Sunday 19 December 2021

गौतम बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में कब से माना जाने लगा?

 छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य से गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाने लगा था। यही कारण है कि इस दौर या इसके बाद में लिखे गए पौराणिक ग्रंथों या अन्य ग्रंथ (11वीं शताब्दी में क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित दशावतारचरित एवं 12 वीं शताब्दी में जयदेव द्वारा लिखित गीत गोविंद) या अभिलेखों में ही केवल इन बातों का वर्णन मिलता है। इन्हीं ग्रंथों के आधार पर 11वीं शताब्दी में हिंदुस्तान आए अलबेरूनी भी गौतम बुद्ध को विष्णु के अवतार मानते हैं।[1] रोचक बात यह है कि इससे पूर्व के brahmanical texts में बुद्ध को नास्तिक या चोर बताया गया है। अश्वमेध यज्ञ कराने के लिए इतिहास में जाना जाने वाला ऐतिहासिक चरित्र पुष्यमित्र शुंग ने तो इनके अनुयायियों को मारकर लाने के एवज में पुरस्कार देने की घोषणा कर दी थी।



[1] D N Jha, ‘Brahmanical intolerance in Early India’ Social scientist, May-June 2016, Page No. 4

 

 

सहिष्णु या असहिष्णु धर्म नहीं व्यक्ति होता है।

वर्तमान में हमारे देश में एक तरफ बड़ी संख्या में हिंदू धर्मावलंबी खुद को शान से हिंदू कहते हुए अपने ही देश के अन्य नागरिक विशेष रुप से मुसलमान, इसाई धर्मावलंबियों को अपने देश/धर्म के लिए खतरा मानते हैं, और इनके खिलाफ दिन रात आग उगलते रहते हैं। दूसरी तरफ कुछ मुसलमान भी पूरे जोश में हिंदुओं के खिलाफ इतिहास पलट कर देख लेने जैसे अनाप-शनाप बातें उगलते रहते हैं। इस कड़ी में आप उन धर्म या जाति के लोगों को भी शामिल कर सकते हैं जो बिल्कुल इन दोनों के नक्शे कदम पर चलते हैं।

          कोई शक नहीं कि दोनों ही समूह अपने-अपने धार्मिक समूह के नफरत के सौदागर हैं। इनसे यदि इनके अपने धर्म संबंधी विचार पूछा जाए तो दोनों के जवाब बिल्कुल एक जैसे होंगे। एक कहेगा कि हिंदू जैसा सहिष्णु धर्म दुनिया में और कोई नहीं है। तो दूसरा समूह अपने धर्म को दुनिया का सबसे अधिक अमन, चैन, शांति चाहने वाला धर्म बता देंगे। तीसरा समूह जिसे आप शामिल कर रहे हैं उनका भी जवाब ऐसे ही होने की पूरी गारंटी है। ऐसे लोगों को ही उस धर्म का कट्टरपंथी समूह कहा जाता है। इन्हें सिर्फ अपना ही दही मीठा लगता है। और सामने वाले का खट्टा। यहां दही शब्द से तात्पर्य धर्म से और मीठे का सहिष्णु या अमन चैन पसंद से है। इनको यह नहीं पता होता कि दही किसी की भी हो उसके स्वाद की प्रकृति एक जैसी ही खट्टी होती है। ऐसे में उसे मीठा बतलाना सत्य से मुंह मोड़ना है। इन दोनों समूहों के दही को कोई खट्टा कहे यह उन्हें बर्दाश्त नहीं है। वह मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं। उनका सहिष्णु धर्म तुरंत असहिष्णु हो जाएगा।

          दरअसल उन्हें यह नहीं पता होता कि किसी के प्रति सहिष्णु या असहिष्णु होने का संबंध धर्म से नहीं बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व से होता है। पूरी दुनिया को यदि वह जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग के आधार पर भेद करने के परीक्षा प्रेम भरी नजर से देखता है तो वह सहिष्णु है। अन्यथा ...

Saturday 18 December 2021

प्राचीन रीति रिवाजों में संसोधन या त्याग करने का समय

किसी भी धर्म चाहे वह हिन्दू हो या इस्लाम, के हजारों वर्ष पूर्व बनाई धार्मिक व्यवस्था को आंख मूंदकर follow करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। परिस्थितियां हमेशा एक सी नहीं होती। उस समय कुछ थी आज कुछ और है। तब प्राचीन काल या आरंभिक मध्यकाल का दौर था। उस दौर में हम उतने तार्किक नहीं थे जो इन रीति रिवाजों की प्रासंगिकता को आलोचनात्मक नज़रिये से देख सकें। आज हम आधुनिक काल में जी रहे हैं। हमारे देश में इसकी शुरुआत हुए 200 वर्ष हो चुके हैं। इन दो सौ वर्षों में अनेक धर्म/समाज सुधारकों ने कुछ अनर्गल प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए उसे कानूनन बंद करवाया। आज भी ऐसे कई कुप्रथाओं (व्रत, त्योहार) को हम जरूरी रीति रिवाज या नियम कानून मानकर उसे ढोए जा रहे हैं। जिसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

          ऐसे रीति-रिवाजों, मान्यताओं को या तो खत्म कर देना चाहिए या समय की प्रासंगिकता के अनुसार इनमें संसोधन होते रहना चाहिए, जैसा संविधान का होता है।

 

 

Thursday 16 December 2021

मेरी नजर में किसानों का तीन काले कानून के खिलाफत में आंदोलन

जुलाई 2020 में केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा संसद में बिना किसी बहस के चुपके से 3 किसान बिल पारित करवाए गए। कुछ ही दिनों में राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाने के पश्चात इसे कानून का रूप मिल गया। यह तीन कृषि कानून थे

1.     कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम - 2020

2.     कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020

3.     आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020

दिसंबर 2021 में वापस ले लिए गए। 1 वर्ष से अधिक चले इस आंदोलन से होने वाले संभवत नुकसान को देखते हुए। इस पूरे वर्ष केंद्र सरकार और उसके समर्थक जहां कृषि कानून के लाभ गिनाते रहे वहीं किसानों का एक बड़ा वर्ग इस कृषि कानून को किसानों के लिए कम व्यापारियों के लिए ज्यादा लाभदायक बता रहे थे। देश के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में मेरा भी अवलोकन यही कहता है कि यह तीनों कृषि कानून किसानों के लिए थे ही नहीं बल्कि व्यापारियों के हितों को ध्यान में रखते हुए इसे बनाया गया था।

            यदि हम पहले कानून कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 की बात करें तो इसके द्वारा किसानों को अपनी मर्जी से फसल बेचने की स्वतंत्रता दी गई। किसान अपनी फसल को देश के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति, दुकानदार, संस्था, व्यापारी आदि को भेज सकते थे। मेरा जहां तक मानना है कि इस कानून से किसानों को कोई खास लाभ तो नहीं लेकिन व्यापारियों को पूरा लाभ जरूर था। मेरे ऐसा मानने का आधार यह है कि वर्तमान में हमारे देश में किसानों की स्थिति इतनी उन्नत नहीं है कि अपनी उपज को दूसरे राज्य जाकर बेच सकें। उन्नत स्थिति के साथ-साथ समय का भी मसला है। हां, इसके विपरीत व्यापारियों के पास इतना समय और ट्रांसपोर्ट चार्ज जरूर होता है कि वह उत्तर प्रदेश की उपज को गुजरात, महाराष्ट्र या तमिलनाडु में बेच सकें। इस हिसाब से यह कानून विशुद्ध रूप से व्यापारियों के लिए साबित होता है ना कि किसानों के लिए।

दूसरा कानून जो कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 है। यह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित था। इस बिल से भी किसानों को नहीं बल्कि व्यापारियों को ही लाभ होता। इसमें कोई शक नहीं कि कंपनियां शुरुआत में किसानों को कांटेक्ट फार्मिंग के प्रति लुभाने के लिए लोकलुभावन स्कीम लाती। जैसा टेलीकॉम सेक्टर में जिओ तथा अन्य कंपनियों ने लाइफ टाइम फ्री वैधता की बात कर कुछ वर्षों बाद रिचार्ज के नाम पर जनता को लूट रहे हैं। इस बात की पूरी गारंटी है कि इस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसान नाम मात्र के जमीन मालिक होते। उस जमीन पर पूरा वर्चस्व कांटेक्ट करने वाली निजी कंपनी का होता। उपज बढ़ाने के लिए अनाप-शनाप केमिकल फर्टिलाइजर उपयोग कर 10 से 20 साल में किसानों की जमीन बंजर बना दिए जाते। जिस पर उद्योग लगाने के अलावा किसानों के पास कोई चारा नहीं होता। ऐसे में उसके पास उद्योग लगाने के पैसे तो होते नहीं, तो उसकी मजबूरी का फायदा कांटेक्ट करने वाली कंपनी उठाते। 2014 में सत्ता में आने के साथ ही बीजेपी सरकार ने मुट्ठी भर पूंजी पतियों को किसानों की भूमि आसानी से दिलाने के लिए भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आए थे। लेकिन इसके देशव्यापी विरोध ने सरकार को यह बिल वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस कानून द्वारा किसानों की जमीन को अप्रत्यक्ष रूप से लेने का प्रावधान किया जा रहा था।

            तीसरा कानून जो आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020 था, किसानों को किसी भी उपज का असीमित भंडारण करने की छूट देता था। इससे पहले किसी भी खाद्य वस्तु का एक निश्चित सीमा में ही भंडारण करने का प्रावधान था। पहले और दूसरे कानून की तरह इस कानून का भी सीधा संबंध व्यापारियों के हित से था ना कि किसानों के। इस कानून द्वारा किसान अब किसी भी वस्तु का असीमित भंडारण कर सकते थे। कहने को तो यह कानून किसानों के लिए था लेकिन इसका फायदा तो व्यापारी ही उठा सकते थे। पंजाब और हरियाणा को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश के किसानों की स्थिति दयनीय ही है। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। ऐसे में उनके पास किसी भी खाद्य वस्तु का भंडारण करने का साधन नहीं है जिससे कि उचित समय पर भंडारन गृह से कोई खास खाद्य वस्तु बाजार में उच्च दाम में बेचा जा सके। लेकिन बड़े-बड़े व्यापारियों के पास खाद्य वस्तुओं के भंडारण हेतु गोदाम की कोई कमी नहीं है। यदि है भी तो बड़े-बड़े गोदाम बनाना इन व्यापारियों के लिए कोई खास समस्या नहीं है। इसे हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। यदि मैं एक व्यापारी के रूप में देशभर के किसानों से ₹10 किलो के हिसाब से कोई खाद्य पदार्थ खरीद कर इसका भंडारण अपने गोदाम में कर लूं। और इसे मैं बेचू ही नहीं। बाजार में कृत्रिम किल्लत पैदा कर मार्केट रेट जब 50 से ₹100 किलो तक पहुंच जाए तो थोड़ा-थोड़ा कर निकालूं। इससे एक व्यापारी के रूप में मुझे फायदा होगा या उन किसानों को जिससे मैंने ₹10 किलो के हिसाब से वह खाद्य पदार्थ खरीदे।

इन बातों से स्पष्ट है कि यह तीनों कानून केवल व्यापारी हितों को ध्यान में रखते हुए लाए गए थे।

Tuesday 14 December 2021

उफ़्फ़ ये धर्म के ठेकेदार

 धर्म के ठेकेदारों की मानें तो प्रत्येक घटना के पीछे भगवान, ईश्वर, अल्लाह, खुदा का हाथ होता है। यानी अच्छे काम से लेकर बुरे काम तक सब भगवान, ईश्वर, अल्लाह की मर्जी से होता है। बिना उसकी मर्जी के कोई पत्ता भी नहीं हिलता है। ऐसा कह कर वह धर्म का ठेकेदार सामने वाले के दिमाग में अपने ईश्वर की सर्वोच्चता को स्थापित कर रहा होता है। अप्रत्यक्ष रूप से उस अदृश्य शक्ति से सामने वाले व्यक्ति को इतना डरा दिया जाता है कि इस पर कोई भी सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता। बस सभी लोग गुणगान करने में जुट जाते हैं। हास्यास्पद बात यह है कि सारे काम जब उनकी मर्जी से हो रहे हैं तो फिर स्वर्ग, नरक, जन्नत, जहन्नुम का लालच या डर दिखाने का क्या मतलब? कोई आदमी यदि किसी की हत्या कर रहा है तो वह अपराध कैसे हुआ? वह तो भगवान, ईश्वर, अल्लाह की मर्जी का पालन कर रहा है। ऐसे में गंगा, जमजम स्नान करने, तीर्थ यात्रा या हज करने जैसे फर्जी कर्मकांड करा कर केवल इंसानों के खून पसीने की कमाई लूटने का क्या मतलब?  

            क्या झूठ के नाम पर यह लूटपाट, कमाई उन धर्म के ठेकेदारों के लिए पाप नहीं है? इन पाखंडीयों को खुद के पाप दिखते नहीं, चले हैं दूसरे का पाप देखने और समाधान करने।

प्राचीन काल को त्याग आधुनिक काल में जीने की जरूरत

ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक हिंदू धर्म व्यवस्था में गर्भस्थ स्त्री के भ्रूण को बालक भ्रूण (बालिका नहीं) के रूप में परिवर्तित करने के लिए गर्भावस्था के तीसरे माह के दौरान पुंसवन संस्कार कराया जाता रहा है। इसके बावजूद भी केवल बालक का जन्म न होकर बालिका का भी जन्म होना इस बात को प्रमाणित करता है कि वर्तमान में भी इस परंपरा को ढोया जाना व्यर्थ ही है। प्राचीन काल या मध्यकाल में हमारे विचार इतने उन्नत नहीं थे, या हम इतने जागरूक नहीं थे कि इन परंपराओं के तह तक जाकर क्या सही है और क्या गलत सोच सकें, इसलिए हम इससे पूर्व कभी भी इस बात की सत्यता तक नहीं पहुंच सके। लेकिन अब हम प्राचीन या मध्यकाल में नहीं बल्कि आधुनिक काल में जी रहे हैं। यूरोप में जहां यह आधुनिक सोच 14वीं - 15 वीं शताब्दी में शुरू होती है। वही हमारे देश में इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी से मानी जाती है। आज 200 साल बाद भी यदि हम प्राचीन या मध्यकाल में जी रहे हैं तो यह हमारे लिए बिल्कुल ही हास्यास्पद बात है।

          इस आधुनिक काल में भी हमारे ही समाज के लोग इस अनचाहे मेहमान का स्वागत कुछ इस तरह करते हैं कि इसे सहने या सह देने का मतलब है हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिन्ह लगना। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो पुंसवन संस्कार के बाजजुद भी बालक के स्थान पर यदि बालिका का जन्म हो जाता है तो उस नवजात के मुंह में एक मुट्ठी नमक डालकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाती है । ये कोई काल्पनिक बातें नहीं बल्कि आज भी हमारे समाज के कुछेक उच्च वर्गों/जातियों में यह विद्यमान है। यदि याज्ञिक कर्मकांड से लिंग परिवर्तन संभव है तो आसमान लिंगानुपात पर भारत सरकार को हाय तौबा मचाने की क्या जरूरत है? हिंदू धर्मज्ञों से कहा जाए कि ऐसे ही कोई संस्कार ईज़ाद करें जिससे बालक भ्रूण को बालिका के भ्रूण में परिवर्तित किया जा सके। आसमान लिंगानुपात की कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी।  

          सिर्फ यही एक उदाहरण नहीं है। हिंदू व्यवस्था ही नहीं अन्य धर्मों में भी ऐसे असीमित अनर्गल प्रथाएँ विद्यमान हैं। आखिर कब तक इन फर्जी रीति-रिवाजों को हम ढोते रहेंगे? अपने विवेक, दिमाग से काम लेते हुए आज हमें अंधविश्वासों के मकड़जाल से आजाद होने की आवश्यकता है।