Sunday 8 January 2017

किसान आत्महत्या के लिए जिम्मेदार कौन ?


बैंकों का करोड़ो अरबों रूपये दबाए पूंजीपतियों के ऋण चुकाने के लिए सरकार गरीबी से त्रस्त किसान मजदूर व मध्यवर्ग के गुल्लक के पैसे निकाल बैंकों को देने के लिए कभी जन धन योजना तो कभी काले धन निकालने के बहाने नोटबंदी जैसे scheme ले आती है. करोड अरब रूपये का लोन लेने वाले पूंजीपति खुद अरबों रूपये की कंपनी के मालिक हैं व अधिकांश आपराधिक छवि वाले दिग्गज नेताओं के करीबी भी. जिसके कारण बैंक के अफसर डरकर इनपर कोई कार्रवाई नहीं कर पाती है लेकिन बैंकों के कर्ज तले दबे बैंक के अत्याचार से आत्महत्या करने को मजबूर देश के अन्नदाता किसान के कर्ज माफी के लिए कोई योजना नहीं बनाई जाती है । 
 एक report के अनुसार 2012 के बाद कृषि उत्पादों में लगातार ह्रास हो रही है. किसान भी क्या करें वो अपनी स्थिती सुधारने के लिए एड़ी चोटी एक कर कमरतोड़ मेहनत तो करते हैं लेकिन कभी मौसम की मार तो कभी बाजार उनकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं. अभी कुछ दिनों पूर्व ही रायपुर के किसान टमाटर का उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण इसे सड़क पर फेंकने या लोगों में बांटने को मजबूर हो गए. लेकिन क्या बांटने या सड़कों पर फेंकने से इनकी समस्या हल नहीं हो सकती . सरकार तो चाहती ही है कि किसानों की कमर टूटे, ताकि परेशान होकर किसान कृषि छोड़कर अन्य धन्धे में आ जाएं और उनकी जमीन पूंजीपतियों को दान कर उनसे कमीशन खाते रहे. किसानों पर इतना ही ध्यान सरकार का रहता तो 3600 करोड किसी पत्थर के पुतले के बदले किसानों को मिलता. डीफोल्टरों की जगह किसानों के क़र्ज़ बैंक यह माफ़ कर देते कि बैंक इनसे क़र्ज़ वसूलने में असमर्थ है. 
 क़र्ज़ तले दबकर किसान बैंक के रवैये से परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार पूंजीपतियों के गोद में चैन की सांस सो रही है . यदि कभी जाग भी गयी तो मरहम के रूप में फसल बीमा का लोलिपॉप थमा दिया जिसका फायदा एन केन प्रकारेन बीमा कंपनियों को ही मिलता है. अप्रत्याशित फायदे देखकर आजकल निजी फसल बीमा कंपनियां थोक संख्या में उभर रही हैं. 
 आखिर सरकार कोई सरकारी संस्था क्यों गठित नहीं करती है जो किसानों की स्थिति में सुधार हेतु कोई कार्यक्रम चला सके जैसे मजदूरों के लिए मनरेगा योजना कुछ राहत की सांस के रूप में आई थी . सरकार का 


ध्यान इस ओर नहीं जाना कहीं किसानों के साथ कोई साजिश तो नहीं ? यदि साजिश है तो आखिर क्या गुनाह है गरीब किसानों का ?

Saturday 7 January 2017

खतरे में प्रजातंत्र

ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए मनुस्मृति व अन्य धर्मशास्त्रों की रचना उत्तर भारतीय किसी एक ब्राह्मण या इनके एक समूह द्वारा की गई ज़िसमें शुद्रों तथा मलेच्छों को वर्चस्व के लिये खतरा मानते हुए, उनका मनोबल तोड़ने के लिये उनके साथ भेद भाव के प्रावधान को धर्माशास्त्रों के साथ जोडकर वैध कर लिया । हालांकि तीसरी सदी ई. के दौरान सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन के फलस्वरूप व्यवसायों में आये परिवर्तन ने शूद्रों व स्त्रियों को एक उम्मीद दिखाई, वेदों के अध्ययन से महरूम दलित व स्त्री वर्ग को बौद्ध व अन्य सम्प्रदायों की ओर पलायन से रोकने के लिए वैदिक साहित्य के स्थान पर पौराणिक साहित्य का अध्ययन करने, इनमें लिखित रीति रिवाजों को अपनाने की छूट तो मिली लेकिन आज पुनः समाज को घोर जातिवादी व्यवस्था की ओर ले जाने के लिए पूरा प्रयास किया जा रहा है । पहले तो केवल अस्पृश्य ही इनकी वर्चस्व के लिए खतरा थे लेकिन आज 2000 वर्ष बाद इनके 3 और दुश्मन बढ़ गए । इसाई, मुसलमान व हिंदू धर्म के ही वामपंथी । इन सभी की एकजुटता देखकर मनुवादी व्यवस्था के अनुयाइयों की छटपटाहट को समझा जा सकता है क्योंकि प्रजातंत्र में ये राजतंत्र वाली धर्मसूत्र जैसे सहित्य लिखकर अपनी सत्ता को बचा नहीं सकते ।

ऐसे में स्वभाविक है अब अपनी सभ्यता/संस्कृति पर इतराने वाले नीचे गिरने की सीमा को पार करते हुए गुंडे मवाली का वेश धरकर धमकाते फिरेंगे कभी धार्मांतरण के नाम पर कभी गाय के नाम पर ।  कभी देशभक्ति के नामपर तो कभी आरक्षण के नाम पर । यदि इनकी सत्ता कमजोर नहीं हुई कोई मजबूत विपक्ष नहीं मिला तो वो दिन दूर नहीं जब मनुवादी व्यवस्था सारी न्यायिक प्रणालियों को ध्वस्त कर प्रजातंत्र के स्थान पर राजतंत्रात्मक, कट्टर जातिवादी समाज के रूप में पुनर्जन्म होगा ।