Sunday 29 January 2023

दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधीजी द्वारा सत्याग्रह एवं अहिंसा का प्रयोग

 

गांधीजी ने 1890 के दशक में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान पहली बार सत्याग्रह को खोजा, समझा, खुद को प्रशिक्षित कर उसका प्रयोग किया। 1896 के जनवरी महीने में 6 महीने की भारत यात्रा के बाद गांधी जी सपरिवार दक्षिण अफ्रीका लौटे। भारत में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में सबको बताया। इस बारे में उन्होंने जो लेख लिखे उसे नटाल (दक्षिण अफ्रीका) के अखबारों ने काफी तोड़ मरोड़कर छापा। इसे पढ़ने के बाद दक्षिण अफ्रीकी ब्रिटिश अधिकारी काफी भड़क गए। वहां के अखबारों ने यह झूठी खबर छाप दी कि गांधीजी अपने साथ 500 भारतीयों को दो जहाजों में भरकर दक्षिण अफ्रीका ला रहे हैं ताकि दक्षिण अफ्रीका के गोरों का मुकाबला किया जा सके। वेद दक्षिण अफ्रीका को भारतीयों से भर देना चाहते हैं। इस खबर ने ब्रिटिश लोगों को गांधीजी के खिलाफ भड़काने में आग में घी का काम किया। इसकी प्रतिक्रिया में दक्षिण अफ्रीका में कई ऐसे संगठन उभर कर आए जिनका एकमात्र उद्देश्य भारतीयों के इस संभावित हमले का सामना करना था। 18 दिसंबर 1896 ईसवी को गांधीजी का जहाज नटाल (दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित एक ब्रिटिश उपनिवेश) के डरबन बंदरगाह पर पहुंचा। नटाल के तत्कालीन कार्यकारी प्रधानमंत्री अटॉर्नी जनरल हैरी एस्कोम्ब, जो भारतीयों के विरोधी थे, ने अफवाह फैलाने वालों की मदद की। भारतीय यात्रियों की वजह से शहर में प्लेग रोग फैल जाएगा, यह भय दिखाकर उन्होंने यात्रियों को तीन सप्ताह तक जहाज से उतरने की इजाजत नहीं दी। यह भी धमकी दी गई कि हम यात्रियों को वापस भारत या फिर कहीं और पहुंचा देंगे। लेकिन सच तो यह था कि जहाज में सवार ज्यादातर लोग दक्षिण अफ्रीका के ही वैध नागरिक थे, जो अपने घरों को लौट रहे थे।

            एस्कोम्ब ने स्थानीय ब्रिटिश नागरिकों से यह कह रखा था कि जहाज से उतरने वाले भारतीयों के साथ वे जो करना चाहे करें पुलिस उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी। इससे डरबन बंदरगाह पर उग्र ब्रिटिश नागरिकों की भीड़ जमा हो गई। उस भीड़ के डर से सभी भारतीय जहाज में ही बैठे रहे, इस दौरान गांधीजी सारे वक्त उनका मनोबल बढ़ाते रहे। ऐसे में ही क्रिसमस आया। जहाज के कप्तान ने गांधी जी और उनके परिवार के सम्मान में जहाज पर ही रात्रि भोज का आयोजन किया। इस अवसर पर गांधी जी ने जहाज के भारतीयों को संबोधित किया और कहा, 'आज की परिस्थिति की जिम्मेवार पश्चिम की संस्कृति है, जो हमारी पूर्व की संस्कृति से अलग पशु बल पर आधारित है'। जहाज के कप्तान ने गांधीजी को चुनौती दी और कहा कि जब आप इस जहाज से उतरेंगे और बंदरगाह पर खड़े गोरे आप पर हमला कर देंगे तो आप अपने अहिंसा के सिद्धांत पर किस तरह डटे रहेंगे? गांधीजी ने जवाब दिया, ' मेरा विश्वास है कि ईश्वर मुझे भीड़ के सामने खड़े रहने की हिम्मत देंगे, और मैं कानून का सहारा लिए बिना उन्हें माफ कर सकूंगा। मैं जानता हूं कि यह भीड़ अफवाह फैलाकर जुटाई गई है और झूठी बातों से उत्तेजित की गई है। यह लोग ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें बताया गया है कि वे जो कर रहे हैं सही कर रहे हैं। अज्ञानवश उत्तेजित लोगों से मेरे नाराज होने की कोई वजह नहीं है'

            अंततः 13 जनवरी 1897 को 26 दिनों की प्रतीक्षा के बाद यात्रियों को जहाज से उतरने की इजाजत मिली। अब तक जनरल एस्कोम्ब को लग गया था कि बात बिगड़ रही है और हाथ से बाहर जा सकती है। इसलिए वे भीड़ से मिले और आश्वस्त किया कि सरकार उनकी मांगों पर ध्यान देगी और भारतीयों के दक्षिण अफ्रीका आने पर कानूनी पाबंदी लगाएगी। इस तरह एस्कॉम्ब ने भीड़ को डरबन बंदरगाह से हटाया। एस्कोम्ब ने गांधीजी को संदेश भिजवाया कि वे अंधेरा होने पर ही जहां से निकलें और हम उन्हें पुलिस के संरक्षण में घर पहुंचा देंगे। गांधीजी ने इस तरह चोरी-छिपे शहर में जाने से मना कर दिया। वे दोपहर बाद जहाज से निडरता से निकले। भीड़ ने गांधीजी को पहचान लिया, वह उन पर तथा उनके साथियों पर पत्थर बरसाने लगे। इस झड़प में गांधीजी से उनके साथी बिछड़ गए, लोगों ने गांधी जी को घूसों तथा लातों से इतना पीटा कि वे बेहोश हो गए। उन्होंने जिंदा घर लौटने की उम्मीद छोड़ दी। यह उनके जीवन का पहला मौका था जेबी उन्होंने मृत्यु को इतने करीब से देखा था। इस संबंध में गांधीजी लिखते हैं कि ' उस वक्त भी मेरे हृदय में मारने वालों के प्रति कोई द्वेष नहीं था'। धर्म के पुलिस सुपरिटेंडेंट की पत्नी श्रीमती जैन एलेग्जेंडर, जो गांधीजी को पहले से जानती थी, उस समय वहाँ से गुजर रही थी। उन्होंने अपनी गाड़ी से उतरकर, मारने वालों को रोका और पुलिसवालों को गांधीजी को अपने घेरे में लेने को कहा। पुलिस ने वैसा ही किया और गांधीजी को थाने ले आई। भीड़ ने यहां तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। अंधेरा होते होते 5000 लोग थाने के पास इकट्ठा हो गए थे। सब चिल्ला रहे थे कि गांधी जी को हमारे हवाले करो नहीं तो हम थाने में आग लगा देंगे। पुलिस अधिकारी ने गांधी जी को उनके मित्रों, परिवार की जान का वास्ता दिया तब कहीं जाकर वह चोरी-छिपे वहां से निकलने को तैयार हुए।

            एक समय था कि डरबन का पुलिस सुपरीटेंडेंट एलेग्जेंडर गांधी जी का और भारतीयों का घोर विरोधी था। उसके लिए ज्यादातर भारतीय हिंसक कुली के समान थे लेकिन गांधीजी से जैसे-जैसे उनका वास्ता पड़ा, भारतीयों के प्रति नजरिया बदलता गया, धीरे-धीरे वह गांधीजी से सहानुभूति भी रखने लगा। उनका समर्थक भी बना। यही कारण था कि संकट के समय उसकी पत्नी जैन एलेग्जेंडर ने उनकी जान बचाई।

इस घटना की जानकारी ब्रिटेन पहुंची। ब्रिटिश जानते थे कि भारत उनके उपदेशों का एक अहम देश है और गांधीजी उसके एक जाने-माने नेता हैं। वे भारतीयों को नाराज नहीं करना चाहते थे। उनका दबाव पड़ा और बहुत ही बेमन से नेपाल के कार्यकारी प्रधानमंत्री एस्कोम्ब ने अपराधियों की शिनाख्त के लिए गांधी जी को पुलिस थाने बुलाया। गांधीजी ने जवाब दिया, " मैं इस मामले को आगे नहीं बढ़ाऊंगा। मैं मानता हूं कि जिन पर उपद्रव का आरोप है, गलती उन लोगों की नहीं थी। उन्हें तो नटाल के नेताओं ने और यहां की यूरोपियन सरकार ने गलत जानकारी देकर भड़काया था। गांधीजी का इशारा किधर है यह एस्कोम्ब समझ रहे थे लेकिन वे यह भी समझ रहे थे कि अपनी तरफ से कोई कार्रवाई ना करके गांधीजी उठने वाले तूफान से उन्हें बचा भी रहे थे। वह भी एक ऐसे तूफान से जिसे एस्कोम्ब ने खुद ही खड़ा किया था! इस पूरे घटनाक्रम का अवलोकन करते हुए गांधी जी ने बाद में लिखा, ' ईश्वर मुझे सत्याग्रह के लिए तैयार कर रहा था'

            इसी संघर्ष के दौरान गांधी जी द्वारा सत्याग्रह शब्द की खोज की गई थी। हालांकि इस दौरान सरकार से ऐसा कोई मांग तो नहीं किया गया लेकिन अपनी इस अहिंसक सत्याग्रह से डरबन के पुलिस सुपरिटेंडेंट एलेग्जेंडर, नटाल के कार्यकारी प्रधानमंत्री एस्कोम्ब को भारतीयों के प्रति या खुद के प्रति अपने विचार बदलने को मजबूर कर दिया। वे चाहते तो उग्र भीड़ द्वारा इतने हिंसक आक्रमण के विरोध में किसी एक को भी घायल कर सकते थे, एस्कोम्ब को उसके उड़ंदता की सज़ा दिला सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसे अहिंसात्मक सत्याग्रह का शुरुआत कहा जा सकता है, इसका व्यापक रूप दक्षिण अफ्रीका सहित हिंदुस्तान के अन्य आंदोलनों में देखने को मिलता है।

            ऐसी ही एक अन्य घटना 1907 ईस्वी में दक्षिण अफ्रीका में ही घटित हुई। इस बार उन पर हमला उनके ही एक स्वदेशी साथी ने की। दक्षिण अफ्रीका की ट्रांसवाल सरकार ने एशियाइयों के पंजीकरण का एक कानून बनाया था इसका भारतीय विरोध कर रहे थे। इस कानून के तहत सभी एशियाइयों को अपनी उंगलियों के निशान देना जरूरी था और अपने साथ हर वक्त एक पहचान पत्र रखना अनिवार्य था। इसके विरोध में गांधीजी के आह्वान पर ट्रांसवाल में रहने वाले 13000 भारतीयों ने अपना पंजीकरण कराने से इंकार कर दिया। जवाब में जनरल स्मट्स सरकार ने गांधीजी को दो महीने के लिए जेल में डाल दिया। यह गांधीजी की पहली जेल यात्रा थी।

            जनरल स्मट्स जानते थे कि भारतीयों का बहुमत गांधी जी के साथ है। जेल गए गांधी जी को दो सप्ताह ही हुए थे कि जनरल स्मट्स ने समझौता करने के इरादे से गांधी जी को जेल से निकलवाया और अपने ऑफिस में मिलने के लिए बुलाया। जनरल स्मट्स ने गांधीजी को भरोसा दिलाया कि यदि सारे भारतीय स्वेच्छा से अपना पंजीयन कराएंगे तो कुछ दिनों बाद सरकार स्वयं ही इस कानून को रद्द कर देगी। सत्याग्रह का यह शील गांधीजी के मन में तब तक बन चुका था कि अपने विरोधी पर पूरा भरोसा करो! वही उन्होंने किया। जेल से रिहा होकर गांधीजी जोहांसबर्ग पहुंचे। आधी रात को ही उन्होंने अपने साथियों को बुलाया और जनरल से हुए समझौते का पूरा विवरण उन्हें बताया। उनके साथियों ने शंका जाहिर की, ' क्या होगा अगर बाद में जनरल स्मट्स अपनी बातों से मुकर जाएं? यदि हमने पंजीकरण करवा लिया तो हमारे हाथ में कुछ बचेगा ही नहीं। गांधीजी ने उनकी आशंका को वाजिब माना लेकिन अपने साथियों को यह भी समझाया कि एक सत्याग्रही को अपने विरोधी पर भरोसा करके ही चलना चाहिए। सत्याग्रह कभी डरता नहीं है और इसलिए वह अपने दुश्मन पर भी भरोसा कर सकता है। धोखा खाने के बाद भी एक सच्चा सत्याग्रही फिर भरोसा करेगा, क्योंकि मनुष्य में छुपी अच्छाई पर उसका अडिग विश्वास होता है। गांधीजी अपने साथियों को अपनी बात समझा तो पाए लेकिन आने वाले तूफान से भी अनजान थे। यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई कि उनका नेता कोई संदेहात्मक समझौता करके आया है। गांधी जी से सवाल जवाब करने के लिए लगभग 1000 लोग उन्हें घेर कर खड़े थे। मीर आलम नामक एक व्यक्ति ने गांधी जी से सवाल किया, ' क्यों असहयोग की लड़ाई में यह अचानक ही सहयोग की बात आ गई? साथ ही यह भी आरोप लगाया कि 15000 पोंड की घुस के एवज में गांधीजी सरकार के हाथों बिक गए हैं। मीर आलम ने यह भी धमकी दे डाली कि जो भी पंजीकरण कराने जाएगा उसे वह जान से मार देगा। गांधीजी सबको अपनी बात समझाते हुए अंतिम में बोले, ' यह समझौता मैंने किया है इसलिए मेरा यह नैतिक फर्ज है कि सबसे पहले हाथों के निशान देने और पंजीकरण कराने मैं खुद जाऊंगा। मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा कि वह मुझे यह काम पूरा करने दें। मरना तो सभी को एक दिन है, लेकिन अपने भाई के हाथों मरना किसी भी बीमारी से मरने से कहीं बेहतर है'। 10 फरवरी 1908 का दिन पंजीकरण के लिए निर्धारित था। गांधीजी अपने साथियों के साथ पंजीकरण करवाने के लिए निकले। मीर आलम गुस्से से आंखें लाल किए कुछ लोगों के साथ वहां पहले से खड़ा था। उसने गांधीजी के सिर पर एक जोर का डंडा दे मारा। वह गिर पड़े और बेहोश हो गए। अमीर आलम और उसके आदमी गांधीजी को डंडो, लातों तथा घूसों से मारते रहे। वी गांधी जी को मार डालने की इरादे से ही आए थे।

            गांधीजी के जिन साथियों ने उन्हें बचाने की कोशिश की, उन सबकी भी खूब पिटाई हुई। जब मारने वालों को लगा कि गांधीजी मर गए हैं तब वे वहाँ से भाग निकले। बेहोश गांधी जी को जब होश आया तो उन्होंने साथियों से पहले बात यह कही मैं ठीक हूं, दांत और पसली में दर्द है। फिर पूछा, ' लेकिन मीर आलम कहां है?" उन्हें बताया गया कि उन सब को गिरफ्तार कर लिया गया है, तो वे तुरंत बोले, ' यह तो ठीक नहीं हुआ! उन सबको छुड़ाना होगा। एक तरफ उनकी मरहम पट्टी की जा रही थी, तो दूसरी तरफ उनकी जिद थी कि पहले पंजीकरण हो जिसका उन्होंने वचन दिया है। मीर आलम तथा उनके साथियों पर किसी तरह का आरोप लगाने से गांधीजी ने इंकार कर दिया। हमला सार्वजनिक हुआ था, गुनहगारों को सजा तो हुई लेकिन जख्मों के कारण बोल नहीं पा रहे गांधी जी ने सरकार को लिखकर दिया कि मीर आलम वही कर रहे थे जो उन्हें सच लग रहा था।

            इस घटना के बाद जनरल स्मट्स ना केवल अपने वचन से मुकर गए, बल्कि उल्टे एशियायियों के खिलाफ वे एक और कड़ा कानून लेकर आ गए। अब गांधी जी ने आंदोलन का दूसरा रास्ता निकाला। 16 अगस्त 1908 को कुल 3000 भारतीय अपना पहचान पत्र जलाने के लिए इकट्ठा हुए। सरकार को पहले ही आगाह कर दिया गया था कि जब तक सरकार कानून वापस नहीं लेती है तब तक यह आंदोलन रुकेगा नहीं। अगस्त 1908 तक मीर आलम अपनी सजा काट कर जेल से बाहर आ चुका था। उसे अपनी गलती का एहसास हो चुका था। अब तक वह गांधीजी की लड़ाई का पक्का सिपाही बन गया था।

            उपरोक्त घटनाओं के दौरान अहिंसा एवं सत्याग्रह के प्रति गांधीजी की धारणा और मजबूत होती गई। वे कहते हैं कि यदि सभी लोग, हिंदू-मुसलमान, सत्य के लिए अपनी जान पर खेल जाने का साहस पैदा करते हैं, तो बंदूकें, बम तथा जेल उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। दक्षिण अफ्रीका से लेकर हिंदुस्तान तक ब्रिटिश सरकार निर्भयता की इस ताकत के प्रभाव को रोकने की लगातार नाकाम कोशिश करती रही। क्योंकि यह ऐसी ताकत थी जो दुनिया को बदलने की क्षमता रखती थी।

संदर्भ –

गांधी मार्ग – मई-जून 2019, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली