Tuesday 26 January 2016

बिहार के सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत महिला आरक्षण एक प्रशंसनीय कदम

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात संविधान द्वारा भारत के समस्त वर्ग सहित स्त्रियों को भी मौलिक अधिकार के अंतर्गत समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, सांस्कृतिक एवं शिक्षा के अधिकार मिले जिससे वी सदियों से वंचित थी । समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14-18) के तहत सभी नागरिकों सहित स्त्रियों को राज्य की तरफ से अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के समक्ष समानता मिली, अनुच्छेद 15 जो कि सामाजिक समानता की बात करता है, द्वारा उन्हें राज्य में जाति, लिंग के भेदभाव से मुक्ति मिली । अनुच्छेद 16 द्वारा राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के संबंध में समानता मिली । अनुच्छेद 17 के तहत छुवाछुत या अस्पृश्यता को समाप्त कर इन्हें व्यवहार में लाना अपराध घोषित किया गया । स्वतन्त्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19-22) के तहत राज्य द्वारा समस्त नागरिकों सहित स्त्रियों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभा करने की स्वतन्त्रता, संघ बनाने की स्वतन्त्रता, भ्रमण की स्वतन्त्रता, आवास की स्वतन्त्रता, पेशा, व्यापार एवं व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है । शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) के अंतर्गत न केवल मनुष्यों या स्त्रियों का वस्तुओं की भांति क्रय-विक्रय बल्कि स्त्रियों व बच्चों के अनैतिक व्यापार को भी निषिद्ध किया गया है ।[1]  इस प्रकार भारतीय संविधान द्वारा हजारों वर्षों से राजतंत्रात्मक शासन पद्धति में उपेक्षित एवं शोषित स्त्री वर्ग को अनेक अधिकार प्राप्त हुए जो उनकी दशा एवं दिशा बदल सकते थे । लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के डेढ़ दसक बीत जाने के बाद मौलिक अधिकारों को दिये जाने के बाद भी भारतीय स्त्रियों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया । 60 के दसक में भी रोजगार, शिक्षा, न्याय तथा राजनीतिक क्षेत्र तक स्त्रियों की पहुँच आदि क्षेत्रों में बहुत कम रही । समानता के अधिकार के बावजूद राज्य में लिंग भेद की प्रथा विद्यमान थी । बालिका भ्रूण हत्या का प्रचलन ज़ोरों पर था । स्त्रियाँ अब भी चहरदिवारी में कैद थी । सरकारी नौकरियों में भी नाम मात्र की भागीदारी थी ।
          अतः भारतीय समाज में महिला की स्थिति के अध्ययन के लिए 1972 ई. में एक राष्ट्रीय समिति का गठन हुआ जिसने 1974 ई. में अपनी रिपोर्ट सी.एस.डब्लू. आई. 1974(द रिपोर्ट ऑफ द कमेटी ऑन द स्टेटस ऑफ वुमेन इन इंडिया) प्रस्तुत की जो कि स्वतंत्र भारत का स्त्रियों की दशा से संबन्धित 473 पन्नों का 9 अध्यायों में बंटा पहला दस्तावेज़ था जिसे टूवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है । इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, राजनीतिक भागीदारी आदि सभी क्षेत्रों में स्त्रियों की दुर्दशा के चौंकानेवाले तथ्य सामने आए ।[2] इसके पश्चात स्त्रियों के गिरते सामाजिक स्तर के प्रति चिंता जागी, फलतः एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय, मुंबई ने 1974 में महिला की असमान सामाजिक स्थिति पर शोध के उद्देश्य से महिला अध्ययन केंद्र का गठन किया । इसके साथ ही स्त्रियों को अपने अधिकारों का ज्ञान कराने के उद्देश्य से हमारे देश में स्त्री अध्ययन पाठ्यक्रम की शुरुवात हुई । इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि आज बिना आरक्षण के ही बोर्ड या इंटरमिडिएट सहित समस्त प्रतियोगी परीक्षाओं में लड़कों के मुक़ाबले न केवल अधिक संख्या में सफल हो रही हैं बल्कि सरकारी सेवाओं में भी अच्छी संख्या में नियुक्त हो रही हैं । यही कारण है कि देशभर के छोटे बड़े शहरों में महिला डॉक्टर, वकील, पुलिस, के साथ साथ कार व स्कूटर चलती स्त्रियाँ आज के आम दृश्य हो गए हैं ।
          विधानसभा चुनाव के पूर्व 29 अगस्त 2015 को पटना में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सत्ता में आने से पूर्व अपने आगामी पाँच वर्षीय विजन डोक्यूमेंट का उल्लेख करते हुए वादा किया था कि अगली बार सत्ता में आए तो राज्य के सरकारी नौकरियों में स्त्रियों को 35 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा ।[3] ऐसे में पुनः सत्ता में आने के बाद नितीश कुमार द्वारा बिहार के सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान स्त्रियों को न केवल सामाजिक व आर्थिक रूप से स्त्रियों को सशक्त करेगा बल्कि निजी क्षेत्रों सहित सार्वजनिक क्षेत्रों में इनकी पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी । विशेषकर खेतिहर मजदूर, बीड़ी, हथकरघा उद्योग जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम करनेवाले स्त्रियों के लिए यह नीति वरदान साबित होगी । आज आवश्यकता है पूरे देश मैं ऐसी नीतियाँ लाने व लागू करने की । जब बिहार जैसा विकास के पथ पर अग्रसर, कम विकसित राज्य अपने राजकीय सेवाओं की सुदृढ़ता के लिए स्थानीय निकाय में 50 प्रतिशत पुलिस और कांस्टेबल भर्ती में 35 प्रतिशत तथा सरकारी सेवाओं में 35 प्रतिशत आरक्षण दे सकता है तो अन्य राज्यों को भी इस संबंध में सोचना चाहिए । हालांकि इसके पूर्व अक्तूबर 2015 में ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान[4] ने तथा अक्तूबर 2014 में गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन राज्य के सरकारी सेवाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया था ।[5] ऐसी स्थिति में जब केंद्र सरकार महिला आरक्षण बिल 18 वर्ष बाद भी, लोक सभा तथा विधानसभा में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के बिल को 2010 में ही राज्यसभा से पास कराने के बावजूद भी पास नहीं करवा पा रही है, नितीश कुमार, आनंदी बेन तथा शिवराज सिंह चौहान द्वारा स्त्रियों को विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी की वृद्धि के लिए इस नीति को लागू किए जाने का कदम स्वागत योग्य है । ऐसे नीतियों से न केवल हमारे समाज से लैंगिक भेदभाव खत्म होगा बल्कि बेटी को भार समझकर कन्या भ्रूण हत्या पर भी लगाम लगाया जा सकेगा । आज बिहार राज्य के सरकारी सेवा में स्त्रियों की भागीदारी लगभग 10 प्रतिशत है ।[6] जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह भागीदारी 25.51 प्रतिशत है ।[7] उम्मीद है आनेवाले दिनों में यह राष्ट्रीय स्तर को पार कर 50 प्रतिशत हो जाएगा ।

(Women Express के 27/01/2016 के संपादकीय में प्रकाशित)










[1] त्रिवेदी, आर एन, राय एम पी, “भारतीय संविधान” कॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 2009 
[2] Sharma Kumud, Sujaya C.P,Towards Equality : Report of the Committee on the   Status of Women in India, Pearson Publication, Delhi, 1974
[3] http://www.freepressjournal.in/bihar-cm-promises-35-reservation-in-govt-jobs-for-women/655385
[4] http://www.ndtv.com/india-news/33-per-cent-quota-for-women-in-government-jobs-in-madhya-pradesh-1237476
[5] http://www.ahmedabadmirror.com/ahmedabad/civic/33-reservation-for-women-in-all-state-government-jobs/articleshow/44807085.cms
[6]http://in.reuters.com/article/india-women-employment-bihar-idINKCN0UY25D
[7] http://labour.nic.in/content/division/women-labour.php

Saturday 23 January 2016

विचारधारा की लड़ाई ने लील ली रोहित वेमुला की ज़िंदगी

अगस्त 2015 में दिल्ली विश्वविद्यालय में नकुल सिंह साहनी एवं नेहा दीक्षित निर्मित, मुजफ्फरनगर दंगों के लिए उत्तरदायी कारणों की पड़ताल करती डोक्यूमेंट्री फिल्म “मुजफ्फरनगर बाकी है” के प्रदर्शन का जब बीजेपी समर्थित छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यी छात्रों ने फिल्म को हिन्दुत्व के खिलाफ[1] बताते हुए विरोध किया तो वहीं जेएनयू, हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा सहित पूरे देश के अनेक विश्वविद्यालयों के छात्रों विशेषकर दलित तथा वामपंथी छात्र संगठनों ने प्रदर्शन का समर्थन करते हुए अपने-अपने संबन्धित संस्थानों में एक साथ फिल्म का स्क्रीनिंग किया । 2 घंटे 16 मिनट की इस प्रतिरोधक फिल्म को स्क्रीनिंग के दिन ही लगभग 7 हज़ार लोगों ने काफी रुचि से देखा ।[2] हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के खिलाफ अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएशन के छात्रों द्वारा फिल्म के प्रदर्शन का समर्थन करते हुए इसका प्रदर्शन किया गया । इसके अगले दिन ही एबीवीपी के एक नेता ने इन्हें गुंडा शब्द से संबोधित किया । जिसके लिए बाद में विश्वविद्यालय के सुरक्षा अधिकारियों से उस नेता ने लिखित माफी भी मांगी । इसके अगले ही दिन एबीवीपी नेता सुशील कुमार ने अंबेडकर स्टूडेंट्स असोशिएशन के 30 छात्रों द्वारा खुद के साथ मारपीट किए जाने का आरोप लगाया । घटना की जांच के बाद प्रोक्टोरियल बोर्ड ने यह पाया कि सुशील कुमार को पीटे जाने का कोई प्रमाण नहीं है ।[3] मौके पर मौजूद सुरक्षा गार्ड ने भी कहा कि मारपीट की कोई घटना नहीं हुई है । कोई जख्म का निशान नहीं है ।[4] इसके बावजूद अंतिम रिपोर्ट में बोर्ड ने 5 अंबेडकर स्टूडेंट्स असोशिएशन के छात्रों को एक सेमेस्टर के लिए निलंबित करने का फैसला किया गया । फैसले का विरोध करने के बाद पूर्व वाइस चांसलर ने इस सज़ा को नए कमेटी द्वारा नए सिरे से जांच होने तक के लिए वापस ले लिया । इस दौरान न केवल एक बीजेपी के एमएलसी ने इस घटना को लेकर पूर्व वीसी आरपी शर्मा से मुलाक़ात की । बल्कि बीजेपी सांसद केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारु दत्तात्रेय ने 17 अगस्त 2015 को मानव संसाधन मंत्री को हैदराबाद विश्वविद्यालय में जातिवादी, राष्ट्रवादी गतिविधियों के गढ़ बनने से संबंधित पत्र लिखा । इसी बीच 21 सितंबर 2015 को नए वाइस चांसलर प्रो. अप्पा राव आ गए । पूर्व वीसी के वादे के अनुरूप इन्होनें कोई जांच कमेटी नहीं बनाई । लेकिन विश्वविद्यालय की सर्वोच्च कार्यकारी समिति ने अपना फैसला देते हुए पहले से भी सख्त सज़ा देते हुए दिसम्बर 2015 में इन पाँच छात्रों को हॉस्टल से निलंबित करने के साथ-साथ उनकी फ़ेलोशिप भी रोक दी गयी ।[5] इस निर्णय के विरोध में इन छात्रों ने हाई कोर्ट में याचिका भी दायर की । साथ ही अनेक छात्रों के साथ खुले में भी रह रहे थे । अंततः रविवार 17 जनवरी को इन 5 छात्रों में से एक रोहित वेमुला ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली ।
          आत्महत्या के अगले दिन से ही देशभर के विश्वविद्यालयों में रोहित की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों को सज़ा देने के समर्थन में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया । इसमें बीजेपी सांसद तथा श्रम मंत्री बंडारु दत्तात्रेय तथा स्मृति ईरानी के नाम आने के कारण यह राजनीति का अखाड़ा बन गया है । बीजेपी वाले एक ओर जहां एबीवीपी तथा केंद्रीय मंत्री का पक्ष लेते हुए उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर रोहित को याक़ूब मेनन के फांसी का विरोध करने, बीफ फेस्टिवल का समर्थन करने के कारण उसे राष्ट्रविरोधी करार दे रहे हैं । लेकिन ऐसा कर वे मुद्दे को उलझाना चाहते हैं । ये जो कुछ भी बता रहे हैं वो सही हो सकता है लेकिन इन तथ्यों का रोहित की मौत से कोई लेना देना नहीं है । ये इक्सक्यूज बिलकुल वैसा ही है जैसे नाथुराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या की । क्यों की ? तो इसलिए कि उनका अपने सहयोगी मनु और आभा के साथ संबंध था (नए अध्ययन के अनुसार) ।[6] जबकि वास्तविकता ये है कि गोडसे द्वारा गांधीजी की हत्या का कारण पाकिस्तान प्रश्न से संबंधित था । ठीक इसी प्रकार इन छात्रों के निलंबन को मुख्य कारण “मुजफ्फरनगर बाकी है” के दौरान हुई झड़प से है । वो बीफ पार्टी का आयोजन करता था, याक़ूब के फांसी का विरोध करता था ... ये सभी तथ्य मुद्दे को भटकाने के लिए हैं । फिर भी यदि कोई किसी के फांसी की सज़ा का विरोध करता है तो इसमें गलत क्या है ।[7] भगत सिंह के फांसी का हम आज भी विरोध करते हैं भले वो ब्रिटिश सरकार की नज़र में आतंकवादी हों । जबकि ये सर्वविदित है कि बीफ फेस्टिवल का आयोजन एक सांकेतिक प्रतिरोध था ...फासीवादियों के मॉरल पुलिसींग के खिलाफ । ठीक वैसे ही जैसे मॉरल पुलिसींग के खिलाफ केरल से शुरू हुए “किस ऑफ लव” आंदोलन था । जो कि फासीवादी विचारधारा का मुंह चिढ़ाने के लिए आयोजित किया जाता था । राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल सभी इस अखाड़े में अपनी आजमाइश करने में लग गए हैं ।[8] लेकिन इस सियासत में रोहित की मौत का जो मुख्य कारण है उस पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है । रोहित की मौत का मुख्य कारण ब्राह्मणवादी तथा गैर ब्राह्मणवादी अंबेडकरवादी विचारधारा का टकराव है । ब्राह्मणवादी विचारधारा की गिरफ्त में आज देश का प्रत्येक शिक्षण संस्थान है । विशेषकर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तो यह कूटकूट कर भरी है । ब्राह्मणवादी विचारधारा के अनुयायी इन बातों से गुरेज करते हैं कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी वर्ग के बच्चे भी एम. फिल या पीएच.डी स्तर की पढ़ाई करें और उन्हें भी हमारी तरह कॉलेजों, विश्वविद्यालय में नौकरियाँ मिले । वास्तव में ऐसे विचारधारा के लोग इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी राजतंत्रात्मक व्यवस्था का अनुसरण करते हुए मनुस्मृति के बनाए नियमों पर चलते हैं । संविधान प्रदत्त आरक्षण के कारण एससी, एसटी व ओबीसी वर्ग के छात्रों को लेना इनकी मजबूरी है । अन्यथा ऐसी विचारधारा वाले लोग सामान्य वर्ग को छोडकर इन लोगों को देखना भी पसंद नहीं करते । आरक्षण या प्रतिभा के बल पर प्रवेश पाने के बावजूद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें उनके निम्न जाति से संबंधित होने का एहसास करवाया जाता है । अंबेडकर स्टूडेंट्स असोशिएशन से जुड़े रोहित वेमुला द्वारा हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को दिसम्बर 2015 में लिखे इस पत्र से इस तथ्य की पुष्टि होती है “दलित छात्रों के कमरे में एक रस्सी मुहैया करानी चाहिए । इससे पूर्व भी पत्र व्यवहार में यह भी कहा कि “हमलोगों को इस तरह अपमानित करने की जगह नामांकन के समय ही हमें जहर दे देना चाहिए ।[9] यही कारण है कि पिछले 10 वर्षों में हैदराबाद विश्वविद्यालय के 9 दलित छात्रों ने ख़ुदकुशी को अंजाम दिया । अंबेडकरवादी विचारधारा इनके इन्हीं नीतियों का विरोध करती है । रोहित की घटना पर बेबाकी से राय रखनेवाले अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत कहते हैं “राजनीति से मुक्त हो शिक्षा परिसर” । लेकिन जहां तक मेरा विचार है शिक्षा परिसर के राजनीति से मुक्त होने से कुछ भी होने वाला है । यदि मुक्त कराना ही है तो शिक्षा परिसर को जाति या ब्राह्मणवादी विचारधारा से मुक्त कराइये ।
                                         
           (वुमेन एक्सप्रेस के 23/01/2016 के संपादकीय में प्रकाशित) 


                                                                                                                 
         




[1] http://www.newslaundry.com/2015/08/05/muzaffarnagar-baaqi-hai-abvp-says-film-against-hinduism-director-insists-its-only-against-fascist-forces/
[2] http://www.firstpost.com/bollywood/blocked-in-delhi-university-documentary-muzaffarnagar-baaqi-hai-is-a-must-watch-2408662.html
[3] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160119_rahulgandhi_rohit_ia
[4] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160118_rohit_vemula_apoorvanand_rd
[5] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160119_rohith_vemula_profile_pk
[6] https://vinaylal.wordpress.com/tag/gandhis-experiments-in-brahmacharya/
[7] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160118_rohit_vemula_apoorvanand_rd
[8]http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160119_rohith_vemula_political_reactions_ml?ocid=socialflow_facebook
[9] http://www.bbc.com/hindi/india/2016/01/160119_rohith_vemula_profile_pk

Sunday 17 January 2016

उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आगामी चुनाव और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

वर्ष 2016 में पश्चिम बंगाल तथा 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को देखते हुए वोटों के ध्रुवीकरण के लिए जिसे देखो अपने-अपने राग आलापने लगे हैं । कोई धर्म के नाम पर तो कोई जाति के नाम पर । उदाहरण के लिए दलितों की प्रमुख नेत्री मानी जानेवाली उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी बीजेपी तथा सपा पर हमला बोलते हुए मुलायम सिंह यादव को डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा के खिलाफ काम करने का आरोप लगा रही हैं तो वहीं बीजेपी पर राम मंदिर निर्माण के नाम पर उन्माद फैलाने का आरोप लगा रही हैं ।[1] साथ ही यह भी जानकर कि उनका दलित वोट बैंक खिसक रहा है, सवर्णों का वोट हाशिल करने के उद्देश्य से सवर्ण गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण[2] प्रदान करने की मांग करने के साथ-साथ उन्होनें अवसरवादी राजनीति का एक मिशाल प्रस्तुत किया है । ये बातें हैरान करती हैं कि क्या ये वही मायावती हैं जो राजनीति व समाज से सवर्ण प्रभुत्व खत्म करने के लिए एक समय नारा दिया करती थी “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” ! मुलायम सिंह यादव बिहार विधानसभा में लालू-नितीश की पिछड़ों-अतिपिछड़ों की राजनीति से सीख लेते हुए अपने वोटबैंक को बनाने के लिए 24 नवम्बर को पार्टी कार्यालय में 17 अतिपिछड़ी जातियों का सम्मेलन कराकर उन्हें अपने पाले में गोलबंद करने के लिए लगे हुए हैं । धर्म की राजनीति की बात करें तो बाबरी मस्जिद विध्वंश/राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का मामला जबकि सुप्रीम कोर्ट में अभी लंबित ही चल रहा है । इसके बावजूद बीजेपी ने हिंदुओं को भावनात्मक रूप से आकर्षित करने के लिए अभी से ही राम मंदिर का राग आलापना शुरू कर दिया है । ऐसा माहोल बनाया जा रहा है कि जैसे इन्हें अंदर की बात पता हो कि 2016 में राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ ही जाएगा । इस कार्य में ख्याति प्राप्त बीजेपी नेता और पेशे से वकील सुब्रहण्यम स्वामी की लोकप्रियता को भी भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा जा रहा है । हाल ही में पश्चिम बंगाल में हुए एक कार्यक्रम में आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत जी द्वारा राम मंदिर निर्माण का राग अलापने के बाद विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया राम मंदिर निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री का नाम लेकर विवाद को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं ।[3] अब विवाद जब खड़ा हुआ ही है तो हम किसी से कम नहीं के तर्ज़ पर, इस विवाद में कूदते हुए AIMIM (ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहदा मुस्लिमीन) के नेता असदुद्दीन ओवेसी ने तो बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 23वीं वर्षी पर यहाँ तक कह दिया कि अयोध्या में मंदिर नहीं हम मस्जिद ही बनाएँगे ।[4] समाजवादी पार्टी के आजम खान भी अयोध्या में मस्जिद बनवाने की बात करते हुए कहते हैं, “अगर बाबरी मस्जिद (अयोध्या में) उसी जगह बनती है तो भारत के मुसलमान भाजपा को सत्ता में लाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे ।[5] हमेशा से ही बातचीत द्वारा इस मसले को हल करने की सलाह देने वाले बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाशिम अंसारी भी अब खीझकर कहते हैं कि मंदिर मस्जिद का विवाद अब बातचीत से हल नहीं हो सकता । उच्चतम न्यायालय का जो फैसला होगा, उसे हम केवल मानेंगे ।[6] इस विवादित स्थान पर मंदिर बनेगा या मस्जिद ये तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद ही पता चल पाएगा लेकिन दोनों ही धर्मों के कट्टरपंथी नेता देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ कर अपना स्वार्थ निकालने के लिए इस मुद्दे पर सियासत करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं । सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने में पश्चिम बंगाल स्थित माल्दा की घटना, जिसमें में 3 जनवरी को हिंदू महासभा के नेता कमलेश तिवारी द्वारा मुहम्मद साहब पर अभद्र कमेंट करने के विरोध स्वरूप मुसलमानों द्वारा थाना जला दिये जाने की बात सामने आई थी, को भी प्रयुक्त किया जा रहा है । जबकि वास्तविकता यह है कि थाने जलाए जाने की घटना का इस विरोध प्रदर्शन से नहीं बल्कि इसका संबंध माल्दा से संचालित होनेवाली जाली नोटों के कारोबार तथा अफीम व ड्रग्स के अवैध कारोबार से था । काफी गहराई से पड़ताल करने के बाद न्यूज़ 24 ने यह रिपोर्ट प्रकाशित की ।[7] इसके बावजूद इस घटना को नोएडा के दादरी से जोड़ते हुए सांप्रदायिक माहोल बिगाड़ने का खूब प्रयास किया गया । पश्चिम बंगाल की बात करें तो मुस्लिम जनसंख्या जो पश्चिम बंगाल के कुल आबादी का 27 % हैं को भी लुभाने का बखूबी प्रयास कर रही हैं । जो आजतक दिल्ली से बांग्लादेशी नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन को बुला नहीं पायी, वो मुसलमानों को लुभाने के लिए पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक गुलाम अली के कार्यक्रम आयोजित करवा रही हैं ।[8]
          क्या विडम्बना है कि बड़े-बड़े मंच से असहिष्णुता पर बात करते हुए प्रधानमंत्रीजी बोलते हैं कि हमें एक दूसरे के नज़रिये और परंपराओं का ख्याल रखना चाहिए ।[9] इसके बावजूद सांप्रदायिक माहोल को खराब करने वाले ऐसे राजनीति, बयानबाजी पर रोक लगाने के लिए खुद प्रधानमंत्री या अन्य सक्षम लोगों का कोई स्टेटमेंट तक नहीं आता है । ऐसा प्रतीत होता है केंद्र व राज्य सरकार को देश के माहौल खराब होने से कोई लेनदेना ही नहीं है । निजी स्वार्थ, जातिगत राजनीति करनेवाले नितीश कुमार, मायावती, मुलायम सिंह यादव को जनता लोकसभा चुनाव में सबक सीखा चुकी है । इसके बावजूद भी पिछली गलतियों से यदि इनलोगों ने सबक नहीं लिया तो एक बार फिर से इन्हें वो दिन देखने पड़ सकते हैं जैसा शीर्ष पर पहुँचने के बावजूद माहोल को खराब करने का खामियाजा बीजेपी दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में 3 सीट व बिहार में 243 में से 57 सीट लाकर बीजेपी भुगत चुकी है




(दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र वुमेन एक्सप्रेस के संपादकीय 18/01/2016 में प्रकाशित )




[1] http://www.thehindu.com/news/national/other-states/barring-varanasi-modi-neglecting-rest-of-uttar-pradesh-mayawati/article8111831.ece
[2] वुमेन एक्सप्रेस, “क्या मायावती संघ के एजेंडे को आगे बढ़ा रही हैं” संपादकीय, 5 दिसम्बर 2015
[3] http://khabar.ibnlive.com/news/desh/praveen-togadiya-vhp-prime-minister-narendra-modi-lord-ram-temple-ayodhya-432197.html
[4] http://m.newshunt.com/india/hindi-newspapers/amar-ujala/national/ovaisi-ka-ailan-ayodhya-me-mandir-nahi-masjid-banegi_47009646/c-in-l-hindi-n-amar-ncat-National
[6] वही, पृष्ठ संख्या 7
[7] http://hindi.news24online.com/truth-of-malda-riot-59/#.VpP6i_31Pzw.facebook
[8] http://www.satyagrah.com/politics/west-bengal-mamta-banerjee-ghulam-ali-taslima-nasreen/
[9] http://khabar.ndtv.com/news/india/to-respect-each-others-traditions-and-vision-pm-modi-1265022