Tuesday 24 October 2017

चार दिवसीय अनुष्ठान छठ पूजा का मिथक एवं यथार्थ

हर वर्ष विक्रम संवत, चैत्र व कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से शुरू होकर षष्ठी तिथि तक चलनेवाला लोक आस्था का महापर्व छठ मूलतः बिहार, झारखंड व पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतना ही ज़ोरशोर से मनाया जाता है जितना ओणम केरल में, गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र में, रथयात्रा उड़ीसा में । यह त्योहार देश की सीमा के पार मौरिशस, नेपाल, फिजी, त्रिनिदाद, ब्रिटेन व अमेरिका आदि देशों में प्रवासी बिहारियों के माध्यम से अपनी पहचान बना चुका है । प्राचीन काल से ही चला आ रहा यह चार दिवसीय त्योहार ऋग्वैदिककालीन प्रमुख देवता “आदित्य या सूर्य” की उपासना के लिए जाना जाता है । देशभर में सूर्य उपासना से संबंधित अनेक त्योहार मनाए जाते हैं । जैसे मकर संक्रांति (सम्पूर्ण उत्तर भारत में), सम्ब दशमी (उड़ीसा में), रथ सप्तमी (आंध्र प्रदेश) में । इनमें से छठ पूजा का भी विशेष महत्व है । चैत्र व कार्तिक मास के षष्ठी तिथि को मनाए जाने के कारण यह आम जनमानस में षष्ठी पूजा के नाम से प्रचलित है । छठ पूजा इसका ही अपभ्रंश रूप है ।
          सामूहिक रूप से मनाए जाने के कारण धर्म व जातिगत भेदभावों वाले इस देश में यह त्योहार सामाजिक सद्भाव का संदेश देता है । पवित्रता का त्योहार होने के बावजूद पूजन हेतु हिंदू सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर स्थित डोम या अन्य जो बांस से दौरे, डलिया, सूप बनाने का काम करते हैं, दिया व प्रसाद हेतु मिट्टी के बर्तन बनानेवाले कुम्हार तक इस त्योहार के 4 दिनों तक भेदभाव से मुक्त देखे जा सकते हैं । इस दौरान श्रद्धालुओं को जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, महिला-पुरुष के बीच भेदभाव से रहित देखा जा सकता है । चैत्र व कार्तिक मास के चतुर्थी तिथि से नहाय-खाय जिसमें कद्दू भात (पका चावल) प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, से यह अनुष्ठान परिवार के वयोवृद्ध सदस्य द्वारा शुरू होता है । अगले दिन पंचमी को खरना के अंतर्गत अरवा चावल व दूध से बने प्रसाद का भोग लगाया जाता है । षष्ठी तिथि की संध्या को पकवानों, फल से सजे सूप, दौरे, डलिया को नदी, तालाब के किनारे दूध व जल से डूबते सूर्य को व सप्तमी को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही इस 4 दिवसीय अनुष्ठान का समापन हो जाता है । इस अनुष्ठान को हठयोग भी कहा जाता है क्योंकि व्रती को इन चार दिनों तक व्रत रखने के नियम पालन करने पड़ते हैं ।  
          हिंदू धर्मावलम्बियों के साथ-साथ कुछ अजलाफ़ मुस्लिम परिवारों जो कभी हिंदू धर्म के ही हिस्से हुए करते थे (कालांतर में अस्पृश्यता की समस्या या अन्य कारणों से धर्मांतरण कर लिए) को भी इस त्योहार में काफी सक्रिय देखा जा सकता है । गाँव, समाज का हिस्सा होने के कारण छठ पूर्व गाँव, नदी घाटों की साफ-सफाई से लेकर सप्तमी तिथि को अर्घ्य की समाप्ति (पारण) तक सेवाभावना से शामिल रहते हैं । मधेपुरा के अनेक मुस्लिम परिवार 2008 से ही लगातार छट पूजा करते आ रहे हैं ।[i] हालांकि पिछले 2 दसकों से लोगों पर बाजारवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता के हावी होने के कारण यह दृश्य लगातार लुप्त होता जा रहा है ।
          हिंदू धर्म के अन्य त्योहारों के विपरीत इसमें किसी पुजारी की कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होती है । सभी कर्मकांड व्रती द्वारा ही किए जाते हैं । हालांकि हाल के दिनों में पूजन घाटों पर सूर्य देवता की प्रतिमा स्थापना के बढ़ते प्रचलन से इसमें पुजारियों की भागीदारी दृष्टिगत होने लगी है । क्योंकि मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा बिना पुजारी की उपस्थिती व कर्मकांड के संभव ही नहीं । थोड़ा बहुत छोड़कर कोई ख़र्चीले कर्मकांड को अंजाम नहीं दिया जाता है । आडंबरों से दूर प्रकृति के देवता को समर्पित यह त्योहार लैंगिक असमानता को दूर करने का एक सार्थक संदेश देता है । क्योंकि इस व्रत को स्त्री पुरुष दोनों ही करने के अधिकारी होते हैं । सर्वाधिक संख्या स्त्रियों की ही देखी जाती है ।
          सूर्य उपासना या छठ मनाए जाने की रामायण व महाभारत के आख्यानों से संबंधित अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है । एक मान्यता के अनुसार छठ पूजा की शुरुआत सूर्यपुत्र कर्ण ने की थी जो प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे । पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य व लंबी उम्र के लिए सूर्य उपासना किए जाने संबंधी मिथक भी प्रचलित है । एक अन्य मान्यता के अनुसार वनवास के लिए जब राम, लक्ष्मण और सीता के साथ निकले थे तो सीता ने गंगा नदी पर स्थित मुगदल ऋषि के आश्रम में गंगा जी से सकुशल वनवास काल बीत जाने की प्रार्थना की थी । वनवास के बाद अयोध्या पहुँचकर जब राम ने राजसूय यज्ञ करने का संकल्प लिया तो गुरु वशिष्ठ जी के कहने पर कि बिना मुगदल ऋषि के आए राजसूय यज्ञ सफल नहीं होगा, राम और सीता मुगदल ऋषि के आश्रम आए जहां ऋषि ने सीता को छठ पूजन करने की सलाह दी । उनकी सलाह पर सीता ने मुंगेर स्थित गंगा नदी में एक टीले पर सूर्यदेव का पूजन कर पुत्र की कामना की ।[ii] मान्यता है कि मुगदल ऋषि के नामपर ही इस क्षेत्र का नाम मुगदलपुर से अपभ्रंश होकर मुंगेर हो गया ।[iii] मुंगेर में गंगा नदी के मध्य स्थित सीता के चरण-चिन्ह को इस मान्यता का आधार माना जाता है ।
          सीतापद मंदिर से ही संबंधित एक अन्य मान्यता आनंद रामायण में वर्णित है जिसके अनुसार राम द्वारा एक ब्राह्मण रावण के वध किए जाने पर जब राम को ब्रह्म हत्या का पाप लगा तो इस पाप से मुक्ति के लिए मुनि वशिष्ठ ने तत्कालीन मुंगेर अर्थात मुगदलपुरी में ऋषि मुग्दल के पास राम और सीता को भेजा । राम को ऋषि मुद्गल ने वर्तमान कष्टहरणी घाट में ब्रह्महत्या मुक्ति यज्ञ करवाया तथा सीता को अपने पति को ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त कराने के लिए षष्ठी व्रत करने का निर्देश दिया ।
          ऐसे दर्जनों किंवदंतियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं जिनमें कोई समानता नहीं है । सीतापद मंदिर से संबंधित दो अलग-अलग कथाएँ किसी को भी भ्रम में डाल देती हैं कि सत्य किसे मानें । हमारे देश में किसी भी स्थान को प्रसिद्धि दिलाने के लिए, श्रद्धालुओं, पर्यटकों को लुभाने के लिए उन्हें किसी मिथकीय कथाओं से संबद्ध करने की प्राचीन परंपरा रही है । उदाहरण के लिए झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक स्थित एक जल के स्त्रोत को देखें, जहां छठ पूजा में स्थानीय लोग अर्घ्य देते हैं । इस सोते (स्त्रोत) के बारे में मान्यता है कि द्रोपदी ने इस सोते के पास छठ किया था । सोचनेवाली बात है कहाँ उत्तर पश्चिम भारत में स्थित कुरुक्षेत्र, कहाँ पूर्वी भारत में स्थित रांची । वैज्ञानिक दृष्टि से इन किंवदंतियों की जांच करने पर अनेकों त्रुटि दृष्टिगत होती है । यदि मुगदल ऋषि वाले दंतकथा की प्रामाणिकता को ही विश्लेषित करें तो वर्तमान उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्या व बिहार राज्य स्थित मुंगेर (मुगदल ऋषि का आश्रम, किवदंती अनुसार) के बीच की दूरी 590 – 600 किलोमीटर है । औसतन 60 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से कोई आधुनिक टैक्सी 10 से 12 घंटे लगाएगी । त्रेता युगीन रथ से तो पूरे 2 दिन, जबकि वनवास के दौरान पैदल आने में पूरे एक सप्ताह भी लग जाएंगे । अयोध्या से दक्षिण चलते हुए राम द्वारा केवट की नाव से गंगा पार करने का उल्लेख तो मिलता है । लेकिन 600 किलोमीटर पूर्व आकर फिर से दक्षिण तरफ जाने की बात गलत लगती है । इसके अतिरिक्त रामायण में किसी मुगदल ऋषि का उल्लेख नहीं मिलता है, महाभारत में मुगदल ऋषि का उल्लेख मिलता है लेकिन उनका निवास स्थान कुरुक्षेत्र बताया गया है । ऐसे में षष्ठी पूजा का वास्तविक इतिहास जान पाना काफी कठिन कार्य है ।
          भारत में सूर्य पूजा काफी प्राचीन परंपरा रही है । इतिहासकार जयदेव मिश्र पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर बिहार में छठ पूजा की प्राचीनता 200 ई. पू. निर्धारित करते हैं । कुषाण वंश के सिक्कों से भी सूर्य उपासना का साक्ष्य मिलता है । राज्य में देव (औरंगाबाद) के अतिरिक्त अनेक प्राचीन सूर्य मंदिर पंडारक, मनेर, बड़गांव (नालंदा), सहरसा, से लेकर गया में देखे जा सकते हैं । कश्मीर के मातंग सूर्य मंदिर व उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर के विपरीत देव सूर्यमन्दिर को पूरे देश का एकमात्र सूर्यमंदिर माना जाता है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमभिमुख है ।[iv] इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल निर्धारन गुप्तोत्तर काल करते हैं ।[v] सूर्यपूजक कौन थे, उनके क्रमिक विकास का विस्तृत इतिहास आदि आज भी ऐसे अनछूए पहलू हैं जिनपर पर्याप्त शोध की संभावना है ।
                                                                          
                                                                                     साकेत बिहारी, वर्धा (महाराष्ट्र)

(नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस 25/10/2017 अंक के छठ पर्व विशेष पृष्ठ पर प्रकाशित)





[i] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/13/bihar-muslim-celebrate-chhath/
[ii] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/20/bihar-mother-sita-did-the-first-chhath/
[iii] http://livecities.in/munger/mother-sita-had-done-chhath-puja-here/
[iv] https://www.ekbiharisabparbhari.com/2017/10/13/chhath-surya-mandir/
[v] https://timesofindia.indiatimes.com/city/patna/Sun-god-being-worshipped-since-Vedic-period/articleshow/44954463.cms