Sunday 25 April 2021

अन्न का मोल

वीरभद्र पढ़ाई करने के साथ-साथ डेयरी चलाने में अपने भैया की भी मदद किया करता था। उनकी अनुपस्थिति में दूध के लेन-देन का हिसाब-किताब रखने, डेयरी के केयरटेकर की भूमिका में रहने के साथ-साथ वहाँ के डेयरी कर्मचारियों के साथ मिलकर दूध भी पैक कर दिया करता था। वीरभद्र एक बहुत ही मितव्ययी परिवार का सदस्य था। उसके घरवाले अन्न के महत्व को समझते थे और बहुत ही नपे तुले मात्रा में भोजन बनाते। ऐसा करने के बावजूद कभी-कभी उसके घर दिन का या रात का भोजन बच जाता था। हालांकि उसके पिताजी, माँ या घर के अन्य सदस्य उस बासी भोजन को भी गरम कर खा लेते थे। विषम परिस्थिति में ही भोजन बचा रह जाता था। ऐसे में उस बचे भोजन को डेयरी के गायों को दे दिया जाता था। वे उसे बिना कोई नखरा किए चाव से खा लेती थी।

          एक दिन शाम को जब वीरभद्र डेयरी जा रहा था तो उसकी भाभी ने उसे एक बर्तन देते हुए कहा वीरू इसमें परसों की रोटी, थोड़ा चावल और थोड़ा दाल है जिसका स्वाद खट्टा हो गया है, इसे गाय को दे दीजिएगा वो खा लेगी”। वीरभद्र उस बासी खाने से भरा बर्तन लेकर डेयरी पहुंचा ही था कि उसे किसी व्यक्ति के ज़ोर से गुस्से में बड़बड़ाने का शोर सुनाई दिया। एक लगभग 50 वर्ष का अधेड़ व्यक्ति डेयरी के कर्मचारी वकील पर चिल्ला रहा था –

“कामा कराय लेन्ही और पैसबा नाय देन्हीं, कुछो खायो ले नाय देन्हीं। फ्री में के करतो कामा? हम नाय करबो अब। हमर कोय इज्जत नाय? ई बड़का गो खटल्बा हमरे, हमें मालिकबा और हमहीं खटबो करय हिये और हमरे कोई चाय, पानी, शर्बत तक नाय पूछय है। अपने दाल-भात-तरकारी खाएके दिनभर सुतल रहै हीं कान में तेल देके! जो हम नाय रहबो अब! 10 रुपैया भाड़ा दे, हम जाय हिये ससरार(ससुराल)”।

          वीरभद्र को पूरा मामला समझते देर नहीं लगा। दरअसल बात ये थी कि वह गुस्सैल स्वभाव का व्यक्ति अपने समय का काफी पढ़ा-लिखा, समझदार, मज़ाकिया स्वभाव का, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति शिवनारायण था। एक दुर्घटना के कारण उसका मानसिक संतुलन थोड़ा बिगड़ गया था। इस कारण घरवालों, पड़ोसियों से हमेशा कुछ न कुछ बात को लेकर लड़ाई-झगड़े करता रहता। घरवाले भी रोज की किच-किच से परेशान होकर उसकी तरफ उतना ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप वह घर से हमेशा भागा रहता। भोजन और आश्रय की तलाश में अपने रिश्तेदारों से लेकर अलग-अलग गाँव भटकता रहता। 10 किलोमीटर के दायरे का शायद ही कोई गाँव उसके चरण चिन्ह से अछूता हो। इन गांवों में शादी, श्राद्ध, धार्मिक आयोजन की टोह वह हमेशा लेता रहता था। क्योंकि ऐसे आयोजनों में ही उसके पेट की आग को पूर्ण तृप्ति मिलती थी। सभी लोग शिवनारायण के इस आवश्यकता का खूब फायदा उठाते थे। शादी, श्राद्ध जैसे अपने घरेलू आयोजनों में उनसे कमर तोड़ काम करवाते। इन कामों में भोजन बनाने हेतु मोटे-मोटे लकड़ी के कुंदों को कुल्हाड़ी से फाड़कर चूल्हे में जलाने योग्य बनाने से लेकर कुएं से ड्रम में पानी ढोकर भरने, जूठे पत्तल उठाने तक शामिल थे। इन आयोजनों में जितने भी तथाकथित निम्न दर्जे के काम होते थे, उसके ही जिम्मे आते थे। बदले में आयोजक खाना खिलाकर बिना मजदूरी दिये या नाम मात्र मजदूरी देकर उसे चलता कर देते। अपने कमरतोड़ श्रम का कभी उसे वास्तविक मोल नहीं मिलता था। कुछ रिश्तेदार थोड़ा दरियादिली दिखाते और काम के बदले पैसे से लेकर उसकी आवश्यकता की चीजें जैसे पुराने कपड़े, टॉर्च (अक्सर रात के अंधेरे में भी वह अपने निर्धारित गंतव्य के लिए निकल जाता था) छाता आदि दे देते थे। अधिकांशतः मृतक से संबंधित उपयोग की वस्तुएँ उसके जिम्मे आते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो काम कराने के बदले बेमन से वास्तविक मजदूरी दे देते थे केवल अपने सम्मान बचाने के लिए। क्योंकि जिन लोगों से शिवनारायण को काम कराने के बदले उसके मन मुताबिक पैसे नहीं मिलते थे उसके बारे में वह जहां भी जाता प्रचारित करता रहता था कि फलां आपन बेटा/बेटी के शादी, किरिया (श्राद्ध) में कामा कराय लेलके और पैसबो नाय देल्के घरेलू समारोहों से फुर्सत मिलती तो खेतों में काम करने लग जाता। यहाँ भी अधिकांश लोग अपने फसल की निराई-गुड़ाई करवा लेते, धान-गेंहू के फसल खेतों से खलिहान पर ढुलवा लेते और मजदूरी मांगने पर उल्टे घुड़की देकर दो-तीन दिन तक भरपेट खाते रहने की बात कर उसे भागा देते थे। बेचारा क्रोध में जलकर गाली-गलौज कर वह संतुष्ट हो लेता। पेट की आग बुझाने के लिए वह विक्षिप्तावास्ता में दर-दर भटकता रहता। कभी-कभी पूरे दिन खाना भी नसीब नहीं होता था। ऐसी ज़िंदगी से हताश होकर विक्षिप्तअवस्था में वह हमेशा कुछ ना कुछ बड़बड़ाता रहता था। उसके बड़बड़ाहट में उसके साथ हुए अन्याय, ज्यादिति के किस्से होते थे।

          ऐसा नहीं है कि वह गरीबी के कारण अन्न के लिए मोहताज था। बल्कि वह एक धनाद्य तथा भरे पूरे संयुक्त परिवार से आता था। जमीन जायदाद के मामले में उसका परिवार 400 परिवार वाले गांव में दूसरे या तीसरे स्थान पर गिना जाता था। सम्मिलित रूप से उसके परिवार के पास 30 बीघा जमीन थी। इतनी जमीन भले ही आपके नजर में बिल्कुल पिद्दी सा लगे, लेकिन उस क्षेत्र में इतनी भी जमीन जिसके पास होती थी उसका ओहदा गांव के राजा के समान होता था। चार भाइयों में वह तीसरे नंबर पर आता था। दोनों बड़े भाई सरकारी नौकरी से जुड़े हुए थे। एक रेलवे में ड्राइवर के पद पर था तो दूसरा धनबाद के कोयला खदान में एक अच्छे पद पर। धन दौलत की कोई कमी नहीं थी। कृषि से संबंधित काम उसके पिताजी और छोटे भाई के जिम्मे था। छोटे भाई को पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था लेकिन खेती करवाने में वह उस्ताद था। शिव नारायण उच्च शिक्षा प्राप्त कर अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर बनना चाहता था। वह भी 1980 के दसक में। इससे उसके सोचने के दायरे और प्रतिभा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अपने समय का वह उस गांव-क्षेत्र का एकमात्र बंदा था जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता था। उसकी बातों-विचारों को सुनकर लोग अवाक रह जाते थे। एक प्रतिष्ठित खानदानी परिवार में विवाह के पश्चात एक दुर्घटना से उसके मानसिक संतुलन को आघात लगा। इसके पश्चात उसकी पत्नी उसके बदले व्यवहार को सह नहीं पाई और आत्महत्या कर ली। इस घटना ने उसे और विक्षिप्त बना दिया। इसके पश्चात घर वाले ने मानसिक संतुलन की बात को छुपाते हुए उसकी दूसरी शादी करा दी। उसकी दूसरी पत्नी बहुत दिनों तक उसकी हरकतों को बर्दाश्त करते हुए परिवार को आगे बढ़ाती रही। दो बच्चे के साथ-साथ अपने पति की भी काफी दिनों तक देखरेख की। लेकिन एक ऐसा भी समय आया जब अपने पति की उटपटांग हरकतें उससे भी बर्दाश्त नहीं होने लगी। धीरे-धीरे वह भी अपने पति के हरकतों पर टोका टिप्पणी करने लगी। कई बार इसकी वजह से हिंसक मारपीट होने लगे।

          इस झगड़े से खुन्नस खाकर शिवनारायण गुस्से में घर से निकल जाता और दो-तीन दिनों तक अपने रिश्तेदारों में या इधर-उधर विक्षिप्त रूप बनाए घूमता रहता। कहीं खाना मिल गया तो खा लेता नहीं तो भूखे ही घूमता रहता। दूसरी तरफ उसकी पत्नी खेती-बाड़ी से लेकर बच्चों के खान-पान, पढ़ाई लिखाई का भार अच्छी तरह संभाले हुए थी। खेतों में गर्मी, बारिश, ठंड की परवाह किए बिना कमरतोड़ काम करती। धीरे-धीरे उसे भी अपने पति का घर से दूर रहना सुकून देने लगा। कम से कम कलह तो नहीं होता था। यही कारण है कि जब भी शिवनारायण इधर-उधर से घूम कर आता उसकी पत्नी उससे झगड़ा कर फिर से भागने पर मजबूर कर देती। बेचारे शिवनारायण के पास इधर-उधर भटकने के अलावा कोई चारा नहीं होता था। ऐसे में वह अपना एक स्थायी ठिकाना ढूँढने की कोशिश में लगा रहता। लेकिन बिना धन कहाँ स्थायी ठिकाना मिलता है।

          इसी दौरान शिवनारायण के गांव से 5 किलोमीटर की दूरी पर ही नए जिले के रूप में मान्यता मिलने के बाद प्रधानपुर शहर में काफी तेजी से सरकारी इमारतें व निजी घर बन रहे थे। शिवनारायण के गांव के बहुत सारे लोग वहां राजमिस्त्री से लेकर मजदूर के रुप में काम करते थे। उसकी स्थिति पर तरस खाकर वे लोग उसे कुछ ना कुछ काम दिला देते थे। घर से दूर दिन भर वह काम करता और रात को उसी बन रही इमारत में ही सो जाता। वह इमारत उसे अपना घर ही लगता था। अपना घर समझ कर पूरी ईमानदारी से वह उसके निर्माण में लगा रहता। उसकी मानसिक विक्षिप्तता का फायदा उठाने से कोई चूकता नहीं था। मालिक या ठेकेदार उसकी मजदूरी से 10-20 रुपए काटकर उसे देते थे। जो पैसे मिलते थे उसे देख कर ही वह इतना खुश हो जाता था कि उसे पता ही नहीं होता था कि सामने वाला उसे पूरे पैसे दे रहा है या नहीं। उसे बस नियमित पैसे मिलने की खुशी होती थी कम मिला या अधिक मिला इस बात की उसे इस दौरान कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। उसे जितना मिलता उतने में दो से तीन समय सत्तू खाकर खुश रहता।

          उसकी ये कहानी जानकर हम आप भले ही गम में डूब गए हों लेकिन इतनी भी गमगीन नहीं थी उसकी जिंदगी। क्योंकि वह क्या कर रहा है? क्या बोल रहा है? इसका सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आदि बातों का उसे कोई खास आभास नहीं होता था। पूरा दिन जितना वह काम करता था उससे दुगना-तिगुना अधिक इधर-उधर की बातें कर हंसते-हँसाते-बड़बड़ाते रहता था। 10 मिनट तक उसकी बात सुनकर सामने वाला कोई भी व्यक्ति कितना भी उदास क्यों न हो बिना हंसे नहीं रह पाता था। सामने वाले को हंसते देख अनायास उसे भी हंसी आ जाती थी। बस इसी तरह गमों के बोझ तले हंसते मुस्कुराते हुए उसकी जिंदगी कट रही थी। यही नहीं अमिताभ बच्चन का वह जबरदस्त प्रशंसक था। लावारिस फिल्म का एक गाना 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' उसका सबसे पसंदीदा गाना होता था। दिन-रात उसे गुनगुनाते हुए सहकर्मियों का मनोरंजन करता रहता था। इसी दौरान जब महफिल जमती तो अंग्रेजी के लेक्चरर वाला रूप उसमें जाग जाता था। वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने लगता था। उसकी अंग्रेजी बोलने की प्रतिभा देखकर साथ में काम करने वाले सभी लोग उसके मजे लेना छोड़कर शांत, मायूस हो जाते थे। सब की आँखें छलक आती थी। चूंकि उसे बोलने की कोई सुध बुध नहीं होती थी ऐसे में वह अक्सर ऐसी बातें भी बोल जाता था जो किसी को बर्दाश्त नहीं हो। जिससे वह उसे वहां से भगा देते थे।

          वीरभद्र का घर बनाने में भी उसने अपने खून पसीने लगाए। उसके घर की एक-एक दीवार उसकी ईमानदारीपूर्वक काम की प्रत्यक्ष गवाह है। वीरभद्र के दादाजी जो प्रधानपुर शहर में नए घर बनवा रहे थे एक बहुत ही नेक दिल इंसान थे, उसके खाने-पीने का पर्याप्त ध्यान रखते थे, नए गमछे, लुंगी के साथ-साथ पुराने छोटे हो चुके कपड़े, धूप, बारिश से बचने के लिए छतरी, स्वेटर आदि बेझिझक दे दिया करते थे। इस कारण वीरभद्र के घर से शिवनारायण को विशेष लगाव रहता था। गृह निर्माण पूर्ण हने के बाद भी सप्ताह में एक दिन इधर-उधर से घूमकर घर पर आ ही जाता था। वीरभद्र की मां को उसके स्थिति पर बहुत दया आती थी लेकिन कर भी क्या सकती थी? गृह निर्माण में उसकी ईमानदारी पूर्वक कम से वह प्रभावित हुई थी इसलिए जब भी वह आता तो जो भी बना हो घर में निःसंकोच खिलाती थी। उसका उतरा चेहरा देखकर ही उन्हें पता चल जाता था कि उन्हें कई दिनों से खाना नहीं मिला है। खाना यदि नहीं भी बना हो तो चावल के भूँजे (मूढ़ी), चूड़ा-चीनी, या सत्तू खाने के लिए दे देती थी। बदले में स्वाभिमानी शिवनारायण कुछ न कुछ काम बिना बोले ही कर जाता था। अगले 10 वर्षों तक उसकी जिंदगी ऐसे ही चलती रही।

          10 वर्ष पश्चात वीरभद्र के भैया श्रवण ने अपने घर से थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा डेयरी फार्म खोला। 10 गायों की देखभाल के लिए 'वकील' नाम का एक व्यक्ति दिन रात लगा रहता था। उनके रहने का इंतजाम डेयरी में ही था। गाय की देखरेख करने के बाद वह रोज दोनों समय खुद से खाना बनाता। भूखे प्यासे घूमने से शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो चुके शिवनारायण को इन दिनों भवन निर्माण में काम नहीं मिल रहा था। ऐसे में वीरभद्र के भैया की इस छोटी सी डेयरी में उसे आशा की एक किरण दिखी। उसने वीरभद्र के भैया श्रवण से डेयरी में काम करने की इच्छा जताई। काफी कुछ सोचने विचारने के बाद उन्होंने उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए मना कर दिया। बावजूद इसके वह डेयरी में आता-जाता रहता था। डेयरी की साफ सफाई, घास काटने, गायों को नहलाने, दूध-दुहने, खिलाने पिलाने से लेकर और सभी काम वह दिन-रात, हंसी-मजाक करते, लड़ते-झगड़ते वकील के साथ दिल खोलकर करता रहता था। बदले में वकील उसे खिलाता-पिलाता रहता। पेट तो उसका भर जाता लेकिन पैसे कमाने की भी तो चाहत थी। उसका क्या करें? उसके काम से खुश होकर वीरभद्र के भैया 20-30 रुपए प्रतिदिन दे देते थे। चूंकि वीरभद्र भैया की अनुपस्थिति में सुबह शाम डेयरी आता जाता रहता था। ऐसे में उसके संवेदनशील स्वभाव ने शिवनारायण की ज़िंदगी को नजदीकी से जानने के लिए प्रेरित करता था। खाली समय में वह शिवनारायण के जीवन संघर्ष को खोद-खोद पर पूछते रहता। शिवनारायण को मलाई बर्फ खाना बहुत अच्छा लगता था, उसे जब भी पता चलता कि शिवनारायण डेयरी पर आया हुआ है तो भैया की जगह वह खुद चला आता, रास्ते में मलाई बर्फ खरीदते हुए। वह डेयरी के कामकाज देखने कम शिवनारायण की बातें सुनने ज्यादा आता था। पता नहीं उसे उसके जीवन संघर्ष सुनने से इतना लगाव क्यों था? समय परिवर्तन के साथ शिवनारायण के अंग्रेजी बोलने की धार भले ही कुंद पड़ गई लेकिन उसके साथ अंग्रेजी में बात कर वीरभद्र को बहुत ही सुकून मिलता था। धीरे-धीरे वकील का उसके प्रति स्वभाव बदलने लग गया। जो काम पहले वह शिवनारायण के साथ मिलकर करता था अब अधिकांश काम वीरभद्र के भैया की अनुपस्थिति में उसके जिम्मे डालकर उसपर हुकुम चलाता रहता था। खाना मिलने की मजबूरी के वशीभूत होकर वकील के आदेशों को मानने के अलावा शिवनारायण के पास कोई और चारा नहीं होता था। इस क्रम में दोनों के बीच लगातार गृहयुद्ध की स्थिति बनी रहती थी। कई बार वकील उसे खदेड़ कर भगा भी देता था। लेकिन एक-दो दिन भटकने के बाद थक हार कर फिर से डेयरी ही चला आता था। चारा कटवाना, गायों को खिलवाना, गोबर फेंकवाना आदि काम करवाने के बाद वकील अब खाना खिलाने के स्थान पर 10 रुपए देकर बहलाने लगा था। बेचारा 10 रुपए का सत्तू लेकर कहीं से नमक प्याज की व्यवस्था कर पेट भर लेता था। वीरभद्र को जब उसके भूखे होने की बात पता चलती तो कभी-कभी अपने पैकेट मनी से 10-20 रुपए दे देता कुछ खाने के लिए।  

          एक दिन वीरभद्र के भैया को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। ऐसे में डेयरी पर शाम की ड्यूटी वीरभद्र के जिम्मे आ गया। भाभी द्वारा गाय को दिये जाने वाले दिए गए बदबू मारती रोटी, चावल और दाल को वीरभद्र एक बर्तन में लेकर डेयरी पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही उसे शिवनारायण की वकील पर दहाड़ भरी आवाज सुनी। यह रोज की बात थी इसलिए वीरभद्र ने इसकी परवाह किए बिना केन को खोलकर बेकार पड़े खाने को गाय की नांद में डालने के लिए बढ़ा। अचानक से उसे एक ज़ोर की डांट पड़ी।

'हों रे रे! पढ़ल लिखल के टोपी नाय, और कुतबा के पैजामा' तोहरा कुछ बुझाए हो, एसीया से निकलनहिं और आए गेल्हीं खटलबा पर। तनियो सा चिंता हौ कि शिव भैया दु दिन से भुक्खल छटपटाव करै है तो कुछ खाइल दिये। तोरी काल के ई बकिलबो कामा कराय लेलको और 10 रुपैया थमाय देल्को कि जो सत्तू खाय लियहें। 10 रुपैया के सत्तू में पेट भरय है। तोहरा री दूधा बेच-बेच के बिल्डिंग पीट लेनही, और हम दिन रात भटकेत रहै हिये। हमर मोन नाय होबे है एसीया में रहेके। चल एसीया में नाय रहबे दाल, भात तरकारियो से खाय से गेलिए। जेकरा खिलाबे के ओकरा न खिलाय के गइया के दाल भात खिलबैए है। ला छोड़ हमरा दे। गइया पाहुन है जे दाल भात तरकारी खिलाब करेहीं।

शिवनारायण ने वीरभद्र के हाथों से बदबू मार रहे खाने से भरे केन को झटके में छीनकर एक जगह बैठ गया। उस केन में चार रोटियां, काफी मात्रा में दाल और चावल थे। दाल में भीगकर रोटियाँ पिलपिली हो गई थी। वह खाने लायक था ही नहीं। इसे देखकर वीरभद्र ने उसे खाने से बहुत मना किया -

शिव दा, एकरा नाय खा, ई खनमा महैक गेले है, तबीयत खराब होय जैतअ। हमरा से तोएँ 50 रुपैया ले ल, मुर्गा भात बाजार में खाय लेअ, लेकिन एकरा नाय खा

शिवनारायण ने वीरभद्र की एक नहीं सुनी, उल्टा डांट दिया –

तोरा कुछ बुझावै हो, 50 टका कमावे में केतना मेहनत लगए है। अभी बाप के होटल में खाय हीं इसलिए न समझ में आवै हो। जहिया अपने से कमयभीं ताहिया पता चलतओ।

          डांटने के साथ-साथ एकदम प्रसन्नचित भाव से शिवनारायण इतनी तेजी से गबागब खाए जा रहा था जैसे किसी निर्जला उपवास रखा व्यक्ति उपवास टूटते ही मसालेदार मैगी पर टूट पड़ता है। चेहरे पर कोई शिकन नहीं कि रोटी भीगकर पिलपिली हो गई, भात गल गए हैं, दाल खट्टी लग रही है। वीरभद्र एक टक उसे देखता ही रह गया। इतने में ही खाने के बाद चापाकल पर जाकर केन को धोया। और एक लंबी डकार लेते हुए कहा –

'दु दिन बाद अइसन बढ़िया और एतना खाना मिललइ। खाय के मज़ा आय गेलो

यह सुनकर वीरभद्र की आँखों से आँसू छलक आए। वह सोच में पड़ गया कि यह पेट की आग व्यक्ति को कितना मजबूर कर देती है कि वह अन्न के एक-एक दाने का मोल समझने लगता है। उस दिन उसे एहसास हुआ कि अन्न के मोल के अलग-अलग मायने हैं। आपका पेट यदि भरा हो तो बासी खाने आपके लिए बेकार हो जाते हैं लेकिन एक भूखे को वही खाना अमृततुल्य स्वादिष्ट लगता है। इससे पहले कि वीरभद्र उससे कुछ कहता शिवनारायण वकील को ताना मारते हुए कि – रे वकीलवा, कामा कराय लेन्हीं और पैसबा नाय न देन्ही, कहियो पुछ्बो तोरा' अपना झोला-डंडा लिया और शाम के अंधेरे में गुम हो गया।

          अगले दिन वीरभद्र अपने पैकेट मनी से 100 निकाल कर ले गया यह सोच कर कि आज शिवनारायण को वह बगल वाले होटल में बैठा कर भर पेट मुर्गा-भात खिलाएगा। लेकिन उसका यह ख्वाब कभी पूरा नहीं हुआ। क्योंकि उसके बाद वह दोबारा डेयरी पर दिखा ही नहीं।

          इस घटना के 2 साल बाद वीरभद्र को वह अपने घर से 100 किलोमीटर दूर मधुपुर रेलवे स्टेशन पर दिखा। प्रधानपुर की ओर जाने वाले ट्रेन दो मिनट के लिए मधुपुर स्टेशन रुकी। ट्रेन रुकते ही उसे उसी प्लेटफॉर्म पर बड़े-बड़े उलझे बाल, दाढ़ियों में मैले-कुचैले कपड़े पहने एक शख्स दिखा जो एक खोमचे से मूँगफली चुरा रहा था। खोमचे वाले ने उसे ज़ोर से डांटा तो वीरभद्र का ध्यान उस विक्षिप्त की ओर गया। वह देखते ही पहचान गया और झट से गाड़ी से उतर शिवनारायण को जोर से झकझोरा। ' शिबू दा!' उस विक्षिप्त शख्स ने वीरभद्र की ओर ध्यान से देखा लेकिन कोई उत्तर नहीं दिया। सिर झुकाए, कहीं खोए शांत खड़ा रहा। खोमचे वाले ने पूछा, 'आप पहचानते हैं इसे क्या?’ वीरभद्र ने सिर हिला कर हां में जवाब दिया। 'कैसे लोग हैं आप? ले जाइए इसे अपने घर, बेड़ी में जकड़ कर रखिए घर पर। 1 साल से मधुपुर में पड़ा है। कहां से आया है, कुछ बोलता नहीं है, बस दिन-रात हम खोमचे वालों की नाक में दम कर रखा है।' खोमचे वाले ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला। वीरभद्र की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे ले जाए तो कहाँ ले जाए, किसकी ज़िम्मेदारी पर ले जाए? कौन रखेगा इस विक्षिप्त को? इतने में ट्रेन खुलने का हॉर्न बजा। वह बेमन से ट्रेन में चढ़ा। चलती ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा होकर शिवनारायण को तब तक निहारता रहा जबतक कि वह उसकी आँख से ओझल नहीं हो गया। रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि हमेशा बड़बड़ाकर लोगों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला शख्स जिसने उसे अन्न के मोल का ज्ञान दिया आखिर कैसे खामोश हो गया?

 

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Wednesday 21 April 2021

डर : धर्म के व्यवसाय का आधार

 संत रामपाल की एक पुस्तक 'ज्ञान गंगा' पढ़ रहा हूँ। उनका भक्त बनने के लिए नहीं बल्कि आखिर किन शिक्षाओं के बिना पर ऐसे तथाकथित साधु-संत अपने असीमित भक्त बनाते हैं जो उनकी बातों को आंख कान मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं? इस अध्ययन के दौरान दिमाग में एक सवाल चल रहा है, कि कितना आसान है लोगों को मूर्ख बनाना, उनसे अपनी बात मनवाना। यकीन मानिए मैं एक आम आदमी हूं। लेकिन सामने वाले व्यक्ति को यदि मैं विश्वास दिला दूं कि पिछले 25 वर्ष से हिमालय में रहकर, तप-साधना कर ज्ञान अर्जित किया हूं तो वह व्यक्ति शीघ्र ही मेरा भक्त बन जाएगा। और यदि मैं उससे कहूं कि मंदिर के आगे बैठे भिखारी के बारे में मनगढ़ंत बात बताऊँ कि पिछले जन्म में उसने अपने गुरु के सिखाए बातों को मानने से इंकार कर दिया इसीलिए इस जन्म में वह दर-दर की ठोकर खा रहा है। उस भिखारी के बारे में मेरे द्वारा कही गई बात में भले ही नाम मात्र की भी सत्यता नहीं हो लेकिन इस बात की पूरी गारंटी है कि वह मेरा भक्त आंख कान मूंदकर बन जाएगा क्योंकि मैंने उसके दिमाग में यह बात भर दी कि मैं एक सिद्ध व्यक्ति हूं और यदि तुम मेरी बात नहीं माने तो अगले जन्म में तुम्हारा भी यही हाल होगा। 

          अर्थात किसी को अपना भक्त बनाने के लिए सबसे मजबूत आधार डर होता है। यह डर कुछ भी हो सकता है, भगवान या परमात्मा द्वारा दिए जाने वाले तथाकथित दंड का डर, अगले जन्म में विकृत रूप में पैदा होने का डर आदि। ‘ओ माय गॉड फिल्म के अंतिम दृश्य में भी इस डर के दम पर यह जाने वाले व्यवसाय को दिखाने का प्रयास किया गया है जब धर्मगुरु जाते जाते एक संवाद बोलता है ' these are not god loving people, these are god fearing people.



Thursday 15 April 2021

वह ममतामयी पंडूकी

पक्षियों में वीरभद्र को दो पक्षी विशेष प्रिय हैं - एक तो कबूतर दूसरा पंडुकी। दोनों के रंग भले ही अलग-अलग हैं लेकिन कद-काठी में दोनों एक जैसे ही लगते हैं जैसे गोरा और काला जुड़वां भाई या बहन। इन दोनों के साथ उसकी बहुत ही मधुर याद जुड़ी हुई है। कबूतर के साथ खेलते हुए उसका बचपन बीता। बड़े वाले कबूतर नहीं, उनके बच्चे के साथ। दरअसल उसके गांव प्रधानचक स्थित पुश्तैनी घर में व्यापार के उद्देश्य से इसे बड़े पैमाने पर पाला जाता था। दो तरह के लोग इसे खरीद कर ले जाते थे। एक तो मांस के शौकीन, दूसरे स्थानीय देवी-देवताओं को पूजा में बली देने वाले। जैसे कई लोग चिकन खाने के शौकीन होते हैं वैसे ही वीरभद्र के गाँव के तरफ बहुत से लोग एक समय कबूतर के मांस के शौकीन होते थे, आज भी हैं। इसके अलावा ग्रामीण देवी-देवता जैसे जखराज, जियर बाबा से लेकर घरेलू देवताओं जैसे ढाढ़िया, हारा बाबा आदि की पूजा में कबूतर के बच्चे की बलि दी जाती थी। वीरभद्र के चचेरे चाचा जी इस व्यवसाय से जुड़े थे। उनकी देखा-देखी वीरभद्र के परिवार ने भी कुछ संख्या में कबूतर पाल रखे थे। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद उसके दादा जी गायत्री परिवार के संपर्क में आकर शाकाहारी हो गए थे, पिताजी भी मांस मछली नहीं खाते थे। इसके बावजूद यह कबूतर उसके घर में पाला जाता था। इस संदर्भ में एक बार जब वह अपनी मां से पूछा तो पता चला कि उनकी ज़िद से इसे पाला जाता था। ताकि समय-समय पर इस के मांस का सेवन कर उनके बच्चे मजबूत तंदुरुस्त हो सकें। मां यह भी बताई कि कबूतरों को पालने की जरूरत नहीं पड़ी, बस आधे दर्जन मिट्टी निर्मित हांडी को दीवार तथा खपरैल के छप्पर के बीच रस्सी की सहायता से कुछ इस प्रकार लटका दिया जाता था कि वह बिल्ली की पहुंच से दूर रहे। चाचा जी के कबूतर खुद वहां आकर अपना अलग आशियाना बना लिया।

तब वीरभद्र 5 साल का था जब उसके पिताजी जो धनबाद में शासकीय सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत थे, का स्थानांतरण जमुई शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कृत्यानंद मध्य विद्यालय, मलयपुर में हो गया। इस दौरान वे सपरिवार अपने पैतृक घर-गांव छोड़कर जमुई शहर में बस गए। दस 15 दिनों के अंतराल पर वीरभद्र के दादाजी या पिताजी गांव जाते रहते थे और खेती किसानी से लेकर उस आधे दर्जन कबूतर की भी देखभाल और खरीद बिक्री करते रहते थे। कभी-कभी वीरभद्र और उसके भैया श्रवण भी उनके साथ गांव चल देते थे। जाते ही कुछ करें या ना करें बांस की सीढ़ी लगाकर उन कबूतरों के खोंढी (हांडी के अंदर स्थित घोंसला) को देखते जरूर थे। खोंढी के अंदर अंडों पर बैठे कबूतरों को देखने, उनके साथ छेड़छाड़ में उन्हें काफी मजा आता था। छेड़छाड़ के दौरान अपने पंख से जब वह हमें झपट्टा मारती थी तो उस झपट्टा से बचने और उसे चिढ़ाने में अलग ही आनंद आता था। दोनों भाइयों को कबूतर के बच्चों से इतना लगाव हो गया था कि उसके दादाजी या पिताजी उन बच्चों को झोले में डालकर जमुई ले आते थे। दोनों भाई स्कूल से आते ही इनके साथ खेलने लग जाते थे। उन्हें नहीं पता था कि उन्हें भी हमारी ही तरह समय-समय पर भूख भी लगती है। उनको नाश्ता, लंच और डिनर कराने का काम वीरभद्र की माताजी करती थी। माताजी इतना प्यार से उन कबूतरों को उनके चोंच खोलकर चावल या गेहूं खिलाती थी कि इसे यह देख कर कोई भी भाव-विभोर हो जाए। धीरे-धीरे दोनों भाई भी देखते-देखते उनके चोंच को खोल कर खिलाना सीख गए। वे न केवल उनको भरपेट खिलाते थे बल्कि उनकी सुरक्षा का भी पर्याप्त ध्यान रखते थे। उनको बिल्ली जैसे प्राणी से बचाने के लिए हमेशा अपने पास ही रखते थे। वे उन्हें घोंसले का सुख तो नहीं दे पाते थे लेकिन उनके लिए जो व्यवस्था करते थे वह किसी घोसले से कम नहीं था। बेकार फटा-चिटा कपड़ा से एक मोटा तह बनाकर नीचे जमीन पर डालकर उन्हें उस पर बैठाकर बांस निर्मित टोकरी से ढक देते थे। टोकरी के ऊपर 1 पसेरी वजन का पत्थर रख देते थे ताकि बिल्ली उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सके।

जमुई में उनका नया निर्मित घर कुछ इस प्रकार था कि एक फ्लैट बना हुआ था जिसमें सभी लोग रहते थे दूसरा फ्लैट नहीं बना हुआ था। केवल कमरे का खाका बनाकर उसे मिट्टी से पाट दिया गया था। चहारदीवारी की तरह चारों ओर से 7 फीट ऊंची दीवार से घेर दिया गया था। सर्दियों के दिनों में उनका अधिकांश समय यहीं खेलते हुए गुजरता था। खाली समय में वीरभद्र के पिताजी यहां कुछ-कुछ सब्जियां लगाते थे। उन्हें एक सब्जी जो सबसे प्रिय लगती थी, वह थी सेम। लताओं में फलने वाली सेम को जहां जगह मिलता है फैल जाती है। वीरभद्र के पिताजी उसको फैलने के लिए उस 7 फीट ऊंची दीवार पर बांस और लिप्टस की टहनियों से एक मंडप जैसी आकृति बना दिए थे। साथ ही उसकी इतनी निराई गुड़ाई करते थे कि गोबर से लेकर रसायनिक खाद का पान कर वह हरी-भरी होने के साथ ही बहुत ही घनी रूप से फैल जाती थी। उसका यह हरा भरा स्वरूप भंवरों, तितलियों के साथ-साथ हमारे परिवेश के लगभग सभी छोटे-छोटे पक्षियों को आकर्षित करता था। उनका वहां आना जाना लगा रहता था। उनमें सबसे ज्यादा आकर्षित एक पांडुकी का जोड़ा हुआ। उन्हें देखकर वीरभद्र को उनके घर के कबूतर याद आने लगते थे। उनका रंग रूप, घूमना फिरना इतना सौम्य था कि उसे देख कर बिना मुस्कुराए कोई रह ही नहीं सकता।

सेम, बांस और लिप्टस की लकड़ियों से आच्छादित मंडप के बीचो-बीच उस पांडूकी जोड़े ने घास के तिनकों को बुनकर एक बहुत ही खूबसूरत घोसला बनाया। स्कूल से आने के बाद वीरभद्र और श्रवण का सारा ध्यान उस घोसले के विकास का जायजा लेने में लगा रहता था। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने इस घोसले को बनते देखा। घोसला तैयार होने के कुछ ही दिनों बाद एक खूबसूरत अंडे भी उसमें देखे गए। अंडे देने के बाद वह पंडूकी अंडों पर लगातार बैठी रहती थी। कभी-कभी दोनों भाई कबूतर की तरह ही उसे परेशान करने के लिए पहुंच जाते थे। लेकिन पिताजी का सख्त आदेश था कि कोई उसे परेशान नहीं करेगा। इसलिए वे लोग दूर से ही देख कर दिल को तसल्ली देते थे। एक दिन सुबह उठते ही वीरभद्र जब उस घोसले के नजदीक जब पहुंचा तो एक अंडे को टूटा हुआ जमीन पर गिरा पाया। हमें डर लगने लगा था कि ये हरकत कहीं बिल्ली का तो नहीं है। यह बात उसने अपनी मां को बताया। मां देखने आई तो उनकी नजर एक बहुत ही छोटे बच्चे पर पड़ी। दरअसल उस पांडूकी का बच्चा अंडे से बाहरी दुनिया में आ चुका था। समय बीतता गया, उसके बच्चे बड़े होते गए। एक महीने बाद उसके बच्चे इतने बड़े हो गए थे कि उनमें छोटे-छोटे पंख आ गए। 7 फीट की ऊंचाई पर स्थित उस घोसले में रहने वाले बच्चे को दोनों भाई कुर्सी या टेबल पर चढ़कर ऐसे ही निहारा करते थे जैसे खोंढी मैं बैठे कबूतर को। कबूतर तो नहीं भागती थी लेकिन पांडूकी हम से थोड़ी डर कर जरूर थोड़ी दूर पर बैठ जाती थी। दोनों भाई जी भर कर उसके बच्चे को देख लेते और अपने खेल में लग जाते। जैसे-जैसे उसका बच्चा बड़ा हो रहा था, उसकी मां भी काफी देर तक उसे अकेला छोड़ कर भोजन की तलाश में चली जाती थी। धीरे-धीरे उनकी हरकतें भी बढ़ती जा रही थी। अब वे सिर्फ उसे देखने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उसके बच्चे को प्यार से छूने, सहलाने का भी काम करने लगे। शुरुआत में उसका बच्चा जरूर डर जाता लेकिन जल्द ही सहज भी हो जाता।

एक दिन ऐसे ही अचानक से दोनों भाई उसके सामने ऐसे प्रकट हो गए कि घबराकर वह अपने पंख फड़फड़ाती उड़ने लगी। हालांकि वह उड़ तो नहीं पाई और थोड़ी दूर जाकर जमीन पर गिर पड़ी। दोनों उसे उठाने का प्रयास तो किया लेकिन वह इससे पहले कि वे उस तक पहुंचते डर कर वह उड़ जाती। अंततः वह ऐसे जगह पर उड़ कर बैठी जो उनकी पहुंच से बिल्कुल बाहर थी। दोनों भाई उनको उनकी स्थिति पर छोड़ कहीं और व्यस्त हो गए। दो दिनों तक उसकी मां घोसले के पास आती, बच्ची के वियोग में करुण स्वर में गुटूर गू करती। दोनों भाइयों को यह देख कर बहुत ही अफसोस होता था।

इसी बीच वीरभद्र के पिताजी गांव गए और कबूतर का एक बच्चा ले आए। उस बच्चे के साथ दोनों भाई पूर्व की तरह ही खेलने लगे। अभी तक उसने खुद से दाना चुगना नहीं सीखा था। इसलिए उनकी मां उसे अपने हाथों से गेहूं के दाने खिलाकर उस चारदीवारी में ही स्वतंत्र रूप से छोड़ देती थी। घर वालों को जब जिसको मन होता था उसे पकड़ कर, प्यार से पुचकारने, खेलाने के बाद वापस उसके स्थान पर छोड़ देता। ठुमक ठुमक कर दिन भर वह घूमती रहती थी। इस दौरान पांडूकी का भी वहां आना जाना लगा रहा। दिनभर में दो-तीन झलक दिखा ही जाती थी।

          इसी बीच एक ऐसी घटना देखने को मिली जिसकी किसी ने कभी कल्पना ही नहीं की थी। सुबह होते ही वीरभद्र की माँ उसे टोकरी से निकाल घूमने के लिए छोड़ दी थी। चूल्हा चौका करने के बाद उनको लगा कबूतर के बच्चे को दाना खिला दिया जाए। जैसे ही वह उसे उठाई वह हैरान रह गई देखकर कि उस कबूतर का पेट बिल्कुल भरा था। उनका हैरान होना स्वभाविक था क्योंकि सुबह से लेकर अभी कोई भी परिवार के सदस्य उस कबूतर के बच्चे से मिला ही नहीं था। तो फिर उसे खिलाया आखिर कौन? उसी दिन ही चार - पाँच घंटे बाद इस प्रश्न का जवाब मिल गया जब सभी लोग वहां बैठे अपने-अपने काम में लगे थे। वह पंडूकी आती है और थोड़ी दूर पर स्थित कबूतर को अपने चोंच में भरकर लाए दाने को बिल्कुल ऐसे खिलाने लगती हैं जैसे वह कबूतर उसका ही बच्चा हो। यह दृश्य देखकर सभी लोग अवाक रह गए कि ऐसा कैसे हो रहा है। यह दृश्य किसी चमत्कार को देखने जैसा था। उस पंडूकी की ममता देखकर वे फूले नहीं समा रहे थे। कोई संदेह नहीं कि वह पांडूकी उस कबूतर को अपना बच्चा समझ बैठी थी। 10 दिनों तक लगातार यह चमत्कार तब तक दिखा जब तक कि वह कबूतर अपने पंख से उड़कर आंखों से ओझल नहीं हो गया।

 

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Tuesday 13 April 2021

डॉ. भीमराव अंबेडकर : संक्षिप्त जीवन वृतांत

शुरुआत करते हैं हिस्ट्री टीवी 18 एवं सीएनएन-आईबीएन चैनल के द्वारा वर्ष अगस्त 2012 में आयोजित एक चुनाव सर्वेक्षण 'द ग्रेटेस्ट इंडियन आफ्टर गांधी' से जिसमें डॉक्टर अंबेडकर को प्रथम स्थान पर चुना गया।[i] उन्हें 2 करोड़ वोट मिले। अब सवाल ये है कि आखिर इस व्यक्तित्व में ऐसी क्या खास बात है/थी जो इनके अनुयायी इनको इतना सम्मान देते हैं, चौक-चौराहों पर इनके आदमकद मूर्तियाँ बहुतायत देखने को मिलती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर उनके जीवन-संघर्ष में झाँकने के बाद ही खोजा जा सकता है। तो आइये इसका उत्तर ढूँढने का प्रयास करते हैं –

            भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौर में डॉ. अंबेडकर को एक प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है। इस विषय में उनकी विद्वता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस, गांधीजी के कटु आलोचक होने के बावजूद भी 1947 में जब देश को स्वतंत्रता मिली और एक नए संविधान बनाने की बात की जा रही थी तब उन्हें न केवल प्रथम कानून मंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट में जगह मिली बल्कि संविधान बनाने वाली ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में भी नियुक्त किया गया। डॉ. अंबेडकर को सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में मुख्यतः तीन बड़े कार्यो के लिए भारत की बहुसंख्य जनता अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती हैं। यह 3 बड़े कार्य हैं - अछूतों को भारतीय राजनीति तथा विमर्श के केंद्र में लाने तथा सामाजिक न्याय दिलवाने हेतु उनका योगदान, भारतीय संविधान के प्रारूप निर्माण तथा विधि व्यवस्था संचालन हेतु योगदान, बौद्ध धर्म में एक नए आयाम 'नवयान' जोड़ने के लिए। इनमें से अधिकांश कार्य उन्होंने उस दौर के समानांतर में किए जब हमारे देश में गांधी, नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस आदि राजनीतिज्ञ देश को ब्रिटिश प्रभुत्व से आजाद कराने (राजनैतिक आजादी) हेतु काँग्रेस पार्टी के बैनर तले प्रयासरत थे। इसके समानांतर डॉ. अंबेडकर एक स्वतंत्र समाजसुधारक के रूप में देश की बहुसंख्य तथाकथित अछूत जाति के लोगों को सामाजिक भेदभाव से आजादी दिलाने हेतु सक्रिय रूप से प्रयासरत थे। भारत के राजनीतिक स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखता है। लेकिन हमारे देश की बहुसंख्य जनता को हिंदू धर्म की विकृत सामाजिक व्यवस्था से आजाद कराने (सामाजिक आजादी) के लिए उनका अद्वितीय योगदान है। यही कारण है कि आम जनमानस के बीच उन्हें बाबासाहब, बोधिसत्व, भारतीय संविधान के जनक, समाजसुधारक, भारत के प्रथम कानून मंत्री आदि उपनामों से जाना जाता है।

            डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 ई. को वर्तमान मध्य प्रदेश के महू नामक ग्राम में एक महार जाति में हुआ था। उस दौरान महार जाति के लोगों का पारंपरिक कार्य गांव से मृत जानवरों को बाहर ले जाना होता था। अन्य वर्ण-जाति के लोग इस कार्य को घृणित समझते थे। जिसके कारण हिंदू सामाजिक व्यवस्था में महारों की स्थिति अछूतों की थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में आने से उनकी स्थिति कुछ परिवर्तित हुई। कंपनी को अपने मिल से लेकर सेना के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी। ऐसे समय में अपने पारंपरिक कार्य को छोड़कर काफी संख्या में महार व अन्य अस्पृश्य जातियों के बहुसंख्य लोग कंपनी/ब्रिटिश सरकार की सेवा में मजदूर या सैनिक रूप में लग गए। अंबेडकर के दादा मालोजी सकपाल उनमें से एक थे। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल भी ईस्ट इंडिया कंपनी की ब्रिटिश भारतीय सेना के मऊ छावनी में सूबेदार के पद पर कार्यरत थे।

डॉ. अंबेडकर का शैक्षणिक जीवन

डॉक्टर अंबेडकर 3 साल के थे जब उनके पिताजी सेवानिवृत्त हुए। वे खुद अंग्रेजी तथा मराठी माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के स्कूल से पढ़े लिखे थे, शिक्षा के महत्व को वे अच्छी तरह समझते थे। इस कारण उन्होंने डॉ. अंबेडकर की शिक्षा का पर्याप्त ख्याल रखा। पढ़ाई-लिखाई में बेहतर होने के बावजूद तथाकथित अस्पृश्य जाति महार से संबंधित होने के कारण उन्हें बचपन से ही कदम-कदम पर जातिगत भेदभाव (अस्पृश्यता) का सामना करना पड़ा। उनका वास्तविक नाम रामजी सकपाल था। एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो 'अंबाबडे' नामक ग्राम (रामजी मालोजी सकपाल का भी पैतृक गाँव) से थे तथा इस कारण अपने नाम के साथ अंबडवेकर उपनाम लगाते थे, के निर्देश पर उनके नाम से सकपाल हटाकर अंबडवेकर (कालांतर में अंबेडकर) कर दिया गया। लेकिन इससे भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। चूंकि उनके पिताजी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में थे, इसलिए शिक्षा ग्रहण करने के राह में कोई विशेष कठिनाई नहीं आई। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा संचालित स्कूल में उन्हें प्रवेश मिल गया। लेकिन इस दौरान भी तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थानुरूप लोगों की सोच के कारण उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। क्योंकि तत्कालीन हिंदू परंपराओं के अनुसार अछूत जाति के लोगों को शिक्षा प्राप्त करने, संपत्ति रखने, उच्च जाति के हिंदुओं के संपर्क में आने का अधिकारी नहीं समझा जाता था।[ii]

            1897 ई. में डॉक्टर अंबेडकर का दाखिला मुंबई के एलफिंस्टन हाई स्कूल में हुआ जहां वे एकमात्र अस्पृश्य छात्र थे। 1907 ई. में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात अगले वर्ष 1908 ई. में मुंबई के ही एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। रोचक बात यह है कि एलफिंस्टन कॉलेज के वे पहले अस्पृश्य छात्र थे। बरौदा महाराजा की ओर से इस कॉलेज में अध्ययन करने हेतु छात्रवृत्ति भी मिली। इसी क्रम में 1913 ई. में उन्हें बड़ौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड तृतीय द्वारा स्थापित एक योजना के तहत न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने हेतु 3 साल के लिए 755 प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्राप्त हुई।[iii] इसके अंतर्गत 22 वर्ष की अवस्था में उन्हें अमेरिका जाकर पढ़ने का मौका मिला। इसी दौरान 9 मई 1917 को उन्होंने मानव विज्ञानी एलेग्जेंडर गोल्डनवेजर द्वारा आयोजित एक सेमिनार में "भारत में जातियां : प्रणाली उत्पत्ति और विकास" विषय पर एक लेख प्रस्तुत किया जो उनका पहला प्रकाशित कार्य था।[iv] अक्टूबर 1913 ई. में डॉ. अंबेडकर लंदन चले गए जहां उन्होंने विधि अध्ययन में स्नातक हेतु दाखिला लिया। इसी क्रम में इसके पश्चात 1922 ई. में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त किया। उनकी थीसिस ‘The Evolution of Provincial Finance in British India’ नाम से प्रकाशित हुई।[v]  

    इसी बीच जून 1917 ई. में वह अपने अध्ययन को अस्थाई रूप से बीच में छोड़कर भारत वापस आ गए और बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में कार्य करने लगे। जहां उन्हें सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। अंततः नौकरी छोड़कर एक शिक्षक तथा लेखाकार के रूप में काम करने लगे। इस दौरान बंबई में रहते हुए वकालत भी किया लेकिन इस क्षेत्र में वे असफल रहे। क्योंकि जातिगत भेदभाव के कारण उनको केस नहीं मिलते थे।[vi] 1920-1923 के दौरान लंदन विश्वविद्यालय से 'द प्रॉब्लम ऑफ रूपी' विषय पर अर्थशास्त्र में डी.एससी. की उपाधि प्राप्त की।[vii]

अप्रैल 1906 ई. में जब वे 15 वर्ष की अवस्था के थे तक डॉक्टर अंबेडकर का विवाह 9 वर्षीय रमाबाई आंबेडकर से हुआ था। उनकी मृत्यु के पश्चात मधुमेह बीमारी से अस्वस्थ डॉक्टर अंबेडकर अपने देखरेख के लिए 1948 में डॉक्टर सविता अंबेडकर के साथ दूसरा विवाह कर लिया।

समाजसुधारक के रूप में डॉ. अंबेडकर

भारत सरकार अधिनियम 1919 को तैयार कर रही साउथबॉरो समिति के समक्ष डॉ. अंबेडकर को जब आमंत्रित किया गया तो पर्याप्त साक्ष्य के आधार पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार से अछूतों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर पृथक निर्वाचन क्षेत्र और आरक्षण देने की मांग की। अछूतों के नेतृत्वकर्ता के रूप में डॉक्टर अंबेडकर को ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में अपना पक्ष रखने का मौका मिला जहां उन्होंने अछूतों तथा अन्य धर्मावलंबियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने के प्रावधान को रखा। गांधीजी इस प्रस्ताव के खिलाफ थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने भी 1932 में डॉ. अंबेडकर के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। और अछूतों तथा अन्य धर्मावलंबियों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की घोषणा हुई। ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय की खिलाफत में गांधीजी ने पुणे के यरवदा जेल में आमरण अनशन की घोषणा कर दी। हालांकि डॉ. अंबेडकर को गांधीजी की बात माननी पड़ी। सितंबर 1932 के पूना पैक्ट से इस बात पर सहमति बनी कि अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र नहीं होगा।

            इससे पूर्व 1920 ई. में मुंबई में रहते हुए ही उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र मूकनायक के प्रकाशन का कार्य शुरू किया। इसका इस्तेमाल वे रूढ़ीवादी हिंदू राजनेताओं तथा जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनीतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना के लिए करते थे। मुंबई हाईकोर्ट में वकालत की प्रैक्टिस करते हुए उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा को बढ़ावा दिया। इसके लिए उन्होंने 1923 ई. में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की इसका मुख्य उद्देश्य था महारों व अन्य अस्पृश्य जातियों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करना व इनके बीच शिक्षा तथा सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो का नारा दिया।

            इस दौरान उन्होंने अछूतों को मंदिर में प्रवेश हेतु (इस दौरान अछूतों का मंदिरों में प्रवेश निषेध था), सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के अधिकार (उच्च जाति के लोगों का आरक्षित तालाब होता था) दिलाने हेतु कई अहिंसक आंदोलन भी किया। अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले संस्कृत ग्रंथ मनुस्मृति की प्रति को भी उन्होंने 1925 में जलाकर अस्पृश्यता का प्रतिरोध किया। 1927 ई. में सवर्णों के लिए आरक्षित तालाब की परंपरा को तोड़ने के उद्देश्य से चावदार तालाब आंदोलन शुरू किया। सैद्धांतिक रूप से यह तालाब तो सभी के लिए खुला था लेकिन व्यावहारिक रूप से यह अछूतों के लिए बंद था। इसे महाद टैंक सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। हालांकि 1937 ई. तक न्यायालय के निर्णय आने तक यह तालाब अछूतों के लिए बंद ही रहा।

            इसी क्रम में 1930 ई. में उन्होंने नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए आंदोलन शुरू किया। जिसमें लगभग 15000 डॉ. अंबेडकर के समर्थकों ने भाग लिया था। जब सभी आंदोलनकारी मंदिर के गेट तक पहुंचे तो गेट पर खड़े ब्राह्मण अधिकारियों ने मंदिर के गेट को बंद कर दिया। विरोध प्रदर्शन उग्र होने पर गेट को खोल दिया गया। जिसके परिणाम स्वरूप दलितों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत मिली।

डॉ. अंबेडकर का राजनैतिक जीवन

1936 में डॉ. अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र लेबर पार्टी) की स्थापना की जिसने 1937 के केंद्रीय विधानसभा चुनाव में 15 सीट पर लड़े चुनाव में से 12 सीट जीती थी। चूंकि इस पार्टी के अधिकतर उम्मीदवार अछूत समुदाय से थे इसलिए बाद में उन्होंने इसका नाम परिवर्तित कर सीड्यूल कास्ट्स फेडेरेसन कर दिया। 1946 के चुनाव में इस पार्टी को बहुत नुकसान हुआ। यहाँ तक कि डॉ. अंबेडकर अपनी सीट भी नहीं बचा सके। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान डॉ. अंबेडकर कांग्रेस के खिलाफ तथा ब्रिटिश सरकार के पक्ष में खड़े रहे। ब्रिटिश सरकार के साथ खड़े होने के पीछे उनका तर्क था कि विदेशी शासन से मुक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण आंतरिक लोगों की दासता और शोषण से मुक्ति है।[viii] डॉ. अंबेडकर इसके लिए किसी भी भारतीय पार्टी से ज्यादा योगदान ब्रिटिश सरकार का मानते थे। वे यह मानते थे कि किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए लोगों को एकता के सूत्र में बंधना आवश्यक है। बिना इसके राष्ट्रवाद का कोई मतलब नहीं। यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी उनको एंटी नेशनल के रूप में प्रस्तुत कर रही थी। इस दौरान कॉंग्रेस तथा उनके बीच कई मुद्दों पर तीखी नोक-झोंक भी हुई।

भारतीय संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में योगदान

1946 के चुनाव में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन जिसमें डॉ. अंबेडकर खुद अपनी सीट भी नहीं बचा पाए थे, के बावजूद स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अस्तित्व में आई कांग्रेस सरकार ने गांधीजी के निर्देश पर डॉ. अंबेडकर को न केवल देश के प्रथम कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया बल्कि भारतीय संविधान के प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी निर्वाचित किया। डॉक्टर अंबेडकर की अध्यक्षता में तैयार किए गए भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को एक समान समझते हुए न केवल उनके स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी और सुरक्षा प्रदान की गई। बल्कि अपने धर्म को मानने की आजादी दी गई, अस्पृश्यता और भेदभाव के सभी रूपों को गैरकानूनी बनाया गया। स्त्री/ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों के लिए नागरिक सेवाओं तथा कॉलेजों में, नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था दी गई।

            26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के पश्चात पश्चिमी देशों की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते थे। इसके लिए 'हिंदू कोड बिल' लागू करने को लेकर संसद सदन के अधिकांश सदस्यों के साथ तालमेल नहीं बिठा सके। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इस बिल के पक्ष में थे। उनका मानना था कि भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के लिए यह बिल एक उपयुक्त कदम है। जबकि इसके विपरीत इस बिल का विरोध करने वाले सांसदों का मानना था कि यह बिल हिंदू सामाजिक व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर देगा। सांसदों के बढ़ते रोष को देखते हुए डॉक्टर अंबेडकर ने 1947 से 1951 तक कानून मंत्री के रूप में योगदान देने के पश्चात 27 सितंबर 1951 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 1952 में हुए चुनाव तथा उपचुनाव में वे अपनी सीट नहीं बचा सके। अपने मृत्यु के कुछ समय पूर्व 1956 में उन्होंने एक नई पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की।

डॉ. अंबेडकर के स्त्री संबंधी विचार

डॉ आंबेडकर के स्त्री दृष्टि की झलक उनकी पत्र-पत्रिकाओं में देखी जा सकती है। हिंदू धर्म में स्त्रियों की स्थिति से अवगत कराने के उद्देश्य से उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का काफी बारीकी से अध्ययन कर अनेक लेख लिखे। जैसे 'हिंदू नारी का उत्थान और पतन' 'नारी और प्रति क्रांति' आदि। स्त्रियों की खराब स्थिति के लिए वे पितृसत्तात्मक मानसिकता को जिम्मेदार मानते थे। लेकिन उनका यह भी मत था कि अलग-अलग धर्मों में इसके अलग-अलग स्तर हैं। इस आधार पर वे हिंदू या इस्लाम की अपेक्षा बौद्ध धर्म को स्त्रियों के लिए बेहतर मानते थे। हिंदू धर्म अंतर्गत अछूत जातियों के स्त्रियों को वे सर्वाधिक पीड़ित मानते थे क्योंकि उनका शोषण दोहरे स्तर पर होता था। एक तो पितृसत्तात्मक समाज-परिवार द्वारा दूसरा अछूत जाति में जन्म लेने के कारण। हिंदू धर्म में स्त्रियों की इस स्थिति के लिए वे हिंदू ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था जो मनुस्मृति पर आधारित थी, को जिम्मेदार मानते थे। यही कारण है कि हिंदू स्त्रियों की स्वतंत्रता, शिक्षा, संपत्ति अधिकार, तलाक आदि अधिकार छीनने वाले ग्रंथ मनुस्मृति की वे खुलकर आलोचना करते थे। साथ ही स्त्रियों की बेहतर स्थिति के लिए बौद्ध धर्म की तारीफ भी करते थे। क्योंकि हिंदू धर्म के विपरीत बौद्ध स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार था। स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए वे उनकी शिक्षा (जिसे वे उत्प्रेरक मानते थे) पर ज़ोर देते थे। 1927 में उनके संपादन में प्रकाशित पत्रिका 'बहिष्कृत भारत' के माध्यम से उन्होंने अस्पृश्यों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा का मुद्दा उठाते हुए अस्पृश्य स्त्रियों को शिक्षा के प्रति जागरूक किया। इसी क्रम में ज्योतिबा फुले की तरह उन्होंने भी अपनी अनपढ़ पत्नी रमाबाई को न केवल पूरी तल्लीनता के साथ पढ़ाया बल्कि वे उन्हें अपने साथ सभाओं में भी ले जाया करते थे। यही कारण है कि उनके आंदोलनों में स्त्रियों की सहभागिता को देखा जा सकता है। जल्दी ही उनकी पत्नी विभिन्न सभाओं में अपनी बात, अपनी समस्याएं खुल कर रखने लगी। डॉ. अंबेडकर द्वारा गठित समता सैनिक दल में एक महिला प्रकोष्ठ भी था जिसकी अध्यक्ष रमाबाई अंबेडकर थी।[ix] उन्होंने अन्य स्त्रियों को भी अपने साथ जोड़ने का कार्य किया। विशेष रूप से वेणुभाई भटकर, रंगूबाई शुभरकर उनके साथ सक्रिय रही। महाद टैंक सत्याग्रह, मनुस्मृति दहन से लेकर पुणे के काला राम मंदिर में प्रवेश में हजारों स्त्रियां सक्रिय रही। मनुस्मृति के प्रति को जलाने वाले आंदोलन में 50 से भी अधिक अशोक समुदाय की स्त्रियां शामिल थी। 12 अक्टूबर 1829 के पार्वती मंदिर में प्रवेश का नेतृत्व नानाबाई कांबले के जिम्मे था। कालाराम मंदिर प्रवेश के दौरान भी सीताबाई, गीताबाई, रमाबाई आदि स्त्रियां कार्यकर्ताओं के भोजन पानी के इंतजाम में लगी रही।[x] इस तरह गांधीजी के बाद डॉक्टर अंबेडकर को एक ऐसे दूसरे नेता के रूप में देखा जा सकता है जिन्होंने स्त्रियों को आंदोलन से जोड़ने का काम किया।

हिंदू कोड बिल द्वारा स्त्रियों को समानता का अधिकार देने का प्रयास

डॉ. अंबेडकर बहुसंख्य हिंदुओं के लिए एक ही प्रकार की संहिता तैयार करना चाहते थे। मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि धर्मों का व्यक्तिगत कानून तो था लेकिन इनकी तरह हिंदुओं का कोई एक समान नहीं बल्कि बिखरा हुआ कानून था। विवाह, उत्तराधिकार, दत्तक पुत्र/पुत्री रखने का एक समान कानून नहीं था। इस उद्देश्य से प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों/ स्मृति ग्रंथ/ शास्त्रों के अध्ययन के आधार पर डॉ. अंबेडकर ने सर अकबर हैदरी तथा सर बी. एन. राय की सहायता से हिंदू कोड बिल तैयार किया। यह बिल हिंदुओं के बिखरे नियम कानून को एक जगह समेट कर समय परिवर्तन के साथ उग आए खरपतवारों को नष्ट करने का एक माध्यम तो था साथ ही विवाह, तलाक, गोद लेने, पिता की संपत्ति में पुत्र के साथ पुत्री का भी भागीदार होना आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पक्ष थे, जो स्त्रियों के लिए वरदान साबित हो सकते थे। जैसे - स्वतंत्रता पूर्व तक हिंदू स्त्रियों को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं था, जबकि बृहस्पति स्मृति में स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिया गया है। तलाक का भी प्रावधान नहीं था, लेकिन कौटिल्य तथा पराशर स्मृति में तलाक का प्रावधान था। इसलिए अंबेडकर ने हिंदू स्त्रियों के लिए वरदान साबित होने वाले इन प्रावधान को अपने द्वारा तैयार किए गए हिंदू कोड बिल में जगह दिया। लेकिन दुर्भाग्य वश यह बिल काफी विरोध के कारण सदन में पास नहीं हो पाया।  

डॉ. अंबेडकर का पत्रकारिता जीवन

जिस उद्देश्य के साथ डॉ. अंबेडकर बढ़ रहे थे उसे पूर्ण करने में उन्होंने पत्रकारिता का भरपूर उपयोग किया। सत्यशोधक समाज के नेता ज्योतिबा फुले द्वारा 1877 में प्रकाशित पत्र 'दीनबंधु' से प्रेरणा लेते हुए वे इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए। व्यवस्थित रूप से उनकी पत्रकारिता जीवन की शुरुआत 1917 से ही शुरू हो जाती है जब बंबई (वर्तमान मुंबई) के 'सिडनेहम' कॉलेज में अध्यापक की नौकरी करने के साथ-साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में हाथ आजमाने कूद पड़े। तत्कालीन पत्रकारिता संस्थानों में उच्च जातियों के वर्चस्व से वे क्षुब्ध थे जो अस्पृश्यता उन्मूलन से संबंधित कोई भी लेख, विचार प्रेषित नहीं करते थे। समाचार पत्रों में सामाजिक, धार्मिक, जातिवादी व्यवस्था, पिछड़ों तथा अछूतों की दयनीय स्थिति या उनके शिक्षा से संबंधित सवालों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। इसलिए अस्पृश्यों को अपनी सामाजिक स्थिति से अवगत कराने तथा उन्हें संगठित करने के लिए उन्होंने समय-समय पर अनेक पत्रिकाओं का संपादन का प्रकाशन किया। उनकी पत्रकारिता के मुख्य मुद्दे होते थे - ब्रिटिश सत्ता, इसाई मिशनरियों द्वारा कराए जाने वाले धर्मांतरण का विरोध करना, अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले ब्राह्मणवादी सोच की आलोचना करना। इसी क्रम में 1920 ई. में सर्वप्रथम मराठी भाषा की पाक्षिक मूकनायक (1920-23) नामक पत्रिका को शुरू किया। कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस कार्य के लिए डॉक्टर अंबेडकर को ढाई हजार रुपये आर्थिक सहायता प्रदान किए। इस पत्रिका के लिए डॉक्टर अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हुए, अस्पृश्यों को जागृत एवं आपस में संगठित करने के लिए 40 लेख लिखे। इसके बाद के कुछ वर्षों में मराठी भाषा में ही बहिष्कृत भारत (1927-29)’, ‘समता/जनता (1928) प्रबुद्ध भारत (1954) आदि पत्रिकाओं का संपादन किया। इसके अलावा भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहे थे। उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य धन अर्जन करना नहीं था बल्कि उनका विश्वास वैकल्पिक पत्रकारिता में था। इस कल्याणकारी, अव्यवसायिक पत्रिका निकालने के कारण कई बार उन्हें कर्ज में डूबना पड़ा। पत्रकारिता के माध्यम से किस प्रकार पैसे बटोरे जा सकते हैं, इस बात का उन्हें ज्ञान था, लेकिन अपनी पत्रिका में भ्रम फैलाने वाले विज्ञापनों, विलायती शराब आदि के विज्ञापनों से वे परहेज करते थे।

डॉ. अंबेडकर का धार्मिक जीवन

1935 में एक सभा में सार्वजनिक रूप से उन्होंने कहा था 'मैंने एक हिंदू के रूप में जन्म लिया है लेकिन एक हिंदू नहीं मरूंगा'। ऐसा करने के पीछे एक मजबूत आधार था, वह आधार था - हिंदू सामाजिक व्यवस्था में जातिगत सर्वोच्चता के आधार पर व्यक्ति से भेदभाव। अपने इस संकल्प के पश्चात उन्होंने कई धर्मों जैसे इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध का काफी गहराई से अवलोकन, अध्ययन किया। और अंततः बौद्ध धर्म को एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में पाया। 14 अक्टूबर 1956 को अशोक (विजया) दशमी के दिन नागपुर में डॉ. अंबेडकर तथा उनके 5 लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

            इसके कुछ ही दिनों बाद 65 वर्ष की आयु में 6 दिसंबर 1956 को मधुमेह की बीमारी से लंबे समय तक लड़ते हुए डॉ. अंबेडकर की मृत्यु हो गई।

इस तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जिस प्रकार से संघर्ष कर देश के बहुसंख्य जनता को एक सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार दिलवाने में योगदान दिया उसके लिए देश की जनता उनके लिए कृतज्ञता प्रकट करती है। गांधीजी के बाद देश के सबसे महान व्यक्ति का खिताब जनता द्वारा डॉ. भीमराव अंबेडकर को दिया जाना इस कृतज्ञता का फल है।

साकेत बिहारी

अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छत्तीसगढ़)

अध्ययन हेतु प्रयुक्त सहायक ग्रंथ



[ii] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 6

[iii] Naudet Jules, Ambedkar and the critique of the caste society, laviedesidees.fr, 27 November 2009, Page No. 2

[v] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 7

[vi] Naudet Jules, Ambedkar and the critique of the caste society, laviedesidees.fr, 27 November 2009, Page No. 2

[vii] Sanghrakshita (1986) Ambedkar and Buddhism, Windhorse Publication, Page No. 7

[viii] Ray Ishita Aditya, Ray SarbaPriya (2011) An Insight into B.R Ambedkar’s Idea of Nationalism in the context of India’s Freedom Movement, Developing Country Studies, Vol.1, No. 1, ISSN 2225-0565, Page No. 27

[ix] More, Vijay G. (2011) Dr. B. R. Ambedkar’s Contribution for Women’s Right, Variorum, Multi Disciplinary e Research Journal, Vol 2, Page No. 5

[x] मेघवाल, कुसुम (2010) भारतीय नारी के उद्धारक डॉ. बी. आर. अंबेडकर सम्यक प्रकाशन, पृष्ठ सं. 114