Tuesday 19 June 2018

किन्नर की आरज़ू




स्त्री शरीर में कैद पुरुष या पुरुष शरीर में कैद स्त्री गुण
वैश्विक समाज में बस यही मेरी पहचान है ।
कहने को तो, औरों की तरह इस धरती की ही संतान हैं हम
लेकिन धरावासियों के लिए तो जैसे बिन बुलाए मेहमान हैं हम ।
कैसे बयां करें अपनी बदकिस्मती, अपनी पीड़ा को,
आशीर्वचनों से हम जिस समाज को
लंबी उम्र, खूब तरक्की करने की दुवाएँ देते हैं ।
वही समाज हमें ...
जनाने-मर्दाने से इतर
किन्नर, छक्का, हिजड़ा कहकर हमारा उपहास उड़ाते हैं ।
कैसे बताएं कि प्रकृति प्रदत्त इस नासूर को हम
नियति मान कैसे जीवन भर ढोते हैं ?
नाच-गान से समाज को गुदगुदा कर
भिक्षाटन कर चंद सिक्के कमाते हैं ।
जीते जी नौकरी-रोजगार की जगह
लैंगिक गालियां-झिड़कियाँ ही पाते हैं
इस नरक से छुटकारा मिलने के बाद भी  
ढाई गज जमीन भी नसीब नहीं होती ।
क्यों ?
समाज निर्मित सौन्दर्य के पैमाने में
हम थोड़े अलग-थलग हैं तो क्या हुआ ?
24 कैरेट मर्दानगी नहीं, माँ बनने की क्षमता नहीं,
तो क्या हम इंसान नहीं ?
बहुत जी लिए इस नाच-गान, दुवाएँ देने, तालियाँ पीट-पीट,
भिक्षाटन कर जीवन जीने की परंपरा को,
अब इज्जत-सम्मान भरी ज़िंदगी जीना चाहते हैं हम ।
चाँद-मंगल-दूसरी दुनिया तक जाने की हमारी भी है आरज़ू
अपने अनगिनत सपने को हकीकत में बदलना चाहते हैं हम ।
अपनी इस अभिशप्त ज़िंदगी से मुक्ति चाहते हैं हम ।
अब इज्जत-सम्मान भरी ज़िंदगी चाहते हैं हम । 

{मूल रूप से अलवर (राजस्थान) से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका भर्तृहरि टाइम्स (13 मई - 18 जून 2018) संयुक्तांक में प्रकाशित}