Sunday 19 December 2021

गौतम बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में कब से माना जाने लगा?

 छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य से गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाने लगा था। यही कारण है कि इस दौर या इसके बाद में लिखे गए पौराणिक ग्रंथों या अन्य ग्रंथ (11वीं शताब्दी में क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित दशावतारचरित एवं 12 वीं शताब्दी में जयदेव द्वारा लिखित गीत गोविंद) या अभिलेखों में ही केवल इन बातों का वर्णन मिलता है। इन्हीं ग्रंथों के आधार पर 11वीं शताब्दी में हिंदुस्तान आए अलबेरूनी भी गौतम बुद्ध को विष्णु के अवतार मानते हैं।[1] रोचक बात यह है कि इससे पूर्व के brahmanical texts में बुद्ध को नास्तिक या चोर बताया गया है। अश्वमेध यज्ञ कराने के लिए इतिहास में जाना जाने वाला ऐतिहासिक चरित्र पुष्यमित्र शुंग ने तो इनके अनुयायियों को मारकर लाने के एवज में पुरस्कार देने की घोषणा कर दी थी।



[1] D N Jha, ‘Brahmanical intolerance in Early India’ Social scientist, May-June 2016, Page No. 4

 

 

सहिष्णु या असहिष्णु धर्म नहीं व्यक्ति होता है।

वर्तमान में हमारे देश में एक तरफ बड़ी संख्या में हिंदू धर्मावलंबी खुद को शान से हिंदू कहते हुए अपने ही देश के अन्य नागरिक विशेष रुप से मुसलमान, इसाई धर्मावलंबियों को अपने देश/धर्म के लिए खतरा मानते हैं, और इनके खिलाफ दिन रात आग उगलते रहते हैं। दूसरी तरफ कुछ मुसलमान भी पूरे जोश में हिंदुओं के खिलाफ इतिहास पलट कर देख लेने जैसे अनाप-शनाप बातें उगलते रहते हैं। इस कड़ी में आप उन धर्म या जाति के लोगों को भी शामिल कर सकते हैं जो बिल्कुल इन दोनों के नक्शे कदम पर चलते हैं।

          कोई शक नहीं कि दोनों ही समूह अपने-अपने धार्मिक समूह के नफरत के सौदागर हैं। इनसे यदि इनके अपने धर्म संबंधी विचार पूछा जाए तो दोनों के जवाब बिल्कुल एक जैसे होंगे। एक कहेगा कि हिंदू जैसा सहिष्णु धर्म दुनिया में और कोई नहीं है। तो दूसरा समूह अपने धर्म को दुनिया का सबसे अधिक अमन, चैन, शांति चाहने वाला धर्म बता देंगे। तीसरा समूह जिसे आप शामिल कर रहे हैं उनका भी जवाब ऐसे ही होने की पूरी गारंटी है। ऐसे लोगों को ही उस धर्म का कट्टरपंथी समूह कहा जाता है। इन्हें सिर्फ अपना ही दही मीठा लगता है। और सामने वाले का खट्टा। यहां दही शब्द से तात्पर्य धर्म से और मीठे का सहिष्णु या अमन चैन पसंद से है। इनको यह नहीं पता होता कि दही किसी की भी हो उसके स्वाद की प्रकृति एक जैसी ही खट्टी होती है। ऐसे में उसे मीठा बतलाना सत्य से मुंह मोड़ना है। इन दोनों समूहों के दही को कोई खट्टा कहे यह उन्हें बर्दाश्त नहीं है। वह मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं। उनका सहिष्णु धर्म तुरंत असहिष्णु हो जाएगा।

          दरअसल उन्हें यह नहीं पता होता कि किसी के प्रति सहिष्णु या असहिष्णु होने का संबंध धर्म से नहीं बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व से होता है। पूरी दुनिया को यदि वह जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग के आधार पर भेद करने के परीक्षा प्रेम भरी नजर से देखता है तो वह सहिष्णु है। अन्यथा ...

Saturday 18 December 2021

प्राचीन रीति रिवाजों में संसोधन या त्याग करने का समय

किसी भी धर्म चाहे वह हिन्दू हो या इस्लाम, के हजारों वर्ष पूर्व बनाई धार्मिक व्यवस्था को आंख मूंदकर follow करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। परिस्थितियां हमेशा एक सी नहीं होती। उस समय कुछ थी आज कुछ और है। तब प्राचीन काल या आरंभिक मध्यकाल का दौर था। उस दौर में हम उतने तार्किक नहीं थे जो इन रीति रिवाजों की प्रासंगिकता को आलोचनात्मक नज़रिये से देख सकें। आज हम आधुनिक काल में जी रहे हैं। हमारे देश में इसकी शुरुआत हुए 200 वर्ष हो चुके हैं। इन दो सौ वर्षों में अनेक धर्म/समाज सुधारकों ने कुछ अनर्गल प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए उसे कानूनन बंद करवाया। आज भी ऐसे कई कुप्रथाओं (व्रत, त्योहार) को हम जरूरी रीति रिवाज या नियम कानून मानकर उसे ढोए जा रहे हैं। जिसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

          ऐसे रीति-रिवाजों, मान्यताओं को या तो खत्म कर देना चाहिए या समय की प्रासंगिकता के अनुसार इनमें संसोधन होते रहना चाहिए, जैसा संविधान का होता है।

 

 

Thursday 16 December 2021

मेरी नजर में किसानों का तीन काले कानून के खिलाफत में आंदोलन

जुलाई 2020 में केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा संसद में बिना किसी बहस के चुपके से 3 किसान बिल पारित करवाए गए। कुछ ही दिनों में राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाने के पश्चात इसे कानून का रूप मिल गया। यह तीन कृषि कानून थे

1.     कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम - 2020

2.     कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020

3.     आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020

दिसंबर 2021 में वापस ले लिए गए। 1 वर्ष से अधिक चले इस आंदोलन से होने वाले संभवत नुकसान को देखते हुए। इस पूरे वर्ष केंद्र सरकार और उसके समर्थक जहां कृषि कानून के लाभ गिनाते रहे वहीं किसानों का एक बड़ा वर्ग इस कृषि कानून को किसानों के लिए कम व्यापारियों के लिए ज्यादा लाभदायक बता रहे थे। देश के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में मेरा भी अवलोकन यही कहता है कि यह तीनों कृषि कानून किसानों के लिए थे ही नहीं बल्कि व्यापारियों के हितों को ध्यान में रखते हुए इसे बनाया गया था।

            यदि हम पहले कानून कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 की बात करें तो इसके द्वारा किसानों को अपनी मर्जी से फसल बेचने की स्वतंत्रता दी गई। किसान अपनी फसल को देश के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति, दुकानदार, संस्था, व्यापारी आदि को भेज सकते थे। मेरा जहां तक मानना है कि इस कानून से किसानों को कोई खास लाभ तो नहीं लेकिन व्यापारियों को पूरा लाभ जरूर था। मेरे ऐसा मानने का आधार यह है कि वर्तमान में हमारे देश में किसानों की स्थिति इतनी उन्नत नहीं है कि अपनी उपज को दूसरे राज्य जाकर बेच सकें। उन्नत स्थिति के साथ-साथ समय का भी मसला है। हां, इसके विपरीत व्यापारियों के पास इतना समय और ट्रांसपोर्ट चार्ज जरूर होता है कि वह उत्तर प्रदेश की उपज को गुजरात, महाराष्ट्र या तमिलनाडु में बेच सकें। इस हिसाब से यह कानून विशुद्ध रूप से व्यापारियों के लिए साबित होता है ना कि किसानों के लिए।

दूसरा कानून जो कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 है। यह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित था। इस बिल से भी किसानों को नहीं बल्कि व्यापारियों को ही लाभ होता। इसमें कोई शक नहीं कि कंपनियां शुरुआत में किसानों को कांटेक्ट फार्मिंग के प्रति लुभाने के लिए लोकलुभावन स्कीम लाती। जैसा टेलीकॉम सेक्टर में जिओ तथा अन्य कंपनियों ने लाइफ टाइम फ्री वैधता की बात कर कुछ वर्षों बाद रिचार्ज के नाम पर जनता को लूट रहे हैं। इस बात की पूरी गारंटी है कि इस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसान नाम मात्र के जमीन मालिक होते। उस जमीन पर पूरा वर्चस्व कांटेक्ट करने वाली निजी कंपनी का होता। उपज बढ़ाने के लिए अनाप-शनाप केमिकल फर्टिलाइजर उपयोग कर 10 से 20 साल में किसानों की जमीन बंजर बना दिए जाते। जिस पर उद्योग लगाने के अलावा किसानों के पास कोई चारा नहीं होता। ऐसे में उसके पास उद्योग लगाने के पैसे तो होते नहीं, तो उसकी मजबूरी का फायदा कांटेक्ट करने वाली कंपनी उठाते। 2014 में सत्ता में आने के साथ ही बीजेपी सरकार ने मुट्ठी भर पूंजी पतियों को किसानों की भूमि आसानी से दिलाने के लिए भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आए थे। लेकिन इसके देशव्यापी विरोध ने सरकार को यह बिल वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस कानून द्वारा किसानों की जमीन को अप्रत्यक्ष रूप से लेने का प्रावधान किया जा रहा था।

            तीसरा कानून जो आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020 था, किसानों को किसी भी उपज का असीमित भंडारण करने की छूट देता था। इससे पहले किसी भी खाद्य वस्तु का एक निश्चित सीमा में ही भंडारण करने का प्रावधान था। पहले और दूसरे कानून की तरह इस कानून का भी सीधा संबंध व्यापारियों के हित से था ना कि किसानों के। इस कानून द्वारा किसान अब किसी भी वस्तु का असीमित भंडारण कर सकते थे। कहने को तो यह कानून किसानों के लिए था लेकिन इसका फायदा तो व्यापारी ही उठा सकते थे। पंजाब और हरियाणा को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश के किसानों की स्थिति दयनीय ही है। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। ऐसे में उनके पास किसी भी खाद्य वस्तु का भंडारण करने का साधन नहीं है जिससे कि उचित समय पर भंडारन गृह से कोई खास खाद्य वस्तु बाजार में उच्च दाम में बेचा जा सके। लेकिन बड़े-बड़े व्यापारियों के पास खाद्य वस्तुओं के भंडारण हेतु गोदाम की कोई कमी नहीं है। यदि है भी तो बड़े-बड़े गोदाम बनाना इन व्यापारियों के लिए कोई खास समस्या नहीं है। इसे हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। यदि मैं एक व्यापारी के रूप में देशभर के किसानों से ₹10 किलो के हिसाब से कोई खाद्य पदार्थ खरीद कर इसका भंडारण अपने गोदाम में कर लूं। और इसे मैं बेचू ही नहीं। बाजार में कृत्रिम किल्लत पैदा कर मार्केट रेट जब 50 से ₹100 किलो तक पहुंच जाए तो थोड़ा-थोड़ा कर निकालूं। इससे एक व्यापारी के रूप में मुझे फायदा होगा या उन किसानों को जिससे मैंने ₹10 किलो के हिसाब से वह खाद्य पदार्थ खरीदे।

इन बातों से स्पष्ट है कि यह तीनों कानून केवल व्यापारी हितों को ध्यान में रखते हुए लाए गए थे।

Tuesday 14 December 2021

उफ़्फ़ ये धर्म के ठेकेदार

 धर्म के ठेकेदारों की मानें तो प्रत्येक घटना के पीछे भगवान, ईश्वर, अल्लाह, खुदा का हाथ होता है। यानी अच्छे काम से लेकर बुरे काम तक सब भगवान, ईश्वर, अल्लाह की मर्जी से होता है। बिना उसकी मर्जी के कोई पत्ता भी नहीं हिलता है। ऐसा कह कर वह धर्म का ठेकेदार सामने वाले के दिमाग में अपने ईश्वर की सर्वोच्चता को स्थापित कर रहा होता है। अप्रत्यक्ष रूप से उस अदृश्य शक्ति से सामने वाले व्यक्ति को इतना डरा दिया जाता है कि इस पर कोई भी सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता। बस सभी लोग गुणगान करने में जुट जाते हैं। हास्यास्पद बात यह है कि सारे काम जब उनकी मर्जी से हो रहे हैं तो फिर स्वर्ग, नरक, जन्नत, जहन्नुम का लालच या डर दिखाने का क्या मतलब? कोई आदमी यदि किसी की हत्या कर रहा है तो वह अपराध कैसे हुआ? वह तो भगवान, ईश्वर, अल्लाह की मर्जी का पालन कर रहा है। ऐसे में गंगा, जमजम स्नान करने, तीर्थ यात्रा या हज करने जैसे फर्जी कर्मकांड करा कर केवल इंसानों के खून पसीने की कमाई लूटने का क्या मतलब?  

            क्या झूठ के नाम पर यह लूटपाट, कमाई उन धर्म के ठेकेदारों के लिए पाप नहीं है? इन पाखंडीयों को खुद के पाप दिखते नहीं, चले हैं दूसरे का पाप देखने और समाधान करने।

प्राचीन काल को त्याग आधुनिक काल में जीने की जरूरत

ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक हिंदू धर्म व्यवस्था में गर्भस्थ स्त्री के भ्रूण को बालक भ्रूण (बालिका नहीं) के रूप में परिवर्तित करने के लिए गर्भावस्था के तीसरे माह के दौरान पुंसवन संस्कार कराया जाता रहा है। इसके बावजूद भी केवल बालक का जन्म न होकर बालिका का भी जन्म होना इस बात को प्रमाणित करता है कि वर्तमान में भी इस परंपरा को ढोया जाना व्यर्थ ही है। प्राचीन काल या मध्यकाल में हमारे विचार इतने उन्नत नहीं थे, या हम इतने जागरूक नहीं थे कि इन परंपराओं के तह तक जाकर क्या सही है और क्या गलत सोच सकें, इसलिए हम इससे पूर्व कभी भी इस बात की सत्यता तक नहीं पहुंच सके। लेकिन अब हम प्राचीन या मध्यकाल में नहीं बल्कि आधुनिक काल में जी रहे हैं। यूरोप में जहां यह आधुनिक सोच 14वीं - 15 वीं शताब्दी में शुरू होती है। वही हमारे देश में इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी से मानी जाती है। आज 200 साल बाद भी यदि हम प्राचीन या मध्यकाल में जी रहे हैं तो यह हमारे लिए बिल्कुल ही हास्यास्पद बात है।

          इस आधुनिक काल में भी हमारे ही समाज के लोग इस अनचाहे मेहमान का स्वागत कुछ इस तरह करते हैं कि इसे सहने या सह देने का मतलब है हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिन्ह लगना। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो पुंसवन संस्कार के बाजजुद भी बालक के स्थान पर यदि बालिका का जन्म हो जाता है तो उस नवजात के मुंह में एक मुट्ठी नमक डालकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाती है । ये कोई काल्पनिक बातें नहीं बल्कि आज भी हमारे समाज के कुछेक उच्च वर्गों/जातियों में यह विद्यमान है। यदि याज्ञिक कर्मकांड से लिंग परिवर्तन संभव है तो आसमान लिंगानुपात पर भारत सरकार को हाय तौबा मचाने की क्या जरूरत है? हिंदू धर्मज्ञों से कहा जाए कि ऐसे ही कोई संस्कार ईज़ाद करें जिससे बालक भ्रूण को बालिका के भ्रूण में परिवर्तित किया जा सके। आसमान लिंगानुपात की कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी।  

          सिर्फ यही एक उदाहरण नहीं है। हिंदू व्यवस्था ही नहीं अन्य धर्मों में भी ऐसे असीमित अनर्गल प्रथाएँ विद्यमान हैं। आखिर कब तक इन फर्जी रीति-रिवाजों को हम ढोते रहेंगे? अपने विवेक, दिमाग से काम लेते हुए आज हमें अंधविश्वासों के मकड़जाल से आजाद होने की आवश्यकता है।   


Friday 22 October 2021

गणित में table के सही उच्चारण

 बचपन में दूसरी कक्षा तक हिंदी माध्यम वाले सरकारी स्कूल में पढ़ा। इस दौरान घर तथा सरकारी स्कूल में घरवाले या शिक्षक जी द्वारा 2 के पहाड़े कुछ इस तरह पढ़ाए जाते थे -

दू एकम दू

दू दुनी चार

दू तिया छे ...


दूसरी कक्षा के बाद parents ने जब दाखिला एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में करा दिया तो अंग्रेजी में मेरे level को देखते हुए स्कूल के principle जी ने मुझे UKG (Upper Kinder Garden) में डाल दिया।

स्कूल और माध्यम बदलते ही 'पहाड़े' टेबल (table) बन गए।

इस दौरान 2 के टेबल कुछ इस तरह टीचर जी द्वारा पढ़ाए जाते थे - 

टू वनजा टू

टू टूजा फोर

टू थ्रीजा सिक्स ...


उस दौरान बिना कुछ सोचे समझे बस रट्टा मार कर याद कर लिए।

आज दो दशक बाद अचानक से इसका अर्थ समझने का ख्याल आया विशेष रूप से यह विचार करने के बाद कि english में वनजा, टूजा, थ्रीजा जैसे कोई शब्द कहीं देखने को आजतक नहीं मिले। Analysis करने के बाद 2 का table कुछ इस तरह सामने आया -

two ones are two 

two twos are four

two threes are six ...

आज ऐसा लग रहा है जैसे महावीर की तरह मुझे भी केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। 

Sunday 18 July 2021

मनुष्य के तीन नेत्र

Mythological Character शिव के बारे में कहा जाता है कि उनके पास तीन आँखें हैं। दो आंखें दुनिया को देखने के लिए हमेशा खुली होती है तो वहीं तीसरी आंख किसी विषम परिस्थिति में खुलकर कुछ अनोखे कारनामे करती है। अन्य संप्रदाय के लोग भी अपने-अपने देवी-देवताओं के भी तीन आंखें होने के दावे करते रहते हैंमूर्तियों तथा तस्वीरों के माध्यम से इसे समझा जा सकता है।

            मेरा मानना है कि सिर्फ Mythological देवी-देवताओं के पास 3 आँखें हों या न होंहम सभी मनुष्यों के पास तो तीन आंखें होती ही हैं। दो आंखों को हम दुनिया को प्रत्यक्ष रूप से देखने के लिए इस्तेमाल करते हैं। तीसरा नेत्र अदृश्य होता है। लेकिन वह भी निश्चित समय पर पर्याप्त साधना के पश्चात खुलता जरूर है। यहां साधना से तात्पर्य है किसी क्षेत्र विशेष में काफी गहराई तक चिंतन-मनन कर उसके ऐसा होने (कार्य कारण संबंध) के लिए उत्तरदाई कारण को निकालना है। इस कार्य-कारण संबंध को निकालना तभी संभव हो पाता है जब उसका तीसरा नेत्र खुलता है। यह तीसरा नेत्र व्यक्ति को उस प्रत्यक्ष से परे देखने की क्षमता प्रदान करता है।

           बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध भी इसी तीसरी नेत्र को खोल पाए तब जाकर बुद्ध हुए। हमें भी अपने तीसरे नेत्र को खोलने के लिए प्रेरित होना चाहिए।

 


Friday 11 June 2021

हमारे देश में प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन कब से शुरू हुआ?

 

प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था का आधुनिक अध्ययन (history के ethics को ध्यान में रखते हुए) British East India Company के प्रयासों से शुरू हुआ। 1757 ई. के प्लासी की लड़ाई के बाद बंगाल और बिहार क्षेत्र जब कंपनी शासन के अधीन हो गए तो शासन चलाने के लिए इस अध्ययन की आवश्यकता पड़ी। चूंकि East India Company एक विदेशी जाति (हिंदुस्तानी) की संस्कृति तथा व्यवस्थाओं से परिचित हुए बिना उस पर व्यवस्थित रूप से शासन नहीं कर सकती थी। इसलिए उन्होंने Indology को बढ़ावा दिया। इसी क्रम में 1776 ई. में 'A Code of Gentoo laws', पुस्तक प्रकाशित हुई, 1794 ई. में Indology के जन्मदाता सर विलियम जॉन्स द्वारा मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद किया गया, 1798 ई. में एच टी कोलब्रुक ने एक निबंध 'Enumeration of Indian Classes' लिखा।

          इन उपरोक्त रचनाओं की मदद लेते हुए 1818 ई. में साम्राज्यवादी इतिहासकार सर जेम्स मिल ने एक पुस्तक 'The History of India' लिखा जिसमें उन्होंने हिंदू वर्ण व्यवस्था का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। सिर्फ वर्ण व्यवस्था ही नहीं बल्कि उस समय की अनेक कुरीतियां जैसे सती प्रथा (मुख्यतः ब्राह्मणों के बीच यह प्रथा प्रचलित थी जिसमें पति की मृत्यु के पश्चात उसकी विधवा को पति की चिता पर ही जीवित अवस्था में ही जला दिया जाता था), आजीवन वैधव्य (जिन कुलों में सती प्रथा प्रचलित नहीं था वहाँ की विधवाओं को आजीवन कठोर वैधव्य जीवन जीने को मजबूर कर दिया जाता था, वे दूसरा विवाह नहीं कर सकती थी), बाल विवाह (यह प्रथा अधिकांश वर्ण-जातियों में प्रचलित थी जिसमें कन्या का विवाह उसके मासिक आने के आयु में या उसके पूर्व कर दिया जाता था, यह बेमेल विवाह भी होता था जिसमें वर की उम्र वधू से दुगनी या तीन गुणी होती थी) आदि ने East India Company के Indology में रुचि रखने वाले अधिकारियों को इस दिशा में खोज करने के लिए प्रेरित किया। इसके आधार पर या प्रत्युत्तर में अनेक प्राच्यवादी, साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा अनेक प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किया गया।  

          इस क्रम में शूद्रों के बारे में सर्वप्रथम वी. एस. शास्त्री ने 1922 ईस्वी में एक छोटा सा निबंध लिखा जिसमें उन्होंने 'शूद्र' शब्द के दार्शनिक आधार की चर्चा किए हैं। उनके अनुसार शूद्र वैदिक अनुष्ठान करने के अधिकारी हैं। तत्पश्चात 1946 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने शूद्रों की उत्पत्ति के संबंध में लिखा।

 

संदर्भ :

·       शर्मा रामशरण (2013) शूद्रों का प्राचीन इतिहास' राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 9

Sunday 30 May 2021

किसी भी क्षेत्र की ऊंचाई मापने के लिए मानक के रूप में समुद्र तल का उपयोग क्यों किया जाता है?

पृथ्वी पर कोई क्षेत्र कितनी ऊंचाई पर स्थित है इसे जानने के लिए समुद्र तल को मानक के रूप में प्रयोग किया जाता है। समुद्र तल को मानक माने जाने के पीछे प्रमुख कारण यह है कि समुद्र तल की ऊंचाई हमेशा एक समान रहती है। विपरीत परिस्थितियों में थोड़ा बहुत ही ऊपर नीचे हो सकता है, लेकिन धरती तल की ऊंचाई हर जगह एक समान नहीं है। कहीं पर्वत है, कहीं पठार है, तो कहीं मैदानी भाग है। अर्थात पृथ्वी तल कहीं ऊंचा है तो कहीं नीचे भी है। इसलिए किसी भी स्थान की ऊंचाई का पता लगाने के लिए समुद्र तल को ही मानक के रूप में भूगोलविदों द्वारा प्रयोग किया जाता है। विशेष रुप से रेल विभाग द्वारा। रेल विभाग द्वारा प्रत्येक स्टेशन पर इसे अंकित करवाया जाता है ताकि अगले स्टेशन के ऊंचाई का पता हो तो लोको पायलट उस अनुरूप ट्रेन के इंजन को खींचने के लिए पावर को मैनेज कर सकें।


Sunday 25 April 2021

अन्न का मोल

वीरभद्र पढ़ाई करने के साथ-साथ डेयरी चलाने में अपने भैया की भी मदद किया करता था। उनकी अनुपस्थिति में दूध के लेन-देन का हिसाब-किताब रखने, डेयरी के केयरटेकर की भूमिका में रहने के साथ-साथ वहाँ के डेयरी कर्मचारियों के साथ मिलकर दूध भी पैक कर दिया करता था। वीरभद्र एक बहुत ही मितव्ययी परिवार का सदस्य था। उसके घरवाले अन्न के महत्व को समझते थे और बहुत ही नपे तुले मात्रा में भोजन बनाते। ऐसा करने के बावजूद कभी-कभी उसके घर दिन का या रात का भोजन बच जाता था। हालांकि उसके पिताजी, माँ या घर के अन्य सदस्य उस बासी भोजन को भी गरम कर खा लेते थे। विषम परिस्थिति में ही भोजन बचा रह जाता था। ऐसे में उस बचे भोजन को डेयरी के गायों को दे दिया जाता था। वे उसे बिना कोई नखरा किए चाव से खा लेती थी।

          एक दिन शाम को जब वीरभद्र डेयरी जा रहा था तो उसकी भाभी ने उसे एक बर्तन देते हुए कहा वीरू इसमें परसों की रोटी, थोड़ा चावल और थोड़ा दाल है जिसका स्वाद खट्टा हो गया है, इसे गाय को दे दीजिएगा वो खा लेगी”। वीरभद्र उस बासी खाने से भरा बर्तन लेकर डेयरी पहुंचा ही था कि उसे किसी व्यक्ति के ज़ोर से गुस्से में बड़बड़ाने का शोर सुनाई दिया। एक लगभग 50 वर्ष का अधेड़ व्यक्ति डेयरी के कर्मचारी वकील पर चिल्ला रहा था –

“कामा कराय लेन्ही और पैसबा नाय देन्हीं, कुछो खायो ले नाय देन्हीं। फ्री में के करतो कामा? हम नाय करबो अब। हमर कोय इज्जत नाय? ई बड़का गो खटल्बा हमरे, हमें मालिकबा और हमहीं खटबो करय हिये और हमरे कोई चाय, पानी, शर्बत तक नाय पूछय है। अपने दाल-भात-तरकारी खाएके दिनभर सुतल रहै हीं कान में तेल देके! जो हम नाय रहबो अब! 10 रुपैया भाड़ा दे, हम जाय हिये ससरार(ससुराल)”।

          वीरभद्र को पूरा मामला समझते देर नहीं लगा। दरअसल बात ये थी कि वह गुस्सैल स्वभाव का व्यक्ति अपने समय का काफी पढ़ा-लिखा, समझदार, मज़ाकिया स्वभाव का, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति शिवनारायण था। एक दुर्घटना के कारण उसका मानसिक संतुलन थोड़ा बिगड़ गया था। इस कारण घरवालों, पड़ोसियों से हमेशा कुछ न कुछ बात को लेकर लड़ाई-झगड़े करता रहता। घरवाले भी रोज की किच-किच से परेशान होकर उसकी तरफ उतना ध्यान देना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप वह घर से हमेशा भागा रहता। भोजन और आश्रय की तलाश में अपने रिश्तेदारों से लेकर अलग-अलग गाँव भटकता रहता। 10 किलोमीटर के दायरे का शायद ही कोई गाँव उसके चरण चिन्ह से अछूता हो। इन गांवों में शादी, श्राद्ध, धार्मिक आयोजन की टोह वह हमेशा लेता रहता था। क्योंकि ऐसे आयोजनों में ही उसके पेट की आग को पूर्ण तृप्ति मिलती थी। सभी लोग शिवनारायण के इस आवश्यकता का खूब फायदा उठाते थे। शादी, श्राद्ध जैसे अपने घरेलू आयोजनों में उनसे कमर तोड़ काम करवाते। इन कामों में भोजन बनाने हेतु मोटे-मोटे लकड़ी के कुंदों को कुल्हाड़ी से फाड़कर चूल्हे में जलाने योग्य बनाने से लेकर कुएं से ड्रम में पानी ढोकर भरने, जूठे पत्तल उठाने तक शामिल थे। इन आयोजनों में जितने भी तथाकथित निम्न दर्जे के काम होते थे, उसके ही जिम्मे आते थे। बदले में आयोजक खाना खिलाकर बिना मजदूरी दिये या नाम मात्र मजदूरी देकर उसे चलता कर देते। अपने कमरतोड़ श्रम का कभी उसे वास्तविक मोल नहीं मिलता था। कुछ रिश्तेदार थोड़ा दरियादिली दिखाते और काम के बदले पैसे से लेकर उसकी आवश्यकता की चीजें जैसे पुराने कपड़े, टॉर्च (अक्सर रात के अंधेरे में भी वह अपने निर्धारित गंतव्य के लिए निकल जाता था) छाता आदि दे देते थे। अधिकांशतः मृतक से संबंधित उपयोग की वस्तुएँ उसके जिम्मे आते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो काम कराने के बदले बेमन से वास्तविक मजदूरी दे देते थे केवल अपने सम्मान बचाने के लिए। क्योंकि जिन लोगों से शिवनारायण को काम कराने के बदले उसके मन मुताबिक पैसे नहीं मिलते थे उसके बारे में वह जहां भी जाता प्रचारित करता रहता था कि फलां आपन बेटा/बेटी के शादी, किरिया (श्राद्ध) में कामा कराय लेलके और पैसबो नाय देल्के घरेलू समारोहों से फुर्सत मिलती तो खेतों में काम करने लग जाता। यहाँ भी अधिकांश लोग अपने फसल की निराई-गुड़ाई करवा लेते, धान-गेंहू के फसल खेतों से खलिहान पर ढुलवा लेते और मजदूरी मांगने पर उल्टे घुड़की देकर दो-तीन दिन तक भरपेट खाते रहने की बात कर उसे भागा देते थे। बेचारा क्रोध में जलकर गाली-गलौज कर वह संतुष्ट हो लेता। पेट की आग बुझाने के लिए वह विक्षिप्तावास्ता में दर-दर भटकता रहता। कभी-कभी पूरे दिन खाना भी नसीब नहीं होता था। ऐसी ज़िंदगी से हताश होकर विक्षिप्तअवस्था में वह हमेशा कुछ ना कुछ बड़बड़ाता रहता था। उसके बड़बड़ाहट में उसके साथ हुए अन्याय, ज्यादिति के किस्से होते थे।

          ऐसा नहीं है कि वह गरीबी के कारण अन्न के लिए मोहताज था। बल्कि वह एक धनाद्य तथा भरे पूरे संयुक्त परिवार से आता था। जमीन जायदाद के मामले में उसका परिवार 400 परिवार वाले गांव में दूसरे या तीसरे स्थान पर गिना जाता था। सम्मिलित रूप से उसके परिवार के पास 30 बीघा जमीन थी। इतनी जमीन भले ही आपके नजर में बिल्कुल पिद्दी सा लगे, लेकिन उस क्षेत्र में इतनी भी जमीन जिसके पास होती थी उसका ओहदा गांव के राजा के समान होता था। चार भाइयों में वह तीसरे नंबर पर आता था। दोनों बड़े भाई सरकारी नौकरी से जुड़े हुए थे। एक रेलवे में ड्राइवर के पद पर था तो दूसरा धनबाद के कोयला खदान में एक अच्छे पद पर। धन दौलत की कोई कमी नहीं थी। कृषि से संबंधित काम उसके पिताजी और छोटे भाई के जिम्मे था। छोटे भाई को पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था लेकिन खेती करवाने में वह उस्ताद था। शिव नारायण उच्च शिक्षा प्राप्त कर अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर बनना चाहता था। वह भी 1980 के दसक में। इससे उसके सोचने के दायरे और प्रतिभा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अपने समय का वह उस गांव-क्षेत्र का एकमात्र बंदा था जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता था। उसकी बातों-विचारों को सुनकर लोग अवाक रह जाते थे। एक प्रतिष्ठित खानदानी परिवार में विवाह के पश्चात एक दुर्घटना से उसके मानसिक संतुलन को आघात लगा। इसके पश्चात उसकी पत्नी उसके बदले व्यवहार को सह नहीं पाई और आत्महत्या कर ली। इस घटना ने उसे और विक्षिप्त बना दिया। इसके पश्चात घर वाले ने मानसिक संतुलन की बात को छुपाते हुए उसकी दूसरी शादी करा दी। उसकी दूसरी पत्नी बहुत दिनों तक उसकी हरकतों को बर्दाश्त करते हुए परिवार को आगे बढ़ाती रही। दो बच्चे के साथ-साथ अपने पति की भी काफी दिनों तक देखरेख की। लेकिन एक ऐसा भी समय आया जब अपने पति की उटपटांग हरकतें उससे भी बर्दाश्त नहीं होने लगी। धीरे-धीरे वह भी अपने पति के हरकतों पर टोका टिप्पणी करने लगी। कई बार इसकी वजह से हिंसक मारपीट होने लगे।

          इस झगड़े से खुन्नस खाकर शिवनारायण गुस्से में घर से निकल जाता और दो-तीन दिनों तक अपने रिश्तेदारों में या इधर-उधर विक्षिप्त रूप बनाए घूमता रहता। कहीं खाना मिल गया तो खा लेता नहीं तो भूखे ही घूमता रहता। दूसरी तरफ उसकी पत्नी खेती-बाड़ी से लेकर बच्चों के खान-पान, पढ़ाई लिखाई का भार अच्छी तरह संभाले हुए थी। खेतों में गर्मी, बारिश, ठंड की परवाह किए बिना कमरतोड़ काम करती। धीरे-धीरे उसे भी अपने पति का घर से दूर रहना सुकून देने लगा। कम से कम कलह तो नहीं होता था। यही कारण है कि जब भी शिवनारायण इधर-उधर से घूम कर आता उसकी पत्नी उससे झगड़ा कर फिर से भागने पर मजबूर कर देती। बेचारे शिवनारायण के पास इधर-उधर भटकने के अलावा कोई चारा नहीं होता था। ऐसे में वह अपना एक स्थायी ठिकाना ढूँढने की कोशिश में लगा रहता। लेकिन बिना धन कहाँ स्थायी ठिकाना मिलता है।

          इसी दौरान शिवनारायण के गांव से 5 किलोमीटर की दूरी पर ही नए जिले के रूप में मान्यता मिलने के बाद प्रधानपुर शहर में काफी तेजी से सरकारी इमारतें व निजी घर बन रहे थे। शिवनारायण के गांव के बहुत सारे लोग वहां राजमिस्त्री से लेकर मजदूर के रुप में काम करते थे। उसकी स्थिति पर तरस खाकर वे लोग उसे कुछ ना कुछ काम दिला देते थे। घर से दूर दिन भर वह काम करता और रात को उसी बन रही इमारत में ही सो जाता। वह इमारत उसे अपना घर ही लगता था। अपना घर समझ कर पूरी ईमानदारी से वह उसके निर्माण में लगा रहता। उसकी मानसिक विक्षिप्तता का फायदा उठाने से कोई चूकता नहीं था। मालिक या ठेकेदार उसकी मजदूरी से 10-20 रुपए काटकर उसे देते थे। जो पैसे मिलते थे उसे देख कर ही वह इतना खुश हो जाता था कि उसे पता ही नहीं होता था कि सामने वाला उसे पूरे पैसे दे रहा है या नहीं। उसे बस नियमित पैसे मिलने की खुशी होती थी कम मिला या अधिक मिला इस बात की उसे इस दौरान कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। उसे जितना मिलता उतने में दो से तीन समय सत्तू खाकर खुश रहता।

          उसकी ये कहानी जानकर हम आप भले ही गम में डूब गए हों लेकिन इतनी भी गमगीन नहीं थी उसकी जिंदगी। क्योंकि वह क्या कर रहा है? क्या बोल रहा है? इसका सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आदि बातों का उसे कोई खास आभास नहीं होता था। पूरा दिन जितना वह काम करता था उससे दुगना-तिगुना अधिक इधर-उधर की बातें कर हंसते-हँसाते-बड़बड़ाते रहता था। 10 मिनट तक उसकी बात सुनकर सामने वाला कोई भी व्यक्ति कितना भी उदास क्यों न हो बिना हंसे नहीं रह पाता था। सामने वाले को हंसते देख अनायास उसे भी हंसी आ जाती थी। बस इसी तरह गमों के बोझ तले हंसते मुस्कुराते हुए उसकी जिंदगी कट रही थी। यही नहीं अमिताभ बच्चन का वह जबरदस्त प्रशंसक था। लावारिस फिल्म का एक गाना 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' उसका सबसे पसंदीदा गाना होता था। दिन-रात उसे गुनगुनाते हुए सहकर्मियों का मनोरंजन करता रहता था। इसी दौरान जब महफिल जमती तो अंग्रेजी के लेक्चरर वाला रूप उसमें जाग जाता था। वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने लगता था। उसकी अंग्रेजी बोलने की प्रतिभा देखकर साथ में काम करने वाले सभी लोग उसके मजे लेना छोड़कर शांत, मायूस हो जाते थे। सब की आँखें छलक आती थी। चूंकि उसे बोलने की कोई सुध बुध नहीं होती थी ऐसे में वह अक्सर ऐसी बातें भी बोल जाता था जो किसी को बर्दाश्त नहीं हो। जिससे वह उसे वहां से भगा देते थे।

          वीरभद्र का घर बनाने में भी उसने अपने खून पसीने लगाए। उसके घर की एक-एक दीवार उसकी ईमानदारीपूर्वक काम की प्रत्यक्ष गवाह है। वीरभद्र के दादाजी जो प्रधानपुर शहर में नए घर बनवा रहे थे एक बहुत ही नेक दिल इंसान थे, उसके खाने-पीने का पर्याप्त ध्यान रखते थे, नए गमछे, लुंगी के साथ-साथ पुराने छोटे हो चुके कपड़े, धूप, बारिश से बचने के लिए छतरी, स्वेटर आदि बेझिझक दे दिया करते थे। इस कारण वीरभद्र के घर से शिवनारायण को विशेष लगाव रहता था। गृह निर्माण पूर्ण हने के बाद भी सप्ताह में एक दिन इधर-उधर से घूमकर घर पर आ ही जाता था। वीरभद्र की मां को उसके स्थिति पर बहुत दया आती थी लेकिन कर भी क्या सकती थी? गृह निर्माण में उसकी ईमानदारी पूर्वक कम से वह प्रभावित हुई थी इसलिए जब भी वह आता तो जो भी बना हो घर में निःसंकोच खिलाती थी। उसका उतरा चेहरा देखकर ही उन्हें पता चल जाता था कि उन्हें कई दिनों से खाना नहीं मिला है। खाना यदि नहीं भी बना हो तो चावल के भूँजे (मूढ़ी), चूड़ा-चीनी, या सत्तू खाने के लिए दे देती थी। बदले में स्वाभिमानी शिवनारायण कुछ न कुछ काम बिना बोले ही कर जाता था। अगले 10 वर्षों तक उसकी जिंदगी ऐसे ही चलती रही।

          10 वर्ष पश्चात वीरभद्र के भैया श्रवण ने अपने घर से थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा डेयरी फार्म खोला। 10 गायों की देखभाल के लिए 'वकील' नाम का एक व्यक्ति दिन रात लगा रहता था। उनके रहने का इंतजाम डेयरी में ही था। गाय की देखरेख करने के बाद वह रोज दोनों समय खुद से खाना बनाता। भूखे प्यासे घूमने से शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो चुके शिवनारायण को इन दिनों भवन निर्माण में काम नहीं मिल रहा था। ऐसे में वीरभद्र के भैया की इस छोटी सी डेयरी में उसे आशा की एक किरण दिखी। उसने वीरभद्र के भैया श्रवण से डेयरी में काम करने की इच्छा जताई। काफी कुछ सोचने विचारने के बाद उन्होंने उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए मना कर दिया। बावजूद इसके वह डेयरी में आता-जाता रहता था। डेयरी की साफ सफाई, घास काटने, गायों को नहलाने, दूध-दुहने, खिलाने पिलाने से लेकर और सभी काम वह दिन-रात, हंसी-मजाक करते, लड़ते-झगड़ते वकील के साथ दिल खोलकर करता रहता था। बदले में वकील उसे खिलाता-पिलाता रहता। पेट तो उसका भर जाता लेकिन पैसे कमाने की भी तो चाहत थी। उसका क्या करें? उसके काम से खुश होकर वीरभद्र के भैया 20-30 रुपए प्रतिदिन दे देते थे। चूंकि वीरभद्र भैया की अनुपस्थिति में सुबह शाम डेयरी आता जाता रहता था। ऐसे में उसके संवेदनशील स्वभाव ने शिवनारायण की ज़िंदगी को नजदीकी से जानने के लिए प्रेरित करता था। खाली समय में वह शिवनारायण के जीवन संघर्ष को खोद-खोद पर पूछते रहता। शिवनारायण को मलाई बर्फ खाना बहुत अच्छा लगता था, उसे जब भी पता चलता कि शिवनारायण डेयरी पर आया हुआ है तो भैया की जगह वह खुद चला आता, रास्ते में मलाई बर्फ खरीदते हुए। वह डेयरी के कामकाज देखने कम शिवनारायण की बातें सुनने ज्यादा आता था। पता नहीं उसे उसके जीवन संघर्ष सुनने से इतना लगाव क्यों था? समय परिवर्तन के साथ शिवनारायण के अंग्रेजी बोलने की धार भले ही कुंद पड़ गई लेकिन उसके साथ अंग्रेजी में बात कर वीरभद्र को बहुत ही सुकून मिलता था। धीरे-धीरे वकील का उसके प्रति स्वभाव बदलने लग गया। जो काम पहले वह शिवनारायण के साथ मिलकर करता था अब अधिकांश काम वीरभद्र के भैया की अनुपस्थिति में उसके जिम्मे डालकर उसपर हुकुम चलाता रहता था। खाना मिलने की मजबूरी के वशीभूत होकर वकील के आदेशों को मानने के अलावा शिवनारायण के पास कोई और चारा नहीं होता था। इस क्रम में दोनों के बीच लगातार गृहयुद्ध की स्थिति बनी रहती थी। कई बार वकील उसे खदेड़ कर भगा भी देता था। लेकिन एक-दो दिन भटकने के बाद थक हार कर फिर से डेयरी ही चला आता था। चारा कटवाना, गायों को खिलवाना, गोबर फेंकवाना आदि काम करवाने के बाद वकील अब खाना खिलाने के स्थान पर 10 रुपए देकर बहलाने लगा था। बेचारा 10 रुपए का सत्तू लेकर कहीं से नमक प्याज की व्यवस्था कर पेट भर लेता था। वीरभद्र को जब उसके भूखे होने की बात पता चलती तो कभी-कभी अपने पैकेट मनी से 10-20 रुपए दे देता कुछ खाने के लिए।  

          एक दिन वीरभद्र के भैया को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। ऐसे में डेयरी पर शाम की ड्यूटी वीरभद्र के जिम्मे आ गया। भाभी द्वारा गाय को दिये जाने वाले दिए गए बदबू मारती रोटी, चावल और दाल को वीरभद्र एक बर्तन में लेकर डेयरी पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही उसे शिवनारायण की वकील पर दहाड़ भरी आवाज सुनी। यह रोज की बात थी इसलिए वीरभद्र ने इसकी परवाह किए बिना केन को खोलकर बेकार पड़े खाने को गाय की नांद में डालने के लिए बढ़ा। अचानक से उसे एक ज़ोर की डांट पड़ी।

'हों रे रे! पढ़ल लिखल के टोपी नाय, और कुतबा के पैजामा' तोहरा कुछ बुझाए हो, एसीया से निकलनहिं और आए गेल्हीं खटलबा पर। तनियो सा चिंता हौ कि शिव भैया दु दिन से भुक्खल छटपटाव करै है तो कुछ खाइल दिये। तोरी काल के ई बकिलबो कामा कराय लेलको और 10 रुपैया थमाय देल्को कि जो सत्तू खाय लियहें। 10 रुपैया के सत्तू में पेट भरय है। तोहरा री दूधा बेच-बेच के बिल्डिंग पीट लेनही, और हम दिन रात भटकेत रहै हिये। हमर मोन नाय होबे है एसीया में रहेके। चल एसीया में नाय रहबे दाल, भात तरकारियो से खाय से गेलिए। जेकरा खिलाबे के ओकरा न खिलाय के गइया के दाल भात खिलबैए है। ला छोड़ हमरा दे। गइया पाहुन है जे दाल भात तरकारी खिलाब करेहीं।

शिवनारायण ने वीरभद्र के हाथों से बदबू मार रहे खाने से भरे केन को झटके में छीनकर एक जगह बैठ गया। उस केन में चार रोटियां, काफी मात्रा में दाल और चावल थे। दाल में भीगकर रोटियाँ पिलपिली हो गई थी। वह खाने लायक था ही नहीं। इसे देखकर वीरभद्र ने उसे खाने से बहुत मना किया -

शिव दा, एकरा नाय खा, ई खनमा महैक गेले है, तबीयत खराब होय जैतअ। हमरा से तोएँ 50 रुपैया ले ल, मुर्गा भात बाजार में खाय लेअ, लेकिन एकरा नाय खा

शिवनारायण ने वीरभद्र की एक नहीं सुनी, उल्टा डांट दिया –

तोरा कुछ बुझावै हो, 50 टका कमावे में केतना मेहनत लगए है। अभी बाप के होटल में खाय हीं इसलिए न समझ में आवै हो। जहिया अपने से कमयभीं ताहिया पता चलतओ।

          डांटने के साथ-साथ एकदम प्रसन्नचित भाव से शिवनारायण इतनी तेजी से गबागब खाए जा रहा था जैसे किसी निर्जला उपवास रखा व्यक्ति उपवास टूटते ही मसालेदार मैगी पर टूट पड़ता है। चेहरे पर कोई शिकन नहीं कि रोटी भीगकर पिलपिली हो गई, भात गल गए हैं, दाल खट्टी लग रही है। वीरभद्र एक टक उसे देखता ही रह गया। इतने में ही खाने के बाद चापाकल पर जाकर केन को धोया। और एक लंबी डकार लेते हुए कहा –

'दु दिन बाद अइसन बढ़िया और एतना खाना मिललइ। खाय के मज़ा आय गेलो

यह सुनकर वीरभद्र की आँखों से आँसू छलक आए। वह सोच में पड़ गया कि यह पेट की आग व्यक्ति को कितना मजबूर कर देती है कि वह अन्न के एक-एक दाने का मोल समझने लगता है। उस दिन उसे एहसास हुआ कि अन्न के मोल के अलग-अलग मायने हैं। आपका पेट यदि भरा हो तो बासी खाने आपके लिए बेकार हो जाते हैं लेकिन एक भूखे को वही खाना अमृततुल्य स्वादिष्ट लगता है। इससे पहले कि वीरभद्र उससे कुछ कहता शिवनारायण वकील को ताना मारते हुए कि – रे वकीलवा, कामा कराय लेन्हीं और पैसबा नाय न देन्ही, कहियो पुछ्बो तोरा' अपना झोला-डंडा लिया और शाम के अंधेरे में गुम हो गया।

          अगले दिन वीरभद्र अपने पैकेट मनी से 100 निकाल कर ले गया यह सोच कर कि आज शिवनारायण को वह बगल वाले होटल में बैठा कर भर पेट मुर्गा-भात खिलाएगा। लेकिन उसका यह ख्वाब कभी पूरा नहीं हुआ। क्योंकि उसके बाद वह दोबारा डेयरी पर दिखा ही नहीं।

          इस घटना के 2 साल बाद वीरभद्र को वह अपने घर से 100 किलोमीटर दूर मधुपुर रेलवे स्टेशन पर दिखा। प्रधानपुर की ओर जाने वाले ट्रेन दो मिनट के लिए मधुपुर स्टेशन रुकी। ट्रेन रुकते ही उसे उसी प्लेटफॉर्म पर बड़े-बड़े उलझे बाल, दाढ़ियों में मैले-कुचैले कपड़े पहने एक शख्स दिखा जो एक खोमचे से मूँगफली चुरा रहा था। खोमचे वाले ने उसे ज़ोर से डांटा तो वीरभद्र का ध्यान उस विक्षिप्त की ओर गया। वह देखते ही पहचान गया और झट से गाड़ी से उतर शिवनारायण को जोर से झकझोरा। ' शिबू दा!' उस विक्षिप्त शख्स ने वीरभद्र की ओर ध्यान से देखा लेकिन कोई उत्तर नहीं दिया। सिर झुकाए, कहीं खोए शांत खड़ा रहा। खोमचे वाले ने पूछा, 'आप पहचानते हैं इसे क्या?’ वीरभद्र ने सिर हिला कर हां में जवाब दिया। 'कैसे लोग हैं आप? ले जाइए इसे अपने घर, बेड़ी में जकड़ कर रखिए घर पर। 1 साल से मधुपुर में पड़ा है। कहां से आया है, कुछ बोलता नहीं है, बस दिन-रात हम खोमचे वालों की नाक में दम कर रखा है।' खोमचे वाले ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला। वीरभद्र की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे ले जाए तो कहाँ ले जाए, किसकी ज़िम्मेदारी पर ले जाए? कौन रखेगा इस विक्षिप्त को? इतने में ट्रेन खुलने का हॉर्न बजा। वह बेमन से ट्रेन में चढ़ा। चलती ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा होकर शिवनारायण को तब तक निहारता रहा जबतक कि वह उसकी आँख से ओझल नहीं हो गया। रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि हमेशा बड़बड़ाकर लोगों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला शख्स जिसने उसे अन्न के मोल का ज्ञान दिया आखिर कैसे खामोश हो गया?

 

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Wednesday 21 April 2021

डर : धर्म के व्यवसाय का आधार

 संत रामपाल की एक पुस्तक 'ज्ञान गंगा' पढ़ रहा हूँ। उनका भक्त बनने के लिए नहीं बल्कि आखिर किन शिक्षाओं के बिना पर ऐसे तथाकथित साधु-संत अपने असीमित भक्त बनाते हैं जो उनकी बातों को आंख कान मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं? इस अध्ययन के दौरान दिमाग में एक सवाल चल रहा है, कि कितना आसान है लोगों को मूर्ख बनाना, उनसे अपनी बात मनवाना। यकीन मानिए मैं एक आम आदमी हूं। लेकिन सामने वाले व्यक्ति को यदि मैं विश्वास दिला दूं कि पिछले 25 वर्ष से हिमालय में रहकर, तप-साधना कर ज्ञान अर्जित किया हूं तो वह व्यक्ति शीघ्र ही मेरा भक्त बन जाएगा। और यदि मैं उससे कहूं कि मंदिर के आगे बैठे भिखारी के बारे में मनगढ़ंत बात बताऊँ कि पिछले जन्म में उसने अपने गुरु के सिखाए बातों को मानने से इंकार कर दिया इसीलिए इस जन्म में वह दर-दर की ठोकर खा रहा है। उस भिखारी के बारे में मेरे द्वारा कही गई बात में भले ही नाम मात्र की भी सत्यता नहीं हो लेकिन इस बात की पूरी गारंटी है कि वह मेरा भक्त आंख कान मूंदकर बन जाएगा क्योंकि मैंने उसके दिमाग में यह बात भर दी कि मैं एक सिद्ध व्यक्ति हूं और यदि तुम मेरी बात नहीं माने तो अगले जन्म में तुम्हारा भी यही हाल होगा। 

          अर्थात किसी को अपना भक्त बनाने के लिए सबसे मजबूत आधार डर होता है। यह डर कुछ भी हो सकता है, भगवान या परमात्मा द्वारा दिए जाने वाले तथाकथित दंड का डर, अगले जन्म में विकृत रूप में पैदा होने का डर आदि। ‘ओ माय गॉड फिल्म के अंतिम दृश्य में भी इस डर के दम पर यह जाने वाले व्यवसाय को दिखाने का प्रयास किया गया है जब धर्मगुरु जाते जाते एक संवाद बोलता है ' these are not god loving people, these are god fearing people.



Thursday 15 April 2021

वह ममतामयी पंडूकी

पक्षियों में वीरभद्र को दो पक्षी विशेष प्रिय हैं - एक तो कबूतर दूसरा पंडुकी। दोनों के रंग भले ही अलग-अलग हैं लेकिन कद-काठी में दोनों एक जैसे ही लगते हैं जैसे गोरा और काला जुड़वां भाई या बहन। इन दोनों के साथ उसकी बहुत ही मधुर याद जुड़ी हुई है। कबूतर के साथ खेलते हुए उसका बचपन बीता। बड़े वाले कबूतर नहीं, उनके बच्चे के साथ। दरअसल उसके गांव प्रधानचक स्थित पुश्तैनी घर में व्यापार के उद्देश्य से इसे बड़े पैमाने पर पाला जाता था। दो तरह के लोग इसे खरीद कर ले जाते थे। एक तो मांस के शौकीन, दूसरे स्थानीय देवी-देवताओं को पूजा में बली देने वाले। जैसे कई लोग चिकन खाने के शौकीन होते हैं वैसे ही वीरभद्र के गाँव के तरफ बहुत से लोग एक समय कबूतर के मांस के शौकीन होते थे, आज भी हैं। इसके अलावा ग्रामीण देवी-देवता जैसे जखराज, जियर बाबा से लेकर घरेलू देवताओं जैसे ढाढ़िया, हारा बाबा आदि की पूजा में कबूतर के बच्चे की बलि दी जाती थी। वीरभद्र के चचेरे चाचा जी इस व्यवसाय से जुड़े थे। उनकी देखा-देखी वीरभद्र के परिवार ने भी कुछ संख्या में कबूतर पाल रखे थे। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद उसके दादा जी गायत्री परिवार के संपर्क में आकर शाकाहारी हो गए थे, पिताजी भी मांस मछली नहीं खाते थे। इसके बावजूद यह कबूतर उसके घर में पाला जाता था। इस संदर्भ में एक बार जब वह अपनी मां से पूछा तो पता चला कि उनकी ज़िद से इसे पाला जाता था। ताकि समय-समय पर इस के मांस का सेवन कर उनके बच्चे मजबूत तंदुरुस्त हो सकें। मां यह भी बताई कि कबूतरों को पालने की जरूरत नहीं पड़ी, बस आधे दर्जन मिट्टी निर्मित हांडी को दीवार तथा खपरैल के छप्पर के बीच रस्सी की सहायता से कुछ इस प्रकार लटका दिया जाता था कि वह बिल्ली की पहुंच से दूर रहे। चाचा जी के कबूतर खुद वहां आकर अपना अलग आशियाना बना लिया।

तब वीरभद्र 5 साल का था जब उसके पिताजी जो धनबाद में शासकीय सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत थे, का स्थानांतरण जमुई शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कृत्यानंद मध्य विद्यालय, मलयपुर में हो गया। इस दौरान वे सपरिवार अपने पैतृक घर-गांव छोड़कर जमुई शहर में बस गए। दस 15 दिनों के अंतराल पर वीरभद्र के दादाजी या पिताजी गांव जाते रहते थे और खेती किसानी से लेकर उस आधे दर्जन कबूतर की भी देखभाल और खरीद बिक्री करते रहते थे। कभी-कभी वीरभद्र और उसके भैया श्रवण भी उनके साथ गांव चल देते थे। जाते ही कुछ करें या ना करें बांस की सीढ़ी लगाकर उन कबूतरों के खोंढी (हांडी के अंदर स्थित घोंसला) को देखते जरूर थे। खोंढी के अंदर अंडों पर बैठे कबूतरों को देखने, उनके साथ छेड़छाड़ में उन्हें काफी मजा आता था। छेड़छाड़ के दौरान अपने पंख से जब वह हमें झपट्टा मारती थी तो उस झपट्टा से बचने और उसे चिढ़ाने में अलग ही आनंद आता था। दोनों भाइयों को कबूतर के बच्चों से इतना लगाव हो गया था कि उसके दादाजी या पिताजी उन बच्चों को झोले में डालकर जमुई ले आते थे। दोनों भाई स्कूल से आते ही इनके साथ खेलने लग जाते थे। उन्हें नहीं पता था कि उन्हें भी हमारी ही तरह समय-समय पर भूख भी लगती है। उनको नाश्ता, लंच और डिनर कराने का काम वीरभद्र की माताजी करती थी। माताजी इतना प्यार से उन कबूतरों को उनके चोंच खोलकर चावल या गेहूं खिलाती थी कि इसे यह देख कर कोई भी भाव-विभोर हो जाए। धीरे-धीरे दोनों भाई भी देखते-देखते उनके चोंच को खोल कर खिलाना सीख गए। वे न केवल उनको भरपेट खिलाते थे बल्कि उनकी सुरक्षा का भी पर्याप्त ध्यान रखते थे। उनको बिल्ली जैसे प्राणी से बचाने के लिए हमेशा अपने पास ही रखते थे। वे उन्हें घोंसले का सुख तो नहीं दे पाते थे लेकिन उनके लिए जो व्यवस्था करते थे वह किसी घोसले से कम नहीं था। बेकार फटा-चिटा कपड़ा से एक मोटा तह बनाकर नीचे जमीन पर डालकर उन्हें उस पर बैठाकर बांस निर्मित टोकरी से ढक देते थे। टोकरी के ऊपर 1 पसेरी वजन का पत्थर रख देते थे ताकि बिल्ली उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सके।

जमुई में उनका नया निर्मित घर कुछ इस प्रकार था कि एक फ्लैट बना हुआ था जिसमें सभी लोग रहते थे दूसरा फ्लैट नहीं बना हुआ था। केवल कमरे का खाका बनाकर उसे मिट्टी से पाट दिया गया था। चहारदीवारी की तरह चारों ओर से 7 फीट ऊंची दीवार से घेर दिया गया था। सर्दियों के दिनों में उनका अधिकांश समय यहीं खेलते हुए गुजरता था। खाली समय में वीरभद्र के पिताजी यहां कुछ-कुछ सब्जियां लगाते थे। उन्हें एक सब्जी जो सबसे प्रिय लगती थी, वह थी सेम। लताओं में फलने वाली सेम को जहां जगह मिलता है फैल जाती है। वीरभद्र के पिताजी उसको फैलने के लिए उस 7 फीट ऊंची दीवार पर बांस और लिप्टस की टहनियों से एक मंडप जैसी आकृति बना दिए थे। साथ ही उसकी इतनी निराई गुड़ाई करते थे कि गोबर से लेकर रसायनिक खाद का पान कर वह हरी-भरी होने के साथ ही बहुत ही घनी रूप से फैल जाती थी। उसका यह हरा भरा स्वरूप भंवरों, तितलियों के साथ-साथ हमारे परिवेश के लगभग सभी छोटे-छोटे पक्षियों को आकर्षित करता था। उनका वहां आना जाना लगा रहता था। उनमें सबसे ज्यादा आकर्षित एक पांडुकी का जोड़ा हुआ। उन्हें देखकर वीरभद्र को उनके घर के कबूतर याद आने लगते थे। उनका रंग रूप, घूमना फिरना इतना सौम्य था कि उसे देख कर बिना मुस्कुराए कोई रह ही नहीं सकता।

सेम, बांस और लिप्टस की लकड़ियों से आच्छादित मंडप के बीचो-बीच उस पांडूकी जोड़े ने घास के तिनकों को बुनकर एक बहुत ही खूबसूरत घोसला बनाया। स्कूल से आने के बाद वीरभद्र और श्रवण का सारा ध्यान उस घोसले के विकास का जायजा लेने में लगा रहता था। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने इस घोसले को बनते देखा। घोसला तैयार होने के कुछ ही दिनों बाद एक खूबसूरत अंडे भी उसमें देखे गए। अंडे देने के बाद वह पंडूकी अंडों पर लगातार बैठी रहती थी। कभी-कभी दोनों भाई कबूतर की तरह ही उसे परेशान करने के लिए पहुंच जाते थे। लेकिन पिताजी का सख्त आदेश था कि कोई उसे परेशान नहीं करेगा। इसलिए वे लोग दूर से ही देख कर दिल को तसल्ली देते थे। एक दिन सुबह उठते ही वीरभद्र जब उस घोसले के नजदीक जब पहुंचा तो एक अंडे को टूटा हुआ जमीन पर गिरा पाया। हमें डर लगने लगा था कि ये हरकत कहीं बिल्ली का तो नहीं है। यह बात उसने अपनी मां को बताया। मां देखने आई तो उनकी नजर एक बहुत ही छोटे बच्चे पर पड़ी। दरअसल उस पांडूकी का बच्चा अंडे से बाहरी दुनिया में आ चुका था। समय बीतता गया, उसके बच्चे बड़े होते गए। एक महीने बाद उसके बच्चे इतने बड़े हो गए थे कि उनमें छोटे-छोटे पंख आ गए। 7 फीट की ऊंचाई पर स्थित उस घोसले में रहने वाले बच्चे को दोनों भाई कुर्सी या टेबल पर चढ़कर ऐसे ही निहारा करते थे जैसे खोंढी मैं बैठे कबूतर को। कबूतर तो नहीं भागती थी लेकिन पांडूकी हम से थोड़ी डर कर जरूर थोड़ी दूर पर बैठ जाती थी। दोनों भाई जी भर कर उसके बच्चे को देख लेते और अपने खेल में लग जाते। जैसे-जैसे उसका बच्चा बड़ा हो रहा था, उसकी मां भी काफी देर तक उसे अकेला छोड़ कर भोजन की तलाश में चली जाती थी। धीरे-धीरे उनकी हरकतें भी बढ़ती जा रही थी। अब वे सिर्फ उसे देखने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उसके बच्चे को प्यार से छूने, सहलाने का भी काम करने लगे। शुरुआत में उसका बच्चा जरूर डर जाता लेकिन जल्द ही सहज भी हो जाता।

एक दिन ऐसे ही अचानक से दोनों भाई उसके सामने ऐसे प्रकट हो गए कि घबराकर वह अपने पंख फड़फड़ाती उड़ने लगी। हालांकि वह उड़ तो नहीं पाई और थोड़ी दूर जाकर जमीन पर गिर पड़ी। दोनों उसे उठाने का प्रयास तो किया लेकिन वह इससे पहले कि वे उस तक पहुंचते डर कर वह उड़ जाती। अंततः वह ऐसे जगह पर उड़ कर बैठी जो उनकी पहुंच से बिल्कुल बाहर थी। दोनों भाई उनको उनकी स्थिति पर छोड़ कहीं और व्यस्त हो गए। दो दिनों तक उसकी मां घोसले के पास आती, बच्ची के वियोग में करुण स्वर में गुटूर गू करती। दोनों भाइयों को यह देख कर बहुत ही अफसोस होता था।

इसी बीच वीरभद्र के पिताजी गांव गए और कबूतर का एक बच्चा ले आए। उस बच्चे के साथ दोनों भाई पूर्व की तरह ही खेलने लगे। अभी तक उसने खुद से दाना चुगना नहीं सीखा था। इसलिए उनकी मां उसे अपने हाथों से गेहूं के दाने खिलाकर उस चारदीवारी में ही स्वतंत्र रूप से छोड़ देती थी। घर वालों को जब जिसको मन होता था उसे पकड़ कर, प्यार से पुचकारने, खेलाने के बाद वापस उसके स्थान पर छोड़ देता। ठुमक ठुमक कर दिन भर वह घूमती रहती थी। इस दौरान पांडूकी का भी वहां आना जाना लगा रहा। दिनभर में दो-तीन झलक दिखा ही जाती थी।

          इसी बीच एक ऐसी घटना देखने को मिली जिसकी किसी ने कभी कल्पना ही नहीं की थी। सुबह होते ही वीरभद्र की माँ उसे टोकरी से निकाल घूमने के लिए छोड़ दी थी। चूल्हा चौका करने के बाद उनको लगा कबूतर के बच्चे को दाना खिला दिया जाए। जैसे ही वह उसे उठाई वह हैरान रह गई देखकर कि उस कबूतर का पेट बिल्कुल भरा था। उनका हैरान होना स्वभाविक था क्योंकि सुबह से लेकर अभी कोई भी परिवार के सदस्य उस कबूतर के बच्चे से मिला ही नहीं था। तो फिर उसे खिलाया आखिर कौन? उसी दिन ही चार - पाँच घंटे बाद इस प्रश्न का जवाब मिल गया जब सभी लोग वहां बैठे अपने-अपने काम में लगे थे। वह पंडूकी आती है और थोड़ी दूर पर स्थित कबूतर को अपने चोंच में भरकर लाए दाने को बिल्कुल ऐसे खिलाने लगती हैं जैसे वह कबूतर उसका ही बच्चा हो। यह दृश्य देखकर सभी लोग अवाक रह गए कि ऐसा कैसे हो रहा है। यह दृश्य किसी चमत्कार को देखने जैसा था। उस पंडूकी की ममता देखकर वे फूले नहीं समा रहे थे। कोई संदेह नहीं कि वह पांडूकी उस कबूतर को अपना बच्चा समझ बैठी थी। 10 दिनों तक लगातार यह चमत्कार तब तक दिखा जब तक कि वह कबूतर अपने पंख से उड़कर आंखों से ओझल नहीं हो गया।

 

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