Sunday 11 October 2020

लाखामंडल (उत्तराखंड) पांडव गुफा : मिथक एवं यथार्थ

दिनांक 3 अक्टूबर 2016, अपने मां-पिताजी के साथ गंगोत्री, यमुनोत्री यात्रा के लिए हर की पौड़ी, हरिद्वार से एक ट्रेवल एजेंसी के वाहन से निकला। वैष्णो देवी की यात्रा के बाद यह दूसरा मौका था जब मां-पिताजी के साथ तीर्थस्थल भ्रमण के लिए निकला था। तब मैं भी धार्मिक हुआ करता था। इससे पूर्व एक ऐसा भी समय था जब उठने के बाद गायत्री मंत्र के उच्चारण से दिन की शुरुआत होती थी। शाम को बिना गायत्री चालीसा पढ़े सोता नहीं था। आगे चलकर ऐसा भी समय आया जब गायत्री जी की कृपा पाने के लिए गायत्री मंत्र को जपना छोड़कर अखिल भारतीय गायत्री परिवार संस्थान, शांतिकुंज (हरिद्वार) द्वारा प्रकाशित मंत्र लेखन पुस्तिका में प्रतिदिन कम से कम दो पेज अर्थात लगभग 50 बार गायत्री मंत्र लिखा करता था। परिवार या जीवन में जब भी कोई समस्या या विषम परिस्थिति आती तो यह काम 2 – 4 गुणा बढ़ जाता। ऋग्वैदिक काल की प्रमुख देवी गायत्री जी के प्रति लगाव बचपन से ही था, क्योंकि हमारे दादा जी गायत्री परिवार के सदस्य थे। और उनके संपर्क में रहकर हम लोग भी गायत्री उपासना में लीन हो गए। हालांकि इतिहास विषय से एम. ए. करने के दौरान अलग-अलग धर्म-संप्रदायों के क्रमबद्ध विकास के इतिहास, उनके आपसी टकराव, उस टकराव को रोकने में विफल इन देवी-देवताओं संबंधी तथ्यों ने मेरे बंद चक्षु को थोड़ा बहुत खोलने का काम किया। इसी दौरान ही 2010 में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर आए फैसले ने मुझे सोचने को मजबूर किया कि जिस राम जी के सेवक हनुमान जी को हिंदू धर्म का एकमात्र जीवित देवता माना जाता है, जिन के डर से भूत पिशाच तक नजदीक नहीं आते हैं, आखिर उनके रहते उनके आराध्य देव राम जी का मंदिर कोई कैसे तोड़ सकता है, वह भी उनकी तथाकथित जन्मभूमि अयोध्या पर बना हुआ मंदिर। यदि वास्तव में उनका अस्तित्व है तो राम या हनुमान जी की कृपा से 500 साल पहले उस मंदिर को टूटना नहीं था। यदि टूट भी गया तो अगले दिन उनके प्रभाव या चमत्कार से स्वयं ही वह मंदिर बन जाना था जैसे हमारे जमुई (बिहार) के सिमेरिया गांव स्थित महादेव मंदिर को अपरूपी (रातों रात विश्वकर्मा भगवान के चमत्कार से निर्मित) कहा जाता है (जो कि एक मिथक है, वास्तविकता कुछ और है। कभी इसके भी मिथक और यथार्थ पर लिखने की योजना है क्योंकि हमारे देश में ऐसे मनगढ़ंत चमत्कारिक किस्से भरे पड़े हैं जो केवल अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं)। लेकिन अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

          इस दौरान सभी धार्मिक आख्यानों को संदेह भरी नजरों से देखने, उन्हें तार्किकता की कसौटी पर कसने तथा उसकी वास्तविकता का पता लगाने की प्रवृत्ति मुझमें विकसित होने लगी। धीरे-धीरे मेरे अंदर यह धारणा मजबूत होती गई कि इस तरह आँख मूंदकर किसी धार्मिक आख्यान को सच तो नहीं मानूँगा, बल्कि उसकी तह तक जाकर क्या सही है? क्या गलत? खोजकर निकालूँगा। 2012 के पश्चात धार्मिक अंधभक्ति को त्यागते हुए धार्मिक भ्रष्टाचार को नजदीक से समझना शुरू कर दिया। ज्ञान चक्षु खोलकर सही को सही और गलत हो गलत कहने का कौशल खुद में विकसित कर रहा था। इस दौरान घर पर कुछ कर्मकांड कराने आए पंडितों से भी किसी भी बात को खोद-खोद कर पूछते हुए झगड़ बैठता था। इन पंडितों से गुस्सा इसलिए भी आता था कि मेरे वैवाहिक जीवन में क्लेश की वजह राहु और शनि की दशा से जोड़कर इन ग्रहों की शांति के लिए अलग-अलग जाप करवाने को लेकर छह-छह हज़ार रुपए ठग लिए। इस मंत्र जाप से कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि पति-पत्नी का संबंध विच्छेद ही हुआ।

          इसी दौरान 2016 में मां-पिताजी ने चार धाम यात्रा करने की इच्छा जाहिर की। तब तक मैं बहुत हद तक धार्मिक रीति-रिवाजों से किनारा करना शुरू कर दिया। लेकिन मां-पिताजी की इच्छा का सम्मान करते हुए, साथ ही साथ उत्तराखंड के पहाड़ों में घूमने की मेरी दिली इच्छा के कारण रेलवे टिकट बुक किया और हरिद्वार पहुंच गए। तत्पश्चात पहला पड़ाव यमुनोत्री की ओर निकल पड़ा।

          ऋषिकेश से पहाड़ों की चढ़ाई शुरू हो जाती है। सर्पीले रास्ते, मनमोहक नजारे, ऊपर से वैन में लगे डॉल्बी डिजिटल साउंड में 'मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी' जैसे मधुर भक्ति गाने का तड़का यात्रा के आनंद को दोगुना कर दिया। मसूरी घाटी में कुछ समय बिताने के पश्चात आगे बढ़ा। रास्ते में ही पड़ने वाला केंपटी फॉल ने मन तो मोह ही लिया, उसी मार्ग में एक ऐसा भी भव्य मंदिर मिला जहां बड़े-बड़े शब्दों में स्पष्ट रूप से दान देने को मना करने संबंधी निर्देश लिखे । अपनी छोटी सी ज़िंदगी में मैंने पहला ऐसा मंदिर देखा जहां दान देने की मनाही थी, साथ ही प्रसाद मुफ्त में ही दिया जाता था। वैन का ड्राइवर बहुत ही मिलनसार था। कौन से ढाबे पर बढ़िया खाना मिलता है उन्हें अच्छी तरह पता था। पूरे रास्ते वह बढ़िया बढ़िया खाना-नाश्ता कराते गया। हरिद्वार से मसूरी तक हम दोनों बहुत ही अच्छे से घुल-मिल चुके थे। बात-बात में ही हमने उनसे आग्रह किया कि रास्ते में यदि कोई अन्य भी तीर्थ या पर्यटक स्थल मिले तो वहां भी हमें जरूर ले चलें। मसूरी से आगे बढ़ते ही उन्होंने बताया कि रास्ते में ही 60 किलोमीटर दूर एक लाखामंडल जगह है जहां केदारनाथ की तरह ही बहुत प्राचीन शिव मंदिर है। यहां एक ऐसा भी शिवलिंग है जिसपर जल चढ़ाने पर आपको अपना परछाई उस शिवलिंग में दिखेगा। इतना ही नहीं यही वह जगह है जहां दुर्योधन ने पांडवों की हत्या करने के लिए लाख निर्मित महल बनवाया था। यहां ले जाने के लिए ड्राइवर महोदय ने 500 अतिरिक्त पैसे की मांग की। ऐसे चमत्कारी जगह को देखने से हम चूकना नहीं चाहते थे इसलिए बिना शर्त उनकी बात मान लिया। यमुनोत्री की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग से यमुना नदी पार कर लगभग 3 से 5 किलोमीटर की दूरी तय कर हम लोग लाखामंडल ग्राम स्थित उस वीरान पड़े मंदिर में पहुंचे। नागर शैली में पूर्णतः पत्थर से निर्मित इस मंदिर की भव्यता का प्राचीन व बिना रंग-रोगन के बावजूद कोई जवाब नहीं था। यह बहुत ही प्राचीन मंदिर था जो एक पाँच फीट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर 1-2 एकड़ भूमि के दायरे में काले स्लेटी रंग के पत्थर से निर्मित था। मंदिर को देखते ही मेरे अंदर का इतिहासकार जाग उठा। मां-पिताजी जहां पूजा पाठ करने में लग गए वहीं मैं मंदिर के इतिहास को खंघालने में लग गया। प्लेटफॉर्म के बाईं छोर पर मंदिर का गर्भ गृह स्थित था जहां एक शिवलिंग के अतिरिक्त पत्थर की भित्ति पर कई देवी देवताओं की मूर्तियाँ खुदी थी बिल्कुल ऐसा जैसे भोरमदेव (छत्तीसगढ़) का शिव मंदिर। अंतर बस इतना था कि भोरमदेव (छत्तीसगढ़) के मैथुन मूर्तियों की जगह अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण थी। चारों तरफ से अलग-अलग देवताओं जैसे विष्णु, गणेश, कार्तिकेय आदि की मूर्तियों के बीच में एक शिवलिंग था। मैं मंदिर से लेकर उन सभी देवी देवताओं की तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर ही रहा था कि मंदिर के मुख्य पुजारी की आवाज़ आई 'कहां से आए हैं’? हम ने जवाब दिया, बिहार से और यमुनोत्री जा रहे हैं, इस मंदिर के बारे में भी सुना तो चले आए इसके पश्चात वह पुजारी हमें मंदिर से दाहिनी ओर खुले आसमान के नीचे  स्थित एक विशाल शिवलिंग के पास ले गया। उस विशाल शिवलिंग से थोड़ी दूर पर पत्थर निर्मित दो आदमक़द आकार के द्वारपाल स्थित थे। हमने जब पुजारी से इस विशाल शिवलिंग के बारे में पूछा तो वह हमें वास्तविक इतिहास बताने की जगह मिथक में लेते चला गया। पुजारी के अनुसार, जब पांडव अज्ञातवास में थे तो उसी समय इसी स्थान पर धर्मराज युधिष्ठिर ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इस लिंग के सामने पश्चिम की ओर मुख कर दो द्वारपाल खड़े हैं। इस शिवलिंग की यह विशेषता थी कि कोई भी मृत्यु को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति इन द्वारपालों के सम्मुख रख दिया जाए तो पुजारी के द्वारा अभिमंत्रित किया हुआ जल छिड़कते ही वह जीवित हो जाता, मृत्यु को प्राप्त करते समय मुख से राम राम नहीं कहा तो राम-राम शब्द का उच्चारण कर ले, गंगाजल नहीं पिया तो पी ले, इस प्रकार जो भी मृत प्राणी यहां लाया जाता वह कुछ पलों के लिए जीवित हो जाता है फिर बैकुंठ धाम प्राप्त कर लेता है पुजारी पूरे तन-मन से मिथकीय कहानी बताता जा रहा था और मैं उसके इस बकवास से पीछा छुड़ाने के लिए उससे अलग होने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था। क्योंकि मुझे पता था कि मृत्यु के बाद कोई भी व्यक्ति एक पल के लिए भी पुनर्जीवित नहीं होता है। और यदि वास्तव में यह वैसा चमत्कारी स्थान होता तो गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ छोड़कर श्रद्धालु पहले यहां आते। यह मंदिर परिसर इतना वीरान नहीं होता। देवघर (झारखंड) में रावण के द्वारा स्थापित शिवलिंग की वास्तविकता, असम में हिडिंबा के वंशजों की कपोल कल्पित कहानियों को मैं पहले से जानता था इसलिए इस युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवलिंग की मनगढ़ंत थ्योरी को नकारने में मुझे कोई भी दुविधा नहीं हुई। इसके आगे पुजारी जी ने बताया कि यहीं पर दुर्योधन ने पांडवों को मारने के लिए लाख से निर्मित महल बनवाया था। सभी पांडव यहां से एक गुप्त रास्ते से निकलने में कामयाब हुए। इस गुप्त रास्ते को थोड़ी दूर पर स्थित एक गुफा के रूप में देखा जा सकता है। समय के प्रभाव के कारण यह गुप्त रास्ता बंद हो गया

पुजारी के इतना कहते ही मेरा मन जल्द से जल्द उस गुफा को देखने का करने लगा। इसके पश्चात वह पुजारी हमें एक अनोखी शिवलिंग के पास ले गया जिसके बारे में ड्राइवर ने पहले ही बताया था कि जल चढ़ाने के बाद इस शिवलिंग में आपको अपनी परछाई दिखेगी। खुली छत के नीचे स्थित इस शिवलिंग को देखने मां-पिताजी, पुजारी और ड्राइवर के साथ मैं भी वहां पर पहुंचा। माँ और पिताजी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के हैं, इसलिए तुरंत उन्होंने अपने बैग से पीतल की एक छोटी सी लोटकी निकाली, उसमें जल भरा और ध्यान लगाते हुए उस जल को शिवलिंग पर अर्पित किया। देखकर तो बिल्कुल आश्चर्य हुआ कि शिवलिंग पर जल चढ़ाते ही आसपास के सभी लोगों की अख्श उस शिवलिंग में दिखने लगा था।


मां पिताजी हैरान हुए पर मै बिल्कुल नहीं। मां पिताजी इसे चमत्कार मांनते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े थे, तो वहीं मेरे आंख और दिमाग उस कारण को ढूंढने में लगे हुए थे जिसके कारण शिवलिंग में परछाई दिख रही थी। इतना सोचते-सोचते मेरी नजर थोड़ी दूर पर स्थित कई खंडित या अर्ध निर्मित शिवलिंग पर पड़ी। मैंने पुजारी से पूछा, 'यहां एक ही जगह इतनी इतनी शिवलिंग क्यों हैं'? पुजारी ने बताया यह सभी अलग-अलग आकार के शिवलिंग यहां खुदाई में मिले हैं जिसे एक जगह इकट्ठा कर दिया गया। यहीं से मुझे इस चमत्कार का कारण समझ में आ गया। इतनी संख्या में अलग-अलग आकार के शिवलिंग को देखकर मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवलिंग या शैव क्षेत्र नहीं बल्कि एक प्राचीनकालीन शिवलिंग तथा अन्य देवी देवताओं की मूर्ति निर्माण कला का प्रसिद्ध केंद्र रहा होगा। और यह सभी अर्ध निर्मित शिवलिंग, अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, यह तथाकथित चमत्कारी शिवलिंग इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उस चमत्कारी शिवलिंग में अक्स उभरना कोई चमत्कार नहीं था बल्कि कारीगरी का उत्कृष्ट प्रदर्शन था। चूंकि यह स्थान शिवलिंग तथा मूर्ति निर्माण का प्रमुख केंद्र रहा था, इसलिए कारीगरों द्वारा इस शिवलिंग को इतनी बारीकी से घिसकर तराशा गया कि वह इतना चिकना हो गया कि उस पर पानी पढ़ते ही सामने खड़ा वस्तु या व्यक्ति उस में प्रतिबिंबित होने लगता है।

          पुजारी की एक और बात मेरे मन में खटकी वह यह थी कि यह सभी शिवलिंग खुदाई में प्राप्त हुए हैं यह सोचते हुए कि यदि इस ग्राम में खुदाई हुई है तो जरूर किसी न किसी को यहां के इतिहास का पता होगा। कम से कम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग को तो जरूर। उत्सुकता वश मैंने पुजारी से पूछा, 'इस ऐतिहासिक क्षेत्र के इतिहास पर क्या किसी ने कुछ लिखा है क्या’? पुजारी ने यह भाँपते हुए कि मैं उनकी मिथकीय कहानियों को विश्वास करने में कोई रुचि नहीं ले रहा हूँ, नज़रअंदाज़ कर रहा हूँ, मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। और वह किसी दूसरे काम में लग गया। इसके पश्चात हम चारों लोग घूम-घूम कर पूरे मंदिर का भ्रमण करने लगे।


इतने में ही मेरी नजर एक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक लेख पर पड़ी। इसे पढ़कर मेरी जिज्ञासा थोड़ी शांत हुई। इस अभिलेख के अनुसार,

'भगवान शिव को समर्पित नागर शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण लगभग 12वीं 13वीं शताब्दी में हुआ था। क्षेत्र से बहुतायत में पाए स्थापत्य अंगों/ वास्तु अंगों तथा मूर्तियों के अवशेषों से ज्ञात होता है कि पूर्व में यहां अनेक शिव मंदिर रहे होंगे परंतु वर्तमान में केवल यही मंदिर शेष बचा। प्रस्तर निर्मित पिरामिड आकार संरचना के नीचे के स्तर में पाए गए ईंटों द्वारा निर्मित संरचना के आधार पर लाखामंडल की प्राचीनतम तिथि पांचवी से आठवीं शताब्दी ईस्वी जाती है।  मंदिर परिसर से ही प्राप्त छठी शताब्दी के एक प्रस्तर अभिलेख में उल्लेख मिलता है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने पति चंद्रगुप्त जो जालंधर के राजा का पुत्र था, के निधन पर सद्गति एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।

अधीक्षण पुरातत्वविद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

पूरा मामला यह था कि लाखामंडल स्थित इस शैव मंदिर का संबंध महाभारत काल से नहीं बल्कि आरंभिक मध्य काल से था, उस दौर में यह मूर्ति निर्माण का प्रमुख केंद्र रहा होगा यही कारण है कि यहां पर काफी संख्या में अर्ध निर्मित शिवलिंग के साथ-साथ अच्छी तरह पॉलिश कर बनाए गए शिवलिंग देखे जा सकते हैं। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में इस स्थान पर सिंहपुर राज परिवार की राजकुमारी ईश्वरा ने अपने पति चंद्रगुप्त के सम्मान में यह शैव मंदिर बनवाया। हालांकि यह अभी शोध का विषय है कि सिंहपुर राज परिवार किस क्षेत्र से संबंधित हैं।

          अब बात करते हैं पांडव के लाखगृह से एक गुफा होकर बच निकलने की। मंदिर के मुख्य गेट के नजदीक ही एक और बोर्ड देखा जा सकता है जिसमें इस मंदिर के नाम का उल्लेख मरड़ेश्वर महादेव मिलता है। इस बोर्ड में ही यह उल्लेख किया गया है लाखामंडल में पांडवों को जीवित जलाने हेतु लाक्षागृह का निर्माण कराया गया था। मंदिर के मुख्य पुजारी भी इस बात को दोहराते हैं। महाभारत में यह प्रसंग इस प्रकार है,

जब भीष्म पितामह धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करने के लिए कहते हैं। तो दुर्योधन धृतराष्ट्र से कहते हैं कि 'पिताजी एक बार यदि युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो जाएगा तो यह राज्य सदा के लिए पांडवों का हो जाएगा और हम कौरवों को उनका सेवक बनकर रहना पड़ेगा। इस पर धृतराष्ट्र कहते हैं कि युधिष्ठिर हमारे कुल की संतानों में सबसे बड़ा है इसलिए इस राज्य पर उसी का अधिकार है। इसके अलावा भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं। इसलिए हम इस विषय में कुछ नहीं कर सकते, तुम उनके रुकने का प्रबंध करो। दुर्योधन ने पांडवों को जलाकर मार देने के लिए षड्यंत्र रचा। उसने पांडवों के रुकने के लिए एक विशेष प्रकार का गृह बनवाया जिससे लाख, सूखी घास, मूंज आदि ज्वलनशील पदार्थों से बनाया गया था। संजोग से दुर्योधन के इस षड्यंत्र का पता विदुर को चल गया, विदुर ने पांडवों को आकर सारी बात बताई। आत्मरक्षा के लिए पांडवों ने महल के अंदर से ही एक गुप्त रास्ता ढूंढ निकाला। और आग लगने के पूर्व ही पांडव उस गुप्त मार्ग से बाहर निकल गए।

          इस मिथक को तार्किकता की कसौटी पर परखने पर सभी बातें हवा-हवाई साबित होती है।  पांडव जिस सुरंग से लाक्षागृह से बाहर निकले थे उसे वर्तमान में उस गांव से थोड़ी ही दूर पर बाहर निकलने वाले मुख्य मार्ग के बाईं और देखा जा सकता है। वापसी में हम लोग भी उस गुफा के पास आकर रुके और थोड़ी दूर गुफा के अंदर भी गए।


वहां पर दो साधु पहले से मौजूद थे। उनमें से एक के हाथ में टॉर्च था। हमने उनसे पूछा - क्या गुफा के अंदर भी जा सकते हैं? टॉर्च वाले साधु ने सिर हिलाते हुए हां का इशारा किया। मेरे साथ-साथ वह भी चल दिया। गुफा में प्रवेश करने के साथ ही 20 से 25 फीट अंदर तक श्रद्धालुओं के आने-जाने के लिए एक पक्का रास्ता बना हुआ था। इसके बाद वह रास्ता संकरा होता हुआ बंद हो जाता था। मैंने पुजारी से पूछा कि यह रास्ता तो आगे बंद हो गया है पुजारी का जवाब था इसी रास्ते होते हुए पांचो पांडव लाख गृह से बाहर निकले थे। साथ ही इसका सबूत मिटाने के लिए उन्होंने इस मार्ग को बंद कर दिया। उस साधु की बातों पर मुझे जरा भी विश्वास नहीं था। 10 मिनट तक मैं उस गुफा में रहा, हर तरफ से निहारता रहा, उस साधु से टॉर्च लेकर सकरी गुफा की तरफ देखता, निरीक्षण करता रहा। टॉर्च की रोशनी में थोड़ी दूर पर मुझे उस गुफा से पानी का रिसाव दिखा। मैंने उस साधु से पूछा यह पानी का रिसाव कहां से हो रहा है’? साधु का जवाब था कि इस पहाड़ी के ऊपर पानी जमा हो जाता है। बारिश के दिनों में इस मार्ग से पानी का अत्यधिक रिसाव होने लगता है, सर्दी के दिनों तक यह रिसाव बंद हो जाता है इतना सुनते ही मैं वहां से तुरंत निकल आया। उस साधु ने कुछ दान मांगा। वैसे तो मैं दान देने में विश्वास नहीं करता लेकिन उसने मुझे बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे जेब में हाथ डाला तो 20 रुपए का नोट मिला मैंने उसे दे दिया। वहां से निकलने के साथ ही पिताजी ने मुझे पूछा- 'बहुत गौर से देख रहे थे उस गुफा को? पुजारी से भी बात किए तो क्या जानकारी मिला इस क्षेत्र के बारे में'? मैंने कहा कि सुनने में थोड़ा बुरा लग लग सकता है आपलोग को लेकिन ये लोग दुनिया को मूर्ख बना कर उनकी अंधआस्था का फायदा उठाकर उन्हें ठग रहे हैं।  इस क्षेत्र का महाभारत काल से कोई लेना देना नहीं है। न पांडव यहां कभी आए, न शिवलिंग को स्थापित कर उसका उपासना किए, न ही यहां कोई लाखगृह था, न ही पांडव इस गुफा से निकले? मां-पिताजी मेरी बात को सुनकर गुस्से में लाल हो गए, ड्राइवर को भी मेरी बात बहुत अटपटी लगी। ड्राइवर ने मुझे तुरंत रोका कि देवस्थान के बारे में ऐसा नहीं कहते। ड्राइवर के ऐसा बोलने पर मां-पिताजी भी मेरा साथ छोड़कर ड्राइवर की बात का साथ देते हुए मुझे डांट फटकार कर समझाने लगे।

मैंने ड्राइवर से कहा मैं यह बात हवा में नहीं कर रहा हूं मैं इसे साबित भी कर सकता हूं अब ड्राइवर को भी उत्सुकता होने लगी। अपनी बात को साबित करने के लिए मैंने मोबाइल से गूगल मैप खोला। और ड्राइवर और पिताजी से 2 प्रश्न पूछे – (1) कौरव-पांडव की राजधानी कहां थी? (2) महाभारत की लड़ाई कहां हुई? ड्राइवर की तरफ से कोई जवाब नहीं आया शायद उनको पता नहीं हो। पिताजी ने उत्तर दिया - पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर में थी, और यह लड़ाई कुरुक्षेत्र में हुई। मैंने तुरंत एक और प्रश्न पूछा - वर्तमान समय में यह कुरुक्षेत्र कहां पड़ता है? इस प्रश्न पर कोई उत्तर नहीं आया।


इसके पश्चात मैंने गूगल मैप से वर्तमान में दिल्ली और लाखामंडल के बीच की दूरी को दिखाया। 357 किलोमीटर थे। इसके पश्चात मैंने उनसे एक और सवाल किया कि क्या आपको लगता है कि दुर्योधन अपनी राजधानी से 350 किलोमीटर दूर एक वीरान जंगल पहाड़ में यह लाख गिरी बनवाया होगा। अभी जब इतना वीरान है यह क्षेत्र तो उस समय कल्पना कीजिए कितने घने जंगल रहे होंगे इस क्षेत्र में? वर्तमान में पूरे भारत में इतनी घनी जनसंख्या है तब जाकर इन पहाड़ों वाले क्षेत्र में पांच 5 किलोमीटर दूरी पर एक एक गांव स्थित है। तो आज से लगभग 3000 वर्ष पहले इस क्षेत्र में कितने लोग रहते होंगे?

मेरी इन बातों से पिताजी सहमत नहीं थे लेकिन ड्राइवर कुछ हद तक सहमत हुआ था। इसके पश्चात उसने मुझसे एक सवाल पूछा कि यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस क्षेत्र के साथ महाभारत काल का संबंध क्यों जोड़ा जाता है’? इस सवाल के जवाब में मैंने एक ऐतिहासिक तथ्य रखा। मैंने उनसे पूछा, आपको पता है कि कैलाश पर्वत से रावण जब शिवलिंग उठाकर लंका की ओर चला तो उसने उस शिवलिंग को कहां रखा’? पिताजी ने तुरंत उत्तर दिया, ‘देवघर (झारखंड)। मैंने तुरंत उनसे पूछा क्या आपको पता है कि यह कहानी उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में स्थित गोला गोकरण नाथ धाम के साथ जोड़ा जाता है मैंने वहां के पुजारी से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने देवघर वाली मान्यता को खारिज कर दिया। और रावण और शिवलिंग की यही कहानी हिमाचल प्रदेश के एक और मंदिर के लिए भी प्रयुक्त की जाती है। अब आप बताइए रावण के द्वारा कैलाश से लाया हुआ वास्तविक शिवलिंग कौन सा है? सारे लोग कंफ्यूज हो गए कि किसे सत्य माने? पिताजी से एक और सवाल पूछा, क्या आप यह मानते हैं कि देवघर का शिवलिंग रावण द्वारा स्थापित शिवलिंग है? थोड़ी देर सोच विचार करने के पश्चात पिताजी ने मना कर दिया क्योंकि कुछ दिन पहले ही मैंने उनको श्यामनन्द प्रसाद सिंह द्वारा लिखित एक पुस्तक 'जमुई का इतिहास और पुरातत्व' पढ़वाया जिसमें ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट लिखा था कि इस मंदिर का निर्माण गिद्धौर के चंदेल राजा महाराजा रावणेश्वर प्रसाद सिंह ने करवाया।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में ऐसा गोरखधंधा चलता है कि अपने क्षेत्र के किसी मंदिर को प्रसिद्धि दिलाना हो तो उसे रामायण या महाभारत के मिथकीय चरित्रों के साथ जोड़ दो। हमारे देश की जनता इतनी धर्मांध है कि वह कभी सोचेगी ही नहीं कि क्या सत्य है और क्या गलत? रही बात इस पांडव गुफा की तो यह कोई गुप्त रास्ता नहीं है बल्कि पहाड़ के ऊपर स्थित जलाशय या पहाड़ द्वारा अवशोषित वर्षा जल के इस स्थान से रिसने के कारण इस संकरी होती गुफा का निर्माण हुआ है। हिमालय क्षेत्र में ऐसी आपको बहुतायत गुफाएँ मिलेंगे। भौगोलिक ज्ञान की कमी के कारण ये साधु लोग आपको बेवकूफ बनाकर दान के नामपर पैसे ऐंठते हैं।

इसी तरह इस मौके पर विचार विमर्श करते हम लोग यमुनोत्री की ओर बढ़ते चले गए।

शिव मंदिर, लाखामंडल 




Thursday 1 October 2020

महात्मा गांधी का पत्रकारिता जीवन

मोहनदास करमचंद गांधी जिन्हें भारतवासी महात्मा गांधी के नाम से संबोधित करती हैन केवल एक लोकप्रिय राजनेतासमाज सुधारकदार्शनिक थेबल्कि एक मंझे हुए पत्रकार भी थे। पहली बार वे पत्रकारिता के संपर्क में तब आए जब 1888 ई. में कानून की पढ़ाई की क्रम में वे लंदन गए थे। लंदन में वे अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आए जो उस समय लंदन से ‘इंडिया’ पत्रिका निकालते थे। 1890 में इस पत्रिका से जुड़कर उन्होंने संवाददाता का काम किया। इसके अतिरिक्त 'लंदन वेजिटेरियन सोसाइटीके संपर्क में आकर शाकाहारभारतीय रीति रिवाजत्योहार पर आधारित कई आलेख लिखे।[i] 7 फरवरी 1891 ई. को गांधीजी का पहला आलेख ' इंडियन वेजीटेरियनशीर्षक से प्रकाशित हुई।[ii] इसी के साथ ही गांधी जी के स्वतंत्र पत्रकारिता जीवन की शुरुआत होती है।

          40 वर्षों तक लगातार पत्रकारिता क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए गांधी जी ने समाचार सामग्री का प्रूफ रीडिंगसंवाददाता से लेकर संपादक के रूप में योगदान दिया। सम्पूर्ण पत्रकारिता जीवन में वे छह पत्र-पत्रिकाओं जैसे 'इंडियन ओपिनियन' 'यंग इंडिया' 'नवजीवनतथा ' हरिजन(अंग्रेजी)' 'हरिजन सेवक (हिंदी)' 'हरिजन बंधु (गुजराती)के संपादन तथा लेखन से जुड़े रहे। वे तीन अंग्रेजी भाषी साप्ताहिक पत्र 'इंडियन ओपिनियन (1903-1915) 'यंग इंडिया (1919-1931) तथा हरिजन (1933-1942 तथा पुनः 1946- जनवरी 1948) के संपादन से जुड़े रहे। इसके अतिरिक्त अनेक समाचार पत्रों जैसे 'प्रजाबंधु' 'अमृतबाजार पत्रिका' 'द हिंदू' ‘द बॉम्बे क्रॉनिकल’ ‘काठियावाड़ टाइम्स’ 'द सर्च लाइट' 'बिहार समाचारआदि पत्रिकाओं को दिये साक्षात्कार के माध्यम से अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाया।

          इंडियन ओपिनियन के प्रथम अंक से पता चलता है कि गांधीजी पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य 'सेवामानते थे।[iii] 1915 ई. में जब वे दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो 1918 से ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रकाशन की ज़िम्मेदारी संभाल रहे अपने द्वितीय पुत्र मणिलाल को समय-समय पर पत्र के माध्यम से पत्रकारिता के गुर सिखाते रहते थे। अपने पुत्र को निर्देश देते हुए वे कहते हैं कि ‘कभी भी क्रोध में आकर किसी के खिलाफ तीक्ष्णचुभने वाली भाषा में कुछ भी गलत नहीं लिखना चाहिए। यदि ऐसी गलती हो जाए तो अपनी गलती स्वीकार कर लेना चाहिए[iv]  

          गांधीजी पत्रकारिता को जन सामान्य लोगों को समकालीन इतिहास से परिचित कराने तथा साक्षर बनाने का सर्वप्रमुख माध्यम मानते थे। यही कारण है कि दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति तक उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राजनीतिकसामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक तथा धार्मिक विषयों पर लगातार लेखन करते हुए जनता को जागृत किया। उनकी पत्रकारिता के उद्देश्यों में शामिल था - विभिन्न धर्मसंप्रदायजाति के लोगों के बीच आपसी भाईचारा विकसित करनाजातिगत भेदभाव सहित अस्पृश्यता का निवारण करनागरीबी उन्मूलनरूढ़ीवादी परंपराओं से स्त्रियों को मुक्त करनाब्रिटिश सरकार के दमनकारी शासन से मुक्ति दिलाना आदि। इन मुद्दों के प्रति उनकी सक्रियता ने उन्हें समस्त धर्मावलंबियोंगरीब जनतास्त्रियोंकामगारोंअस्पृश्य सहित समस्त देशवासियों के बीच लोकप्रिय बनाया।[v] पत्रकारिता ने उनके अनेक उद्देश्योंआंदोलनों जैसे स्वदेशी आंदोलनसत्याग्रहहरिजन उद्धार आदि को गति प्रदान की।

          प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जब ब्रिटिश सरकार होमरूल देने के वादे से मुकर कर भारतीयों पर रौलट एक्ट लगा दिया तो गुस्से में आकर गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार की खिलाफत करने के लिए 7 अप्रैल 1919 से एक गैर पंजीकृत साप्ताहिक पत्र 'सत्याग्रह' का प्रकाशन प्रारंभ किया। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने इसका प्रकाशन बंद कर छोटे-छोटे पम्पलेट निकालना शुरू किया। इसी बीच कुछ गुजराती नौजवानों ने अंग्रेजी भाषी साप्ताहिक पत्र 'यंग इंडिया' निकालना शुरू किया तथा गांधीजी को इसके संपादन के लिए तैयार कर लिया। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के पश्चात यहां से भारत में उनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत होती है जिसके बदौलत उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यगरीबीअस्पृश्यता से लड़ने मेंसुषुप्त देशवासियों को जगानेउनमें राष्ट्रीयता की भावना भरने जैसे कार्यों में योगदान दिया।

          गांधीजी के आलेख के पाठक मुख्यतः किसान तथा बुनकर या अन्य कारीगर होते थे जो अधिक पढ़े लिखे नहीं होते थे। इसे ध्यान में रखते हुए अपने लेखन की भाषा को उन्होंने सरल बनाया ताकि आम जनों द्वारा उसके अर्थ को आसानी से समझा जा सके। वैकल्पिक पत्रकारिता के पक्षधर होने के साथ-साथ वे समाचारपत्र से धन उगाही करने के सख्त खिलाफ थे। वे प्रेस की स्वतंत्रता के हिमायती थे तथा इस पर किसी भी प्रकार का सरकारी नियंत्रण नहीं होने देना चाहते थे।

          आजादी के 7 दसक बाद आज जिस तरह पत्रकारिता टीआरपी के माध्यम से न केवल धन उगाही का माध्यम बनता जा रहा हैसरकारी दखल से पत्रकार सरकारी प्रवक्ता बनते जा रहे हैं। इनके माध्यम से समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोला जा रहा है। ऐसे विषम परिस्थिति में वर्तमान पत्रकारिता जगत को आवश्यकता है गांधीजी के पत्रकारिता संबंधी विचारों से प्रेरणा लेने की। इन्हें अपनाने की। अन्यथा वह दिन दूर नहीं कि जिस पत्रकारिता को गांधी जी देशवासियों को जगाने का एक सशक्त माध्यम मानते थे वह देशवासियों की बर्बादी का कारण बन जाएगा।



[i] Bhattacharya S.N., ‘Mahatma Gandhi The Journalist’ Asia Publishing House, New Delhi, 1965, Page No. 5

[ii] Ibid. Page No. 2

[iii] Gandhi M.K., ‘An Autobiography of the story of my experiments with truth’ Penguin Books, London, page no. 221

[iv] https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-miscellaneous/tp-others/mahatma-gandhi-as-journalist/article27939749.ece

[v] K. Dr. Puttaraju, ‘Mahatma Gandhi as a writer, editor and Journalist’ International Journal of Acadamic Research, October-December 2014, ISSN: 2348-7666, Page No. 44-45 

मूलतः 18 अक्टूबर 2020 के educational news दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित