का कोई दवाब नहीं है भारतीय संविधान निर्माता, समाज सुधारक डॉ. भीम राव अम्बेडकर का जबरन सम्मान करने, नाम लेने, उनके विचारों को मानने का, लेकिन आपको कोई हक भी नहीं है उन्हें नीचा दिखाने या अपमानित करने का ।





[i] https://www.youtube.com/watch?v=7PNtu3EGlXk
[ii] https://www.youtube.com/watch?v=7FQRAL2LlEo
[iii] http://www.amarujala.com/jaipur/insult-of-statue-of-dr-ambedkar-in-jaisalmer
[iv] http://www.jansatta.com/trending-news/goi-ad-on-delhi-rly-stn-shows-dr-ambedkar-picking-up-trash/393516/
[v] http://www.inkhabar.com/national/7062-reality-check-of-swakch-bharat-abhiyaan
[vi] http://www.inkhabar.com/national/8992-0.5%20per-cent-cess-to-fund-the-Swachh-Bharat-programme
[vii] http://www.dnaindia.com/entertainment/report-anushka-sharma-joins-amitabh-bachchan-chosen-as-brand-ambassador-of-swachh-bharat-abhiyaan-2302410
[viii] http://www.hindustantimes.com/india-news/swachh-bharat-mission-newly-wed-bride-is-brand-ambassador-for-etah/story-RkBVPw5aucjKjP5AfBhGpK.html
[ix] http://www.inkhabar.com/entertainment/6605-Kajol-will-attend-UN-and-Global-Citizen-Festival
[x] http://www.amarujala.com/india-news/shilpa-shetty-as-swachh-bharat-brand-ambassador

(दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस संपादकीय 07-08-2017 में प्रकाशित)


Wednesday 21 June 2017

जिन्हें अछूत शब्द का अर्थ नहीं मालूम वह ब्रह्म पर ज्ञान देते हैं ।

संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी हर भारतीय को बिना किसी धर्म, जाति, वर्ग के है । प्रत्येक लोग अपने अपने बुद्धि/विवेक क्षमतानुसार इसका प्रयोग करता ही है और करना ही चाहिए । इसी अधिकार का प्रयोग मैं सोसल मीडिया पर निष्पक्ष रूप से करने का प्रयास करता रहता हूँ । बहुत प्रसन्नता भी होती है दूसरों के विचार को जानकर, समझकर । मैं ऐसे ज्ञान प्राप्ति के लिए हमेशा लालायित रहता हूँ । इसी जिज्ञासावश फेसबुक पर एक मित्र के ज्ञान संबंधी पोस्ट पर बातचीत करने के लिए मजबूर हुआ । दिनेश दूबे नामक मित्र ने बहुत अच्छा पोस्ट लगाया । पोस्ट और बातचीत के आधार पर दो चीजें सामने आई कि कैसे कोई व्यक्ति खुद अपनी ही पोस्ट पर जाल में फंस जाता है तो अबोध होने का बहाना कर, कुछ भी कुतर्क कर आसानी से बच निकलने का मार्ग ढूंढ लेता है । दूसरा ये कि बिना अध्ययन किये पूरे confidence के साथ कैसे झूठ बोला जा सकता है । इस बंधु को अछूत जातिवाद शब्द कांग्रेसियों के देन लगती है लेकिन बावजूद इसके इन्हें अछूत शब्द नहीं पता । मैं तो जान ही रहा था कि मेरी बातों को काटने के लिए कोई तर्क नहीं इनके पास । बावजूद इसके बस कुटिल मुस्कान लिए कुतर्कों के मज़े लिए जा रहा था ।  

उपर्युक्त conversation के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि अछूत जातिवाद शब्द जानते हुए भी, अपने लेखन में प्रयुक्त करते हुए भी यदि कोई कहे कि उसे अछूत शब्द का अर्थ नहीं मालूम, बावजूद इसके ब्रह्म पर ज्ञान दे, तो उससे बड़ा धूर्त कोई नहीं ।

Monday 19 June 2017

अनुसूचित जाति के राष्ट्रपति बनाने के पीछे कहीं कोई षड्यंत्र तो नहीं ।

18 जून 2017 को सत्तारूढ़ एनडीए द्वारा बिहार के वर्तमान राज्यपाल रामनाथ कोविंद जी को अपना उम्मीदवार बनाने के साथ ही मीडिया जगत में एक तरफ जहां खलबली आ गयी । वहीं कुछ सरकार समर्थित दलित चिंतक, कोविंद जी को जो अनुसूचित जाति पृष्ठभूमि से हैं, राष्ट्रपति पद जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान होने की कल्पना कर फूले नहीं समा रहे हैं । वास्तव में ये लोग इस मुगालते में जी रहे हैं कि एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के राष्ट्रपति बनने के बाद अनुसूचित जाति सहित समस्त वंचित जातियों, वर्गों का भला होगा । इन चिंतकों के साथ साथ देश की आम जनता भी यदि ये राय रखती है तो उनके लिए ओबीसी वर्ग के नरेंद्र मोदी के 3 साल का शासनकाल आइना है । ये तीन वर्ष आरक्षित वर्गों के साथ साथ अल्पसंख्यकों पर धर्म परिवर्तन, जातिवाद, गाय, हिन्दुत्व आदि के नाम पर हिंसा के नाम रहा । आरक्षित वर्गों के आरक्षण जैसे संवैधानिक अधिकारों को मज़ाक बनाने की कोशिश भी की गयी । संविधान को धता बताते हुए निजी नियम कानून द्वारा अनारक्षितों को 50.5 % अघोषित आरक्षण दिये जाने की खबर भी समाचार पत्रों के माध्यम से प्रसारित हुई । निस्संदेह ये आज भी अप्रत्यक्ष रूप से जारी होगा ही । पूर्व व्यवस्थानुसार आरक्षित वर्ग के प्रतिभागियों को open category में fight करने की छूट थी । लेकिन अब अघोषित रूप से आरक्षित वर्ग के प्रतिभागी को केवल आरक्षित श्रेणी में ही रहने की व्यवस्था कर दी गयी । उच्च शिक्षा में पिछले 10 वर्षों में प्रोफेसर सुखदेव थोराट के प्रयत्नस्वरूप आरक्षित वर्ग सही ट्रैक पर आ रहे थे, उन्हें शोधवृत्ति, उच्च शिक्षा की सीटों, उच्च शिक्षा बजट में कटौती कर उच्च शिक्षा से दूर किया जा रहा है । और तो और उच्च शिक्षा पर प्रहार करने वालों, वंचितों की आवाज बनने वाले को जातिवाद, फर्जी राष्ट्रवाद की आढ़ में हमले करवाकर उनके उत्साह को तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता है । इन सभी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है एक तथाकथित ओबीसी प्रधानमंत्रित्व के काल में ।
            ऐसे में इसमें कोई दो राय नहीं कि अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के कार्यकाल में भी इन घटनाओं में कोई कमी नहीं आनेवाली । कल तक जो सरकार मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का रोबोट बोलते थे । आज वही एक रोबोट राष्ट्रपति की तलाश में हैं ताकि बहुमत सरकार मनुवादि व्यवस्था लाने के लिए जो भी नीतियाँ बनाएँ बिना सोच विचार के पास कर दें । कोई सवर्ण राष्ट्रपति यदि इनके नीतियों को मंजूरी देगा तो बहुत सी उंगलियाँ सरकार पर उठेगी । लेकिन कोविंद जी के मामले में ऐसा नहीं हो सकेगा ।
            इसके अतिरिक्त मनुवादि व्यवस्था की समर्थक सरकार एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को केवल मुखौटा बनाकर बहुसंख्य अनुसूचित जातियों को वोट बैंक बनाने की फिराक में है । बावजूद इसके हमारे देश की निरंतर पॉलिटिक्स में literate होती जनता इसके पीछे की पॉलिटिक्स समझेगी और अताताइयों के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी, इसकी उम्मीद है । 

Thursday 8 June 2017

ग्राफोलोजी (Graphology) से करें अपने व्यक्तित्व का विकास

हममें से प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी तक बनते देखना चाहते हैं । उस मुकाम तक उन्हें पहुंचाने के लिए अभिभावक अपने खून पसीने की कमाई को पानी की तरह बहाने से भी नहीं चूकते । वह भी बिना सुनिश्चित किए कि इन सपनों को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रतिभा उनके बच्चे में है या नहीं । ऐसे में यदि वांछित परिणाम नहीं आते हैं तो अभिभावकों के साथ-साथ छात्र-छात्राओं का निराश-हताश होना स्वाभाविक है । इसी हताशा में, गुस्से में कई अभिभावक अपने बच्चे के साथ मार-पीट भी कर देते हैं । जिससे डर के कारण ऐसे अभिभावकों के बच्चे खुदखुशी करने से भी नहीं चूकते । जैसा कि कुछ दिनों पूर्व ही मध्य प्रदेश में 12वीं के परिणाम आने के बाद दिखा, जब राज्य भर से एक ही दिन बारहवीं के 11 छात्रों ने परीक्षा परिणाम से नाखुश होकर ख़ुदकुशी कर ली । मध्य प्रदेश इकलौता राज्य नहीं है बल्कि पूरे देश की यही कहानी है । नवीनतम उदाहरण बिहार राज्य का ही देखें, जहां बिहार इंटर काउंसिल की 2017 की 12वीं की परीक्षा में मात्र 30 प्रतिशत बच्चे सफल हुए जबकि 70 प्रतिशत असफल । विज्ञान, कला, वाणिज्य तीनों संकायों के परिणाम निराश करनेवाले रहे । झारखंड में तो इसी वर्ष (2017) के 12वीं के परिणाम में 33 इंटरमिडिएट कॉलेज के एक भी छात्र-छात्राएँ पास नहीं हुए । तीनों संकायों का परीक्षा परिणाम 50-60 प्रतिशत के बीच रहा । परिणाम से असंतुष्ट बच्चों के साथ-साथ अभिभावक के चेहरे पर कैरियर खराब होने की हदस, भय, शर्मिंदगी को आसानी से देखा जा सकता था । इस दौरान समाचार पत्रों में अनेक आत्महत्या की खबरें भी आई । हालांकि विभिन्न राज्यों की सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए अंक की जगह ग्रेड व्यवस्था भी लागू किया । बावजूद इसके ए + की अपेक्षा बी या सी ग्रेड लाने वाले बच्चों को मुंह छिपाते, शर्मिंदगी का एहसास करते आसानी से देखा जा सकता है । परीक्षा परिणाम जारी करने से पूर्व राज्य के मुख्यमंत्री छात्र-छात्राओं से कम अंक आने के कारण निराश न होने की अपील करते हैं । बावजूद इसके न तो छात्र-छात्राओं के आत्महत्या दर में कमी आती है और न ही असफल होने के अवसाद से वे मुक्त हो पाते हैं । इंजीनियरिंग व मेडिकल की तैयारी के लिए प्रसिद्ध राजस्थान का कोटा से तो समय-समय पर ख़ुदकुशी का खबरें आती ही रहती है । ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस असफलता के लिए जिम्मेदार कौन है ? कोचिंग संस्थान, बच्चा या अभिभावक । हालांकि अधिकांश अभिभावक खुद को बचाने के लिए यह व्यर्थ सा दलील देते हैं कि अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए हमने सब कुछ किया । जितने कोचिंग की उसे आवश्यकता थी हमने फीस की बिना परवाह किए उपलब्ध कराया । ऐसा कहकर वे इस असफलता का ठीकरा अपने बच्चे, कोचिंग संस्थान पर फोड़कर खुद को पाक-साफ साबित कर सकते हैं । लेकिन वास्तविकता यह है कि इनसे भी अधिक दोषी अभिभावक खुद हैं । अपने बच्चे के प्रतिभा को जाने समझे बिना ही, उसके व्यक्तित्व की कमियों को नज़रअंदाज़ करते हुए बच्चे को अपने सपने पूरा करने के आग में झोंक दिया । आपकी अकर्मण्यता के कारण आपके लाखों रुपए के साथ-साथ आपके बच्चे का बहुमूल्य समय दोनों बर्बाद हुआ । कोचिंग संस्थान में आपके बच्चे के अलावा सैकड़ों-हजारों छात्र होते हैं । अतः किसी एक छात्र विशेष पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा सकता । यदि कोई देते भी हैं तो ये केवल उंगलियों पर गिने जा सकनेवाले संस्थान हैं । हालांकि पाठ्यचर्या पूरा कराने के एवज में ये आपसे मोटा पैसा लेते हैं और पूरी भी कराते हैं । लेकिन आपके बच्चे के ज्ञान-समझ में वृद्धि हुई या नहीं, इससे इन्हें कोई विशेष मतलब नहीं होता । प्रवेश परीक्षा के नाम पर ये संस्थान प्रतिभाशाली लड़कों को ऐसे चुनते हैं जैसे दूध से मक्खन निकाल लिया जाता है । यदि आपका बच्चा इन संस्थानों में चयनित नहीं हो पाता है तो उसका अवसाद से ग्राषित होना स्वाभाविक है । इसी अवसाद के कारण भी आपका बच्चा ख़ुदकुशी जैसा गलत कदम भी उठा लेता है ।
            ऐसी स्थिति से निपटने के लिए ग्राफोलोजी एक प्रभावी तकनीक है । अभिभावक अपने बच्चों के लिखावट का विश्लेषण करवाकर उसके व्यक्तित्व में छिपे गुणों, कमजोरियों को जानकर, उसका ग्राफोथेरपी पद्धति से उपचार अर्थात हैंड राइटिंग में आवश्यक परिवर्तन कर उसमें आत्मविश्वास, एकाग्रता, सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर, अवचेतन मन में व्याप्त भय, तनाव को दूर कर सकते हैं । इस तकनीक से बच्चे की इच्छाशक्ति को सीमित/असीमित किया जा सकता है । अपने लक्ष्य के प्रति भूख को बढ़ाकर उन्हें प्रतियोगी, कमजोरियों को नियंत्रित कर उन्हें सबल-समर्थ, जिद्दी व गुस्सैल व्यवहार को सुधारकर संवेदनशील, मानसिक रूप से भी बीमार बच्चे को स्वस्थ बनाया जा सकता है । इस तरह इस तकनीक से अभिभावक अपने धन के साथ-साथ बच्चों के बहुमूल्य समय व जीवन को बर्बाद होने से रोक सकते हैं ।
            यहाँ एक सवाल उठना लाजमीं है कि आखिर किसी व्यक्ति के हैंड राइटिंग से उसके व्यक्तित्व का पता कैसे लगाया जा सकता है ? पहली-पहली बार सुनने में यह ऐसे ही अविश्वसनीय व कौतूहल का विषय लोगों के समक्ष हो जाता है जैसे कोई योग-प्राणायाम से अनभिज्ञ व्यक्ति को कहता है कि योग और प्राणायाम से हम रोगमुक्त होकर दीर्घायु हो सकते हैं । लेकिन आज हम इस यथार्थ से भली-भांति परिचित हैं । हैंड राइटिंग विश्लेषण कराने के बाद आपके लिए भी यह तकनीक विश्वसनीय हो जाता है । ग्राफोलोजी भी योग की तरह आपके व्यक्तित्व, मन-मस्तिष्क में मौजूद कमियों को पूरा कर आपको मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है ।
            हैंड राइटिंग विश्लेषण या ग्राफोलोजी कोई नया विषय नहीं है । बल्कि आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व से ही यूरोपीय देशों में इसका लगातार अध्ययन-अध्यापन किया जाता रहा है । इटली के डॉ. केमिल्लो बाल्डी ने 1622 ई. में सर्वप्रथम इस विषय पर एक पुस्तक लिखी हाउ टू जज द नेचर एंड द करेक्टर ऑफ अ पर्सन फ़्रोम हिज लेटर । इसी क्रम में 1800 ई. में जर्मनी में जर्मन ग्राफोलोजी सोसाइटी स्थापित हुआ । 1920 ई. में अबबी मिकोन ने फ्रांस की राजधानी पेरिस में द ग्राफोलोजी सोसाइटी स्थापित किया । यूरोप, अमेरिका में पहचान बना चुके ग्राफोलोजी आज हमारे देश भारत में भी अपनी पहचान बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है । ग्राफोलोजिस्ट डॉ. मनोज तनूरकर जी के अनुसार वर्तमान में अमेरिका में 8000 से भी अधिक कंपनियाँ व फ़्रांस में 80 प्रतिशत से भी अधिक निजी कंपनियाँ किसी भी व्यक्ति को रोजगार देने से पहले उसका व्यक्तित्व जानने हेतु हैंड राइटिंग विश्लेषण अनिवार्य रूप से करवाती है । भारत में लाने का श्रेय मोहन बोस जी को जाता है, जिन्होनें 2002 ई. में कोलकाता इंस्टीट्यूट ऑफ ग्राफोलोजी की स्थापना की । 15 वर्ष बाद भी हमारे देश में इस तकनीक के विस्तार को गति नहीं मिल पाई है । इसके पीछे मुख्य कारण है यहाँ के लोगों का भाग्य, किस्मत, नसीब जैसे सिद्धांतों में विश्वास होना । बावजूद इसके वर्तमान में मोहन बोस जी के अतिरिक्त सौरभ चक्रवर्ती, समयिता बनर्जी, नूतन राव, मनोज तनूरकर, सुषमा जैन, अखिलेश आनंद आदि भारत में विस्तार करने हेतु लगातार प्रयासरत हैं । 
            इस वैज्ञानिक तकनीक से किसी भी व्यक्ति को एक खुली पुस्तक की तरह पढ़ा जा सकता है । अक्षर के बनावट, आकार व स्पेस के आधार पर मूल्यांकन कर उस व्यक्ति के गुणों, अवगुणों, उनके आंतरिक व भावनात्मक समस्याओं, छिपे प्रतिभाओं को, वह कैसा सोचता है या कैसा व्यवहार करता है, को जाना जा सकता है । किसी भी व्यक्ति का हैंड राइटिंग, फिंगर प्रिंट की तरह होता है जो किसी अन्य व्यक्ति के हैंड राइटिंग से नहीं मिलता । ग्राफोलोजिस्ट नूतन राव जी के अनुसार हैंड राइटिंग वास्तव में ब्रेन राइटिंग है जो हमारे मन/दिमाग द्वारा लिखा जाता है । जब हम किसी अक्षर को सबसे पहले लिखना या बनाना शुरू करते हैं तो सर्वप्रथम यह सोचते हैं कि इसे कैसे लिखा या बनाया जाय । कुछ अभ्यास के बाद हमारा दिमाग क्रमशः अक्षर, शब्द या वाक्य निर्माण के इस कार्य को समझ जाता है । तत्पश्चात हमारे केवल सोचने भर से ही हमारा दिमाग लेखन करनेवाले हाथ को संकेत भेजने लगता है कि क्या और कैसे लिखना है ? कलम तो केवल एक साधन है जो हमारी अंगुलियों द्वारा लेखन कार्य संपादित करने में सहयोग करती है । आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में इस तकनीक का प्रयोग दिमाग व स्नायु तंत्र से संबन्धित बीमारियों के जांच में प्रयुक्त किया जाता है । डॉ मनोज तनूरकर जी के अनुसार विवाह हेतु वर-वधू के गुणों के मिलान में यह तकनीक काफी प्रभावी है । 
            इस प्रकार ग्राफोलोजी तकनीक से व्यक्तित्व संबंधी समस्त समस्याओं को पूरी गारंटी के साथ उपचारित किया जा सकता है । नवीन शोध के अनुसार अब इस तकनीक से अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी ठीक की जा सकती है । बैक बेंचर्स के लिए तो यह एक तरह से वरदान ही साबित होगी ।
अवध बिहारी
ग्राफोथेरेपिस्ट सह निदेशक
हस्तलेख ... एन इंस्टीट्यूट फॉर हैंड राइटिंग एनालिशिस
जमुई (बिहार)
मोब. न. 9334861323, 7004825454
ईमेल - hastlekh.jamui@gmail.com

(दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस संपादकीय 07/06/2017 में प्रकाशित)