Saturday 20 June 2020

संस्कृत ग्रंथों में वर्णित 10 दिशाएँ (Ten Directions) एवं उसके स्वामी


ऋग्वेद में 4 दिशाओं पूरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण का वर्णन मिलता है, जबकि इनके बाद रचित पौराणिक ग्रंथों में 10 दिशाओं तथा उनके स्वामी का उल्लेख मिलता है जो निम्न हैं -
पूरब – इंद्र
पश्चिम – वरुण (जल का स्वामी)
उत्तर – कुबेर (धन का स्वामी)
दक्षिण – यम
आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) – अग्नि
नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) – नीरित
वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) – मारुत (वायु/पवन देव)
ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) – ईशा
आकाश – ब्रह्मा
पाताल – शेषनाग

Thursday 11 June 2020

अलेक्ज़ेंडर महान ‘सिकंदर’ की विश्व की बाह्य सीमा निर्धारण नीति

इतिहास के छात्र से लेकर इतिहास को बोझिल मानने वाले सभी सिकंदर के नाम से विश्वप्रसिद्ध अलेक्ज़ेंडर महानसे परिचित होंगे ही। वही सिकंदर जिसपर इतिहास को बोझिल विषय मानने वाले छात्रों के लिए एक गाना बना था जो आपलोगों ने भी सुना ही होगा –

सिकंदर ने पोरस ...

से की थी लड़ाई...

जो की थी लड़ाई...

तो मैं क्या करूँ ?

जी हाँ, ये वही सिकंदर है जिसके बारे में हम बचपन में नादानी से कहा करते थे कि न ये सिकंदर हमारे देश आता न ये ई. सन रटने वाला बोझिल विषय हमें पढ़ना पड़ता। सिकंदर के संबंध में हमें बहुत ही सीमित जानकारी मिलती है कि विश्वविजय के क्रम में सिकंदर हिंदुस्तान (भारत) के पश्चिमी प्रांत पंजाब तक पहुँच गया था जहां के शासक पोरस से उसकी लड़ाई हुई। पोरस पराजित हुआ और सिकंदर ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। उसके प्रदेशों को वह वापस कर विश्वविजय के लिए आगे बढ़ गया। हालांकि वह रावी नदी से आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। एक सामाजिक विज्ञान शिक्षक/छात्र होने के नाते हमारा यह कार्य है कि सिकंदर के बारे में हम कुछ और भी जानें ताकि न सिर्फ बच्चों की जिज्ञासा को शांत कर सकें बल्कि उनके साथ-साथ खुद के ज्ञान को भी और समृद्ध कर सकें।

          शुरुआत करते हैं इस बात से कि प्राचीन दौर के एक महान व्यक्ति के रूप में याद किये जाने वाले सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे निहित उद्देश्य क्या थे? सिर्फ अपने साम्राज्य का विस्तार या कुछ और? उत्तर है कि सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पीछे एक उद्देश्य तो अपने साम्राज्य का विस्तार करना तो था ही, एक दूसरा उद्देश्य भी था विश्व की बाहरी सीमा का पता लगाना।[1] क्योंकि एक शासक होने के साथ-साथ वह एक भूगोलविद भी था। वह यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू के अनेक शिष्यों में से एक था। उसके विश्वविजय अभियान के पीछे उसके गुरु अरस्तू की शिक्षा का भी पर्याप्त योगदान था, जो अपने अपने शिष्यों में किसी भी सिद्धान्त को प्रत्यक्ष अवलोकन करने की एक प्रबल इच्छा जागृत की। अरस्तू अपने शिष्यों को यह सिखाया करते थे कि जाओ और देखो और स्वतः निर्णय करो कि क्या कोई सिद्धांत स्वीकार योग्य है या अस्वीकार योग्य?[2] भूगोलविद माजिद हुसैन के अनुसार अरस्तू के इस शिक्षा का उनके सबसे उत्साही शिष्य एलेक्जेंडर (सिकंदर) पर गहरा प्रभाव हुआ जो तत्कालीन मकदूनिया के शासक फिलिप द्वितीय का पुत्र था। सिकंदर के पिता फिलिप द्वितीय ने अपने दम पर अपने राज्य मकदूनिया की सेना को एक ऐसे प्रभावशाली उच्च प्रशिक्षित सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया जिसने सिकंदर को तत्कालीन सर्वाधिक शक्तिशाली फारस साम्राज्य को पराजित करने में अद्भुत प्रतिभा दिखाई।

          सिकंदर की सौतेली बहन की शादी में उनके पिता फिलिप द्वितीय की हत्या उनके ही एक गार्ड द्वारा कर दिए जाने के पश्चात नए राजा बनने के लिए संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। इस संघर्ष में सिकंदर ने अपने एक सौतेले भाई फिलिप एरिडाइस को छोड़कर सभी उत्तराधिकार पद के दावेदारों व अन्य विरोधियों का क्रूरता से सफाया कर 20 साल की उम्र में राजा बने। अपने 12 वर्ष के शासनकाल के दौरान अपने सैनिकों के साथ 12000 मील की विजय यात्रा (पश्चिम में यूनान से लेकर पूर्व में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र तक) करते हुए खुद को एक प्रभावशाली सैनिक कमांडर के रूप में किया। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ विश्व की बाहरी सीमा निर्धारित करने के उद्देश्य से एक प्रशिक्षित सेना लेकर दक्षिण व पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। वह जानना चाहता था कि फारस साम्राज्य के उस पार दूर के क्षेत्रों में वस्तुतः है क्या जहां के विषय में अनेक कहानियाँ तथा किंवदंतियाँ प्रचलित थी। 330 – 323 ई. की अवधि के दौरान वह देश विदेश की सूचनाओं को प्राप्त करने व उन्हें रिकॉर्ड करने विशेषज्ञों को लेकर फारस से भारत तक आया और एक सच्चे खोजी की तरह दूसरे रास्ते से लौटा।[3]

          अपने विद्यार्थी जीवन में तीन वर्षों तक सिकंदर (343-340 ई. पू.) अरस्तू के पास अध्ययन किए। मकदूनिया का शासक बनने के पश्चात सिकंदर ने यूनानी साम्राज्य का विस्तार पूरे विश्व में करने की योजना बनाई। इस क्रम में दक्षिणी क्षेत्र (मिश्र) को विजित करने के पश्चात वह पूर्व दिशा की ओर बढ़ा। 327 ई. पू. में हिंदुकुश पर्वत पार करते हुए खैबर दर्रे के रास्ते सिंधु नदी (पंजाब) क्षेत्र में प्रवेश किया। उसे यह विश्वास था कि अब वह पूर्व की ओर आवासित जगत की सीमा से कुछ ही दूर है। वह आगे बढ़ कर उस सीमा तक जाना चाहता था लेकिन दुर्भाग्यवश उसके सैनिकों ने उसका साथ नहीं दिया। सिकंदर ने उनमें उत्साह जगाने की पूरी कोशिश की लेकिन बुरी तरह थक चुके सैनिकों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। कुछ ने तो विद्रोह तक कर दिया।

          वापसी के दौरान सिकंदर ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक टुकड़ी को नियरकस के सेनापतित्व में सिंधु नदी, सिंधु नदी मुहाने, अरब सागर, फारस की खाड़ी होते हुए भेजा, दूसरी टुकड़ी को खुद थलमार्ग होते हुए मकरान, बलूचिस्तान, ईरान के रास्ते मेसोपोटामिया के लिए बढ़ी। थल मार्ग से बढ़ते हुए 323 ई. पू. रास्ते में बेबीलोन में सिकंदर की मृत्यु हो गई। इस तरह विश्व की बाहरी सीमा निर्धारण को निकले सिकंदर का कार्य पूर्ण तो नहीं हो पाया लेकिन अपने इस विश्वविजयी अभियान के माध्यम से उसने यूनानियों को उन प्रदेशों का ज्ञान कराया जो उनके ज्ञान के दायरे से बाहर के थे। यूनानियों को फारस, मध्य एशिया, अफगानिस्तान, हिंदुस्तान तथा ईरान के तटीय क्षेत्रों की भौतिक स्थिति, इन क्षेत्रों के जन-जातियों, पेड़ पौधों का ज्ञान हो पाया।



[1] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 18 

[2] वही, पृष्ठ सं. 18 

[3] हुसैन माजिद, भौगोलिक चिंतन का इतिहास पंचम संस्करण, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ सं. 102 

Sunday 7 June 2020

कोरोना के दौर में आरंभिक भाषा शिक्षण एवं अभिभावक


कोरोना दौर जारी है, बाज़ार, फैक्ट्री से लेकर शिक्षण संस्थाएं सभी बंद पड़ने के बाद धीरे-धीरे खुलने शुरू हो गए हैं। निजी व शासकीय प्राथमिक शालाओं के फिलहाल खुलने पर थोड़ा संशय बना हुआ है क्योंकि बात बच्चों की है। वैसे हम सभी इजरायल, फ्रांस आदि देशों में इस दौरान स्कूल खुलने से बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की घटना से हम सभी वाकिफ हैं। यदि हमारे देश में भी ऐसी परिस्थितियाँ बनती है तो अन्य देशों की तरह हमारे देश के स्कूल भी अनिश्चित काल के लिए बंद हो जाने की संभावना बनती है। यदि पूरी सावधानी रखते हुए विद्यालय खुल भी जाएँ तो इस बात की भी पूरी संभावना हो सकती है कि शिक्षक या स्कूल से पर्याप्त सहयोग न मिल पाए जैसा इससे पूर्व मिलता आया है जिससे आपके बच्चे का भाषाई कौशल विकास अवरुद्ध हो सकता है। परिणामस्वरूप आत्मविश्वासी, तेज़ तर्राक, चालाक की जगह आपका बच्चा दब्बू, बुद्धिहीन भी हो सकता है। ऐसा कहने का आधार प्रसिद्ध भाषाविद, दार्शनिक नॉम चोम्सकी का भाषा विकास के सिद्धान्त है, जिसके अनुसार भाषा का विकास मनुष्य की एक संपत्ति है जो स्वतंत्र रूप से बुद्धि का कार्य करता है। इसलिए जैसे हमारी ताकत का आधार इस बात पर सर्वाधिक निर्भर करता है कि हमारा सुबह का नाश्ता पौष्टिक तत्वों से कितना समृद्ध है। वैसे ही अपने बच्चे इस दृष्टिकोण से बच्चे के भाषाई विकास में जरा सा भी लापरवाही करना आपको महंगा पड़ सकता है। यहाँ सवाल उठता है कि आखिर आरंभिक भाषा शिक्षण है क्या? तो आरंभिक भाषा शिक्षण से तात्पर्य है कि कक्षा पहली से पाँचवीं तक बच्चों को भाषा (हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू आदि सहित अन्य भाषा) विषय के माध्यम से वांछित कौशल का विकास कराया जाना। इन कौशल विकास का अधिकांश दायित्व भाषा विषय तथा भाषा शिक्षक के कंधे पर होता है। इन कौशलों का सही तरीके से विकास होगा तभी अन्य विषयों के अध्ययन से खुद को ये पूरी रुचि के साथ जोड़ पाएंगे। उदाहरण के लिए यदि तर्क लगाने के कौशल का विकास नहीं हो पाता है तो उसे गणित, विज्ञान विषय रुचिकर नहीं लगेगा। यदि सुनने, समझने का कौशल विकसित नहीं होता है तो कोई विषय रुचिकर नहीं लगेगा आपके बच्चे को।       
          जिन कौशलों के विकास की बात उपरोक्त पंक्तियों में की गई है, वह हैं – किसी भी कविता, कहानी को सुनकर उसके अर्थ को आत्मसाथ कर पाने का कौशल, उन कविता-कहानियों को हाव भाव के साथ कहने का कौशल, उस कविता को पढ़ने का कौशल, कविता-कहानी में आए पात्रों से परिचित होने के साथ-साथ उनसे संबंधित सवाल पूछने एवं उससे संबंधित सवालों के उत्तर देने का कौशल, संबंधित भाषा विषय के ध्वनि, अक्षर, मात्राओं को समझने का कौशल, इन अक्षर व मात्राओं के संयोग से निर्मित शब्द बनाने व समझने का कौशल, शब्द भंडार बढ़ाने का कौशल,  मौलिक चिंतन-लेखन करने, तर्क करने, कल्पना करने, विश्लेषण करने का कौशल, पूछे गए प्रश्न के जवाब देते हुए नए-नए शब्दों का चयन करने का कौशल, संक्षेप या विस्तार में कहने-लिखने का कौशल, लिंग, वचन के भेद को समझने का कौशल, कविता-कहानी को संवाद के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ने व सुनाने का कौशल, शब्द, वाक्य व अनुच्छेद के बीच के अंतर समझ पाने का कौशल, चित्र या अभिनय के माध्यम से कविता या कहानी को समझाने का कौशल, स्वतंत्र रूप से कविता या कहानी बुनने का कौशल आदि। ताकि बच्चा रट्टा मार कर नहीं बल्कि स्वयं से कुछ कर उस अवधारणा के संबंध में अपनी समझ बना सके।
          जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि बच्चों में इन कौशलों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी मुख्यतः स्कूल शिक्षक पर होती थी। लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में जिस तरह बच्चे का शिक्षक और स्कूल से दूरी सी बनती जा रही है, ऐसे में बेहतर होगा कि अपने बच्चों के बेहतर विकास के लिए अभिभावक खुद ही भाषा शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करें। सीखने हेतु भय-मुक्त वातावरण उपलब्ध कराने के दृष्टिकोण से यह एक अच्छा कदम होगा क्योंकि घरेलू परिवेश में बच्चा भयमुक्त होकर सीखता है। घरेलू परिवेश में ही कक्षा जैसा अनुभव देकर आप अपने बच्चे को मौखिक रूप से मुखर बना सकते हैं। हालांकि यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि बिना शिक्षकीय प्रशिक्षण के अभिभावक घर पर कैसे शिक्षक की भूमिका निभाएँ? आप यह काम अच्छे से कर सकते हैं इसमें कोई दो राय नहीं। क्योंकि यदि आप अपने बच्चे को स्कूल भेजने से पूर्व भाषाई रूप से वयस्क (नोम चोम्सकी के भाषा विकास सिद्धांत के अनुसार) कर सकते हैं तो अपनी क्षत्र-छाया में रखकर उनमें उपरोक्त कौशलों को विकसित भी कर सकते हैं। स्कूल जाने से पूर्व ही बच्चों के भाषाई रूप से वयस्क हो जाने की बात आपको आश्चर्यचकित कर सकता है लेकिन यह सत्य है। विडम्बना यह है कि इस बात की जानकारी अभिभावक को भी नहीं होती, वे इस तथ्य से अनजान होते हैं। अपने बच्चे के भाषाई कौशल के विकास में आप निम्न रूप से योगदान दे सकते हैं -
·       सीखने के प्रतिफल जानने-समझने का प्रयास करें –
राष्ट्रीय शिक्षा एवं अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा 2016-17 से प्राथमिक से लेकर माध्यमिक कक्षा स्तर पर पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों जैसे भाषा, गणित, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों के शुरुआत में सीखने के प्रतिफल खंड शामिल किया गया है, जिसका उद्देश्य है शिक्षकों, अभिभावकों को इस बात से अवगत कराना कि अलग-अलग दर्जे में बच्चों में कौन-कौन से कौशल विकसित किया जाना चाहिए। यह सीखने का एक मापदंड है जिसके आधार पर बच्चे का आकलन किया जाता है। एनसीईआरटी के अतिरिक्त एससीईआरटी ने अपने-अपने राज्यों के शासकीय शालाओं के पाठ्यपुस्तकों में इसे शामिल किया है। आपके बच्चे का नामांकन यदि किसी निजी विद्यालय में है तो उनके पाठ्यपुस्तक में यह संभवतः नहीं भी हो सकता है। ऐसे में आप इसे एनसीईआरटी या एससीईआरटी के वैबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं। अभिभावक को भी यदि यह पता हो कि उनका बच्चा यदि पहली कक्षा में है और इस दौरान उनमें कौन-कौन से कौशल विकसित होना चाहिए तो वह भी वैसे ही योगदान दे सकते हैं जैसे अपने बच्चे को पूर्व में शिक्षक के लिए निर्धारित कार्य गिनती, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू या अन्य भाषाओं के ध्वनि, वर्णमाला का ज्ञान करा देते हैं।
·       कविता-कहानी में आए संदर्भों पर बात करें –
प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों के भाषाई कौशल के विकास हेतु साहित्य की दो विधाएँ - कविता एवं कहानी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कोई दो राय नहीं कि स्कूल भेजने से पूर्व अभिभावक अपने बच्चे को 4 से 8 लाइन की कम-से-कम दर्जनों कविता-कहानियाँ याद करा ही देते हैं। आरंभिक कक्षा की कविता कहानियाँ चाहे वह किसी भी भाषा (हिंदी, अंग्रेजी, या अन्य क्षेत्रीय भाषा) की हो, काफी मनोरंजक या गुदगुदाने वाली होती है। जिसे बच्चे पूरे आनंद लेते हुए सुनते, बोलते, पढ़ते, लिखते हैं। इन कविता-कहानियों में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो सीधे उनके परिवेश से जुड़े होते हैं जैसे जानवर या पशु-पक्षियों में कबूतर, खरगोश, गाय, तोता, फल-सब्जियों में आलू, बैगन, टमाटर, गाजर, सेब, केला। इन परिचित वस्तुओं के साथ-साथ कई ऐसे शब्द या अवधारणा आते हैं जो उनके परिवेश से संबंधित नहीं होने के कारण उनके नाम वे पहली बार सुन रहे होते हैं जैसे – जेब्रा, दरियाई घोड़ा, गैंडा, डाइनाशोर आदि। एक भाषा शिक्षक का यह काम होता है कि उस कविता-कहानी में आए नए शब्द, अवधारणा को रोचक तरीके से बताना, ताकि उनके शब्दभंडार संदर्भ के साथ बढ़ाया जा सके। ऐसे में यह कदम अब अभिभावक स्वयं उठाते हुए उन कविता-कहानियों को न सिर्फ बच्चों को सुनाएँ, बल्कि उसमें आए अवधारणा पर खुलकर बात करें। कोशिश करें बच्चे से ही कल्पना करवाने, अनुमान लगवाने का कि कविता/कहानी में यदि ऐसा होता तो क्या होता?
·       घर को बनाएँ प्रिंट-रिच
बच्चे के भाषाई कौशल विकास के लिए प्रिंटरिच वातावरण एक महत्वपूर्ण उपकरण होता है। स्कूली कक्षा में बच्चों को यह वातावरण तो मिलता ही है, घर पर भी ऐसे माहौल विकसित किए जाने चाहिए। वर्तमान में बच्चे जब स्कूल से दूर होते जा रहे हैं, हमारा प्रयास हो घर के किसी कमरे या पूरे घर को ही प्रिंटरिच बनाने की। आपका बच्चा जिस कक्षा में है उस कक्षा के पाठ्यपुस्तक के प्रकृति अनुसार अनेक तरह की कविताएं, कहानियाँ एक रीडिंग कोर्नर में संकलित कर सकते/सकती हैं। यहाँ सवाल हो सकता है कि आखिर प्रिंटरिच वातावरण का निर्माण कैसे करें? जवाब है बिलकुल वैसे ही जैसे चिड़ियाँ अपना घोसला बुनती है। पहली व दूसरी कक्षा की बात करें तो उन्हें ध्वनि, वर्णमाला से परिचित करवाने के उद्देश्य से उनके परिवेश से जुडते विभिन्न उत्पादों के विज्ञापन, जिनसे वे परिचित हों, जैसे जो भी टॉफी, बिस्कुट, चिप्स, आइसक्रीम आदि आपके बच्चे खाते हों उसके रैपर, विज्ञापन, प्रिंटरिच सामग्री हो सकती है। इनके साथ काम करते हुए उन्हें उस रैपर में छपे प्रिंट के अर्थ से अवगत कराएं। इस दौरान इस बात का भी ध्यान रखें कि आपके बच्चे यदि इनसे परिचित हो गए हैं तो इसे बदलकर उन सामग्रियों को प्राथमिकता दें जो उनके पाठ्यपुस्तक से जुड़ते हों। बच्चे के कक्षानुसार पाठ्यपुस्तकों की मांग के आधार पर इन सभी प्रिंटरिच सामग्री को बदलते भी रहें। ये प्रिंटरिच सामग्री बच्चों को बाल साहित्य की तरफ ले जाने में सहायक होगा। इसके पश्चात उनके लिए एक छोटा सा पुस्तकालय स्थापित कर उन्हें पढ़ने-लिखने के मौके देकर उन्हें भाषाई रूप में समृद्ध कर सकते हैं।
·       अपने बच्चों को सवालीराम बनाएँ –
अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बच्चे को स्कूल में सवाल पूछना सिखाया ही नहीं जाता, जिसका परिणाम यह होता है कि किसी शब्द या अवधारणा को समझने में यदि उसे समस्या आ रही है तो वह उसे पूछ नहीं पाता? यदि यह हमारे व्यक्तित्व में घर कर जाए तो पूरी ज़िंदगी वह इससे उबर नहीं पाता है। वह एक पढ़ा-लिखा नागरिक तो बन जाएगा लेकिन जागरूक नागरिक नहीं। इसलिए अपने बच्चे को प्रश्न पूछने के भरपूर मौके दें। अक्सर हम (शिक्षक/अभिभावक) बच्चों के किसी प्रकार के प्रश्न पूछने पर डांटकर उसे चुप करा देते हैं, ऐसा हम तब करते हैं जब हमारे पास उनके प्रश्न का जवाब नहीं होता। शर्मिंदा होने से बचने के लिए हम उनको ऐसा डरा देते हैं कि दुबारा वह प्रश्न पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता। मेरा मानना है कि हमें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं। हमें ये ज्ञान होना चाहिए कि हर कोई किसी विषय का विशेषज्ञ नहीं होता जो उसे सब कुछ आएगा ही। कोई मुझसे गणित में कुछ पूछ ले तो मैं खुद तारे गिनने लग सकता हूँ। ऐसा में होना ये चाहिए कि हम अलग-अलग स्त्रोत से जानकारी प्राप्त कर बच्चे की जिज्ञासा शांत करें दमन नहीं। क्योंकि बच्चे किसी भी चीज को तब तक गहराई से नहीं सीख पाएंगे जब तक कि उसके अनेक पहलुओं को सवालों के माध्यम से जानेंगे या समझेंगे नहीं। ऐसे में उन्हें सवालीराम बनने के मौके दें।
·       प्रतिदिन कौशल विकास का आकलन करें -
अभिभावक स्वयं से प्रतिदिन उनके कौशल विकास का आकलन करें। आकलन के दौरान यह समझने का प्रयास करें कि आपके बच्चे में कक्षानुसार सीखने के प्रतिफल के अनुरूप कौशल विकसित हो पा रहा है या नहीं। यदि कहीं कोई समस्या आ रही है तो पहले के तरीके की जगह आप अलग-अलग रोचक तरीके अपना सकते हैं। कोशिश यह रहना चाहिए कि बच्चे को पता न चल पाएँ कि उनका आकलन किया जा रहा है। अक्सर आकलन के संबंध में जानकारी मिलते ही बच्चे किसी अवधारणा को समझना छोड़कर उसके संबंध में रट्टा मारकर उसे आत्मसाथ कर लेते हैं जो दीर्घकालिक नहीं होते। कोशिश करें कि इसे खेल-खेल में करने की। बच्चे में यदि वह कौशल विकसित नहीं हो पा रहा है तो उस तरीके में बदलाव करते हुए अलग गतिविधि अपना सकते हैं।
          अब सवाल उठता है कि अभिभावक इसके लिए अपने व्यस्त दैनिक जीवन से समय कब और कैसे निकालें ? ये निकालना तो पड़ेगा ही अपने बच्चे के भविष्य को सँवारने हेतु। कभी माँ को तो कभी पिता को। कोई आवश्यकता नहीं है स्कूल के पाठ्यक्रम को पूरा कराने की। आप अपने स्तर से अलग-अलग गतिविधि कराकर अपने बच्चे में इन सीखने के प्रतिफलों को समाहित करवा सकते हैं। यदि ऐसा करवा पाए तो पाठ्यपुस्तक के सवालों को हल करना आपके बच्चे के लिए चुटकी का काम होगा। और यदि ऐसा संभव हो पाता है तो वह दिन दूर नहीं जब असर-2019 की रिपोर्ट कि ‘8वीं तक के बच्चे 2सरी कक्षा की पुस्तक पढ़ नहीं पाते हैं” झूठी साबित होगी।
                                                          साकेत बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छ.ग.)


(मूलतः दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र women express के 8 जून 2020 अंक के संपादकीय में प्रकाशित)