Sunday 12 November 2023

अंधविश्वास को बढ़ावा देता हमारा त्यौहार

दीपावली के अवसर पर सजी बाजार में खूब रौनक थी। धनतेरस के दिन से ही लोगों की भीड़ को देखकर सभी दुकानदार, व्यवसायी के चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। कुछ व्यवसायी तो सुबह से ही सामान देते-देते थककर चूर थे, लेकिन मुनाफे को और बढ़ाने की चाहत उन्हें आराम करते नहीं देखना चाहती थी। सोने चांदी की दुकान, इलेक्ट्रॉनिक सामान, रेडीमेड कपड़ों की दुकान, मिट्टी के दिये की दुकान, पटाखे की दुकान, मिठाई की दुकान आदि पर जितनी भीड़ थी, आम दिनों में उतनी भीड़ शायद ही कभी देखने को मिले। सभी लोग अपने-अपने जरूरत के समान प्रसन्नता के साथ खरीद रहे थे। बाजार घूमते-घूमते अपने एक मित्र के मेडिकल की दुकान पर उनसे भेंट-मुलाकात करने पहुंच गया। वहां भी भीड़ थी, लेकिन वह उस दिन के भीड़ से अलग थी। अब आपके परिजन अस्पताल में भर्ती हों, और आप उनकी दवाई के लिए आए हों, तो स्वाभाविक है आप थोड़े अलग नजर आएंगे ही। वहां बैठा ही था कि दोस्त ने एक जगह साथ चलने को कह दिया। हम दोनों फुटपाथ किनारे लगे एक अस्थाई दुकान, जो दोस्त के किसी जान-पहचान वाले की दुकान थी, और उन्होंने केवल दो-तीन दिनों के लिए लगाया था, पर पहुंचे। दोस्त ने लक्ष्मी-गणेश की एक मूर्ति एवं उनसे संबंधित कुछ पूजन सामग्री खरीदी एवं अपने गंतव्य के लिए चल दिए। जितनी भीड़ अन्य दुकानों पर थी जिसकी चर्चा मैंने पूर्व में की, उतनी ही भीड़ इन दुकानों पर भी थी। गरीब से लेकर अमीर तक के लोग इस दुकान पर रुक कर अलग-अलग आकार वाले लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों को खरीद कर ले जा रहे थे। इस तरह की दुकान देखना मेरे लिए कोई नया अनुभव नहीं था, पिछले 25 वर्षों से इस तरह की दुकान दीपावली के अवसर पर सजी दिखती रही है। करीब 10-15 वर्ष पहले अपने मां-पिताजी के साथ आकर हमने भी ऐसी दुकानों से लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति एवं पूजन सामग्री खरीदने के लिए इस भीड़ का हिस्सा बने थे।

            लेकिन इस बार की बात थोड़ी अलग थी। तार्किक सोच/विचार के कौशल ने मुझे सोचने पर थोड़ा विवश किया। मेरे मन में विचार चलने लगा कि सोने चांदी की दुकानों पर, इलेक्ट्रॉनिक समान की दुकानों पर भीड़ इसलिए होती है कि धनतेरस एवं दीपावली को लोग शुभ अवसर मानते हैं। एवं ऐसे मौकों पर वे अपने सुख-सुविधा की चीजों में इजाफा कर रहे होते हैं, इस अवसर पर कंपनियों की ओर से मिलने वाले छूट भी उन्हें आकर्षित करती हैं। वे जो कुछ भी खरीद रहे होते हैं वह उनके जरूरत की चीज होती है, जो उनका मनोरंजन करने, काम को आसान बनाने, समृद्ध दिखने में मदद करती है। लेकिन मूर्तियों की दुकानों पर आने वाले भीड़ को उन मूर्तियों को खरीदने से क्या फायदा मिलता है? इसके उद्देश्य को समझने हेतु अपने दोस्त से बाइक पर बैठे-बैठे सवाल किया – दुकान में तो मूर्ति लगी हुई है ही फिर यह नई मूर्ति ले जाने का क्या मतलब?’ (इसके पीछे निहित कारण को मैं भी भली-भांति जानता था, फिर भी कोई और बात निकल कर आए यह सोचकर पूछ लिया) दोस्त की तरफ से कोई नया जवाब नहीं आया। बल्कि इस फालतू लगने वाले सवाल के लिए खरी-खोटी भी सुना दी, क्योंकि उसे पता था कि मैं इतना भी अज्ञानी नहीं हूँ जो इसके पीछे के कारण को समझ न पाऊँ। फिर भी उसने मेरे एक शोधार्थी होने का मान रखा और बताया। उसके अनुसार हर दीपावली को अपने घर, दुकान में हम लक्ष्मी गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं। लक्ष्मी धन की देवी हैं, उनके स्थापित रहने से घर, दुकान या किसी प्रतिष्ठान में सुख, समृद्धि आती है। प्रतिवर्ष इसे बदले जाने के कारण के संदर्भ में वह कुछ बात नहीं पाया। गणेश प्रतिमा के 10 दिनों में विसर्जन के पीछे निहित कारण एक जगह पढ़ा था कि 'धार्मिक ग्रंथों के अनुसार श्री वेदव्यास ने गणेश चतुर्थी से महाभारत कथा श्री गणेश को लगातार 10 दिन तक सुनाई थी जिसे श्री गणेश ने अक्षरशः लिखा था। 10 दिन बाद जब वेदव्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि 10 दिन की अथक मेहनत के बाद गणेश जी का तापमान बहुत बढ़ गया है। तुरंत वेद व्यास जी ने गणेश जी को निकट के सरोवर में ले जाकर ठंडे पानी से स्नान कराया था, इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनको शीतल किया जाता है[i] (विसर्जन के इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह एक काल्पनिक कहानी जैसी ही प्रतीत होती है।)

            गौर करने वाली बात यह है कि प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी-गणेश भगवान की ये मूर्तियां मूर्तिकारों द्वारा काफी बड़ी संख्या में बनाए जाते हैं, एवं दुकानदारों द्वारा बेचे जाते हैं। मान्यता बस इतनी है कि घर, दुकान या किसी प्रतिष्ठान में उनकी मूर्ति होने से वहाँ धन-सुख-संपदा-खुशियां आएंगे। अपना लाभांश रखकर वह दुकानदारों को देते हैं, दुकानदार अपना लाभांश रखकर ग्राहक को देते हैं। यहां तक धन का आवक तो समझ में आता है, लेकिन किसी घर, दुकान या प्रतिष्ठान में इन मूर्तियों के होने से धन का आना समझ से परे है। और इन मूर्तियों की वैधता केवल एक साल ही समझी जाती है। अगले साल कोई और मूर्ति पहले की जगह लगाना ही होता है। हर साल एक निश्चित दिन पर लोग इन मूर्तियों को अपने-अपने घर-दुकान ले जाते हैं, पंडित से प्राण प्रतिष्ठा के बिना इन्हें वैधता नहीं मिलती है।

            विडंबना ये है कि गृहस्थ और भगवान के बीच मध्यस्तता करने वाला पुजारी के वैदिक या पौराणिक ग्रन्थों में लिखित मंत्र पढ़कर मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने का तात्पर्य है पहले यह मूर्ति केवल पत्थर की थी, इस कर्मकांड के बाद स्वयं भगवान इस मूर्ति में विराजमान हो जाते हैं। और जिस घर या दुकान में वह होते हैं, वहां की सुरक्षा करते हैं, उसके यश कीर्ति में मदद करते हैं, धन की वर्षा करते हैं। इसमें और भी कई शुभ इच्छाएँ जोड़े जा सकते हैं। पुजारी के इतना करने के बाद भी उन मूर्तियों की उपस्थिति में ही दुकानों/घरों में चोरी हो जाती है, शॉर्ट सर्किट होने से दुकान/घर तबाह हो जाते हैं। यहाँ तक कि चोरी-डकैती भी हो जाती है।  लेकिन ये मूर्ति कुछ कर नहीं पाती। बल्कि आग लगने के बाद भी इन मूर्तियों को उस आग में जलकर या धुएं से काला होते भी देखा है। अर्थात अपनी ही सुरक्षा नहीं कर पाती। मजे की बात ये है कि प्राण प्रतिष्ठा कर्मकांड करने वाले पुजारी भी अपने घर, मंदिर में यदि कीमती सामान रखे हो, तो उनको भी भगवान से ज्यादा ताला पर भरोसा होता है। उनके साथ-साथ प्रत्येक सामान्य गृहस्थ को भी ताले पर ही भरोसा होता है, उन मूर्तियों पर नहीं।

            दीपावली के अवसर पर पुजारी द्वारा मूर्तियों के प्राण प्रतिष्ठा की गतिविधि प्रतिवर्ष कराई जाती है लेकिन गृहस्थ की गरीबी कभी दूर नहीं हो पाती। इसके पीछे दो कारण निहित हो सकते हैं – (1) मंत्र के माध्यम से प्राण प्रतिष्ठा एक ढोंग, दिखावा है। (2) यदि प्राण प्रतिष्ठा ढोंग नहीं है तो ऐसे मूर्तियों को अपने घर, दुकान में जगह देना इस कामना के साथ कि यह हमारी गरीबी को दूर करेगी, हमारे घर/दुकान की रक्षा करेंगी, पूरी तरह अंधविश्वास है।  ऐसे में आधुनिक काल अर्थात तार्किक युग में जीवन यापन कर रहे हम लोगों का एक परम कर्तव्य है कि प्राचीन काल से ही फैले ऐसे अंधविश्वास, कर्मकांड को अपने जीवन में न्यून स्थान दें। इस अंधविश्वास के पालन करते रहने से आपकी समृद्धि तो नहीं लेकिन इन कर्मकांडों के करने पर अनावश्यक रूप से आपका धन जरूर खर्च होगा। अर्थात आपके केवल धन की हानि हो सकती है, लाभ नहीं। हालांकि हमारे जीन में घुसे-बैठे अंधविश्वास, पाखंड के इस मकड़जाल से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल कार्य है, लेकिन छोटे-छोटे लक्ष्य प्राप्त कर इस अंधविश्वास से ऊपर उठते हुए इससे मुक्त हुआ जा सकता है।

Saturday 11 November 2023

सोशल मीडिया के शॉर्ट विडियो एवं हमारी ज़िम्मेदारी

बचपन में हमें 3 दिन का विशेष रूप से इंतजार होता था – शुक्रवार, शनिवार, रविवार। मनोरंजन की दृष्टि से सप्ताह के यह तीन दिन काफी महत्वपूर्ण दिन होते थे। शुक्रवार और शनिवार को रात के 9:30 बजे दूरदर्शन चैनल पर फिल्म दिखाया जाता था, वहीं रविवार को शाम के 4:00 बजे का समय इसके लिए निर्धारित था। उस दौर में घर में बैठकर खेले जाने वाले खेल की अपेक्षा घर के बाहर भाग दौड़ वाले खेल ज्यादा लोकप्रिय थे। गर्मी के दिनों में ही केवल कड़ी धूप या गर्मी के दौरान इनडोर खेल ज्यादा खेले जाते थे। पूरा दिन स्कूल में बिताने, तत्पश्चात भाग दौड़ वाले खेल खेलने के बाद रात के 9:00 बजे तक इतना सामर्थ नहीं होता था कि इससे ज्यादा जागने के लिए अपनी आँखों को मना सकें। अर्थात 9:00 बजे रात तक स्वाभाविक रूप से नींद आ जाती थी। किसी दिन यदि जागे रह भी जाते तो माँ, पिताजी या दादाजी द्वारा डांट फटकार सुनने को मिल जाती इस स्टेटमेंट के साथ कि ‘Early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and wise’ और अंततः प्रवचन सुनकर सोना ही पढ़ता था। अगले दिन स्कूल में जब दो-तीन साथी रात की फिल्मों का जिक्र कर रहे होते थे तो एक अफसोस था होता था कि काश हम भी फिल्म देख सके होते।

          ऐसे में फिल्म देखने के लिए रविवार का दिन मिलता था। 4:00 बजने का बेसब्री से इंतजार होता था। लेकिन तब भी इतना भी आसान नहीं होता था फिल्म देख पाना क्योंकि तब आज की तरह 24 घंटे बिजली भी नहीं रहती थी, इनवर्टर, सौर ऊर्जा का नाम किसी ने सुना भी नहीं था। ऐसे में बिजली न होने पर 12 या 24 वोल्ट के बैटरी पर हमारी निर्भरता ज्यादा होती थी। उसे दौर में जिन घरों में टीवी होते थे, वहां वोल्टेज बढ़ाने के लिए स्टेबलाइजर, चार्जर और बैटरी भी होते थे। जिस समय बिजली होती थी बैटरी चार्ज किया जाता था, बिजली न होने पर टीवी में जब कुछ देखना हो तो बैटरी से टीवी चलाया जाता था। हम भी अपने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को बैटरी से चला कर फिल्मों का आनंद लिया करते थे। कभी-कभी जब कोई बहुत ही चर्चित फिल्म आती तो बिजली एवं बैट्री चार्ज न होने की स्थिति में गाँव के किसी के ट्रैक्टर की बैटरी निकलवा कर फिल्मों को देखा जाता था।

          उसे समय आज की तरह बहुत सारे चैनल भी नहीं हुआ करते थे, एकमात्र दूरदर्शन चैनल ही हमारे डिजिटल मनोरंजन का सहारा होता था। हां ! एंटीना को इधर-उधर घुमाने पर डीडी मेट्रो जरूर आता था, लेकिन उसे देखने या ना देखने का कोई मतलब ही नहीं होता था, क्योंकि वह केवल बड़े-बड़े शहरों में दिखाए जाते थे, बहुत ही कम सिग्नल गांव तक आते थे। उस दौर में हमने नया-नया पढ़ना सीखा था, ऐसे में हर लिखी हुई चीज को पढ़ने का एक जुनून था। यही कारण है कि फिल्म की कास्टिंग से लेकर फिल्म के अंत तक जो भी लिखित सामग्री आई थी, उसे बिना पढ़े छोड़ते नहीं थे। कुछ को समझते थे, कुछ सर के ऊपर से निकल जाते थे। जिज्ञासा तो होती थी सर के ऊपर से निकलने वाले कंटैंट के मायने को समझने की, लेकिन कोई समझा भी नहीं पाते थे। lyricist/lyrics, choreography ऐसे ही कुछ शब्द थे। यह अलग बात है कि उस अंग्रेजी शब्द के मायने समझने वाले कोई नहीं थे। फिल्म शुरू होते ही हम कलाकार के नाम से लेकर फिल्म बनाने में सहयोग देने वाले लोगों के नाम पढ़ते थे। इस दौरान एक सीन को हम लोग अक्सर पूरा नहीं पढ़ पाते थे, लेकिन हां! इतना देखने में जरुर सफल हो जाते थे कि फिल्म कितने रील की है। अधिकांश फिल्म 16-17 या 18 रील के होते थे। वह दिखाई जाने वाली चीज सेंसर बोर्ड के द्वारा जारी किया गया एक सर्टिफिकेट होता था, जिसमें  यह प्रमाणित होता था कि यह फिल्म किस दर्शक वर्ग के लिए बनी है? अधिकांश प्रसारित फिल्में U, U/A प्रमाणित होते थे। हालांकि दिखाए जा रहे इन सर्टिफिकेट के वास्तविक मायने की समझ तो उस दौर के पेरेंट्स को पता भी नहीं थे। आज भी फिल्म देखनेवाले आधे से ज्यादा जनसंख्या को इसके मायने नहीं पता होंगे।

          आज 25 वर्ष बाद का दौर बिल्कुल उसके उलट है। तब बहुत सीमित संख्या में ऐसे मनोरंजक वीडियो बनते थे, बहुत ही सीमित नायक-नायिकाएँ-विलन होते थे। आज वीडियो या फिल्म देखने के लिए शुक्रवार, शनिवार, रविवार जैसे किसी दिन विशेष का इंतजार नहीं करना पड़ता। फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब खोलिए तरह-तरह के वीडियो आपकी सेवा में हाजिर है। स्मार्ट/मोबाइल फोन, सोशल मीडिया के क्षेत्र में आई क्रांति ने देश के प्रत्येक नगर, गांव को एक मिनी फिल्म इंडस्ट्री बना दिया है। युवा से लेकर वृद्ध तक सभी अपने अभिनय कौशल, नृत्य कौशल, संगीत कौशल, मस्करी करने का कौशल आदि के दम पर खुद के घर में ही मिनी फिल्म इंडस्ट्री स्थापित कर लिया है। यह उनके अभिव्यक्ति कौशल को निखारने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त भी कर रहा है। विज्ञापन के माध्यम से होने वाले आय से वे आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे हैं। यही कारण है कि आए दिन हम मुख्य धारा के मीडिया चैनलों द्वारा 'यूट्यूबरों का गांव' जैसे स्टोरी कवर करते देखते सुनते रहते हैं।

          इनमें से अधिकांश युवा/लोग छोटे-छोटे 5 से 10 मिनट के वीडियो बनाकर उसे अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपलोड कर देश- विदेश के लोगों को मनोरंजित कर रहे हैं। इनके माध्यम से वे नए-नए ज्ञान, मनोरंजन करने के साथ-साथ जीवंत उदाहरणों द्वारा उन मूल्यों को भी प्रसारित करने का कार्य कर रहे हैं जिसकी अपेक्षा हमारा भारतीय संविधान हमसे करता है। इन मूल्यों के साथ जीना सिखाने में प्राथमिक कक्षाओं में नैतिक शिक्षा विषय के अंतर्गत, या हिंदी विषय के अंतर्गत कविता कहानियां के सार के रूप में एक स्तर पर समझ बना चुके होते हैं। ऐसे में जब वीडियो के माध्यम से उन बातों का दोहराव होता है तो उसके प्रासंगिक/अप्रासंगिकता के बारे में हम सोचना- विचारना शुरू कर देते हैं। वीडियो बनाने का प्रभाव जब इस रूप में परिलक्षित होता है तो एक यूट्यूबर के लिए यह गौरवशाली पल होता है। गौरवशाली पल से इसलिए संबोधित किया जा रहा है कि आपके वीडियो को देखकर दर्शक वर्ग आत्मावलोकन करते हैं एवं जहां खुद में सुधार लाने की गुंजाइश होती है, उसे पर वे कार्य करते हैं।  

          इसका एक दूसरा पक्ष भी है। दर्शक वीडियो को शुरू से अंत तक दर्शक देख सकें इसके लिए ऐसे भड़कदार विषय पर वास्तविक लगने वाले वीडियो बनाए जाने का चलन बढ़ रहा है जिससे लोग प्रभावित होकर उसे वायरल कर दें। जैसे - कुछ यूट्यूबर तीन-चार पात्रों को मिलाकर पैसे के लिए ब्लैकमेलिंग करने जैसे पटकथा लिखकर उसका वीडियो बनाते हैं और ऐसे दावों के साथ साझा करते हैं जैसे वे वास्तविक हों। इन कहानियों में एक शोषक एवं एक शोषित आसानी से देखे जा सकते हैं। इस दौरान वे दर्शकों के भी स्वाद का ध्यान रखते हैं, जैसे वीडियो में दिख रही लड़की को पूरे मेकअप के साथ भड़कदार कपड़े पहनाना नहीं भूलते। ऐसे ही ब्लेकमेल करने, उसका पर्दाफास कर तथाकथित शोषित को शोषण से मुक्त करवा कर खुद को हीरो के रूप में दिखाने वाली कहानियों को थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ दूसरे चैनल को भी ऐसी सामग्री परोसते हुए देखा जा सकता है।

          कुछ यूट्यूबर भूत की हंटिंग करने जैसे कार्य में लगे हुए हैं, भूतों वाले मास्क लगाकर, 10 से 15 मिनट की कहानी को अपने ओवर एक्टिंग से इतना भयावह बना देते हैं, कि लोग इसे देखते ही भूत को सच मानकर धड़ाधड़ लाइक शेयर करना शुरू कर देते हैं, जिससे उनकी व्यू इतनी बढ़ जाती है कि जो वीडियो को नहीं भी देखे हैं उनमें भी उत्सुकता आ जाती है कि आखिर क्या है इसमें? ऐसा कर वे वैज्ञानिक सोच की जगह अंधविश्वास फैलाने का कार्य कर रहे होते हैं। देखकर हैरानी होती है कि वीडियो में दिखने वाले भूत या चुड़ैल वीडियो में दिख रहे जांबाज़ भूत पकड़ने वालों के हाथ पैर खींच रहे होते हैं लेकिन उनके साथ-साथ उनके पीछे दौड़ रहे कैमरामैन को वह छू भी नहीं पाते। जिनके पास आलोचनात्मक चिंतन करने का कौशल है वह कमेंट सेक्शन में जाकर उनकी पोल खोल रहे होते हैं, उनके बेवकूफ बनाने को अपशब्द कह रहे होते हैं। लेकिन वीडियो बनाने वालों पर इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे जानते हैं कि उनके सब्सक्राइबर को संवेदनशील/हॉरर कंटेंट देखना और शेयर करना पसंद है। क्योंकि वे भूत के अस्तित्व में होने को अपने दिलों दिमाग में बसाए बैठे हैं। ऐसे में भूत दिखना उनके लिए कौतूहल वाला विषय होता है।  

          इन वीडियो को अलग-अलग दर्शक वर्ग अपने अपने स्वार्थ के अनुसार उसे वीडियो को काट छांटकर अपने अकाउंट से पोस्ट कर रहे होते हैं। हाल ही में एक फेसबुक ग्रुप जो ब्राह्मणवाद के खिलाफत के लिए आवाज उठाने का काम करता था, पर एक वीडियो शेयर किया गया। वह वीडियो एक स्क्रिप्ट वीडियो का छोटा सा भाग था, मनोरंजन के लिए इस ड्रामे को बनाया गया था। इस वीडियो में यह दिखाया गया था कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति अपनी बेटी समान एक बालिका को अनाथ आश्रम से उठा लाया और उससे विवाह कर लिया। वास्तविकता यह है कि अनाथ आश्रम से किसी भी बालिका को लाकर उससे विवाह कर लेना कोई आसान काम नहीं है। अनाथ आश्रम वाले अपने बच्चों को यूं ही नहीं किसी के पास भेज देते हैं। इसका एक प्रोटोकॉल होता है। कैमरा के एंगल, मूवमेंट से लेकर आवाज की शुद्धता तक अवलोकन करने से पता लगा कि यह एक ड्रामा वीडियो है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन हो सकता है। लेकिन उसे पेज के द्वारा इसे एक ब्राह्मण द्वारा अपनी बेटी की उम्र के लड़की के साथ विवाह करने जैसे दावे के साथ साझा किया जा रहा था। उसके कमेंट सेक्शन में जब गया तो पता चला कि उसे पेज की विचारधारा को फॉलो करने वाले सभी लोग ब्रह्मा सरस्वती आदि का जिक्र करते हुए उस जाति के लोगों को पानी पी पीकर कोस रहे थे। वीडियो पर कमेंट करने वाले लोग इस घटना को सही मानकर इसे शेयर भी कर रहे थे। उन्हें पता ही नहीं था कि वे वास्तविक नहीं ड्रामा वीडियो को शेयर कर रहे हैं, जो वास्तविकता से कोसो दूर हो सकते हैं। वीडियो के सभी पात्र अभिनय कर रहे होते हैं। इसके कुछ दिनों पूर्व ही उसी पुरुष अभिनेता की जयमाला स्टेज पर एक सुंदर लड़की द्वारा उसे दुत्कार कर भाग जाने का एक शॉर्ट वीडियो वायरल हुआ था। तब भी लोग इसे सच मानकर मुस्लिम कीवर्ड के साथ साझा कर रहे थे।

          ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे कंटेंट को देखना हमें झकझोरने जैसा होता है, जो हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाए। यूट्यूबर हमारी आपकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अपने लिए पैसे बनाने की फिराक में लगे रहते हैं। ऐसे सेंसिटिव कंटेंट पर वीडियो बनाने से उस विडियो को देखने वाले की संख्या लाखों-करोड़ों में बहुत जल्दी चली जाती है जिससे पैसे कमाना आसान हो जाता है।

          ऐसे शॉर्ट वीडियो के प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं होता। ऐसे में हमारी आपकी जिम्मेदारी हो जाती है कि इस तरह के वीडियो के झांसे में आकर कोई असंवैधानिक कदम न उठाएं। या आपसी फूट को बढ़ावा न दें। किसी भी वीडियो को देखने के लिए उसके वास्तविकता तक पहुंचाने के लिए खुद में आलोचनात्मक चिंतन करने का कौशल विकसित करें, एवं समझदारी से उन वीडियो को देखें एवं शेयर करें।