Wednesday 29 July 2020

स्त्रियों के प्रति हमारे समाज की संकीर्ण सोच


प्राचीन, मध्य होते हुए हम आधुनिक काल में प्रवेश कर गए हैं जहां हम खुद को अपने पूर्वजों से सभ्य व बुद्धिमान होने का दावा करते हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति हमारी सोच वही प्राचीनकाल वाली ही है, आधुनिक नहीं हो पाई है। इस संकीर्ण सोच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हम इनको नीचा दिखाने के लिए सैकड़ों निम्न दर्जे के लोकोक्तियाँ, मुहावरे प्रयुक्त करने से नहीं चूकते। इनमें से एक है – “दो स्त्रियां कभी आपस में चुप नहीं बैठ सकती”। अर्थात किसी भी स्थान पर यदि दो स्त्रियां मिल जाएं तो वे कुछ न कुछ बात निकाल ही लेती हैं अपना टाइम पास करने के लिए। हद तो इस बात की है कि उनकी बातचीत को बातचीत नहीं, बल्कि चुगली करने के रूप में देखा जाता है। इस बातचीत को समाज की तरह यदि आप भी स्वस्थ संवाद न मानकर चुगली मानते हैं तो आप भी समाज की तरह मानसिक रूप से विकृत हैं। क्योंकि चुगली करने पर किसी खास जेंडर का एकाधिकार नहीं होता है। दो बातचीत पसंद पुरुष यदि एक जगह मिल जाएँ और राजनैतिक या सामाजिक मुद्दों पर बातचीत करते हुए किसी पार्टी, विचारधारा की आलोचना करें तो उसे चुगली नहीं माना जाता। यदि इसे चुगली ही माना जाए तो स्त्रियाँ इस मामले में भी दूसरे नंबर पर होगी। अव्वल स्थान पर वे पुरुष वर्ग होंगे जो चौक-चौराहों पर कैमरे की तरह हमेशा यह ताकते रहते हैं कि किसकी बहू-बेटी कहां आ-जा रही है? क्या पहन रही है? कोई दिखी नहीं कि अपने साथियों से कानाफूसी शुरू।  
          यदि दो स्त्रियाँ लंबे समय तक बात भी करती है तो इसमें गलत क्या है? पितृसत्तात्मक समाज ने जब निजी क्षेत्र या गृह कार्य स्त्रियों के, और पुरुषों को बाहरी दुनिया का ठेका दे दिया। ऐसे में लगातार झाड़ू-पोछा, बर्तन, दो से तीन टाइम खाना बनाने, बच्चों की देखभाल करने आदि कार्य से निवृत्त होकर दो स्त्रियाँ यदि आपस में मिलकर अपने निजी क्षेत्र संबंधी कुछ बात कर ही लेती हैं तो इसमें गलत क्या है? कोई दावा के साथ कह भी नहीं कर सकता कि दोनों मिलकर किसी की बुराई ही करती हैं। एक समय था, जब आप उसे पढ़ाई-लिखाई, सामाजिक कार्य, राजनीति से दूर रखते थे, उस दौरान इस बात की थोड़ी-बहुत संभावना रहती होगी। लेकिन आज वह समय नहीं बल्कि कुछ और है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार से लेकर अनेक प्रकार के अधिकार का उपयोग कर आज वे सार्वजनिक क्षेत्रों में भी पुरुषों को टक्कर दे रही हैं। इस स्तर की यदि दो स्त्रियां आपस में मिलती हैं तो आप की तरह ही वह भी सामाजिक बदलाव, राजनीतिक घटनाक्रम से लेकर अन्य कई प्रकार के सार्थक बातचीत करती हैं। अतः जरूरत है हम आप को स्त्रियों को देखने के अपने नजरिए में परिवर्तन लाने की। इस संकीर्ण सोच से खुद को उबारने की।
(मूलतः पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'एजुकेशनल न्यूज़' के 4 अगस्त 2020 के अंक में प्रकाशित)  

Sunday 19 July 2020

मूर्त वस्तुओं द्वारा गणितीय अवधारणा की समझ।


गणित रटने नहीं, बल्कि समझने का विषय है आरंभिक कक्षा में अध्ययन के दौरान गुरुजी के इस प्रवचन ने मेरे जैसे रट्टू तोतों को भूगोल, इतिहास विषय की तरह गणित को रटने नहीं दिया। परिणामस्वरूप गणित में 40 से ज्यादा अंक कभी नहीं ला पाए। एक बार कक्षा 3 की मासिक परीक्षा में तो 100 में 4 नंबर लाकर पूरे स्कूल में इतिहास रच दिये। जोड़, घटाव, गुणा, भाग सभी अवधारणाओं को गुरुजी उस अध्याय में प्रयुक्त मानक विधि के आधार पर सवाल हल करना बताया। इस मानक विधि को हम मन-ही-मन तबतक दुहराते थे जब तक कि ये विधि हमें याद न हो जाए। इसी तरह पढ़ते हुए पास होने योग्य नंबर लाते हुए जैसे तैसे गणित से पीछा छुड़ाया। गणित सीखने के क्रम में जो महत्वपूर्ण चीज छूटता गया वह था इस मानक विधि के पीछे का तर्क। यह तर्क यदि उस दौरान समझ पाता तो शायद कुछ अंक और लाते हुए गुरुजी के साथ-साथ घरवालों के प्रकोप से बच पाता।
          आज एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए एहसास होता है कि आरंभिक स्तर पर गुरुजी ने हमें गणित समझ कर नहीं बल्कि रट्टा मार तकनीक से ही पढ़ाया। अर्थात उन्होंने हमें जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग करना सिर्फ मानक विधि को रटा कर सिखाया। इस मानक विधि के पीछे के तर्क को नहीं बताया। दरअसल गणित एक ऐसा विषय है जिसमें हम बच्चों को जोड़, घटाव, गुणा, भाग जैसे अमूर्त विषयवस्तु या अवधारणाओं को मूर्त वस्तुओं की सहायता से सिखाते हैं। बच्चों को मूर्त वस्तुओं से (समझाने हेतु ठोस वस्तुओं का उपयोग) अर्द्ध मूर्त (चित्रों से समझाना) तत्पश्चात अमूर्त (गणितीय प्रतीक चिन्ह) तक लाते हैं। लेकिन इस दौरान अधिकांश शिक्षक मूर्त व अर्द्धमूर्त को छोडकर अमूर्त रूप में ही सिखाने लगते हैं। परिणामस्वरूप 125 x 2 = 150 होता है, यह जान तो जाते हैं लेकिन इसके पीछे का तर्क पता नहीं होता। आपका बच्चा भी परीक्षा में यदि 100 में 90-100 नंबर ले आ रहा है लेकिन संख्या की अवधारणा की समझ यदि नहीं है, अर्थात वे समझ नहीं पा रहे कि 125 वस्तुओं के समूह में कितने इकाई, दहाई व सैकड़ा वस्तुओं के समूह हैं, तो समझ जाइए कि वे भी गणित को समझकर नहीं बल्कि रट्टा मारकर ही पढ़ रहे हैं।  
          विद्यालयों में आज भी काफी संख्या में ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो संख्या 37 को 73 या 73 को 37 लिख देते हैं। इनमें सुधार करने के लिए अक्सर हम शिक्षक एक विधि अपनाते हैं। इन दोनों संख्याओं को स्लेट या कॉपी पर बच्चे से इतना लिखवाते हैं कि वह इसे याद कर लेता है कि 37 या 73 को ऐसे ही लिखा जाता है। हम यह नहीं समझ पाते कि यदि वह बच्चा ऐसी गलती कर रहा है तो इसका तात्पर्य है कि वह संख्या 37 या 73 की अवधारणा को समझ नहीं पा रहा है। ऐसे में उस संख्या का पैटर्न रटाने की जगह यदि हम प्रत्येक संख्या को मूर्त वस्तुओं की सहायता से संख्या, संख्यानाम तथा प्रतीक के अंतरसंबंध को समझाएँ तो वह संख्या 37 के साथ-साथ 1 से 100 तक की संख्या के मायने को आसानी से समझ सकेगा। इसी तरह 1 से 100 तक की संख्या को एक एक मूर्त वस्तुओं की संगत कराते हुए बच्चों को गिनना सिखाते हैं तो शायद ही वह गिनती करने में गलती करेगा। ये मूर्त वस्तु कुछ भी हो सकते है जैसे बच्चों के खेलने वाले कंचे, स्कूली परिवेश में पाए जाने वाले कंकड़-पत्थर, बीज, बटन, कोल्डड्रिंक पीने वाले स्ट्रॉ, आदि।
          अतः हम शिक्षकों को चाहिए कि किसी भी गणितीय अवधारणा पर कार्य मूर्त वस्तुओं की सहायता से करें। इनका प्रयोग करने के साथ-साथ उन अवधारनाओं को सरल तरीके से समझाएँ। अर्थात बच्चों को बताएं कि जोड़ने का तात्पर्य है किसी एक समूह की वस्तु को गिनने के बाद दूसरे समूह के वस्तु को आगे की ओर गिनना। अर्थात दो वस्तुओं की संख्या को एकत्र कर कुल संख्या बताना। घटाने से तात्पर्य है किसी समूह से कुछ वस्तुएँ निकाल कर शेष बचे वस्तु की संख्या बताना । गुणा का तात्पर्य है किसी वस्तु को बार-बार जोड़ना (2 x 3 = 2 + 2 + 2) इसी तरह भाग का तात्पर्य है किसी वस्तु को बराबर भागों में बांटना या समूहीकरण करना। इतना सिखाने के बाद मानक विधि पर आना चाहिए।
                                                साकेत बिहारी, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, बेमेतरा (छत्तीसगढ़)
(मूलतः पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'एजुकेशनल न्यूज़' के 21 जुलाई 2020 के अंक में प्रकाशित) 

Friday 3 July 2020

भारत की ऋतुएँ


संस्कृत ग्रंथ ऋग्वेद तथा रामायण में भारत की ऋतुओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में 5 तथा रामायण में 6 ऋतुओं का उल्लेख मिलता है।
1.     वसंत (Spring)March-April
2.     ग्रीष्म (Summer) – May - June
3.     वर्षा (Rainy Season) – July - August
4.     शरद (Autumn) – September- October
5.     हेमंत (Winter) – November - December
6.     शिशिर (Severe Winter) – January - February