Wednesday 27 December 2017

‘वन्दे मातरम’ विमर्श की आवश्यकता क्यों?

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय लिखित उपन्यास आनंदमठ के गीत वन्दे मातरम के गायन को लेकर पिछले 3 वर्षों से हमारे देश के समाचार चैनल अखाड़ा बने हुए हैं। यह विवाद कोई नया नहीं है बल्कि इसकी जड़ स्वतन्त्रतापूर्व की रही है। स्वतंत्रता पूर्व इस बोल से घृणा करने की वजह थी कि जिस उपन्यास आनंद मठ से यह गीत लिया गया है उसमें मुसलमान शासकों को शोषक के रूप में दिखाते हुए, मुसलमानों के लिए ओछे शब्दों को प्रयुक्त कर उनके प्रति घृणा दिखाया गया है, जो प्रारम्भ में अंग्रेजों के लिए किया गया था। बाद में अंग्रेजों की जगह न केवल मुसलमानों को डाल दिया गया, बल्कि अंग्रेजों की जय-जयकार भी की गयी। इस गीत में हिंदू धार्मिक प्रतीकों की बहुलता होने के कारण ही  इसे राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, जबकि स्वतन्त्रता आंदोलन के समय में यह जनमानस में रवीद्रनाथ टैगोर की जन-गण-मन से भी अधिक लोकप्रिय था।
          23 दिसंबर 2017 को ‘सिर्डी साईं बाबा’ संस्थान द्वारा आयोजित ग्लोबल साईं मंदिर ट्रस्ट सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू द्वारा मुसलमानों द्वारा वंदे मातरम गाने की समस्या को लेकर उठाए गए सवाल के बाद यह विमर्श एवं विवाद का मुद्दा बन गया है। इस विमर्श में एक तरफ तथाकथित देशभक्त’(हिंदू सहित अन्य धर्मावलम्बी) हैं तो दूसरी तरफ तथाकथित अदेशभक्त (पारंपरिक इस्लामी धर्मावलम्बी) वर्ग। अदेशभक्त इस संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है कि तथाकथित देशभक्त वर्ग द्वारा वन्दे मातरम कहने को देशभक्ति का पैमाना बताया जा रहा है। गहराई से विचार किया जाए तो इस वन्दे मातरम विमर्श को बढ़ावा देने का उद्देश्य बाहर से दिखाने के कुछ और और अंदर से कुछ और ही प्रतीत होता है। वास्तविकता यह है कि वर्तमान में इस विवाद/विमर्श के बहाने सरकार इस्लामी समुदाय को देशभक्ति के सर्टिफिकेट देने की आड़ में उनकी कट्टर धार्मिक मान्यताओं की कमजोरी का फायदा उठाते हुए उन्हें अदेशभक्त घोषित कर केवल हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है।
          इस्लामी धर्मावलम्बियों द्वारा राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम का उच्चारण या गायन नहीं करना वर्तमान में कोई राष्ट्रवाद का नहीं बल्कि धार्मिकता का मामला है। यदि राष्ट्रीयता का मामला होता तो वे राष्ट्रगान जन गण मन गायन से भी परहेज करते। ऐसी स्थिति में बहुदेववाद सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले हिंदू धर्मावलम्बी निःसंकोच वन्दे मातरम बोलकर देशभक्त का तमगा तो पा जा रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ एकेश्वरवाद में विश्वास करने वाले कट्टर इस्लामिक धर्मावलम्बी इसके उच्चारण को लेकर थोड़े असहज हो जाते हैं, क्योंकि इस्लामी धार्मिक मान्यतानुसार एक इस्लामी धर्मावलम्बी को केवल अल्लाह की इबादत करना ही सुन्नत माना गया है। इनके अतिरिक्त अन्य किसी की इबादत के उद्देश्य से सजदा करने को इस्लामी परंपरा के खिलाफ माना जाता है। ऐसे में वे भारत को ईश्वरीय माता के रूप में मानते हुए उसकी इबादत में वंदना करना इस्लामिक धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ मानते हैं। ऐसी स्थिति में कट्टर इस्लामिक धर्मावलम्बी देशभक्ति के प्रमाणपत्र से वंचित हो जा रहे हैं। भले ही उनके दिल में कितना भी देश के लिए समर्पण की भावना क्यों न हो।
          हालांकि इस्लाम का दूसरा पक्ष सूफिवाद ऐसे सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि सूफी परंपरा में पीरी, मुरीदी (गुरु शिष्य) परंपरा में कदमबोशी व सजदा जैसे कर्मकांड अभी भी प्रचलन में हैं। प्रगतिशील सोच के इस्लामी धर्मावलम्बी भी इसके उच्चारण को लेकर असहज नहीं होते हैं। धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठ चुके आज के हजारों मुस्लिम युवा इसे न गाने को एक दक़ियानूसी सोच बताते हैं। जिनका मानना है कि यदि इसके उच्चारण से किसी का धर्म भ्रष्ट होता है तो न्यूज़ चैनलों पर वंदे मातरम विमर्श करने वाले मौलवी-मौलाना तो वाद विवाद में दर्जनों बार इसका उच्चारण करते हैं तो क्या इससे उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता है।
          इस्लामी धर्मावलम्बियों के इस कट्टर धार्मिकता पर उग्र हिन्दुत्व के लोग खुद को प्रगतिशील सोच/विचारधारा युक्त दिखाने के लिए इन पर आक्षेप लगाते देखे जा सकते हैं कि इतना भी धर्मांध होना ठीक नहीं। धर्म, राष्ट्र से सर्वोपरि नहीं होना चाहिए। ऐसे छद्म प्रगतिशील लोगों को यदि कहें कि विविध खान-पान की संस्कृतियों वाले हमारे इस धर्मनिरपेक्ष भारत देश में ईसाई, इस्लामी, हिंदू धर्म के अंतर्गत कुछ अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लोग गौमांस का बहुत ही चाव से सेवन करते हैं, इसलिए गौमांस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए और हो सके तो आपको भी इसका सेवन करना चाहिए, तो इनकी प्रगतिशील सोच की खाल ओढ़े धार्मिक कट्टरता को बेनकाब होने में जरा भी समय नहीं लगेगा। तुरंत यह गर्जना कानों को छेद देगी कि मैं हिंदू हूँ ... हमारे धर्म मे ...।
          इस संदर्भ में दोनों की धर्मांधता को समझा जा सकता है। जैसे हिंदू धर्मावलम्बी चिकन, बकरे का मांस तो खा सकते हैं लेकिन बीफ नहीं, क्योंकि उनका धर्म गौमांस सेवन की इजाजत नहीं देता। वह काम जैसे आपके धर्म में पाप समझा जाता है उसे आप नहीं कर सकते हैं, वैसे ही कट्टर इस्लामिक लोगों को उनका धर्म अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत/वंदना करना सुन्नत नहीं माना जाता। इसलिए वे धार्मिक प्रतीकों से युक्त इस राष्ट्रगीत (वन्दे मातरम) के गायन से हिचकते हैं। अन्य राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान जन गण मन बोलने/गायन से तो कभी कोई समस्या देखने सुनने को तो नहीं मिलती। अतः उनसे ऐसा जबरन बोलने के लिए मजबूर करना, किसी हिन्दू को जबरन गौ मांस खाने के लिए मजबूर करने जैसा ही है। दोनों धर्मावलंबियों की अपनी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं जिनका हर किसी को सम्मान करना चाहिए। सरकार को भी अपनी अखंडता बनाए रखने के लिए राष्ट्र, राष्ट्रगान व राष्ट्रगीतों को दैवीय रूप प्रदान करने से बचना चाहिए । संभव हो सके तो मुसलमानों के लिए अन्य राष्ट्रगीत गाने की छूट दे, क्योंकि राष्ट्रगीत का गायन ही राष्ट्रभक्ति का पैमाना है तो अनेकों राष्ट्रगीतों में से एक उनके लिए भी हो जिनमें धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग न हो।
          हालांकि मेरे विचार से आज के समय में दोनों ही विचार प्रासंगिक नहीं हैं। दोनों धर्मावलंबियों को इन पारंपरिक मान्यताओं को छोड़कर वर्तमान में समय की मांग के अनुसार आचरण करना चाहिए। ये विचार राजतंत्रीय शासन प्रणाली में एक पुरातन समय में प्रासंगिक होंगे जब राजा का धर्म ही प्रजा के लिए मान्य होता था। आज गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में हमें अपने विचार परिवर्तन करते हुए भारतीय संविधान के अनुसार आचरण करने की आवश्यकता है ।
                                                साकेत बिहारी
शोधार्थी – पीएचडी

हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
(मूल रूप से HASTKSHEP.COM Online Portal पर प्रकाशित 
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