Sunday 3 December 2023

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 (National Curriculum Framework - 2005) के आईने में सामाजिक अध्ययन विषय

 

किसी भी देश के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या एक मानचित्र की तरह होती है जो देश द्वारा तैयार शिक्षा नीति को सफल बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है। संबंधित देश की सभ्यता-संस्कृति, भौगोलिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या निर्मित की जाती है। हमारे देश भारत में भी सांस्कृतिक-भौगोलिक-भाषाई विविधता को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा निर्मित की गई है। हमारे देश में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या कैसा हो? इसकी रूपरेखा बनाने का पहला प्रयास 1973 ईस्वी में शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा किया गया। 1975 ईस्वी में यह बनकर पूर्णता तैयार हुआ। 10 वर्षों के लिए इसे देश की सभी शालाओं के लिए लागू किया गया। इसके पश्चात 1988, 2000, एवं 2005 ईस्वी में इसको विस्तार दिया गया। 1975 में निर्मित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में उच्च प्राथमिक शालाओं के साथ-साथ सामाजिक अध्ययन विषय के लिए इसमें कुछ नियमावली थे। जैसे-

·       कक्षा 6 से 8 उच्च प्राथमिक शाला के अंतर्गत होंगे। हालांकि इसके बावजूद आंध्र प्रदेश में केवल कक्षा 6 और 7, असम, गोवा, केरल आदि राज्यों कक्षा 5 से 7, पश्चिम बंगाल में कक्षा 5 से 8 उच्च प्राथमिक शाला के अंतर्गत आते थे।

·       एक सप्ताह में 48 घंटों का अध्यापन समय होगा।

·       30 से 40 मिनट का एक पीरियड होगा।

·       सामाजिक अध्ययन के लिए 6 पीरियड रखा होगा।

·       पूरे सप्ताह कुल शाला समय का 20% समय सामाजिक अध्ययन शिक्षण को दिया जाएगा।

·       1988 पाठ्यचर्या में इसके समय को 20% से घटाकर 15% कर दिया गया।

      सामाजिक विज्ञान, सामाजिक अध्ययन सब एक ही विषय के नाम हैं। प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर के लिए देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम से इस विषय को संबोधित किया जाता है। सामाजिक अध्ययन (8 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश) व सामाजिक विज्ञान (22 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश) के अतिरिक्त त्रिपुरा तथा हरियाणा राज्य में इसे 'इतिहास भूगोल और नागरिक शास्त्र' विषय के नाम से संबोधित किया जाता है।[i]

क्रम

नामकरण

राज्य/केंद्र शासित प्रदेश

राज्य की संख्या

1

सामाजिक अध्ययन

आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, सिक्किम, असम, मेघालय, छत्तीसगढ़

6

2

सामाजिक विज्ञान

अंडमान एवं निकोबार दीप समूह, दिल्ली, जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, केरल, झारखंड, लक्ष्यदीप, नागालैंड, मणिपुर, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मिजोरम, गुजरात, दादर-नगर हवेली, पंजाब, उत्तराखंड, दमन एवं दीव, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश

23

3

इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र

त्रिपुरा, हरियाणा

2

4

इतिहास एवं भूगोल

पश्चिम बंगाल, गोवा

2

5

इतिहास, राजनीति शास्त्र एवं भूगोल

उड़ीसा

1



[i] Yadav S K (2014) School Curriculum, NCERT, New Delhi Page No. 14

Sunday 12 November 2023

अंधविश्वास को बढ़ावा देता हमारा त्यौहार

दीपावली के अवसर पर सजी बाजार में खूब रौनक थी। धनतेरस के दिन से ही लोगों की भीड़ को देखकर सभी दुकानदार, व्यवसायी के चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। कुछ व्यवसायी तो सुबह से ही सामान देते-देते थककर चूर थे, लेकिन मुनाफे को और बढ़ाने की चाहत उन्हें आराम करते नहीं देखना चाहती थी। सोने चांदी की दुकान, इलेक्ट्रॉनिक सामान, रेडीमेड कपड़ों की दुकान, मिट्टी के दिये की दुकान, पटाखे की दुकान, मिठाई की दुकान आदि पर जितनी भीड़ थी, आम दिनों में उतनी भीड़ शायद ही कभी देखने को मिले। सभी लोग अपने-अपने जरूरत के समान प्रसन्नता के साथ खरीद रहे थे। बाजार घूमते-घूमते अपने एक मित्र के मेडिकल की दुकान पर उनसे भेंट-मुलाकात करने पहुंच गया। वहां भी भीड़ थी, लेकिन वह उस दिन के भीड़ से अलग थी। अब आपके परिजन अस्पताल में भर्ती हों, और आप उनकी दवाई के लिए आए हों, तो स्वाभाविक है आप थोड़े अलग नजर आएंगे ही। वहां बैठा ही था कि दोस्त ने एक जगह साथ चलने को कह दिया। हम दोनों फुटपाथ किनारे लगे एक अस्थाई दुकान, जो दोस्त के किसी जान-पहचान वाले की दुकान थी, और उन्होंने केवल दो-तीन दिनों के लिए लगाया था, पर पहुंचे। दोस्त ने लक्ष्मी-गणेश की एक मूर्ति एवं उनसे संबंधित कुछ पूजन सामग्री खरीदी एवं अपने गंतव्य के लिए चल दिए। जितनी भीड़ अन्य दुकानों पर थी जिसकी चर्चा मैंने पूर्व में की, उतनी ही भीड़ इन दुकानों पर भी थी। गरीब से लेकर अमीर तक के लोग इस दुकान पर रुक कर अलग-अलग आकार वाले लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों को खरीद कर ले जा रहे थे। इस तरह की दुकान देखना मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था, पिछले 25 वर्षों से इस तरह की दुकान दीपावली के अवसर पर सजी दिखती रही है। करीब 10-15 वर्ष पहले अपने मां-पिताजी के साथ आकर हमने भी ऐसी दुकानों से लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति एवं पूजन सामग्री खरीदने के लिए इस भीड़ का हिस्सा बने थे।

            लेकिन इस बार की बात थोड़ी अलग थी। तार्किक सोच/विचार के कौशल ने मुझे सोचने पर थोड़ा विवश किया। मेरे मन में विचार चलने लगा कि सोने चांदी की दुकानों पर, इलेक्ट्रॉनिक समान की दुकानों पर भीड़ इसलिए होती है कि धनतेरस एवं दीपावली को लोग शुभ अवसर मानते हैं। एवं ऐसे मौकों पर वे अपने सुख-सुविधा की चीजों में इजाफा कर रहे होते हैं, इस अवसर पर कंपनियों की ओर से मिलने वाले छूट भी उन्हें आकर्षित करती हैं। वे जो कुछ भी खरीद रहे होते हैं वह उनके जरूरत की चीज होती है, जो उनका मनोरंजन करने, काम को आसान बनाने, समृद्ध दिखने में मदद करती है। लेकिन मूर्तियों की दुकानों पर आने वाले भीड़ को उन मूर्तियों को खरीदने से क्या फायदा मिलता है? इसके उद्देश्य को समझने हेतु अपने दोस्त से बाइक पर बैठे-बैठे सवाल किया – दुकान में तो मूर्ति लगी हुई है ही फिर यह नई मूर्ति ले जाने का क्या मतलब?’ (इसके पीछे निहित कारण को मैं भी भली-भांति जानता था, फिर भी कोई और बात निकल कर आए यह सोचकर पूछ लिया) दोस्त की तरफ से कोई नया जवाब नहीं आया। बल्कि इस फालतू लगने वाले सवाल के लिए खरी-खोटी भी सुना दी, क्योंकि उसे पता था कि मैं इतना भी अज्ञानी नहीं हूँ जो इसके पीछे के कारण को समझ न पाऊँ। फिर भी उसने मेरे एक शोधार्थी होने का मान रखा और बताया। उसके अनुसार हर दीपावली को अपने घर, दुकान में हम लक्ष्मी गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं। लक्ष्मी धन की देवी हैं, उनके स्थापित रहने से घर, दुकान या किसी प्रतिष्ठान में सुख, समृद्धि आती है। प्रतिवर्ष इसे बदले जाने के कारण के संदर्भ में वह कुछ बात नहीं पाया। गणेश प्रतिमा के 10 दिनों में विसर्जन के पीछे निहित कारण एक जगह पढ़ा था कि 'धार्मिक ग्रंथों के अनुसार श्री वेदव्यास ने गणेश चतुर्थी से महाभारत कथा श्री गणेश को लगातार 10 दिन तक सुनाई थी जिसे श्री गणेश ने अक्षरशः लिखा था। 10 दिन बाद जब वेदव्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि 10 दिन की अथक मेहनत के बाद गणेश जी का तापमान बहुत बढ़ गया है। तुरंत वेद व्यास जी ने गणेश जी को निकट के सरोवर में ले जाकर ठंडे पानी से स्नान कराया था, इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनको शीतल किया जाता है[i] (विसर्जन के इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह एक काल्पनिक कहानी जैसी ही प्रतीत होती है।)

            गौर करने वाली बात यह है कि प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी-गणेश भगवान की ये मूर्तियां मूर्तिकारों द्वारा काफी बड़ी संख्या में बनाए जाते हैं, एवं दुकानदारों द्वारा बेचे जाते हैं। मान्यता बस इतनी है कि घर, दुकान या किसी प्रतिष्ठान में उनकी मूर्ति होने से वहाँ धन-सुख-संपदा-खुशियां आएंगे। अपना लाभांश रखकर वह दुकानदारों को देते हैं, दुकानदार अपना लाभांश रखकर ग्राहक को देते हैं। यहां तक धन का आवक तो समझ में आता है, लेकिन किसी घर, दुकान या प्रतिष्ठान में इन मूर्तियों के होने से धन का आना समझ से परे है। और इन मूर्तियों की वैधता केवल एक साल ही समझी जाती है। अगले साल कोई और मूर्ति पहले की जगह लगाना ही होता है। हर साल एक निश्चित दिन पर लोग इन मूर्तियों को अपने-अपने घर-दुकान ले जाते हैं, पंडित से प्राण प्रतिष्ठा के बिना इन्हें वैधता नहीं मिलती है।

            विडंबना ये है कि गृहस्थ और भगवान के बीच मध्यस्तता करने वाला पुजारी के वैदिक या पौराणिक ग्रन्थों में लिखित मंत्र पढ़कर मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने का तात्पर्य है पहले यह मूर्ति केवल पत्थर की थी, इस कर्मकांड के बाद स्वयं भगवान इस मूर्ति में विराजमान हो जाते हैं। और जिस घर या दुकान में वह होते हैं, वहां की सुरक्षा करते हैं, उसके यश कीर्ति में मदद करते हैं, धन की वर्षा करते हैं। इसमें और भी कई शुभ इच्छाएँ जोड़े जा सकते हैं। पुजारी के इतना करने के बाद भी उन मूर्तियों की उपस्थिति में ही दुकानों/घरों में चोरी हो जाती है, शॉर्ट सर्किट होने से दुकान/घर तबाह हो जाते हैं। यहाँ तक कि चोरी-डकैती भी हो जाती है।  लेकिन ये मूर्ति कुछ कर नहीं पाती। बल्कि आग लगने के बाद भी इन मूर्तियों को उस आग में जलकर या धुएं से काला होते भी देखा है। अर्थात अपनी ही सुरक्षा नहीं कर पाती। मजे की बात ये है कि प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने वाले पुजारी भी अपने घर, मंदिर में यदि कीमती सामान रखे हो, तो उनको भी भगवान से ज्यादा ताला पर भरोसा होता है। उनके साथ-साथ प्रत्येक सामान्य गृहस्थ को भी ताले पर ही भरोसा होता है, उन मूर्तियों पर नहीं।

            दीपावली के अवसर पर पुजारी द्वारा मूर्तियों के प्राण प्रतिष्ठा की गतिविधि प्रतिवर्ष कराई जाती है लेकिन गृहस्थ की गरीबी कभी दूर नहीं हो पाती। इसके पीछे दो कारण निहित हो सकते हैं – (1) मंत्र के माध्यम से प्राण प्रतिष्ठा एक ढोंग, दिखावा है। (2) यदि प्राण प्रतिष्ठा ढोंग नहीं है तो ऐसे मूर्तियों को अपने घर, दुकान में जगह देना इस कामना के साथ कि यह हमारी गरीबी को दूर करेगी, हमारे घर/दुकान की रक्षा करेंगी, पूरी तरह अंधविश्वास है।  ऐसे में आधुनिक काल अर्थात तार्किक युग में जीवन यापन कर रहे हम लोगों का एक परम कर्तव्य है कि प्राचीन काल से ही फैले ऐसे अंधविश्वास, कर्मकांड को अपने जीवन में न्यून स्थान दें। इस अंधविश्वास के पालन करते रहने से आपकी समृद्धि तो नहीं लेकिन इन कर्मकांडों के करने पर अनावश्यक रूप से आपका धन जरूर खर्च होगा। अर्थात आपके केवल धन की हानि हो सकती है, लाभ नहीं। हालांकि हमारे जीन में घुसे-बैठे अंधविश्वास, पाखंड के इस मकड़जाल से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल कार्य है, लेकिन छोटे-छोटे लक्ष्य प्राप्त कर इस अंधविश्वास से ऊपर उठते हुए इससे मुक्त हुआ जा सकता है।

Saturday 11 November 2023

सोशल मीडिया के शॉर्ट विडियो एवं हमारी ज़िम्मेदारी

बचपन में हमें 3 दिन का विशेष रूप से इंतजार होता था – शुक्रवार, शनिवार, रविवार। मनोरंजन की दृष्टि से सप्ताह के यह तीन दिन काफी महत्वपूर्ण दिन होते थे। शुक्रवार और शनिवार को रात के 9:30 बजे दूरदर्शन चैनल पर फिल्म दिखाया जाता था, वहीं रविवार को शाम के 4:00 बजे का समय इसके लिए निर्धारित था। उस दौर में घर में बैठकर खेले जाने वाले खेल की अपेक्षा घर के बाहर भाग दौड़ वाले खेल ज्यादा लोकप्रिय थे। गर्मी के दिनों में ही केवल कड़ी धूप या गर्मी के दौरान इनडोर खेल ज्यादा खेले जाते थे। पूरा दिन स्कूल में बिताने, तत्पश्चात भाग दौड़ वाले खेल खेलने के बाद रात के 9:00 बजे तक इतना सामर्थ नहीं होता था कि इससे ज्यादा जागने के लिए अपनी आँखों को मना सकें। अर्थात 9:00 बजे रात तक स्वाभाविक रूप से नींद आ जाती थी। किसी दिन यदि जागे रह भी जाते तो माँ, पिताजी या दादाजी द्वारा डांट फटकार सुनने को मिल जाती इस स्टेटमेंट के साथ कि ‘Early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and wise’ और अंततः प्रवचन सुनकर सोना ही पढ़ता था। अगले दिन स्कूल में जब दो-तीन साथी रात की फिल्मों का जिक्र कर रहे होते थे तो एक अफसोस था होता था कि काश हम भी फिल्म देख सके होते।

          ऐसे में फिल्म देखने के लिए रविवार का दिन मिलता था। 4:00 बजने का बेसब्री से इंतजार होता था। लेकिन तब भी इतना भी आसान नहीं होता था फिल्म देख पाना क्योंकि तब आज की तरह 24 घंटे बिजली भी नहीं रहती थी, इनवर्टर, सौर ऊर्जा का नाम किसी ने सुना भी नहीं था। ऐसे में बिजली न होने पर 12 या 24 वोल्ट के बैटरी पर हमारी निर्भरता ज्यादा होती थी। उसे दौर में जिन घरों में टीवी होते थे, वहां वोल्टेज बढ़ाने के लिए स्टेबलाइजर, चार्जर और बैटरी भी होते थे। जिस समय बिजली होती थी बैटरी चार्ज किया जाता था, बिजली न होने पर टीवी में जब कुछ देखना हो तो बैटरी से टीवी चलाया जाता था। हम भी अपने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को बैटरी से चला कर फिल्मों का आनंद लिया करते थे। कभी-कभी जब कोई बहुत ही चर्चित फिल्म आती तो बिजली एवं बैट्री चार्ज न होने की स्थिति में गाँव के किसी के ट्रैक्टर की बैटरी निकलवा कर फिल्मों को देखा जाता था।

          उसे समय आज की तरह बहुत सारे चैनल भी नहीं हुआ करते थे, एकमात्र दूरदर्शन चैनल ही हमारे डिजिटल मनोरंजन का सहारा होता था। हां ! एंटीना को इधर-उधर घुमाने पर डीडी मेट्रो जरूर आता था, लेकिन उसे देखने या ना देखने का कोई मतलब ही नहीं होता था, क्योंकि वह केवल बड़े-बड़े शहरों में दिखाए जाते थे, बहुत ही कम सिग्नल गांव तक आते थे। उस दौर में हमने नया-नया पढ़ना सीखा था, ऐसे में हर लिखी हुई चीज को पढ़ने का एक जुनून था। यही कारण है कि फिल्म की कास्टिंग से लेकर फिल्म के अंत तक जो भी लिखित सामग्री आई थी, उसे बिना पढ़े छोड़ते नहीं थे। कुछ को समझते थे, कुछ सर के ऊपर से निकल जाते थे। जिज्ञासा तो होती थी सर के ऊपर से निकलने वाले कंटैंट के मायने को समझने की, लेकिन कोई समझा भी नहीं पाते थे। lyricist/lyrics, choreography ऐसे ही कुछ शब्द थे। यह अलग बात है कि उस अंग्रेजी शब्द के मायने समझने वाले कोई नहीं थे। फिल्म शुरू होते ही हम कलाकार के नाम से लेकर फिल्म बनाने में सहयोग देने वाले लोगों के नाम पढ़ते थे। इस दौरान एक सीन को हम लोग अक्सर पूरा नहीं पढ़ पाते थे, लेकिन हां! इतना देखने में जरुर सफल हो जाते थे कि फिल्म कितने रील की है। अधिकांश फिल्म 16-17 या 18 रील के होते थे। वह दिखाई जाने वाली चीज सेंसर बोर्ड के द्वारा जारी किया गया एक सर्टिफिकेट होता था, जिसमें  यह प्रमाणित होता था कि यह फिल्म किस दर्शक वर्ग के लिए बनी है? अधिकांश प्रसारित फिल्में U, U/A प्रमाणित होते थे। हालांकि दिखाए जा रहे इन सर्टिफिकेट के वास्तविक मायने की समझ तो उस दौर के पेरेंट्स को पता भी नहीं थे। आज भी फिल्म देखनेवाले आधे से ज्यादा जनसंख्या को इसके मायने नहीं पता होंगे।

          आज 25 वर्ष बाद का दौर बिल्कुल उसके उलट है। तब बहुत सीमित संख्या में ऐसे मनोरंजक वीडियो बनते थे, बहुत ही सीमित नायक-नायिकाएँ-विलन होते थे। आज वीडियो या फिल्म देखने के लिए शुक्रवार, शनिवार, रविवार जैसे किसी दिन विशेष का इंतजार नहीं करना पड़ता। फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब खोलिए तरह-तरह के वीडियो आपकी सेवा में हाजिर है। स्मार्ट/मोबाइल फोन, सोशल मीडिया के क्षेत्र में आई क्रांति ने देश के प्रत्येक नगर, गांव को एक मिनी फिल्म इंडस्ट्री बना दिया है। युवा से लेकर वृद्ध तक सभी अपने अभिनय कौशल, नृत्य कौशल, संगीत कौशल, मस्करी करने का कौशल आदि के दम पर खुद के घर में ही मिनी फिल्म इंडस्ट्री स्थापित कर लिया है। यह उनके अभिव्यक्ति कौशल को निखारने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त भी कर रहा है। विज्ञापन के माध्यम से होने वाले आय से वे आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे हैं। यही कारण है कि आए दिन हम मुख्य धारा के मीडिया चैनलों द्वारा 'यूट्यूबरों का गांव' जैसे स्टोरी कवर करते देखते सुनते रहते हैं।

          इनमें से अधिकांश युवा/लोग छोटे-छोटे 5 से 10 मिनट के वीडियो बनाकर उसे अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपलोड कर देश- विदेश के लोगों को मनोरंजित कर रहे हैं। इनके माध्यम से वे नए-नए ज्ञान, मनोरंजन करने के साथ-साथ जीवंत उदाहरणों द्वारा उन मूल्यों को भी प्रसारित करने का कार्य कर रहे हैं जिसकी अपेक्षा हमारा भारतीय संविधान हमसे करता है। इन मूल्यों के साथ जीना सिखाने में प्राथमिक कक्षाओं में नैतिक शिक्षा विषय के अंतर्गत, या हिंदी विषय के अंतर्गत कविता कहानियां के सार के रूप में एक स्तर पर समझ बना चुके होते हैं। ऐसे में जब वीडियो के माध्यम से उन बातों का दोहराव होता है तो उसके प्रासंगिक/अप्रासंगिकता के बारे में हम सोचना- विचारना शुरू कर देते हैं। वीडियो बनाने का प्रभाव जब इस रूप में परिलक्षित होता है तो एक यूट्यूबर के लिए यह गौरवशाली पल होता है। गौरवशाली पल से इसलिए संबोधित किया जा रहा है कि आपके वीडियो को देखकर दर्शक वर्ग आत्मावलोकन करते हैं एवं जहां खुद में सुधार लाने की गुंजाइश होती है, उसे पर वे कार्य करते हैं।  

          इसका एक दूसरा पक्ष भी है। दर्शक वीडियो को शुरू से अंत तक दर्शक देख सकें इसके लिए ऐसे भड़कदार विषय पर वास्तविक लगने वाले वीडियो बनाए जाने का चलन बढ़ रहा है जिससे लोग प्रभावित होकर उसे वायरल कर दें। जैसे - कुछ यूट्यूबर तीन-चार पात्रों को मिलाकर पैसे के लिए ब्लैकमेलिंग करने जैसे पटकथा लिखकर उसका वीडियो बनाते हैं और ऐसे दावों के साथ साझा करते हैं जैसे वे वास्तविक हों। इन कहानियों में एक शोषक एवं एक शोषित आसानी से देखे जा सकते हैं। इस दौरान वे दर्शकों के भी स्वाद का ध्यान रखते हैं, जैसे वीडियो में दिख रही लड़की को पूरे मेकअप के साथ भड़कदार कपड़े पहनाना नहीं भूलते। ऐसे ही ब्लेकमेल करने, उसका पर्दाफास कर तथाकथित शोषित को शोषण से मुक्त करवा कर खुद को हीरो के रूप में दिखाने वाली कहानियों को थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ दूसरे चैनल को भी ऐसी सामग्री परोसते हुए देखा जा सकता है।

          कुछ यूट्यूबर भूत की हंटिंग करने जैसे कार्य में लगे हुए हैं, भूतों वाले मास्क लगाकर, 10 से 15 मिनट की कहानी को अपने ओवर एक्टिंग से इतना भयावह बना देते हैं, कि लोग इसे देखते ही भूत को सच मानकर धड़ाधड़ लाइक शेयर करना शुरू कर देते हैं, जिससे उनकी व्यू इतनी बढ़ जाती है कि जो वीडियो को नहीं भी देखे हैं उनमें भी उत्सुकता आ जाती है कि आखिर क्या है इसमें? ऐसा कर वे वैज्ञानिक सोच की जगह अंधविश्वास फैलाने का कार्य कर रहे होते हैं। देखकर हैरानी होती है कि वीडियो में दिखने वाले भूत या चुड़ैल वीडियो में दिख रहे जांबाज़ भूत पकड़ने वालों के हाथ पैर खींच रहे होते हैं लेकिन उनके साथ-साथ उनके पीछे दौड़ रहे कैमरामैन को वह छू भी नहीं पाते। जिनके पास आलोचनात्मक चिंतन करने का कौशल है वह कमेंट सेक्शन में जाकर उनकी पोल खोल रहे होते हैं, उनके बेवकूफ बनाने को अपशब्द कह रहे होते हैं। लेकिन वीडियो बनाने वालों पर इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे जानते हैं कि उनके सब्सक्राइबर को संवेदनशील/हॉरर कंटेंट देखना और शेयर करना पसंद है। क्योंकि वे भूत के अस्तित्व में होने को अपने दिलों दिमाग में बसाए बैठे हैं। ऐसे में भूत दिखना उनके लिए कौतूहल वाला विषय होता है।  

          इन वीडियो को अलग-अलग दर्शक वर्ग अपने अपने स्वार्थ के अनुसार उसे वीडियो को काट छांटकर अपने अकाउंट से पोस्ट कर रहे होते हैं। हाल ही में एक फेसबुक ग्रुप जो ब्राह्मणवाद के खिलाफत के लिए आवाज उठाने का काम करता था, पर एक वीडियो शेयर किया गया। वह वीडियो एक स्क्रिप्ट वीडियो का छोटा सा भाग था, मनोरंजन के लिए इस ड्रामे को बनाया गया था। इस वीडियो में यह दिखाया गया था कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति अपनी बेटी समान एक बालिका को अनाथ आश्रम से उठा लाया और उससे विवाह कर लिया। वास्तविकता यह है कि अनाथ आश्रम से किसी भी बालिका को लाकर उससे विवाह कर लेना कोई आसान काम नहीं है। अनाथ आश्रम वाले अपने बच्चों को यूं ही नहीं किसी के पास भेज देते हैं। इसका एक प्रोटोकॉल होता है। कैमरा के एंगल, मूवमेंट से लेकर आवाज की शुद्धता तक अवलोकन करने से पता लगा कि यह एक ड्रामा वीडियो है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन हो सकता है। लेकिन उसे पेज के द्वारा इसे एक ब्राह्मण द्वारा अपनी बेटी की उम्र के लड़की के साथ विवाह करने जैसे दावे के साथ साझा किया जा रहा था। उसके कमेंट सेक्शन में जब गया तो पता चला कि उसे पेज की विचारधारा को फॉलो करने वाले सभी लोग ब्रह्मा सरस्वती आदि का जिक्र करते हुए उस जाति के लोगों को पानी पी पीकर कोस रहे थे। वीडियो पर कमेंट करने वाले लोग इस घटना को सही मानकर इसे शेयर भी कर रहे थे। उन्हें पता ही नहीं था कि वे वास्तविक नहीं ड्रामा वीडियो को शेयर कर रहे हैं, जो वास्तविकता से कोसो दूर हो सकते हैं। वीडियो के सभी पात्र अभिनय कर रहे होते हैं। इसके कुछ दिनों पूर्व ही उसी पुरुष अभिनेता की जयमाला स्टेज पर एक सुंदर लड़की द्वारा उसे दुत्कार कर भाग जाने का एक शॉर्ट वीडियो वायरल हुआ था। तब भी लोग इसे सच मानकर मुस्लिम कीवर्ड के साथ साझा कर रहे थे।

          ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे कंटेंट को देखना हमें झकझोरने जैसा होता है, जो हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाए। यूट्यूबर हमारी आपकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अपने लिए पैसे बनाने की फिराक में लगे रहते हैं। ऐसे सेंसिटिव कंटेंट पर वीडियो बनाने से उस विडियो को देखने वाले की संख्या लाखों-करोड़ों में बहुत जल्दी चली जाती है जिससे पैसे कमाना आसान हो जाता है।

          ऐसे शॉर्ट वीडियो के प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं होता। ऐसे में हमारी आपकी जिम्मेदारी हो जाती है कि इस तरह के वीडियो के झांसे में आकर कोई असंवैधानिक कदम न उठाएं। या आपसी फूट को बढ़ावा न दें। किसी भी वीडियो को देखने के लिए उसके वास्तविकता तक पहुंचाने के लिए खुद में आलोचनात्मक चिंतन करने का कौशल विकसित करें, एवं समझदारी से उन वीडियो को देखें एवं शेयर करें।


Wednesday 20 September 2023

पावनी साहू, कक्षा पाँचवीं शासकीय प्राथमिक शाला, नगपुरा (बेमेतरा) छत्तीसगढ़ की creativity

 


चित्रकार –

पावनी साहू, कक्षा पाँचवीं

शासकीय प्राथमिक शाला, नगपुरा (बेमेतरा) छत्तीसगढ़


हेमलता यादव , कक्षा – 5वीं, शा. प्रा. शाला, नगपुरा, विकासखंड – बेमेतरा, जिला – बेमेतरा (छत्तीसगढ़) की Creativity

महात्मा गांधी 

चित्रकार - 

हेमलता यादव, कक्षा – 5वीं

शासकीय प्राथमिक शाला, नगपुरा, विकासखंड – बेमेतरा, जिला – बेमेतरा (छत्तीसगढ़)


Friday 11 August 2023

15 अगस्त के लिए भाषण

आदरणीय ...

आज 15 अगस्त 2023 को हम अपने देश के आजादी की 77वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। ज्ञात हो कि आज से 77 वर्ष पूर्व आज के दिन यानी 15 अगस्त 1947 को हमारा देश ब्रिटिश प्रभुत्व से आजाद हुआ। आज ही के दिन विश्व के मानचित्र पर हमारे देश का उदय एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हुआ। इससे पूर्व हमारे देश पर यूरोपीय देश इंग्लैंड का शासन था। इंग्लैंड के निवासी जिन्हें अंग्रेज का आ जाता था, हमारे देश में व्यापारी के रूप में दाखिल हुए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में व्यापार करते हुए यहां के स्थानीय छोटे-छोटे राज्यों से अधिक से अधिक सुविधाएं पाने के लिए उनके संपर्क में रहते हुए, उनके आपसी फूट के कारण यहां के राजनीतिक क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करने लगे और 1757 से 1857 तक एक शक्ति के रूप में संपूर्ण भारत पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया। 1857 से लेकर 1947 तक हमारे देश के समस्त संसाधनों का अंग्रेजों ने दोहन किया। यहां के संसाधनों को लूट कर केवल अपने देश का विकास किया। लूटने के साथ-साथ हमारे देश के लोगों के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करते थे। हमारे देश के लोगों ने उनकी इस लूट एवं अपमानजनक व्यवहार का विरोध किया। और उन्होंने यह महसूस किया कि जब तक इस देश पर हमारा शासन स्थापित नहीं हो जाता तब तक इस लूट एवं अपमान से आजादी नहीं मिल सकती। खुदीराम बोस, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, सुखदेव-भगत सिंह- राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि देशभक्त क्रांतिकारियों के सम्मिलित प्रयास से 15 अगस्त 1947 को इस लूट एवं अपमानजनक व्यवहार से देशवासियों को आजादी मिली। ब्रिटिश शासन के स्थान पर हमारे देश के लोगों अर्थात भारतीयों द्वारा शासन की शुरुआत हुई। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लिया।

          ब्रिटिश शासन से भारतीयों को जो सत्ता मिली वह कोई क्षणिक क्रांति का परिणाम नहीं थी, बल्कि इसके लिए हमारे देश के क्रांतिकारियों, शहीदों, राजनेताओं ने 50 वर्षों तक अथक प्रयास किया। अंग्रेजी शासन के विरोध में कई आंदोलन किए, जेल गए, काला पानी की सजा भोगी, हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए, आंदोलन करते हुए अपनी जान का बलिदान दिया, अंग्रेजों से लड़ने के लिए सेना का गठन किया। इनके योगदान कभी भुलाए नहीं जा सकते। इनके योगदान के लिए ही कवि प्रदीप ने यह गीत लिखी है ... ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी। आज 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आइए हम भी 2 मिनट का मौन रखकर उन क्रांतिकारियों, शहीदों के योगदान को सम्मान दें...

Saturday 8 July 2023

साजा में तीन दिवसीय सामाजिक विज्ञान कार्यशाला संपन्न।

साजा विकासखंड के उच्च प्राथमिक शालाओं में सामाजिक अध्ययन विषय का अध्यापन कराने वाले शिक्षकों का 3 दिवसीय कार्यशाला दिनांक 5, 6 एवं 8 जुलाई 2023 को दो बैच में संपन्न हुआ। इस कार्यशाला में उन्हें सामाजिक अध्ययन विषय अंतर्गत ग्राम पंचायत, जीवन में आए बदलाव, संसाधन आदि अध्याय संबंधी अवधारणाओं के शिक्षण का उदाहरण लेते हुए बच्चों में भाषाई एवं गणितीय दक्षता सुनिश्चित कराने वाले गतिविधियों को समाहित करते हुए पाठ योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन संबंधी चर्चा की गई। साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सभी शालाओं को आवंटित संभावना एवं नवा-अंजोर कार्यपत्रक के प्रयोग, बाल शोध मेला जैसे रोचक शिक्षण विधियों के माध्यम से बच्चों में सामाजिक अध्ययन विषय के प्रति रुचि जगाने संबंधी विस्तृत चर्चा की गई। कार्यशाला में उपस्थित शिक्षकों ने फीडबैक सत्र के दौरान अपने विचार साझा करते हुए बताया कि तर्क करने, तुलना करने, विश्लेषण करने, समझ के साथ पठन, मौखिक एवं लिखित अभिव्यक्ति कौशल आदि के अभाव में बच्चे सही तरीके से सामाजिक विज्ञान संबंधी अवधारणाओं को समझ नहीं पाते, इसके लिए उन्हें भाषाई एवं गणितीय कौशलों में दक्ष करना आवश्यक है। साथ ही शिक्षकों एवं बच्चों की इस विषय में रुचि भी एक प्रमुख चुनौती है, ऐसे में इस कार्यशाला के माध्यम से उन्हें सामाजिक अध्ययन की अवधारणाओं के साथ-साथ भाषाई एवं गणितीय दक्षता पर समुचित रूप से कार्य करने की अंतर्दृष्टि मिली।

            इस कार्यशाला में साजा विकासखंड के उच्च प्राथमिक शालाओं में सामाजिक अध्ययन विषय का शिक्षण कराने वाले कुल 75 शिक्षक शामिल हुए। प्रतिभागियों की संख्या को देखते हुए कार्यशाला को 2 बैच में विभाजित करते हुए संपन्न कराया गया। एक बैच माध्यमिक शाला परसबोड़ एवं दूसरा बैच साजा स्थित अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के शिक्षक अधिगम केंद्र में आयोजित की गई। इस दौरान मास्टर ट्रेनर के रूप में राजेंद्र रात्रे, विजय बहादुर सिंह राजपूत, शंकर राम साहू, राजाराम साहू, संतोष सिंह राजपूत, केदारनाथ साहू तीनों दिन शिक्षकों को प्रशिक्षित किया।

            अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, बेमेतरा से श्रेष्ठा मिश्रा एवं साकेत बिहारी सत्र संचालक एवं सूत्रधार की भूमिका में उपस्थित रहे। एपीसी बेमेतरा श्री कमल नारायण शर्मा एवं बीआरसी साजा श्री बी. डी. बघेल ने भी अलग-अलग दिन उपस्थित होकर प्रतिभागी शिक्षकों से भाषाई एवं गणिती दक्षता में पिछड़ रहे बच्चों के क्षमता वर्धन हेतु पूरी तन्मयता के साथ कार्य करने का आह्वान किया।

बैच 1 



बैच 2 

Tuesday 9 May 2023

महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा बौद्ध धर्म में प्रचलित झूठी मान्यताओं पर कटाक्ष

यायावरी साहित्यकार के नाम से प्रसिद्ध महापंडित राहुल सांकृत्यायन की गणना ऐसे महान विद्वानों के साथ किया जाता है जिन्होंने कहानीकार, संस्मरणकार, इतिहासकार के रूप में हिंदी भाषा साहित्य को समृद्ध करने का कार्य किया। साहित्य की शायद ही कोई विधा उनसे अछूती रही हो। अपनी लेखनी से जहां इन्होंने हिंदी भाषा साहित्य को समृद्ध किया वहीं यायावरी जीवन के माध्यम से बौद्ध साहित्यों के संरक्षण के लिए इन्हें पूरी दुनिया सम्मानित नज़र से देखती है। इस योगदान के लिए प्रेमचंद मई 1933 में उनकी प्रशंसा करते हुए में लिखते हैं, राहुल जी कदाचित वह पहले बौद्ध सन्यासी हैं, जिन्होंने तीन वर्ष तिब्बत में रहकर पालि का ज्ञान प्राप्त किया और वहाँ से बौद्ध साहित्य की लगभग 10 हज़ार प्राचीन पुस्तकें लेकर भारत लौटे[1] ज्ञात हो कि बौद्ध धर्म पर शोध के दौरान उन्होंने भारत, तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका, चीन, जापान, ईरान, रूस, इंग्लैंड आदि देशों की यात्रा किया, वहां के इतिहास, भूगोल, संस्कृति को जाना समझा, वहाँ के साहित्यों को भारत लाया, इसका अध्ययन किया एवं इसके संबंध में अपने यात्रा वृतांत में लेखबद्ध किया। इन साहित्यों को भारत लाने के लिए उन्होंने तिब्बत व अन्य देशों के उन दुर्गम स्थानों की भी यात्रा की जहां पैर रखने का कोई भी साहस नहीं कर सका था, जहां जाने में लोग भय खाते थे।[2] अलग-अलग देशों से लाए इन साहित्यों को पटना संग्रहालय में देखा जा सकता है। 9 अप्रैल 1893 ई. को पंदहा गाँव आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्मे राहुल सांकृत्यायन जी को बचपन में केदारनाथ पांडे के नाम से जाना जाता था। यायावर जीवन जीते हुए 1930 में श्रीलंका यात्रा के दौरान उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। तब उनका नाम 'राहुल' हो गया। साथ ही संकृति गोत्र से संबंधित होने के कारण अपने नाम के अंत में 'सांकृत्यायन उपनाम लगाते थे। इससे पूर्व कुछ दिनों तक बाबा रामउदार के नाम से परसा (बिहार) स्थित एक मठ के उत्तराधिकारी के रूप में भी कार्य किया। अपने 70 वर्षों के जीवन में उन्होंने 140 प्रकाशित रचनाओं से हिंदी साहित्य को एक विशिष्ट मुकाम दिया। इसके उप्लक्ष्य में 1958 ई. में उन्हें साहित्य जगत के शिखर पुरस्कार साहित्य अकादमी पुरस्कार से एवं 1963 ई. में भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

          राहुल सांकृत्यायन की गिनती साहित्यकार, इतिहासकार के साथ-साथ अपने समय के एक प्रसिद्ध तर्कशास्त्री के रूप में की जाती है। अपने वैज्ञानिक चिंतन एवं तार्किक कौशल का उपयोग करते हुए उन्होंने समाज से अंधविश्वास उन्मूलन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दिया। 1914- 15 ई. के दौरान वे आर्य समाज के संपर्क में रहे जिसके पश्चात समाज में प्रचलित धर्म संबंधी मिथ्या धारणाओं के खंडन करने की प्रवृति उनमें जागृत हुई। वे ईसाई, इस्लाम, यहूदी, बौद्ध के साथ-साथ हिंदू धर्म के अनेक संप्रदायों को झूठा धर्म, वेद एवं विज्ञान के प्रकाश में शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाला धर्म समझते थे। वे उपयुक्त तर्क एवं दलील द्वारा प्रतिद्वंदी को अपने रास्ते पर लाने के पक्षपाती थे।[3] अपने कालपी प्रवास के दौरान राहुल सांकृत्यायन द्वारा एक आर्यसमाजी विचारक के रूप में ईसाई पादरियों, एवं सनातन धर्म के विद्वानों से शास्त्रार्थ में भाग लिए जाने का उल्लेख जगदीश प्रसाद बरनवाल राहुल सांकृत्यायन पर लिखे जीवनी में करते हैं।

एक आर्यसमाजी के रूप में राहुल सांकृत्यायन ने हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म को भी काफी गहराई के साथ समझा। बौद्ध धर्म के संपर्क में वे पहली बार तब आए जब उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। 29 अक्टूबर 1922 को छपरा जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री चुने जाने के पश्चात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की गया में हुई बैठक में 16 दिसंबर 1922 को शामिल होते हुए यह प्रस्ताव रखा थी बोधगया का महाबोधि मंदिर बौद्धों का है उन्हें वापस मिलना चाहिए। इस घटना के पश्चात उनके मन में बौद्ध धर्म के प्रति एक सहानुभूति पैदा हुई। इसके कुछ दिन पश्चात ही जनवरी 1923 ई. में जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री पद से इस्तीफा देने के पश्चात नेपाल की यात्रा पर वे निकल गए। इस यात्रा के दौरान वे वहां के अनेक बौद्ध स्थल, बौद्ध धर्म गुरु के संपर्क में आए। यात्रा से वापस आने के पश्चात पुनः वे राजनीतिक जीवन में सक्रिय हुए। इसी क्रम में 1925 ई. में उनका परिचय बौद्ध भिक्षु भदंत आनंद कौशल्यायन से हुआ।

बौद्ध धर्म संबंधित अध्ययन के उद्देश्य से तिब्बत यात्रा के दौरान न केवल वहां के बौद्ध सांस्कृतिक-एतिहासिक विरासतों को काफी गहराई से समझने का प्रयास किया बल्कि वहाँ बौद्ध धर्म में व्याप्त झूठी धारणाओं, मान्यताओं जो तार्किकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, पर भी प्रहार किया। 5 अगस्त 1934 को तिब्बत यात्रा के दौरान लिखे एक पत्र में उन्होंने तिब्बत के साथ-साथ अपने देश भारत में भी बौद्ध धर्म में मौजूद झूठे मान्यताओं पर कटाक्ष किया है। अपने यात्रा वृतांत को इस पत्र में लिखते हुए वे कहते हैं 'सभी धर्म स्थान झूठ के अड्डे हैं। शायद उतनी झूठी कथाएं और जगह नहीं मिलेंगे, जितनी धर्म के दरबार में। धर्म वस्तुतः झूठ की आयु को लंबा करने में बड़ा सहायक होता है' तिब्बत के एक स्थान (रे- दिङ लामा से संबंधित) का उल्लेख करते हुए राहुल सांकृत्यायन वहां प्रचलित एक दंतकथा का उल्लेख करते हैं। वह कहते हैं कि रे- दिङ लामा (जिनकी आयु उस दौरान 22 वर्ष की थी) के पैर का एक काले पत्थर पर निशान कांच के भीतर रखा हुआ है। श्रद्धालु भक्तों से कहा जाता है कि बचपन में लामा रिंपो छे ने पैर को महज स्वभाव से पत्थर पर रख दिया था और उस पर यह निशान उतर आया। यदि समंतकूट और नर्मदा नदी की पहाड़ी पर बुद्ध के बड़े-बड़े पद चिन्ह उतर सकते हैं, तो यहां एक अवतारी लामा के छोटे से पद चिन्ह के उतरने में कौन सी असंभव बात हो सकती है’?[4]

राहुल सांकृत्यायन 25 नवंबर 1904 को अपने लिखे एक अन्य पत्र में तिब्बती लामा (ग्य-गर लामा) द्वारा उनके मेजबान रहे एक स्थानीय बूढ़े-बूढ़ी की कांच की मालाओं में जप को और पुण्यदायी बनाने के उद्देश्य से फूँक मारने के प्रकरण पर सवाल उठाते हैं।[5]



[1] बरनवाल जगदीश प्रसाद (2019) राहुल सांकृत्यायन जिन्हें सीमाएं नहीं रोक सकी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 9  

[2] वही, पृष्ठ सं. 9

[3] बरनवाल जगदीश प्रसाद (2019) राहुल सांकृत्यायन जिन्हें सीमाएं नहीं रोक सकी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 16

[4] सांकृत्यायन पंडित राहुल (2022) मेरी तिब्बत यात्रा, लोक भारती प्रकाशन (चतुर्थ संस्करण) नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 23

[5] सांकृत्यायन पंडित राहुल (2022) मेरी तिब्बत यात्रा, लोक भारती प्रकाशन (चतुर्थ संस्करण) नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 39

 

Friday 5 May 2023

जिला शिक्षा अधिकारी की अपील पर शिक्षक आयोजित कर रहे हैं बच्चों के लिए ‘समर कैंप’

 जिला शिक्षा अधिकारी श्री अरविंद मिश्रा जी की जिले के शिक्षकों से स्वेच्छिक रूप से बच्चों के लिए समर कैंप आयोजित करने की अपील रंग ला रही है। वार्षिक परीक्षा खत्म होने के साथ ही जिले के शिक्षक अपने-अपने शालाओं में बच्चों के लिए 5 से 10 दिन की योजना बनाकर स्वेच्छिक रूप से सुबह 08: 00 से 10: 30 बजे तक समर कैंप का आयोजन कर रहे हैं। जिले में कुछ स्कूल इसे पूर्ण कर चुके हैं तो बहुत से स्कूल इसे अभी संचालित कर रहे हैं या संचालित करने हेतु योजना निर्माण पर कार्य कर रहे हैं। इस समर कैंप के माध्यम से शिक्षक बच्चों में कल्पनाशीलता, आत्मविश्वास, तार्किक सोच, सृजनशीलता, अभिव्यक्ति जैसे कौशल बालगीत, मौखिक भाषा विकास व एकाग्रता विकसित करने वाले खेल, चित्रकारी, कागज व मिट्टी के खिलौने निर्माण, कहानी निर्माण, रचनात्मक लेखन, जैसे रोचक गतिविधियों के माध्यम से समृद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। बच्चे भी पूरे उमंग व उत्साह के साथ इसे आनंद उत्सव के रूप में मनाते हुए अपने भाषाई, गणितीय व अन्य कौशल को समृद्ध कर रहे हैं। इन-इन गतिविधियों में बच्चे ले रहे रुचि –

·    दर्जनों बालगीत (हिंदी एवं अंग्रेजी भाषी) को हाव-भाव के साथ गाना (एक बुढ़िया ने बोया दाना, पहाड़ी पर पेड़ था, चूहों ! म्याऊँ सो रही है, हमने तीन चीजें देखी, श्यामा की गुड़िया के हाथ नहीं, आहा टमाटर बड़े मजेदार,  मम्मी ओपेन द डोर, फाइव लिटिल मंकी... मेरे नौ बतख थे, पानी में तैर रहे थे आदि)  

·       ओरिगेमि पेपर से तितली बनाना। 

·       न्यूज़ पेपर से टोपी बनाना।

·       स्वेच्छा से ड्रौइंग-पेंटिंग बनाना एवं उसके संदर्भ में अपने अनुभव 5 से 10 वाक्य में लिखना

·        कहानी बनाना सिखाना एवं इसकी निरंतरता में बच्चों से एक अलग कहानी बनाना।

·       भाषा एवं गणित के रोचक खेल जैसे - नंबर गेम, नंबर जंप, आलू खाओ पंखा खाओ, शब्द जाल

·       मिट्टी के खिलौने बनाना, उसे रंगना एवं उसकी लेबलिंग करना।  

बेमेतरा विकासखंड अंतर्गत शा. प्रा. शाला बसनी (7 दिवसीय), शा. प्रा. शाला निनवा (10 दिवसीय), शा. प्रा. एवं उच्च प्रा. शाला कठौतिया (5 दिवसीय) के शिक्षक समर कैंपआयोजन को पूर्ण कर चुके हैं। जबकि शा. प्रा. शाला गुनरबोड़, शा. प्रा. शाला मटका, शा. प्रा. शाला हथमुड़ी, शा. प्रा. शाला नरी (सभी बेमेतरा विकासखंड) शा. प्रा. शाला तेंदुभाठा, शा. प्रा. शाला अतरझोला, शा. प्रा. शाला बीजागोंड (सभी साजा विकासखंड) शा. प्रा. शाला जामगाँव, शा. प्रा. शाला तबलघोर, शा. प्रा. शाला तिवरईया (सभी बेरला विकासखंड) शा. प्रा. शाला तिलकापारा (नवागढ़ विकासखंड) के शिक्षक स्वेच्छिक रूप से चारों विकासखंड में मौजूद अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के सदस्यों के सहयोग से आयोजित कर रहे हैं।

          संकुल समन्वयक सहित जिला/विकासखंड स्तर के शिक्षा विभाग के अधिकारी, डाइट व्याख्याता आदि आयोजित हो रहे इन समर कैंप में भी सहभागिता कर शिक्षक व बच्चों के कार्यों की सराहना कर रहे हैं। उन्हें उत्साहित करने के साथ-साथ इस आयोजन में अधिक-से-अधिक संख्या में स्वेच्छिक रूप से शामिल होने की शिक्षकों से अपील कर रहे हैं।