Monday 11 May 2020

सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता क्यों?


मनुष्य के सामाजिक क्रियाकलापों का अध्ययन ही सामाजिक अध्ययन है। एक अकादमिक विषय के रूप में समस्त विश्व सहित हमारे देश में भी प्राथमिक स्कूल से लेकर कॉलेज, विश्वविद्यालय स्तर तक इसका अध्ययन/अध्यापन कराए जाते हैं। इसके अध्ययन की शुरुआत तो हालांकि महान दार्शनिक प्लेटो के काल से ही शुरू हो गई थी लेकिन मध्यकाल में अल-बेरुनी, तत्पश्चात 18वीं सदी में यूरोपीय देशों में ज्ञानोदय काल में रूसो, दिदरो, इमाइल दुर्खीम, औगस्ट कामते, चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर आदि दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों द्वारा इसके व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत हुई। उस समय इसे 'मोरल फिलॉस्फी' के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे सामाजिक विज्ञान के नाम से संबोधित किया जाने लगा। औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के अध्ययन ने इसे विज्ञान के समान ही लोकप्रिय बनाने का कार्य किया। जिसकी झलक हमें 1824 ई. में विलियम थोम्पसन की पुस्तक “An Inquiry into the principles of the distribution of the wealth” में देखने को मिलती है। इसी पुस्तक में सर्वप्रथम सामाजिक विज्ञान शब्द प्रयुक्त किया गया।[i] इसी क्रम में 1924 ई. में तत्कालीन समाजशास्त्रियों द्वारा इस विषय पर विस्तृत अध्ययन हेतु एक सोसल साइन्स सोसाइटी की स्थापना की गई। तब से ही समस्त वैश्विक जगत सहित हमारे देश में इसका अध्ययन अनवरत रूप से चलता रहा है।
          विज्ञान (भौतिकी, रसायनशास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान) गणित जैसे अन्य विषयों की अपेक्षा सामाजिक अध्ययन छात्र/छात्राओं को कोई विशेष लाभ वाला रोजगार उपलब्ध नहीं कराता। जैसे विज्ञान के विभिन्न विषयों का अध्ययन कर कोई छात्र/छात्रा इंजीनियर, वैज्ञानिक, डॉक्टर बन रोजगार प्राप्त कर सकता है लेकिन सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत के विषय जैसे इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र/राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवविज्ञान आदि अकादमिक व सेवा क्षेत्र को छोड़कर प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देने में असमर्थ है। इन विषयों का अध्ययन कर यदि कोई इतिहासकार, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, अर्थशास्त्री बन भी जाता है तो विज्ञान पृष्ठभूमि के लोगों से आजीविका कमाने की तुलना में कमतर ही होता है। वर्तमान में वैज्ञानिक युग में हमारी सरकार भी विज्ञान व प्रद्योगिकी ज्ञान से युक्त मानव संसाधन निर्माण पर ज्यादा ज़ोर दे रही है। आम भारतीय जनमानस भी सामाजिक अध्ययन को एक अनउपयोगी विषय मानता है। इस मुद्दे पर हुए अध्ययन भी साबित करते हैं कि शिक्षक भी इसे पढ़ाने में कोई विशेष रुचि नहीं लेते। केवल परीक्षा में पास कराने हेतु संबंधित पाठ बच्चों को पाठ पढ़ा देते हैं या कंठष्ट करा देते हैं। इस अरुचि का संज्ञान सरकार को भी है। बावजूद इसके प्रतिवर्ष विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक सामाजिक अध्ययन पर अरबों रुपए खर्च करती है। क्यों ? भारत सरकार के अलग-अलग समय पर निर्गत पाठ्यचर्या की रूपरेखा के माध्यम से इसे समझा जा सकता है -
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात एनसीईआरटी (NCERT) ने भारत में सामाजिक अध्ययन की वास्तविक स्थिति पर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उसे भारतीय समाज में प्रचलित स्कूलों की कई प्रकार की कमियाँ दिखी। फलतः 1963-64 ई. में 4 अखिल भारतीय कार्यशाला आयोजित किए गए जिसके पश्चात कक्षा 1 से 11 तक के लिए सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्धारित किए गए। कक्षा 3 से 5 तक के लिए राज्य, देश, तथा विश्व की जानकारी देनेवाले पाठ्यपुस्तकें तैयार की गई। कक्षा 6 से 8 तक के लिए इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र की अलग-अलग पाठ्यपुस्तक तैयार की गई। इसके 10 वर्ष पश्चात 1975 ई. में प्रथम बार पाठ्यचर्या की रूपरेखा बनाते हुए कक्षा 6 से 10 तक इतिहास, भूगोल तथा नागरिक शास्त्र की तीन अलग-अलग पाठ्यपुस्तकें तैयार की गई। इन तीनों को सम्मिलित रूप से सामाजिक विज्ञान कहा गया। सामाजिक विज्ञान का उद्देश्य निर्धारित किया गया –  बड़े हो रहे नागरिकों को समुदाय, राज्य तथा संसार की गतिविधियों में भाग लेने लायक बनाना। 1988 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में इसके अध्ययन के उद्देश्य को बढ़ाते हुए बच्चों को अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के प्रति समर्पित नागरिक समुदाय का निर्माण करना रखा गया।
          इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हमारे विद्यालयी पाठ्यचर्या में प्राथमिक स्तर पर कक्षा 3 से 5 तक पर्यावरण अध्ययन (ईवीएस), कक्षा 6 से 8 तक इतिहास, भूगोल तथा नागरिकशास्त्र तथा मध्यमिक स्तर पर इन तीनों के अतिरिक्त अर्थशास्त्र का अध्ययन/अध्यापन किया/कराया जाता है। कक्षा 3 से 5 तक के बच्चों के लिए पर्यावरण अध्ययन को सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में इसलिए शामिल किया गया कि बच्चों में प्राकृतिक तथा सामाजिक पर्यावरण के संबंधों को समझने की योगिता विकसित हो सके।
          सामाजिक अध्ययन हमें यह सिखाता है कि भाषा, धर्म, संप्रदाय, जाति, जनजातीय व भौगोलिक विविधता वाले, जटिल समाज वाले हमारे देश में हमें किस प्रकार किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाए बगैर एकता को बढ़ावा देते हुए मिल-जुल कर रहना है। यह हमें समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति से संबंधित क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं, समस्याओं का विश्लेषण, आलोचना करना सिखाता है ताकि इनपर विचार विमर्श करते हुए हम एक बेहतर भविष्य के निर्माण में योगदान दे सकें।
          राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शाला के बच्चों के लिए सामाजिक अध्ययन के निम्न उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं –
प्राथमिक स्तर पर
·       बच्चों में अपने घर समाज के आसपास की वस्तुओं को पहचानने तथा उसके वर्गीकरण करने की क्षमता विकसित करना।
·       बच्चों में प्राकृतिक तथा सामाजिक पर्यावरण के अंतरसंबंध संबंधित समझ विकसित करना।
उच्च प्राथमिक स्तर पर
·       समाज के सामाजिक आर्थिक समस्याओं जैसे गरीबी, निरक्षरता, जाति, वर्ग, जेंडर, पर्यावरण आदि से अवगत कराने के लिए।
·       विश्लेषणात्मक तथा रचनात्मक मस्तिष्क की नींव तैयार करना।
·       भारतीय संविधान के मूल्यों जैसे समानता, स्वतंत्रता, न्याय आदि को समझाना ताकि वे धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के महत्व को समझ सकें।
·       नागरिकों में स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता विकसित करने के साथ-साथ उन्हें उन सामाजिक बलों का सामना करने को तैयार करना जिनसे लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरा है।
·       बच्चों को प्रकृति तथा समाज के बीच के अंतरसबंध बताते हुए उस परिवेश या समाज के संबंध में आलोचनात्मक समझ विकसित करना जिसमें वे रहते हैं।
·       संबंधित राज्य, देश के सामाजिक-राजनैतिक संस्थाओं से बच्चों को परिचित कराना।   
·       विविध भाषा-संस्कृतियों वाले देश-समाज में जीवन यापन हेतु एक सहिष्णु वातावरण का निर्माण करना।
·       स्वच्छ लोकतंत्र निर्माण हेतु एक ऐसे नागरिक समूह का निर्माण करना जिन्हें अपने अधिकारों तथा जिम्मेदारियों का ज्ञान हो।
·       सामाजिक संस्थाओं, परंपराओं तथा समाज में व्याप्त अनेक विचारों के संबंध में बताना। उन्हें इस लायक बनाना कि वे इन परंपराओं, विचारों के संदर्भ में प्रश्न कर सकें, उनकी जांच पड़ताल कर सकें।
सामाजिक अध्ययन व सामाजिक विज्ञान की पहेली
वर्तमान में विद्यालयी पाठ्यक्रम में पर्यावरण अध्ययन, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र  आदि के अध्ययन को मिश्रित रूप से सामाजिक विज्ञान विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है। इन विषयों के लिए कभी सामाजिक विज्ञान तो कभी सामाजिक अध्ययन शब्दावली भी प्रयुक्त की जाती है। ऐसे में विद्यार्थियों के लिए असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि इस अध्ययन क्षेत्र को सामाजिक अध्ययन या सामाजिक विज्ञान, क्या कहना उपयुक्त होगा? इस भ्रम की स्थिति को थोड़ा दूर करने का प्रयास किया है अमेरिकन काउंसिल ऑफ द सोसल स्टडीज़ ने, जिसके अनुसार, सामाजिक अध्ययन सामाजिक विज्ञान और ह्यूमनटीज़ (मानविकी) का मिश्रित अध्ययन है जिसका उद्देश्य है एक योग्य, समृद्ध नागरिक का निर्माण करना[ii] अब सवाल है कि किन-किन विषयों को हम सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत रखें और किन विषयों को मानविकी के अंतर्गत? सामाजिक विज्ञान अध्ययन का वह क्षेत्र है जिसके अंतर्गत समाज व सामाजिक संस्थाओं के साथ नागरिकों के संबंधों का वैज्ञानिक विधि द्वारा अध्ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत भूगोल, मानव विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र जैसे विषय आते हैं। वहीं मानविकी के अंतर्गत मनुष्य के व्यक्तिगत विचारों, क्रियाकलापों संबंधी अध्ययन आते हैं। जैसे इतिहास, कला, दर्शन, साहित्य, धर्म, संस्कृति संबंधी अध्ययन आदि।
          इस आधार पर यदि हम विद्यालय स्तर के सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम को देखें तो इसमें इतिहास विषय के अंतर्गत अतीत के लोगों के व्यक्तिगत विचारों (दर्शन), उनके लिखित दस्तावेज़ (साहित्य) उनके व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर बनाए गए रीति रिवाजों (धर्म, संस्कृति) का अध्ययन किया जाता है। वहीं नागरिक शास्त्र के अंतर्गत समाज की प्रशासनिक संस्थाओं, भूगोल के अंतर्गत समाज की विशेषताओं, स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर विद्यालय स्तर के सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम को सामाजिक अध्ययन कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। 
सामाजिक अध्ययन के विषय  
समाज संबंधी विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन के उद्देश्य से सामाजिक अध्ययन को कई शाखाओं में विभाजित किया गया है। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानव विज्ञान, भाषा विज्ञान, जनसंचार, शिक्षा शास्त्र, विधि (कानून) राजनीति शास्त्र, समाज कार्य, इतिहास, भूगोल आदि इसकी शाखाएँ हैं। विभिन्न समय अंतराल में विविन मानव प्रजातियों, समुदायों की भौतिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का अध्ययन मानव विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। संसार, प्राचीन काल से आज तक मनुष्य द्वारा आपसी बातचीत या संचार के साधनों के विकास का अध्ययन है। समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाज संबंधी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। औगस्ट कामते को समाजशास्त्र का जनक कहा जाता है। अर्थशास्त्र का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि किशोर जिस देश या समाज में रहता है उसकी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जान सके। इतिहास का अध्ययन इस दृष्टि से कराया जाता है कि हमें पता चल सके कि विभिन्न काल खंडों में हमारी सभ्यता संस्कृति कैसी थी? किस प्रकार इन में परिवर्तन आए। समाज के निवासियों के शासन व्यवस्था, उनके अधिकार व कर्तव्य का अध्ययन नागरिक शास्त्र/राजनीति विज्ञान के अंतर्गत करते हैं। एक विषय के रूप में नागरिक शास्त्र का अध्ययन औपनिवेशिक काल की देन है। हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज के प्रति बढ़ती निष्ठाहीनता को देखते हुए इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। ताकि संवेदनशील तथा उत्तरदायी नागरिक का निर्माण किया जा सके। भूगोल के अंतर्गत वैश्विक संदर्भ में अपने क्षेत्र, प्रदेश तथा देश के पर्यावरण, संसाधन की स्थिति का अध्ययन किया जाता है।