Wednesday 3 January 2018

राष्ट्रीयता की राह के पत्थर: शौर्य दिवस

विभिन्न धर्मों, जातियों, मानव प्रजातियों का अनुपम संग्रहालय हमारा देश पिछले दो-तीन दसकों से कभी धार्मिक, कभी जातीय उन्माद, वर्चस्व की राजनीति के कारण रणभूमि बन चुका है । नौकरी हेतु आवेदन के क्रम में कितना भी गर्व से हम खुद की राष्ट्रीयता भारतीय लिख दें लेकिन समय आने पर अपनी वास्तविकता दिखाने से नहीं चूकते कि हम भारतीय बाद में हैं, हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, हरिजन, दलित, आदिवासी पहले हैं । उदाहरण के रूप में प्रति वर्ष महिषासुर विजय के रूप में मनाया जाने वाला शौर्य त्योहार विजया दशमी, 6 दिसंबर की बाबरी विध्वंश की वार्षिकी पर शौर्य प्रदर्शन या 1 जनवरी को कोरेगांव भीमा का शौर्य प्रदर्शन, देखे जा सकते हैं । इस तरह के शौर्य प्रदर्शन में एक तरफ प्रचंड आत्मविश्वास, ऊर्जा से परिपूर्ण विजेता पक्ष होता है तो दूसरा अपमानित महसूस करने के बावजूद खून के घूंट पीकर रह जानेवाला पीड़ित समुदाय होता है । ऐसे में यदि शौर्य दिवस आयोजकों को सत्ता पक्ष का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से साथ मिल जाए तो 6 दिसंबर को होनेवाले शौर्य प्रदर्शन शांतिपूर्ण होता है । लेकिन जब सत्ता पक्ष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शौर्य दिवस विरोधियों के साथ हो तो कोरेगांव जैसी हिंसक घटनाएँ जन्म लेती है ।
          शौर्य प्रदर्शन जैसी घटनाएँ क्षणिक रूप से किसी समुदाय विशेष के लिए गौरव का क्षण हो सकता है लेकिन इससे उत्पन्न वैमनस्यता का सबसे बड़ा नुकसान हमारे देश को है । इस वैमनस्यता से हमारी वह राष्ट्रीयता की भावना प्रभावित होती है जिसे जागृत कराने के लिए सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए स्कूल-कॉलेज स्तर पर भारतीय इतिहास के हमारे अध्ययन-अध्यापन पर खर्च करती है । बाबरी विध्वंश का शौर्य दिवस हो, विजया दशमी का शौर्य दिवस हो या कोरेगांव भीमा के महारों का पेशवाओं पर विजय का शौर्य दिवस, सभी धार्मिक व जातिगत वैमनस्यता को बढ़ावा देते हुए हिंदू-मुस्लिम, हिंदू-आदिवासी, सवर्ण-दलित के बीच अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं । यदि ऐसे शौर्य दिवस मनाने की प्रवृत्तियों जिससे एक दूसरे की भावनाओं को आघात पहुंचे, पर सरकार द्वारा अंकुश नहीं लगाया गया तो जिस तरह आज धर्मनिरपेक्ष स्वरूप वाले हमारे देश में हिंदू राष्ट्र बनाने, संविधान को बदलने के सुर सुनाई पड़ते हैं, आगे चलकर जाति-धर्म के नाम पर पृथक राष्ट्र बनाने की मांग चारों तरफ से सुनाई पड़ेंगी । और देश को स्वतन्त्रता पूर्व की राजनीतिक स्थिति में पहुँचते देर नहीं लगेगी जब सम्पूर्ण भारत सैकड़ों रियासतों से आबाद एक भौगोलिक क्षेत्र था ।
साकेत बिहारी
शोधार्थी – पीएच.डी.

हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
(Women Express 04/01/2018 अंक में प्रकाशित)