Saturday 29 April 2017

जातिवाद की जड़ : उपनयन / जनेऊ संस्कार

भारत में जातिवादी व्यवस्था पर बहस के दौरान अधिकांश सवर्ण बुद्धिजीवी अक्सर आरक्षित वर्ग द्वारा आरक्षण का लाभ लेने के लिए जातिप्रमाण-पत्र बनवाने को जातिवाद को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक मानते हैं । ऐसा कहकर या तो ये आरक्षित वर्गों के प्रति कुंठा निकालते हैं या इन्हें जातिवादी व्यवस्था के संबंध में उचित ज्ञान नहीं है । गौर करने वाली बात ये है कि भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही आरक्षित वर्गों को आरक्षण का फायदा मिलना शुरू हुआ । इस दृष्टि से तो यह जाति प्रमाण पत्र व्यवस्था कोई 65-67 वर्ष पुरानी है । जबकि जातिवाद तथा इसके आधार वर्णाश्रम व्यवस्था का इतिहास तो 2000-3000 वर्ष पुराना है । इन हजारों वर्षों के दौरान तो ये खुद आरक्षित वर्ग के रूप में जीवन व्यतीत कर रहे थे । अपने आरक्षण को वैधता देने के उद्देश्य से ऋग्वेद, मनुस्मृति व अन्य धर्मग्रंथों का सहारा लिया । कोई इनपर शक न करे इसलिए इन्हें अपौरुषेय घोषित कर दिया । 
मेरा मानना है कि जाति प्रमाण-पत्र बनवाने को जातिवाद पनपने के लिए उत्तरदाई मानते हुए इसपर प्रश्न चिन्ह लगाने की अपेक्षा यदि ये बुद्धिजीवी लगभग 3000 वर्ष (संभवतः कम या अधिक भी) प्राचीन उपनयन/जनेऊ संस्कार पर आघात करें जो केवल ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य वर्ण/जाति के 20% जनसंख्या को द्विज या पवित्र बनाकर अस्पृश्यता व जातिवाद को बढ़ावा देता रहा है तो ये जातिवाद का स्वाभाविक रूप से 'राम नाम सत्य है' हो जाएगा । नारीवादी विचारक संजीव चंदन भी इस पवित्रता को जातिवाद का सबसे बड़ा आधार मानते हैं । गृह्यसूत्रों के अनुसार प्रत्येक जातक जन्म से ही अस्पृश्य होता है । गृह्यसूत्र के रचयिता इसका आधार स्त्रियों के मासिक चक्र को देते हैं जिसे अपवित्र माना जाता है । अस्पृश्य से स्पृश्य (पवित्र) की अवस्था में आने के लिए उपनयन संस्कार किया जाना आवश्यक था । ब्राह्मणों द्वारा ये उपनयन संस्कार या जनेऊ संस्कार मुख्यतः ब्राह्मणों, क्षत्रियों व वैश्यों का उम्र की अलग-अलग अवस्थाओं में होता था । इस संस्कार के बाद ही कोई जातक द्विज की स्थिति को पाकर अस्पृश्यता से मुक्त होता था । जिनका यह संस्कार नहीं होता था वे अस्पृश्य रहने को ही मजबूर रहते थे । इसलिए यदि इस परंपरा/संस्कार पर सती प्रथा जैसा कुठाराघात किया जाय तो कोई संदेह नहीं कि हिंदू सामाजिक व्यवस्था में निहित छूत-अछूत के बीच की खाई न केवल खत्म हो जाएगी बल्कि जातिवाद तथा इसके नाम पर भेदभाव का भी अंतिम संस्कार हो जाएगा ।

Tuesday 25 April 2017

सुकमा नक्सली हमला पर सरकार की घड़ियाली आँसू

और एक बार फिर अपने ही देश के एक militant group माओवादियों ने प्रतिशोध में 25 crpf जवानों की जान ले ली और सरकार घड़ीयाली आंसू बहाते हुए कड़ी निंदा के अलावे कुछ नहीं करेंगे... और वोट की लालची कोई सरकार कुछ कर ही नहीं सकती क्योंकि उनसे वोट लेने के अलावा नक्सलवादी समस्या परpolitics करने के लिए उन्हें जिन्दा रखना है... अब अभी घटना हूई नहीं कि जनता को दिखाने के लिए उस राज्य के नक्सल प्रभावित इलाकों में सीआरपीएफ़, एसटीएफ़ सैनिकों की पचासों कम्पनियां लगा देंगे ... जनता में विश्वास दिलाने के लिए 8-10 माओवादियों का encounter कर देंगे ... सरकार और सैनिकों की जयजयकार होगी ... मामला खत्म ... फिर 5-6 महीने बाद यही घटना कहीं और से ... पिछले 10 वर्षों से ऐसे ही घटना की पुनर्वृत्ती हो रही है जबकी घटना वाली राज्य में 10 वर्ष से अधिक समय से एक ही पार्टी की सरकार है । आखिर क्यों माओवाद खत्म करने के लिए कोई master plan नहीं बनाया जाता है । कब तक नक्सलवाद के खात्मे की जगह केवल सैनिकों के शहादत की ही खबरें आती रहेगी । आखिर कब तक चलती रहेगी ये खूनी होली ?
पाकिस्तान से लगातार बातचीत पर बातचीत होती रहती है । क्या ये माओवादी पाकिस्तानियों से भी गए-गुजरे हैं । आखिर इनकी समस्या पर बातचीत कर इनकी मांगों को सार्वजनिक क्यों नहीं की जाती ? 
#सुकमा हमले में शहीद जवानों को सहृदय श्रद्धांजलि !!!!!!!

Saturday 22 April 2017

लोकतंत्र की विफलता के लिए जिम्मेदार सरकार

एक अशिक्षित व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में उलझकर संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों-कर्तव्यों को कभी भी गहराई से जान नहीं पता है । सरकार (केंद्र व राज्य) भी इसे अपने नागरिकों को बताने में कोई खास दिलचस्पी नहीं लेती है, केवल 5वीं-10वीं कक्षा के दौरान नागरिक शास्त्र विषय के अंतर्गत नाममात्र के लिए यह हमें तब बताया जाता है जब हम Mature भी नहीं होते हैं । वयस्क होने पर जब हमें इन अधिकारों-कर्तव्यों के जानकारी की अत्यधिक आवश्यकता होती है तब भी सरकार की तरफ से कोई कार्यक्रम या कार्यशाला आयोजित नहीं किया जाता है । कार्यशाला के स्थान पर नागरिकों को धार्मिक व जातिगत विमर्श में जबरन धकेल दिया जाता है ताकि इसी में उलझ कर वे अपनी ज़िंदगी काटती रहें और सरकार हमें धोखे में रखकर अपनी मनमानी करती रहे । 
यही कारण है कि सरकार को Social Science & Humanities संबंधित विषयों से उच्च शिक्षा (M.Phil/Ph.D) प्राप्त कर रहे शोधार्थियों से इन्हें समस्या होती है । समस्या से निपटने के लिए कभी इनकी fellowship तो कभी सीटें खत्म/कम कर दी जाती है कभी फीस वृद्धि भी हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । बाकी Engineering/Medical शोधार्थियों से इन्हें कोई समस्या नहीं क्योंकि ये जानते हैं कि इन्हें Lab से फुर्सत ही नहीं तो समाज या अपने अधिकारों के बारे में क्या सोचेंगे । अपने निर्णय मनवाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी हथियार प्रयुक्त कर दिये जाते हैं । मान लिए तो ठीक नहीं तो लाठी और राजद्रोह कानून आपके लिए ही बनाए गए हैं ।