Tuesday 20 November 2018

"देव उठनी" त्योहार


आज छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव पूर्व संध्या पर दीपावली जैसा माहौल है। पटाखे, दीप, झालरों से पूरा शहर जगमगा रहा। अवसर है "देव उठनी" त्योहार का। बिहार में दीपावली के बाद जो महत्व छठ पूजा का है वही महत्व यहां देव उठनी का है। मान्यता है कि आषाढ़ एकादशी के दिन देव सुसुप्तावस्था में चले जाते हैं इसलिए इस दिन से शुभ काम जैसे विवाह आदि बंद हो जाते हैं। कार्तिक एकादशी के दिन "देव उठनी" त्योहार के बाद से ही सभी शुभ काम शुरू हो जाते हैं। इस दिन गन्ने से मंडप बनाकर तुलसी का शालिग्राम से विवाह कराया जाता है।

Tuesday 6 November 2018

सरकार चलाने वाले लोग देशभक्त या धर्मभक्त ?


जेएनयू में तथाकथित देश विरोधी नारे लगने की घटना के बाद देशद्रोही, देशभक्त, राष्ट्रवाद शब्द विमर्श का मुद्दा बन गया था। जेएनयू में इन मुद्दों पर अनेकों दिन तक खुले सत्र में चर्चा आयोजित हुए जिसमें प्रोफेसर अपूर्वानंद के साथ-साथ देश भर के अकादमिक जगत के साथ-साथ सामाजिक, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने विचार प्रेषित किए। लगभग समस्त मीडिया संस्थान भी  इस विमर्श पर कई दिनों तक पैनल बनाकर चर्चा करते रहे। इन चर्चाओं में देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटने वाले गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते नज़र आए कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है। उसके प्रति हमदर्दी दिखाने वाला भारतीय चाहे वह हिंदू, मुसलमान या किसी भी धर्म का हो, देशद्रोही है। इस दौरान कई गड़े मुर्दे भी उखड़े जिसपर जान-बूझकर विमर्श कर हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया। जैसे भारत व पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के समय भारतीय मुसलमानों की बड़ी संख्या द्वारा पाकिस्तानी टीम को सपोर्ट करना, उनकी जीत पर पटाखे फोड़कर जश्न मनाना, शाहिद अफरीदी, शोएब अख्तर सहित अन्य पाकिस्तान के स्टार क्रिकेट खिलाड़ियों के प्रशंसक होने को मीडिया पैनलिस्ट ने देशद्रोही कार्य करार दे दिया। ऐसा कर उन पैनलिस्टों ने एक धारणा बना दी कि आपने यदि किसी भी मामले में पाकिस्तान का पक्ष लिया तो आप देशद्रोही करार दिये जाएंगे। मुसलमानों से घृणा करने वाले इन नफरत के सौदागरों ने इस्लामी झंडे को पाकिस्तानी झंडा बताकर उनके पाकिस्तानी समर्थक होने, देशद्रोही होने का काफी दुष्प्रचार किया। मेरे कहने का ये तात्पर्य नहीं है कि हमारे ही देश में रहकर हमारे ही देश के खिलाफ कोई ऐसा काम करे जिससे देश की सुरक्षा को खतरा हो, को देशद्रोही नहीं कहा जाए बल्कि मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कि हमारे देश का कोई भी व्यक्ति चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान देश के इज्जत, प्रतिष्ठा की बेला में अपने देश भारत को छोड़कर यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, नेपाल या अन्य देशों का पक्ष ले, अपने देश की खुफिया सूचनाएँ दुश्मन देश को पहुंचाए तो बेशक उन्हें देशद्रोही कहा जाए।
          लेकिन ये नियम कानून सभी के लिए हो। किसी को कोई रियायत नहीं मिले। सरकार भी खुद इसे अमल में लाए। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि सरकार भी इस मुद्दे पर काफी ढुलमुल रही है। हाल ही में असम में चुनाव जीतने के बाद केंद्र व कई राज्यों की बीजेपी सरकार जिस प्रकार पाकिस्तानी, बांग्लादेशी हिंदू नागरिकों के साथ व्यवहार कर रही है, उनकी देशभक्ति पर भी प्रश्नचिन्ह उठता है। हाल ही में गृह मंत्रालय ने सिटिज़न एक्ट 2016 में संशोधन करते हुए देश के 7 राज्यों के गृह सचिवों व जिलाधिकारियों को यह शक्ति दी है कि इस एक्ट के सेक्शन 6 के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से बिना वैध दस्तावेज़ के आए बौद्ध, ईसाई, हिंदु, जैन, पारसी आदि अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों को इन देशों की सीमा से लगे राज्य भारतीय नागरिकता के सर्टिफिकेट दे सकते हैं यदि वह 6 वर्ष भारत में रह चुका है। पहले यह अवधि 11 वर्ष थी, 2016 में संशोधन के बाद इसे घटाकर 6 वर्ष कर दिया गया।[i] हैरत की बात यह है कि इसमें इस्लामी धर्मावलम्बी शामिल नहीं हैं। एक तरफ केंद्र सरकार 1971 ई. के बाद भारतीय सीमा में बिना इजाजत आए बंग्लादेशी शरणार्थियों जिसमें अधिकांश मुस्लिम हैं, को घुसपैठिए, देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए भारतीय नागरिकता देने से इनकार कर असम, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों से उन्हें वापस अपने देश बांग्लादेश भेजना चाहती है तो वहीं हिंदू बांग्लादेशी शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने की बात कर रही है। इसी प्रकार राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार पाकिस्तान से आए विस्थापित हिंदू परिवारों के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए रियायति दर पर आवासीय भूमि आवंटित करने की बात करती हैं। राजस्थान में पाकिस्तानी विस्थापितों के लिए काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था सीमांत लोक संगठन के अनुसार राजस्थान में कुल 5 लाख पाकिस्तानी हिंदू विस्थापित बसे हैं।[ii] यहाँ सवाल यह उठता है कि जब बिना वैध दस्तावेज़ के साथ हमारे देश में रह रहे बांग्लादेशी यदि देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं तो इन 5 लाख हिंदू पाकिस्तानी के प्रति सरकार की सोच इतनी सकारात्मक रखते हुए उन्हें अपने देश में क्यों बसाना चाहते हैं? जबकि ये 5 लाख विस्थापित हिंदू ऐसे देश पाकिस्तान से संबंधित हैं जिन्हें हम दुश्मन देश मानते हैं। इस दृष्टि से तो इनसे देश की सुरक्षा को बांग्लादेशियों से भी अधिक खतरा है। कोई भी आतंकी हिंदू शरणार्थी बनकर पाकिस्तान के लिए नापाक हरकतों को अंजाम दे सकता है। पाकिस्तान के मुक़ाबले बांग्लादेश से तो ऐसी कोई शत्रुता ही नहीं है। एक समुदाय/धर्मावलम्बी के साथ राष्ट्रीयता के आधार पर व्यवहार, तो दूसरे के साथ धार्मिकता के आधार पर व्यवहार ! सिर्फ इसलिए कि जिसे बाहर भेजने की बात कर रहे हैं वे मुसलमान हैं जिन्हें सरकार की विचारधारा के लोग अपना शत्रु समझते हैं। और जिसको बसाने की बात कर रहे हैं वे हिंदू हैं। उनके प्रति हमदर्दी केवल इसलिए है कि दोनों का धर्म एक है।
          जब पाकिस्तानियों व बांग्लादेशियों के साथ उनकी राष्ट्रीयता नहीं बल्कि धर्म के आधार पर ही व्यवहार करना है तो फिर ये देशभक्ति का ढोंग करने का क्या मतलब??? जिन बांग्लादेशियों के प्रति आप घृणा सूचक शब्द घुसपैठिए प्रयुक्त करते हैं, यदि वह हिंदू बांग्लादेशी हो, जिस पाकिस्तानी के खिलाफ आप दिनरात जहर उगलते हैं यदि वे हिंदू पाकिस्तानी हों तो वह घुसपैठी, जासूस या आतंकी नहीं हो सकता क्या? फिर उन्हें हमारे देश में बसने की पूरी इज्जत के साथ इजाजत क्यों है? उन्हें वापस क्यों नहीं भेजा जाता।
          यदि सरकार में बैठे लोग सचमुच देशभक्त हैं तो किसी भी देश के नागरिक, चाहे वह अमेरिकी, बांग्लादेशी या पाकिस्तानी हो, उसे उसकी राष्ट्रीयता के आधार पर धार्मिकता की परवाह किए बिना उन्हें एक विदेशी के रूप में देखते हुए व्यवहार करना चाहिए। सिटीजन एक्ट 1955 में फिर से संसोधन कर यह कानून बनाया जाय कि बिना वैध दस्तावेज़ के भारत आए विदेशियों को बसने की इजाजत नहीं दी जा सकती। विशेष रूप से देश की सुरक्षा को देखते हुए पाकिस्तान के लोगों को, चाहे वह किसी भी धर्म के हों। नहीं तो सरकार में बैठे लोगों को खुल कर इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि वह देशभक्त नहीं बल्कि देशभक्त की खाल ओढ़े हिंदू व संबंधित संप्रदाय के धर्मभक्त हैं। और इस धर्मभक्ति के लिए देशभक्ति भी कुर्बान है। वैसे आपकी इस धर्मभक्ति से एक बात तो स्पष्ट है कि पाकिस्तान या बांग्लादेश के मुसलमानों से हमदर्दी दिखाने वाले हमारे देश के मुसलमान और आपमें कोई अंतर नहीं है। दोनों को अपने धर्मावलंबी प्रिय हैं चाहे वह किसी देश के हों। इसलिए अगली बार उनके पाकिस्तानी मुस्लिमों के प्रति हमदर्दी दिखाने पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबां में झांक लेना।
साकेत बिहारी
अजीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन
डी. आई. बेमेतरा (छत्तीसगढ़)



[i] http://www.prsindia.org/uploads/media/Citizenship/Citizenship%20(A)%20bill,%202016.pdf
[ii] https://aajtak.intoday.in/story/vasundhra-govt-relaxed-land-allotment-policy-now-pak-hindu-migrants-can-purchase-land-in-rajasthan-1-1034901.html?fbclid=IwAR2-98sw6X6DU2urZTrywHSVv0icQ_1FbmG2GLSsz1FVxZVYvTolWgW-r20

Tuesday 9 October 2018

गुजराती व हिंदी भाषियों के बीच तनाव


बिहार के एक मजदूर ने अपने lust के वशीभूत होकर गुजरात में ठाकोर जाति के एक 14 महीने की बच्‍ची से बलात्कार किया। कोई शक नहीं कि बहुत ही घटिया व जघन्य अपराध किया उसने। मुझे कोई हमदर्दी नहीं उस बलात्कार के आरोपी से। बहुत ही कठोर सजा में हम भी मांग करते हैं, और वैसे भी पोक्सो एक्ट के तहत उसे फांसी की सज़ा होनी ही है।

लेकिन इस एक मजदूर की गलती की सज़ा करोड़ों कामगारों को देना किसी भी दृष्टि से जायज नहीं है। उस एक मजदूर के आधार पर आप लाखों, करोड़ों को जज नहीं कर सकते। आपके इस स्टैंड के आधार पर सोचें तो पिछले कुछ वर्षों से मोदी टाइटल के आधे दर्जन गुजरातियों के भ्रष्टाचार के मामले जिस तरह सामने आए हैं, उस हिसाब से तो पूरा गुजराती समाज भ्रष्टाचारी साबित हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि देश के सभी क्षेत्रों से गुजरातियों को भ्रष्टाचारी का ठप्पा लगा समस्त उद्यमों से निकाल दिया जाए तो आपको या किसी भी गुजराती भाई को भी ये ज्यादती लगेगी। फिर आप भी मेरी ही दलील देंगे कि कुछेक के आधार पर...

सर्वविदित है कि बलात्कार एक जघन्य अपराध है। लेकिन इसपर केवल प्रवासी मजदूरों का पेटेंट नहीं है। इन प्रवासि मजदूरों पर उंगली उठाने से पहले कभी अपने गिरेबां में भी झांक लीजिये। आत्म ग्लानि होने लगेगी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2015 में गुजरात में दर्ज मामलों में 99.4% पीड़िता के सगे संबंधी ही निकले। यानि आपके अपने ही सगे, संबंधी लोग आपके बहु बेटियों से बलात्कार करते रहे उस समय आपके मुंह से इनका विरोध करने की एक आवाज़ नहीं निकली। गज़ब ...

यदि बलात्कारी होने की सज़ा किसी को खदेड़ना है तो इनसे पहले आपको अपने गुजराती बलात्कारी सगे संबंधियों को पहले खदेडिये क्योंकि 2 वर्ष पहले वे इस जघन्य अपराध को अंजाम दे चुके हैं। नहीं तो ये राष्ट्रीय एकता खंडित करने वाली गृहयुद्ध को बढ़ावा देने वाली पॉलिटिक्स बंद कीजिए। बाला साहेब ठाकरे, राज ठाकरे बनना बंद कीजिए।

ये मत भूलिए कि आज यदि आपका state इतना विकसित है तो इसमें आपसे भी ज्यादा इन प्रवासी मजदूरों के खून पसीने का योगदान है। गुजरात जितना आपका है उतना ही इनका भी। ये अमन पसंद मजदूर हैं, इन्हें केवल आजीविका कमाने से लेना देना होता है। ओवर ड्यूटी से इन्हें फुरसत कहाँ जो राह चलते किसी का बलात्कार या छेड़छाड़ को अंजाम दें।

बाकी जिस सत्तारूढ़ सरकार से आपको शह मिल रही है आपकी विरोधी होने के बाद भी वह केवल आपको अप्रत्यक्ष रूप से इसलिए सपोर्ट कर रही है ताकि मीडिया का ध्यान राफेल सौदे से इधर आ सके।


Tuesday 2 October 2018

निजी कंपनियां देश की संपत्ति कर रही बर्बाद

जरा सोचिये

एक सरकार अरबों रुपये खर्च कर कोई जनोपयोगी योजना शुरू करती है। योजना की शुरुआत करने में करोड़ों रुपयों की हेराफेरी की बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

लेकिन सत्ता बदलते ही दूसरी सरकार एक साजिश कर निजी स्वार्थ के लिए उस जनोपयोगी योजना को बंद करवा देती है, उसके जगह पर कुछ और योजना लाने, लागू करने की जुगत लगाती है ताकि इसी बहाने वह भी करोड़ों की राशि का गबन कर सके।

या

निजी एम्बुलेंस सेवा देने वाले लोगों के इशारों पर जान बूझ कर इन सेवाओं को बंद करवाया जाता है। और सत्ता में बैठे लोग अपने कमीशन की उगाही इन निजी एम्बुलेंस कंपनियों से की जाती है।

हर तरफ से नुकसान केवल देश की जनता का होता है। हम जनता को इस भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की आवश्यकता है नहीं तो ये भ्रष्ट नेता लोग पूंजीपतियों के साथ मिलकर एकदिन हमारी आपकी लंगोटी भी खींच ले जाएगी।


किसानों पर बर्बर पुलिस कार्रवाई निंदनीय।


हम इस मुगालता में जीते हैं कि पुलिस, सेना हमारी रक्षा के लिए होते हैं। वास्तविकता यह है कि ये Real life कटप्पा हैं। सत्ता यदि बोल दे कि किसान हमारी सत्ता के लिए खतरा हैं तो उन्हें अपने अधिकार, सुविधा की मांग कर रहे निहत्थे निर्दोष किसानों को लाठीचार्ज, आंसूगैस के गोले फायर कर रौंदते देर नहीं लगती। जैसा आज 23 सितंबर 2018 को अपनी मांग के लिए हरिद्वार से चलकर दिल्ली आए किसानों के साथ हुआ। इन्हें दिल्ली में घुसने तक नहीं दिया गया।

अब सत्ता के दलाल दलील देंगे कि उन्हें बैरिकेट तोड़ने, कानून हाथ में लेने की क्या जरूरत थी ???
लेकिन इसका जवाब देने में उनके मुंह में दही जम जाएगा कि आखिर पिछले 4 वर्षों के दौरान सरकार इनको वे सुविधाएं क्यों नहीं दे रही जिससे ये किसान आंदोलन करने को मजबूर हो रहे हैं। आखिर इन किसानों का कसूर क्या था जो दिल्ली की सीमा में इन्हें घुसने नहीं दिया गया? लोकतंत्र में हर किसी को अपनी मांग के लिए विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। सोचने वाली बात है कि आखिर क्या कारण है जो लगातार ये किसान सैकड़ों हज़ारों किलोमीटर कष्टदायक यात्रा कर आपके संसद द्वार तक आते हैं, अपनी मांगों से अवगत कराने के लिए आपसे मिलने की गुहार लगाते हैं, आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए मरे चूहे, कच्चे मांस खाते हैं, मानव मूत्र से लेकर वृष्टा तक खाते हैं। आंदोलन की असफलता में फिर से नया आंदोलन खड़ा करते हैं। बावजूद इसके आप इतने निर्दयी बने बैठे हैं कि आपके कान पर जूं तक नहीं रेंगता।

आखिर पिछली सरकार से इनकी इच्छाएं पूर्ण नहीं हुई तभी तो मजबूर होकर अपनी मांग पूरी करने के लिए आपको मौका दिया। लेकिन सत्ता में आकर अब आप भी वही काम कर रहे हैं। तो फिर पिछली सरकार में और आपमें क्या अंतर है???? दोनों तो एक ही थाली के चट्टे बट्टे साबित हो रहे हैं।

इसमें कोई हैरत की बात नहीं होगी जो सत्ता के दलाल, गोबरबुद्धि लोग इन किसानों को किसी पार्टी, विचारधारा से जोड़ते हुए इन्हें कांग्रेसी, वामपंथी, माओवादी समर्थक और न जाने क्या क्या साबित कर देंगे।


Thursday 20 September 2018

आर्थिक आधार पर आरक्षण : केवल एक जुमला।

एक तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर बीजेपी के बड़े-बड़े नेता सार्वजनिक मंचों से कहते नज़र आते हैं कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ पिछड़ा आरक्षण खत्म नहीं किया जा सकता। तो दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री रामबिलास पासवान सहित हमारे सांसद महोदय चिराग पासवान गरीब सवर्णों को भी आरक्षण देने अर्थात आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू करने की पैरवी कर रहे हैं।
          संघ प्रमुख की बात को संविधान की समानता के अधिकार के आधार पर तो एकदम सत्य कहा जा सकता है। बाकी सांसद जी की बातें आनेवाले 2019 चुनाव के बाद बिल्कुल ऐसे ही जुमला साबित होंगी जैसे नरेंद्र मोदी जी की देश के प्रत्येक नागरिकों को 15 लाख मिलने वाली बात, अरविंद केजरीवाल की जनलोकपाल की बात, बाबा रामदेव के मोदी सरकार आने के बाद 35-40 रुपए प्रति लीटर पेट्रोल मिलने की बात, नीतीश कुमार की बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की बात। और अन्य नेताओं के वादे भी आप जोड़ सकते हैं।
          दरअसल आज जितने भी नेता, मंत्री लोग आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू कर गरीब सवर्णों को भी इसका लाभ देने की बात करते हैं उनके लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र घूम लीजिये, वहाँ सवर्णों की भारी भरकम जनसंख्या देखकर आपको पता चल जाएगा कि सुरक्षित सीट के प्रत्याशियों को ऐसा लोभ क्यों देना पड़ता है???दरअसल उन सवर्ण वोटों को साधे रखने के लिए ये सवर्ण आरक्षण का शिगूफा छोड़ा गया है।
          उनको उल्लू बनाकर ये लोग केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं।

Friday 14 September 2018

हिंदी दिवस के शुभकमना संदेश में अंग्रेजी का अपमान क्यों ?




कोई एक भाषी बनकर आप देश - दुनिया को जान समझ नहीं सकते। यदि हम हिंदी भाषी हैं तो पश्चिमी दुनिया की सभ्यता, संस्कृति को जानने के लिए हमारे लिए अंग्रेजी उतना ही जरूरी है जितना एक पश्चिमी देश के अंग्रेजी भाषी नागरिक को भारतीय सभ्यता-संस्कृति को जानने, समझने के लिए हिंदी।

वैश्वीकरण के इस दौर में व्यापार, पर्यटन, मीडिया आदि क्षेत्र में संभावनाओं को देखते हुए पश्चिमी या गैर हिंदी अंग्रेजी भाषी देशों में भी हिंदी भाषा सीखने की प्रवृत्ति वैसे ही बढ़ रही है जैसे हमलोगों में अंग्रेजी सीखने की प्रवृत्ति।

इसलिए हिंदी दिवस की बधाई दीजिये लेकिन अंग्रेजी सहित अन्य दूसरे mainstream भाषाओं का अपमान कर नहीं बल्कि हिंदी के साथ-साथ उनका भी सम्मान कर।

मन से इस बासी ख्याल को निकालिये कि ये हमारे विरोधी रहे अंग्रेजों की भाषा है इसलिए हिंदी दिवस पर अंग्रेजी का अपमान करने से आप राष्ट्रवादी हो जाएंगे।

याद रखें अंग्रेजी भाषा के अपमान से एक ब्रिटिश नागरिक को भी उतना ही कष्ट होता है जितना किसी के द्वारा हिंदी के अपमान करने से हम आपको।

बाकी हिंदी दिवस की शुभकामनाएं।

Monday 3 September 2018

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को 'अर्बन नक्सली' कहना कितना उचित?

जून 2018 में भीमा-कोरेगांव से जुड़े मामले में पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं सुधीर धवाले, महेश राऊत, सोमा सेन, रोमा विल्सन, मानवाधिकार अधिवक्ता सुरेन्द्र गाडलिंग को दिल्ली, मुंबई, नागपुर आदि विभिन्न स्थानों से गिरफ्तार किया था। इनसे संबंध होने के शक के आधार पर पुनः 29 अगस्त 2018 को पुणे पुलिस ने 5 अन्य सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वेरनोन गोन्जाल्विस और अरुण परेरा को गिरफ्तार किया। हैरत की बात यह है कि भीमा-कोरेगांव में दलितों के शौर्य प्रदर्शन कार्यक्रम का आयोजन करनेवाले लोगों की पहचान कर गिरफ्तार किया जा रहा है लेकिन इस कार्यक्रम पर हमले कर हिंसा फैलाने का आरोपी संभाजी भिड़े, मिलिंद एकबोटे आदि सत्ता संरक्षण का फायदा उठाते हुए खुलेआम घूम रहे हैं। मामले को संगीन बनाने के लिए इनके पास से प्रधानमंत्री की हत्या करनेसंबंधी एक पत्र भी बरामद होने की बात के आधार पर इस शौर्य प्रदर्शन को माओवादियों से जोड़ा जा रहा है। जबकि इन सभी कार्यकर्ताओं की पृष्ठभूमि यदि खंघालें तो सभी अत्यधिक पढ़े-लिखे, तार्किक-वैचारिक, मृदुल स्वभावी, समाज विज्ञानी, समानता के पोषक, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं जो कभी भी नक्सली हिंसा का समर्थन करते हैं। बावजूद इसके सामाजिक न्याय का संदेश देने वाले इन कार्यकर्ताओं को सरकार वामपंथी रुझान रखने वाले मानती है। यदि ये सामाजिक न्याय की बात करते भी हैं तो ये संवैधानिक ही है। फिर सरकार को आखिर इनसे समस्या क्या है?
          इनकी गिरफ्तारी के बाद एक नया शब्द अर्बन नक्सलवादआजकल विमर्श का मुद्दा बना हुआ है। आखिर क्या है यह अर्बन नक्सलवाद’? सुरक्षा एजेंसियां इसे इस रूप में व्याख्यायित करती है कि यह माओवादियों की एक तरह की रणनीति है, जिसमें शहरों में नक्सल गतिविधि व नेतृत्व तलाशने हेतु मध्यवर्गीय कर्मचारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों व धार्मिक अल्पसंख्यकों को जोड़ते हुए उन्हें नक्सल बनने का प्रशिक्षण देने का काम किया जाता है। सरकार मानती है कि अर्बन नक्सलवादसंबंधी इस योजना की जानकारी उन्हें 2007 में बिहार के जमुई जिले में हुई नक्सलियों के नौवें कांग्रेस से प्राप्त दस्तावेजों के माध्यम से मिली। सरकार मानती है कि ये अर्बन नक्सली राज्य की शासन व्यवस्था को कमजोर करने का काम करती है, जंगलों में रहनेवाले नक्सलियों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराती है। सरकार के खिलाफ माहौल बनाकर उन्हें भड़काती है।
          इस संबंध में मेरा मानना है कि 2007 में सुरक्षा एजेंसियों के हाथ लगे ये अर्बन नक्सलीसंबंधी दस्तावेज़ भी जून 2018 में गिरफ्तार अर्बन नक्सलियों के पास से प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले दस्तावेज़ की तरह ही फर्जी हो सकते हैं। इन फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सत्ता अपने विरोधियों के आवाज़ दबाने, उन्हें कुचलने के लिए माध्यम के रूप में प्रयुक्त करती रही है। यहाँ सवाल उठता है कि शोसितों के लिए आवाज़ उठाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को नक्सलवादियों के फ्रेम में डालना कितना उचित है? उत्तरस्वरूप कुछ बातों को समझना आवश्यक है-
          यह लड़ाई दो विचारधाराओं की है। जिसमें एक तरफ है कट्टर हिंदुवादी वर्ग जिन्हें सामाजिक समानता से कोई विशेष मतलब नहीं है तो दूसरी तरफ हैं सामाजिक न्याय व समानता की बात करने वाले तार्किक बुद्धिजीवी वर्ग। सत्ताधारी हिंदू विचारधारा वाले एक रणनीति के तहत उनके विचारों से मेल नहीं रखनेवालों को ऐसे ही किसी न किसी संगीन मामलों में फाँसती रही है। इस कारण मुस्लिम-ईसाई व वामपंथी विचारधारा वालों से इनकी झड़प हमेशा चलती रहती है। साथ ही सत्तानसीं होने का इन्हें पर्याप्त लाभ भी मिलता है। इसे इस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है कि आज यदि कोई मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति किसी संदिग्ध गतिविधियों में हथियार के साथ गिरफ्तार होता है तो हिंदू धार्मिक-वैचारिक कट्टरता का लबादा ओढ़े मीडिया, लोग न्यायालय के फैसले के पूर्व ही उसके नाम के साथ आतंकी शब्द जोड़ सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय को आतंकी, देशद्रोही घोषित कर देते हैं। देश-समाज में उनके प्रति इतनी नफरत फैला देते हैं कि निर्दोषों में भी बाकी जनता को आतंकी नज़र आने लगता है। लेकिन ऐसे ही मामलों में गिरफ्तार हिंदू युवकों के लिए न आतंकी शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाता न ही सम्पूर्ण हिंदू समुदाय को आतंकी घोषित कर दिया जाता है। चाहे वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करने में राजस्थान से गिरफ्तार हिंदू व्यवसायी हो, अमृतसर से गिरफ्तार रवि, बीजेपी आईटी सेल में काम करने वाला ध्रुव सक्सेना के साथ हो या हाल ही में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा विस्फोटक सामग्रियों के साथ गिरफ्तार सनातन संस्था के 5 हिंदू युवक हों। ये सारे मामले एक से दो दिन में ज़मींदोज़ कर दिये जाते हैं। 
          इन कट्टर हिंदुवादी विचारधारा के लोगों को सबसे ज्यादा समस्या पढ़े-लिखे तार्किक लोगों से है। क्योंकि उनके समक्ष इनकी आस्था, अंधविश्वास ध्वस्त हो जाती है। निरुत्तरता की स्थिति में ये उनके प्रति हिंसात्मक हो जाते हैं, जिसका शिकार नरेंद्र दाभोलकर, एस. एम. कलिबुर्गी, गोविंद पनसारे, गौरी लंकेश आदि हुए। इन्हें समस्या ऐसे लोगों से भी है जो उनकी भेदभाव आधारित जाति व्यवस्था, प्रजातीय श्रेष्ठता की आलोचना कर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय की बात करते हैं। ऐसे बुद्धिजीवी लोगों को ये वामपंथी विचारधारा के फ्रेम में रखते हैं। आज कट्टर हिंदुवादी विचारधारा की पहुँच समाज, मीडिया से लेकर औद्योगिक घरानों तक है। सत्ताधारियों से मिलकर उनके विशेषाधिकारों का गलत प्रयोग कर इस विचारधारा के उद्योगपति, पूंजीपति मानवाधिकार हनन की परवाह किए अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। इन कृत्यों से आहात शोषित जनता को मजबूरन क्षेत्र के बुद्धिजीवियों से संपर्क कर न्यायालय के शरण में जाना मजबूरी हो जाती है। ऐसे में एक पढ़े-लिखे, स्वतंत्र सोच के व्यक्ति यदि अपने स्वाभाविक गुण के कारण शक्ति संपन्न वर्ग द्वारा सामाजिक या आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति, समुदाय पर होने वाले अन्याय बर्दास्त नहीं कर पाता है। उनके व्यक्तित्व में मौजूद मानवीय मूल्य उन्हें कमजोर या शोषितों के पक्ष में खड़ा होने को मजबूर कर देता है।
          ऐसी स्थिति में यदि कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता उन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, संसाधन विहीन जनता को कानूनी सलाह देने के साथ-साथ उन्हें अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक कराता है तो वह केवल अपने कर्तव्य का निर्वाहन करता है न कि उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काता है। न ही ये किसी हिंसात्मक कार्रवाई का सहारा लेने का निर्देश देते हैं। बावजूद इसके पूँजीपतियों, निजी कंपनियों द्वारा उन्हें विद्रोह भड़काने वाले एक शत्रु के रूप में देखा जाता है। परिणामस्वरूप पूँजीपतियों के इशारों पर इन्हें रास्ते से हटाने के लिए इनपर अर्बन नक्सलीका ठप्पा लगाकर सरकार द्वारा उन्हें नज़रबंद करवा दिया जाता है। न्यायप्रियता की यह भावना माक्र्स, लेनिन, माओत्से, गांधी, अम्बेडकर, फुले के विचारों को पढ़कर भी कोई भी जाति-धर्म से ऊपर उठकर शोषित दलित-आदिवासियों को न्याय दिलाने की भावना दिल में विकसित कर सकते हैं।
          पूँजीपतियों के साथ-साथ सत्तारूढ़ सरकार की आँखों में ये समाजसेवी चुभते हैं क्योंकि ये सत्ता के पीछे नहीं बल्कि उनके समानान्तर चलने, गलत नीतियों की आलोचना करने में विश्वास करते हैं। एक तरह ऐसा अतः सरकार को इन सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सलीकहना, उनपर हिंसा भड़काने का आरोप लगाना बेबुनियाद है। सरकार को चाहिए कि वह पूँजीपतियों नहीं बल्कि जनता के सेवार्थ काम करते हुए एक स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित करे।             
(मूलतः नई दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक समाचार पत्र वीक ब्लास्ट’ 01-15 सितंबर 2018 अंक में प्रकाशित) 

    

Saturday 25 August 2018

वर्धा (महाराष्ट्र) का ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर जहां अस्पृश्यों को सबसे पहले मिला प्रवेश (Laxmi Narayan Temple Of Wardha (Maharashtra) where Untouchables firstly got Permission to Worship)

जमना लाल बजाज की नगरी वर्धा से गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम जाने के मार्ग पर बस स्टैंड के नजदीक दुर्गा टॉकीज के सामने स्थित है ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर। अपनी दादी सदीबाई की इच्छा पर प्रसिद्ध उद्योगपति जमनालाल बजाज जी ने 1905 ई. में इस मंदिर का निर्माण करवाया। 22 महीने की मेहनत के बाद 1907 में लक्ष्मी तथा विष्णु की प्रतिमा स्थापित होने के साथ ही इस मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। 113 वर्ष प्राचीन यह ऐतिहासिक मंदिर हमारे देश का पहला ऐसा मंदिर है जो आज के समय में अप्रासंगिक हिंदू सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने का गवाह बना। जमना लाल बजाज के प्रयास से 19 जुलाई 1928 ई. में इस मंदिर को अस्पृश्यों के लिए खोल दिया गया। विनोवा भावे के नेतृत्व में अस्पृश्यों के एक समूह ने मंदिर में प्रवेश कर पूजा किया।[1] वह भी ऐसे समय में जब डॉ. भीमराव अम्बेडकर नाशिक स्थित काला राम मंदिर में 2 मार्च 1930 को प्रवेश के लिए संघर्ष कर रहे थे। भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने के लिए मुंबई जाने से पूर्व गांधी जी भी यहाँ आए थे। गर्भगृह में स्थापित लक्ष्मी नारायण की मूर्ति कभी गहनों-आभूषणों से लदे होते थे। लेकिन 1944 ई. में ये आभूषण चोरी हो जाने के बाद गांधीजी की सलाह पर इन्हें आभूषण मुक्त कर दिया गया।[2] 
वर्तमान समय में यह मंदिर जमनालाल बजाज फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित किया जाता है।




[1] http://www.jamnalalbajajfoundation.org/wardha/laxminarayan-mandir
[2] https://www.bhaskarhindi.com/news/wardhas-lakshmi-narayan-temple-know-history-7014




Sunday 19 August 2018

केरल बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ


कई दिनों से लगातार बारिश ने दक्षिण भारतीय राज्य केरल में जल प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर दी। स्वतंत्रता दिवस, अटल बिहारी बाजपेयी के निधन से पूरे देश के साथ-साथ मेरा ध्यान भी इस जल प्रलय की ओर नहीं गया। आज दिनांक 19/08/2018 को मीडिया में जिस तरह की तस्वीरें दिखी उसे देखकर मैं विचलित हो गया। तुरंत विचार आया शारीरिक रूप से न सही, आर्थिक रूप से उनको मदद तो कर ही सकता हूँ। इसी दौरान एक न्यूज़ मिली की एक स्नातक छात्रा ने मछ्ली बेचकर अपनी पढ़ाई के लिए जमा किए रुपयों में से 1.5 लाख रुपए केरल के बाढ़ राहत कोष में दान दिये। इस घटना से inspire होकर मैंने भी तुरंत अपनी क्षमतानुसार 500 रुपए केरल के मुख्यमंत्री बाढ़ राहत कोष में paytm के माध्यम से transaction कर दिया
उनकी मदद कर काफी प्रसन्नता हुई क्योंकि यह मेरे लाइफ का पहला donation था। 


इसके 2 दिनों बाद ही विश्वविद्यालय के शोधार्थी मित्रों व 10 संस्थाओं के साथ सहयोग देते हुए वर्धा के पंजाब राव कॉलोनी, गजानन नगर, आर्वी नाका क्षेत्र, बजाज चौक, बस स्टैंड, सब्जी मंडी आदि स्थान पर घर-दुकान जाकर लगभग 82 हज़ार रुपए इकट्ठा कर केरल भेजा। 


वर्धा के लोगों के दरियादिली की जितनी तारीफ की जाय बहुत ही कम होगी। कहने में जरा भी संकोच नहीं कि ऐसा अभियान यदि हम अपने नॉर्थ इंडिया में चलाते तो इतनी आसानी से इतना अधिक फ़ंड इकट्ठा नहीं हो पाता। दिल से Salute वर्धा वासियों। 

Tuesday 7 August 2018

घर की इज्जत


 किसी के घर की इज्जतबताकर हम बेटियों को
हमारी इज्जतखुद ही लूटते आए
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
रिश्तों का मर्मसमझाकर हमें
खुद ही रिश्तों को शर्मसार करते आए
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
चाल-चलन-सोच तुम्हारे गंदे रहे
फिर भी कुल्टा, बदचलन के आरोप
हमपर लगाते रहे
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
हमारी यौनिकता पर पहरे लगाकर भी
वेश्याओं के पास भटकते रहे
तुम, तुम्हारा ये समाज ।
तुम्हारे हर जुल्म, अन्याय बर्दास्त किए हमने
खुद को घर की इज्जतजानकर ।
बस
बहुत कष्ट दिये हमें
इस घर की इज्जतके मिथक ने
अब हमें इस मिथक को तोड़ना है,
और
जिस दिन हम इसे तोड़ने में सफल हो गए
तुम, तुम्हारे समाज के
मंत्री, संतरी, मठाधीश, धर्मरक्षक
कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे ।


 (मूलतः पाक्षिक समाचार पत्र 'वीक ब्लास्ट' 1-15 अगस्त 2018 में प्रकाशित)