Saturday 14 November 2020

लक्ष्मी : अंधविश्वास मुक्त समाज में अंधविश्वास परोसती फिल्म

काफी दिनों से अक्षय कुमार की movie "लक्ष्मी" का इंतज़ार था। लव जिहाद वाला angle सामने आने के बाद ऐसा लगा कि कहीं इसके रिलीज की ऐसी की तैसी न हो जाए, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कल डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज होने के बाद आज इत्मिनान से इसे देख ही लिए। फिल्म के प्रथम half में मुझे समझ नहीं आया कि ये Horror movie में सास बहू की जबरदस्ती और बेकार वाली comedy देने का क्या तुक है??? यदि ये comedy नहीं होती तो यह औसत दर्जे की फ़िल्म हो सकती थी। 

उससे भी ज्यादा अजीब यह लगा कि अंधविश्वास का पोल खोलने वाला एक extra ordinary mind के व्यक्ति को इतना बकलोल दिखाया गया जिसे पता ही नहीं चल रहा कि सड़े मांस की बदबू विकेट से यदि आ रही है तो इसके पीछे क्या कारण हो सकता है??? गाना भी जबरदस्ती ठूसा गया है। एक दो सीन जैसे ढोंगी बाबा की पोल खोलने वाला सीन, लक्ष्मी किन्नर का stage पर दमदार speech के अलावा कोई ऐसे सीन नहीं हैं इस फ़िल्म में कि इसे दुबारा देखा जा सके। कुल मिलाकर ये दुबारा देखने लायक फ़िल्म नहीं है। मैं तो झेल गया शायद आप नहीं झेल पाएंगे।


अंधभक्ति का चश्मा हटाती, बंद आँख खोलती ‘आश्रम वेब सिरीज़’

28 अगस्त 2020 को एम एक्स प्लेयर पर रिलीज प्रकाश झा की वेब सीरीज आश्रम लोगों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई कि प्रकाश झा को जल्दी ही इसका सीजन 2 लाना पड़ गया। पहले सीजन में 'जातिगत भेदभाव' जहां सबसे रोमांचक कड़ी था, वहीं सीजन 2 में बाबा का ठरकीपन, ड्रग्स का कारोबार एवं सरकार बनाने में भूमिका। इसमें कहीं भी बाबा के धर्म को दिखाया नहीं गया है। वह कौन से धर्म, संप्रदाय को मानते हैं कुछ भी नहीं बताया गया है। किसी देवी देवता का अपमान भी नहीं किया गया है। यह किसी भी धर्म संप्रदाय से जुड़ा हो सकता है चाहे वह हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, कबीर पंथ ही क्यों ना हो। क्योंकि भौतिक सुख की चाह रखने वाले आज हर धर्म संप्रदाय में मौजूद हैं। और ये लालसा कभी भी किसी भी मनुष्य में जागृत हो सकती है। लेकिन यह अपराध तब बन जाता है जब आप पूरी दुनिया को इस व्यसन से दूर रहने का संदेश देने के बावजूद आप खुद उसमें लिप्त होते हैं। आश्रम वेब सिरीज़ के दूसरे पार्ट में लोगों को लड्डू के माध्यम से ड्रग्स का आदि बनाकर नशा मुक्ति केंद्र चलाना ऐसे ही हास्यास्पद और गुस्सा दिलाने वाले कृत्य हैं। और ऐसा भी नहीं है कि ये कपोल कल्पित हैं। बल्कि समय-समय पर समाचार पत्रों, मीडिया रिपोर्टों में ऐसे अययास नशे का कारोबार करने वाले ठरकी लोगों को बेनकाब होते देखा/पढ़ा जा सकता है। 

           इस सच्चाई से रूबरू होने के बावजूद हमारे देश के कई संगठन आश्रम वेब सीरीज के दूसरे सीजन का विरोध कर रहे हैं। हालांकि उनके इस विरोध का कोई लाभ नहीं हुआ। न ही प्रकाश झा को कोई नुकसान। और 11 नवंबर 2020 को दूसरा सीजन रिलीज कर दिया गया। फिर भी इस विरोध करने का तात्पर्य स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि ऐसे संगठन बाबाओं के इस कृत्य को अपने धर्म के किसी बाबा से जुड़ा हुआ मान रहा है। उन्हें यह लगता है प्रकाश झा आश्रम शब्द को बदनाम कर रहे हैं। लेकिन आश्रम शब्द को वास्तव में जो लोग बदनाम कर रहे हैं उनके खिलाफ इनका एक लफ़्ज़ भी नहीं निकलता, बल्कि या तो यह उनकी गोद में बैठे होते हैं, या उस आश्रम को अपनी गोद में बिठाए रखते हैं। ऐसे आश्रमों पर जब भी कोई आक्षेप लगता है तो उनके लिए लठैत तक बन जाते हैं।

           ऐसे संगठनों के अनुयाई सोशल मीडिया पर इनका बहिष्कार करने का संदेश दे रहे होते हैं। बहिष्कार का कारण पूछा तो गोलमोल जवाब देते नजर आएंगे। हिंदुत्व की रक्षा की दुहाई देंगे। उन्हें यह लगता है कि ऐसे वेब सीरीज से समाज में नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, आश्रम की छवि धूमिल होगी।  जबकि वास्तविकता यह है कि आज के तार्किक युग में इसकी कम संभावना नित्य कम होती जा रही है। बल्कि ऐसे वेब सीरीज का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। ऐसी वेब सीरीज ना केवल दर्शकों का मनोरंजन कर रहे होते हैं, बल्कि उनमें कई अच्छी चीजें भी विकसित हो रही होती है। विशेष रूप से कीसि भी विश्वास को तार्किकता के आधार पर निरीक्षण करने का कौशल। उदाहरण के लिए यदि आप इस वेब सीरीज के दोनों भाग देखें, तो आपको भी एहसास होगा कि किसी भी व्यक्ति या धार्मिक परिवार के अनुयाई बनने से पहले उसके अलग-अलग आयामों पर गंभीरता से विचार करें। परिवार में जुड़ने से पहले उसके उन पहलुओं पर जरूर गौर करें जिसके बारे में इस वेब सीरीज के दोनों भागों में दिखाया गया है। परिवार के लोग आपको अपने संगठन से जोड़ने के लिए किस प्रकार अपने दिखावटी परोपकारी कार्यों से आप का मन मोह कर आपका खुदा बन जाते हैं और विषम परिस्थिति में आपकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं इस बात को बहुत अच्छी तरह से इस वेब सीरीज के माध्यम से दिखाया गया है। समय निकालकर हम सभी को जरूर देखना चाहिए।

सौजन्य - MX Player 

 


Sunday 11 October 2020

लाखामंडल (उत्तराखंड) पांडव गुफा : मिथक एवं यथार्थ

दिनांक 3 अक्टूबर 2016, अपने मां-पिताजी के साथ गंगोत्री, यमुनोत्री यात्रा के लिए हर की पौड़ी, हरिद्वार से एक ट्रेवल एजेंसी के वाहन से निकला। वैष्णो देवी की यात्रा के बाद यह दूसरा मौका था जब मां-पिताजी के साथ तीर्थस्थल भ्रमण के लिए निकला था। तब मैं भी धार्मिक हुआ करता था। इससे पूर्व एक ऐसा भी समय था जब उठने के बाद गायत्री मंत्र के उच्चारण से दिन की शुरुआत होती थी। शाम को बिना गायत्री चालीसा पढ़े सोता नहीं था। आगे चलकर ऐसा भी समय आया जब गायत्री जी की कृपा पाने के लिए गायत्री मंत्र को जपना छोड़कर अखिल भारतीय गायत्री परिवार संस्थान, शांतिकुंज (हरिद्वार) द्वारा प्रकाशित मंत्र लेखन पुस्तिका में प्रतिदिन कम से कम दो पेज अर्थात लगभग 50 बार गायत्री मंत्र लिखा करता था। परिवार या जीवन में जब भी कोई समस्या या विषम परिस्थिति आती तो यह काम 2 – 4 गुणा बढ़ जाता। ऋग्वैदिक काल की प्रमुख देवी गायत्री जी के प्रति लगाव बचपन से ही था, क्योंकि हमारे दादा जी गायत्री परिवार के सदस्य थे। और उनके संपर्क में रहकर हम लोग भी गायत्री उपासना में लीन हो गए। हालांकि इतिहास विषय से एम. ए. करने के दौरान अलग-अलग धर्म-संप्रदायों के क्रमबद्ध विकास के इतिहास, उनके आपसी टकराव, उस टकराव को रोकने में विफल इन देवी-देवताओं संबंधी तथ्यों ने मेरे बंद चक्षु को थोड़ा बहुत खोलने का काम किया। इसी दौरान ही 2010 में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर आए फैसले ने मुझे सोचने को मजबूर किया कि जिस राम जी के सेवक हनुमान जी को हिंदू धर्म का एकमात्र जीवित देवता माना जाता है, जिन के डर से भूत पिशाच तक नजदीक नहीं आते हैं, आखिर उनके रहते उनके आराध्य देव राम जी का मंदिर कोई कैसे तोड़ सकता है, वह भी उनकी तथाकथित जन्मभूमि अयोध्या पर बना हुआ मंदिर। यदि वास्तव में उनका अस्तित्व है तो राम या हनुमान जी की कृपा से 500 साल पहले उस मंदिर को टूटना नहीं था। यदि टूट भी गया तो अगले दिन उनके प्रभाव या चमत्कार से स्वयं ही वह मंदिर बन जाना था जैसे हमारे जमुई (बिहार) के सिमेरिया गांव स्थित महादेव मंदिर को अपरूपी (रातों रात विश्वकर्मा भगवान के चमत्कार से निर्मित) कहा जाता है (जो कि एक मिथक है, वास्तविकता कुछ और है। कभी इसके भी मिथक और यथार्थ पर लिखने की योजना है क्योंकि हमारे देश में ऐसे मनगढ़ंत चमत्कारिक किस्से भरे पड़े हैं जो केवल अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं)। लेकिन अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

          इस दौरान सभी धार्मिक आख्यानों को संदेह भरी नजरों से देखने, उन्हें तार्किकता की कसौटी पर कसने तथा उसकी वास्तविकता का पता लगाने की प्रवृत्ति मुझमें विकसित होने लगी। धीरे-धीरे मेरे अंदर यह धारणा मजबूत होती गई कि इस तरह आँख मूंदकर किसी धार्मिक आख्यान को सच तो नहीं मानूँगा, बल्कि उसकी तह तक जाकर क्या सही है? क्या गलत? खोजकर निकालूँगा। 2012 के पश्चात धार्मिक अंधभक्ति को त्यागते हुए धार्मिक भ्रष्टाचार को नजदीक से समझना शुरू कर दिया। ज्ञान चक्षु खोलकर सही को सही और गलत हो गलत कहने का कौशल खुद में विकसित कर रहा था। इस दौरान घर पर कुछ कर्मकांड कराने आए पंडितों से भी किसी भी बात को खोद-खोद कर पूछते हुए झगड़ बैठता था। इन पंडितों से गुस्सा इसलिए भी आता था कि मेरे वैवाहिक जीवन में क्लेश की वजह राहु और शनि की दशा से जोड़कर इन ग्रहों की शांति के लिए अलग-अलग जाप करवाने को लेकर छह-छह हज़ार रुपए ठग लिए। इस मंत्र जाप से कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि पति-पत्नी का संबंध विच्छेद ही हुआ।

          इसी दौरान 2016 में मां-पिताजी ने चार धाम यात्रा करने की इच्छा जाहिर की। तब तक मैं बहुत हद तक धार्मिक रीति-रिवाजों से किनारा करना शुरू कर दिया। लेकिन मां-पिताजी की इच्छा का सम्मान करते हुए, साथ ही साथ उत्तराखंड के पहाड़ों में घूमने की मेरी दिली इच्छा के कारण रेलवे टिकट बुक किया और हरिद्वार पहुंच गए। तत्पश्चात पहला पड़ाव यमुनोत्री की ओर निकल पड़ा।

          ऋषिकेश से पहाड़ों की चढ़ाई शुरू हो जाती है। सर्पीले रास्ते, मनमोहक नजारे, ऊपर से वैन में लगे डॉल्बी डिजिटल साउंड में 'मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी' जैसे मधुर भक्ति गाने का तड़का यात्रा के आनंद को दोगुना कर दिया। मसूरी घाटी में कुछ समय बिताने के पश्चात आगे बढ़ा। रास्ते में ही पड़ने वाला केंपटी फॉल ने मन तो मोह ही लिया, उसी मार्ग में एक ऐसा भी भव्य मंदिर मिला जहां बड़े-बड़े शब्दों में स्पष्ट रूप से दान देने को मना करने संबंधी निर्देश लिखे । अपनी छोटी सी ज़िंदगी में मैंने पहला ऐसा मंदिर देखा जहां दान देने की मनाही थी, साथ ही प्रसाद मुफ्त में ही दिया जाता था। वैन का ड्राइवर बहुत ही मिलनसार था। कौन से ढाबे पर बढ़िया खाना मिलता है उन्हें अच्छी तरह पता था। पूरे रास्ते वह बढ़िया बढ़िया खाना-नाश्ता कराते गया। हरिद्वार से मसूरी तक हम दोनों बहुत ही अच्छे से घुल-मिल चुके थे। बात-बात में ही हमने उनसे आग्रह किया कि रास्ते में यदि कोई अन्य भी तीर्थ या पर्यटक स्थल मिले तो वहां भी हमें जरूर ले चलें। मसूरी से आगे बढ़ते ही उन्होंने बताया कि रास्ते में ही 60 किलोमीटर दूर एक लाखामंडल जगह है जहां केदारनाथ की तरह ही बहुत प्राचीन शिव मंदिर है। यहां एक ऐसा भी शिवलिंग है जिसपर जल चढ़ाने पर आपको अपना परछाई उस शिवलिंग में दिखेगा। इतना ही नहीं यही वह जगह है जहां दुर्योधन ने पांडवों की हत्या करने के लिए लाख निर्मित महल बनवाया था। यहां ले जाने के लिए ड्राइवर महोदय ने 500 अतिरिक्त पैसे की मांग की। ऐसे चमत्कारी जगह को देखने से हम चूकना नहीं चाहते थे इसलिए बिना शर्त उनकी बात मान लिया। यमुनोत्री की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग से यमुना नदी पार कर लगभग 3 से 5 किलोमीटर की दूरी तय कर हम लोग लाखामंडल ग्राम स्थित उस वीरान पड़े मंदिर में पहुंचे। नागर शैली में पूर्णतः पत्थर से निर्मित इस मंदिर की भव्यता का प्राचीन व बिना रंग-रोगन के बावजूद कोई जवाब नहीं था। यह बहुत ही प्राचीन मंदिर था जो एक पाँच फीट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर 1-2 एकड़ भूमि के दायरे में काले स्लेटी रंग के पत्थर से निर्मित था। मंदिर को देखते ही मेरे अंदर का इतिहासकार जाग उठा। मां-पिताजी जहां पूजा पाठ करने में लग गए वहीं मैं मंदिर के इतिहास को खंघालने में लग गया। प्लेटफॉर्म के बाईं छोर पर मंदिर का गर्भ गृह स्थित था जहां एक शिवलिंग के अतिरिक्त पत्थर की भित्ति पर कई देवी देवताओं की मूर्तियाँ खुदी थी बिल्कुल ऐसा जैसे भोरमदेव (छत्तीसगढ़) का शिव मंदिर। अंतर बस इतना था कि भोरमदेव (छत्तीसगढ़) के मैथुन मूर्तियों की जगह अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण थी। चारों तरफ से अलग-अलग देवताओं जैसे विष्णु, गणेश, कार्तिकेय आदि की मूर्तियों के बीच में एक शिवलिंग था। मैं मंदिर से लेकर उन सभी देवी देवताओं की तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर ही रहा था कि मंदिर के मुख्य पुजारी की आवाज़ आई 'कहां से आए हैं’? हम ने जवाब दिया, बिहार से और यमुनोत्री जा रहे हैं, इस मंदिर के बारे में भी सुना तो चले आए इसके पश्चात वह पुजारी हमें मंदिर से दाहिनी ओर खुले आसमान के नीचे  स्थित एक विशाल शिवलिंग के पास ले गया। उस विशाल शिवलिंग से थोड़ी दूर पर पत्थर निर्मित दो आदमक़द आकार के द्वारपाल स्थित थे। हमने जब पुजारी से इस विशाल शिवलिंग के बारे में पूछा तो वह हमें वास्तविक इतिहास बताने की जगह मिथक में लेते चला गया। पुजारी के अनुसार, जब पांडव अज्ञातवास में थे तो उसी समय इसी स्थान पर धर्मराज युधिष्ठिर ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इस लिंग के सामने पश्चिम की ओर मुख कर दो द्वारपाल खड़े हैं। इस शिवलिंग की यह विशेषता थी कि कोई भी मृत्यु को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति इन द्वारपालों के सम्मुख रख दिया जाए तो पुजारी के द्वारा अभिमंत्रित किया हुआ जल छिड़कते ही वह जीवित हो जाता, मृत्यु को प्राप्त करते समय मुख से राम राम नहीं कहा तो राम-राम शब्द का उच्चारण कर ले, गंगाजल नहीं पिया तो पी ले, इस प्रकार जो भी मृत प्राणी यहां लाया जाता वह कुछ पलों के लिए जीवित हो जाता है फिर बैकुंठ धाम प्राप्त कर लेता है पुजारी पूरे तन-मन से मिथकीय कहानी बताता जा रहा था और मैं उसके इस बकवास से पीछा छुड़ाने के लिए उससे अलग होने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था। क्योंकि मुझे पता था कि मृत्यु के बाद कोई भी व्यक्ति एक पल के लिए भी पुनर्जीवित नहीं होता है। और यदि वास्तव में यह वैसा चमत्कारी स्थान होता तो गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ छोड़कर श्रद्धालु पहले यहां आते। यह मंदिर परिसर इतना वीरान नहीं होता। देवघर (झारखंड) में रावण के द्वारा स्थापित शिवलिंग की वास्तविकता, असम में हिडिंबा के वंशजों की कपोल कल्पित कहानियों को मैं पहले से जानता था इसलिए इस युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवलिंग की मनगढ़ंत थ्योरी को नकारने में मुझे कोई भी दुविधा नहीं हुई। इसके आगे पुजारी जी ने बताया कि यहीं पर दुर्योधन ने पांडवों को मारने के लिए लाख से निर्मित महल बनवाया था। सभी पांडव यहां से एक गुप्त रास्ते से निकलने में कामयाब हुए। इस गुप्त रास्ते को थोड़ी दूर पर स्थित एक गुफा के रूप में देखा जा सकता है। समय के प्रभाव के कारण यह गुप्त रास्ता बंद हो गया

पुजारी के इतना कहते ही मेरा मन जल्द से जल्द उस गुफा को देखने का करने लगा। इसके पश्चात वह पुजारी हमें एक अनोखी शिवलिंग के पास ले गया जिसके बारे में ड्राइवर ने पहले ही बताया था कि जल चढ़ाने के बाद इस शिवलिंग में आपको अपनी परछाई दिखेगी। खुली छत के नीचे स्थित इस शिवलिंग को देखने मां-पिताजी, पुजारी और ड्राइवर के साथ मैं भी वहां पर पहुंचा। माँ और पिताजी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के हैं, इसलिए तुरंत उन्होंने अपने बैग से पीतल की एक छोटी सी लोटकी निकाली, उसमें जल भरा और ध्यान लगाते हुए उस जल को शिवलिंग पर अर्पित किया। देखकर तो बिल्कुल आश्चर्य हुआ कि शिवलिंग पर जल चढ़ाते ही आसपास के सभी लोगों की अख्श उस शिवलिंग में दिखने लगा था।


मां पिताजी हैरान हुए पर मै बिल्कुल नहीं। मां पिताजी इसे चमत्कार मांनते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े थे, तो वहीं मेरे आंख और दिमाग उस कारण को ढूंढने में लगे हुए थे जिसके कारण शिवलिंग में परछाई दिख रही थी। इतना सोचते-सोचते मेरी नजर थोड़ी दूर पर स्थित कई खंडित या अर्ध निर्मित शिवलिंग पर पड़ी। मैंने पुजारी से पूछा, 'यहां एक ही जगह इतनी इतनी शिवलिंग क्यों हैं'? पुजारी ने बताया यह सभी अलग-अलग आकार के शिवलिंग यहां खुदाई में मिले हैं जिसे एक जगह इकट्ठा कर दिया गया। यहीं से मुझे इस चमत्कार का कारण समझ में आ गया। इतनी संख्या में अलग-अलग आकार के शिवलिंग को देखकर मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवलिंग या शैव क्षेत्र नहीं बल्कि एक प्राचीनकालीन शिवलिंग तथा अन्य देवी देवताओं की मूर्ति निर्माण कला का प्रसिद्ध केंद्र रहा होगा। और यह सभी अर्ध निर्मित शिवलिंग, अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, यह तथाकथित चमत्कारी शिवलिंग इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उस चमत्कारी शिवलिंग में अक्स उभरना कोई चमत्कार नहीं था बल्कि कारीगरी का उत्कृष्ट प्रदर्शन था। चूंकि यह स्थान शिवलिंग तथा मूर्ति निर्माण का प्रमुख केंद्र रहा था, इसलिए कारीगरों द्वारा इस शिवलिंग को इतनी बारीकी से घिसकर तराशा गया कि वह इतना चिकना हो गया कि उस पर पानी पढ़ते ही सामने खड़ा वस्तु या व्यक्ति उस में प्रतिबिंबित होने लगता है।

          पुजारी की एक और बात मेरे मन में खटकी वह यह थी कि यह सभी शिवलिंग खुदाई में प्राप्त हुए हैं यह सोचते हुए कि यदि इस ग्राम में खुदाई हुई है तो जरूर किसी न किसी को यहां के इतिहास का पता होगा। कम से कम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग को तो जरूर। उत्सुकता वश मैंने पुजारी से पूछा, 'इस ऐतिहासिक क्षेत्र के इतिहास पर क्या किसी ने कुछ लिखा है क्या’? पुजारी ने यह भाँपते हुए कि मैं उनकी मिथकीय कहानियों को विश्वास करने में कोई रुचि नहीं ले रहा हूँ, नज़रअंदाज़ कर रहा हूँ, मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। और वह किसी दूसरे काम में लग गया। इसके पश्चात हम चारों लोग घूम-घूम कर पूरे मंदिर का भ्रमण करने लगे।


इतने में ही मेरी नजर एक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक लेख पर पड़ी। इसे पढ़कर मेरी जिज्ञासा थोड़ी शांत हुई। इस अभिलेख के अनुसार,

'भगवान शिव को समर्पित नागर शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण लगभग 12वीं 13वीं शताब्दी में हुआ था। क्षेत्र से बहुतायत में पाए स्थापत्य अंगों/ वास्तु अंगों तथा मूर्तियों के अवशेषों से ज्ञात होता है कि पूर्व में यहां अनेक शिव मंदिर रहे होंगे परंतु वर्तमान में केवल यही मंदिर शेष बचा। प्रस्तर निर्मित पिरामिड आकार संरचना के नीचे के स्तर में पाए गए ईंटों द्वारा निर्मित संरचना के आधार पर लाखामंडल की प्राचीनतम तिथि पांचवी से आठवीं शताब्दी ईस्वी जाती है।  मंदिर परिसर से ही प्राप्त छठी शताब्दी के एक प्रस्तर अभिलेख में उल्लेख मिलता है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने पति चंद्रगुप्त जो जालंधर के राजा का पुत्र था, के निधन पर सद्गति एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।

अधीक्षण पुरातत्वविद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

पूरा मामला यह था कि लाखामंडल स्थित इस शैव मंदिर का संबंध महाभारत काल से नहीं बल्कि आरंभिक मध्य काल से था, उस दौर में यह मूर्ति निर्माण का प्रमुख केंद्र रहा होगा यही कारण है कि यहां पर काफी संख्या में अर्ध निर्मित शिवलिंग के साथ-साथ अच्छी तरह पॉलिश कर बनाए गए शिवलिंग देखे जा सकते हैं। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में इस स्थान पर सिंहपुर राज परिवार की राजकुमारी ईश्वरा ने अपने पति चंद्रगुप्त के सम्मान में यह शैव मंदिर बनवाया। हालांकि यह अभी शोध का विषय है कि सिंहपुर राज परिवार किस क्षेत्र से संबंधित हैं।

          अब बात करते हैं पांडव के लाखगृह से एक गुफा होकर बच निकलने की। मंदिर के मुख्य गेट के नजदीक ही एक और बोर्ड देखा जा सकता है जिसमें इस मंदिर के नाम का उल्लेख मरड़ेश्वर महादेव मिलता है। इस बोर्ड में ही यह उल्लेख किया गया है लाखामंडल में पांडवों को जीवित जलाने हेतु लाक्षागृह का निर्माण कराया गया था। मंदिर के मुख्य पुजारी भी इस बात को दोहराते हैं। महाभारत में यह प्रसंग इस प्रकार है,

जब भीष्म पितामह धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करने के लिए कहते हैं। तो दुर्योधन धृतराष्ट्र से कहते हैं कि 'पिताजी एक बार यदि युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो जाएगा तो यह राज्य सदा के लिए पांडवों का हो जाएगा और हम कौरवों को उनका सेवक बनकर रहना पड़ेगा। इस पर धृतराष्ट्र कहते हैं कि युधिष्ठिर हमारे कुल की संतानों में सबसे बड़ा है इसलिए इस राज्य पर उसी का अधिकार है। इसके अलावा भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं। इसलिए हम इस विषय में कुछ नहीं कर सकते, तुम उनके रुकने का प्रबंध करो। दुर्योधन ने पांडवों को जलाकर मार देने के लिए षड्यंत्र रचा। उसने पांडवों के रुकने के लिए एक विशेष प्रकार का गृह बनवाया जिससे लाख, सूखी घास, मूंज आदि ज्वलनशील पदार्थों से बनाया गया था। संजोग से दुर्योधन के इस षड्यंत्र का पता विदुर को चल गया, विदुर ने पांडवों को आकर सारी बात बताई। आत्मरक्षा के लिए पांडवों ने महल के अंदर से ही एक गुप्त रास्ता ढूंढ निकाला। और आग लगने के पूर्व ही पांडव उस गुप्त मार्ग से बाहर निकल गए।

          इस मिथक को तार्किकता की कसौटी पर परखने पर सभी बातें हवा-हवाई साबित होती है।  पांडव जिस सुरंग से लाक्षागृह से बाहर निकले थे उसे वर्तमान में उस गांव से थोड़ी ही दूर पर बाहर निकलने वाले मुख्य मार्ग के बाईं और देखा जा सकता है। वापसी में हम लोग भी उस गुफा के पास आकर रुके और थोड़ी दूर गुफा के अंदर भी गए।


वहां पर दो साधु पहले से मौजूद थे। उनमें से एक के हाथ में टॉर्च था। हमने उनसे पूछा - क्या गुफा के अंदर भी जा सकते हैं? टॉर्च वाले साधु ने सिर हिलाते हुए हां का इशारा किया। मेरे साथ-साथ वह भी चल दिया। गुफा में प्रवेश करने के साथ ही 20 से 25 फीट अंदर तक श्रद्धालुओं के आने-जाने के लिए एक पक्का रास्ता बना हुआ था। इसके बाद वह रास्ता संकरा होता हुआ बंद हो जाता था। मैंने पुजारी से पूछा कि यह रास्ता तो आगे बंद हो गया है पुजारी का जवाब था इसी रास्ते होते हुए पांचो पांडव लाख गृह से बाहर निकले थे। साथ ही इसका सबूत मिटाने के लिए उन्होंने इस मार्ग को बंद कर दिया। उस साधु की बातों पर मुझे जरा भी विश्वास नहीं था। 10 मिनट तक मैं उस गुफा में रहा, हर तरफ से निहारता रहा, उस साधु से टॉर्च लेकर सकरी गुफा की तरफ देखता, निरीक्षण करता रहा। टॉर्च की रोशनी में थोड़ी दूर पर मुझे उस गुफा से पानी का रिसाव दिखा। मैंने उस साधु से पूछा यह पानी का रिसाव कहां से हो रहा है’? साधु का जवाब था कि इस पहाड़ी के ऊपर पानी जमा हो जाता है। बारिश के दिनों में इस मार्ग से पानी का अत्यधिक रिसाव होने लगता है, सर्दी के दिनों तक यह रिसाव बंद हो जाता है इतना सुनते ही मैं वहां से तुरंत निकल आया। उस साधु ने कुछ दान मांगा। वैसे तो मैं दान देने में विश्वास नहीं करता लेकिन उसने मुझे बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे जेब में हाथ डाला तो 20 रुपए का नोट मिला मैंने उसे दे दिया। वहां से निकलने के साथ ही पिताजी ने मुझे पूछा- 'बहुत गौर से देख रहे थे उस गुफा को? पुजारी से भी बात किए तो क्या जानकारी मिला इस क्षेत्र के बारे में'? मैंने कहा कि सुनने में थोड़ा बुरा लग लग सकता है आपलोग को लेकिन ये लोग दुनिया को मूर्ख बना कर उनकी अंधआस्था का फायदा उठाकर उन्हें ठग रहे हैं।  इस क्षेत्र का महाभारत काल से कोई लेना देना नहीं है। न पांडव यहां कभी आए, न शिवलिंग को स्थापित कर उसका उपासना किए, न ही यहां कोई लाखगृह था, न ही पांडव इस गुफा से निकले? मां-पिताजी मेरी बात को सुनकर गुस्से में लाल हो गए, ड्राइवर को भी मेरी बात बहुत अटपटी लगी। ड्राइवर ने मुझे तुरंत रोका कि देवस्थान के बारे में ऐसा नहीं कहते। ड्राइवर के ऐसा बोलने पर मां-पिताजी भी मेरा साथ छोड़कर ड्राइवर की बात का साथ देते हुए मुझे डांट फटकार कर समझाने लगे।

मैंने ड्राइवर से कहा मैं यह बात हवा में नहीं कर रहा हूं मैं इसे साबित भी कर सकता हूं अब ड्राइवर को भी उत्सुकता होने लगी। अपनी बात को साबित करने के लिए मैंने मोबाइल से गूगल मैप खोला। और ड्राइवर और पिताजी से 2 प्रश्न पूछे – (1) कौरव-पांडव की राजधानी कहां थी? (2) महाभारत की लड़ाई कहां हुई? ड्राइवर की तरफ से कोई जवाब नहीं आया शायद उनको पता नहीं हो। पिताजी ने उत्तर दिया - पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर में थी, और यह लड़ाई कुरुक्षेत्र में हुई। मैंने तुरंत एक और प्रश्न पूछा - वर्तमान समय में यह कुरुक्षेत्र कहां पड़ता है? इस प्रश्न पर कोई उत्तर नहीं आया।


इसके पश्चात मैंने गूगल मैप से वर्तमान में दिल्ली और लाखामंडल के बीच की दूरी को दिखाया। 357 किलोमीटर थे। इसके पश्चात मैंने उनसे एक और सवाल किया कि क्या आपको लगता है कि दुर्योधन अपनी राजधानी से 350 किलोमीटर दूर एक वीरान जंगल पहाड़ में यह लाख गिरी बनवाया होगा। अभी जब इतना वीरान है यह क्षेत्र तो उस समय कल्पना कीजिए कितने घने जंगल रहे होंगे इस क्षेत्र में? वर्तमान में पूरे भारत में इतनी घनी जनसंख्या है तब जाकर इन पहाड़ों वाले क्षेत्र में पांच 5 किलोमीटर दूरी पर एक एक गांव स्थित है। तो आज से लगभग 3000 वर्ष पहले इस क्षेत्र में कितने लोग रहते होंगे?

मेरी इन बातों से पिताजी सहमत नहीं थे लेकिन ड्राइवर कुछ हद तक सहमत हुआ था। इसके पश्चात उसने मुझसे एक सवाल पूछा कि यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस क्षेत्र के साथ महाभारत काल का संबंध क्यों जोड़ा जाता है’? इस सवाल के जवाब में मैंने एक ऐतिहासिक तथ्य रखा। मैंने उनसे पूछा, आपको पता है कि कैलाश पर्वत से रावण जब शिवलिंग उठाकर लंका की ओर चला तो उसने उस शिवलिंग को कहां रखा’? पिताजी ने तुरंत उत्तर दिया, ‘देवघर (झारखंड)। मैंने तुरंत उनसे पूछा क्या आपको पता है कि यह कहानी उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में स्थित गोला गोकरण नाथ धाम के साथ जोड़ा जाता है मैंने वहां के पुजारी से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने देवघर वाली मान्यता को खारिज कर दिया। और रावण और शिवलिंग की यही कहानी हिमाचल प्रदेश के एक और मंदिर के लिए भी प्रयुक्त की जाती है। अब आप बताइए रावण के द्वारा कैलाश से लाया हुआ वास्तविक शिवलिंग कौन सा है? सारे लोग कंफ्यूज हो गए कि किसे सत्य माने? पिताजी से एक और सवाल पूछा, क्या आप यह मानते हैं कि देवघर का शिवलिंग रावण द्वारा स्थापित शिवलिंग है? थोड़ी देर सोच विचार करने के पश्चात पिताजी ने मना कर दिया क्योंकि कुछ दिन पहले ही मैंने उनको श्यामनन्द प्रसाद सिंह द्वारा लिखित एक पुस्तक 'जमुई का इतिहास और पुरातत्व' पढ़वाया जिसमें ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट लिखा था कि इस मंदिर का निर्माण गिद्धौर के चंदेल राजा महाराजा रावणेश्वर प्रसाद सिंह ने करवाया।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में ऐसा गोरखधंधा चलता है कि अपने क्षेत्र के किसी मंदिर को प्रसिद्धि दिलाना हो तो उसे रामायण या महाभारत के मिथकीय चरित्रों के साथ जोड़ दो। हमारे देश की जनता इतनी धर्मांध है कि वह कभी सोचेगी ही नहीं कि क्या सत्य है और क्या गलत? रही बात इस पांडव गुफा की तो यह कोई गुप्त रास्ता नहीं है बल्कि पहाड़ के ऊपर स्थित जलाशय या पहाड़ द्वारा अवशोषित वर्षा जल के इस स्थान से रिसने के कारण इस संकरी होती गुफा का निर्माण हुआ है। हिमालय क्षेत्र में ऐसी आपको बहुतायत गुफाएँ मिलेंगे। भौगोलिक ज्ञान की कमी के कारण ये साधु लोग आपको बेवकूफ बनाकर दान के नामपर पैसे ऐंठते हैं।

इसी तरह इस मौके पर विचार विमर्श करते हम लोग यमुनोत्री की ओर बढ़ते चले गए।

शिव मंदिर, लाखामंडल 




Thursday 1 October 2020

महात्मा गांधी का पत्रकारिता जीवन

मोहनदास करमचंद गांधी जिन्हें भारतवासी महात्मा गांधी के नाम से संबोधित करती हैन केवल एक लोकप्रिय राजनेतासमाज सुधारकदार्शनिक थेबल्कि एक मंझे हुए पत्रकार भी थे। पहली बार वे पत्रकारिता के संपर्क में तब आए जब 1888 ई. में कानून की पढ़ाई की क्रम में वे लंदन गए थे। लंदन में वे अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आए जो उस समय लंदन से ‘इंडिया’ पत्रिका निकालते थे। 1890 में इस पत्रिका से जुड़कर उन्होंने संवाददाता का काम किया। इसके अतिरिक्त 'लंदन वेजिटेरियन सोसाइटीके संपर्क में आकर शाकाहारभारतीय रीति रिवाजत्योहार पर आधारित कई आलेख लिखे।[i] 7 फरवरी 1891 ई. को गांधीजी का पहला आलेख ' इंडियन वेजीटेरियनशीर्षक से प्रकाशित हुई।[ii] इसी के साथ ही गांधी जी के स्वतंत्र पत्रकारिता जीवन की शुरुआत होती है।

          40 वर्षों तक लगातार पत्रकारिता क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए गांधी जी ने समाचार सामग्री का प्रूफ रीडिंगसंवाददाता से लेकर संपादक के रूप में योगदान दिया। सम्पूर्ण पत्रकारिता जीवन में वे छह पत्र-पत्रिकाओं जैसे 'इंडियन ओपिनियन' 'यंग इंडिया' 'नवजीवनतथा ' हरिजन(अंग्रेजी)' 'हरिजन सेवक (हिंदी)' 'हरिजन बंधु (गुजराती)के संपादन तथा लेखन से जुड़े रहे। वे तीन अंग्रेजी भाषी साप्ताहिक पत्र 'इंडियन ओपिनियन (1903-1915) 'यंग इंडिया (1919-1931) तथा हरिजन (1933-1942 तथा पुनः 1946- जनवरी 1948) के संपादन से जुड़े रहे। इसके अतिरिक्त अनेक समाचार पत्रों जैसे 'प्रजाबंधु' 'अमृतबाजार पत्रिका' 'द हिंदू' ‘द बॉम्बे क्रॉनिकल’ ‘काठियावाड़ टाइम्स’ 'द सर्च लाइट' 'बिहार समाचारआदि पत्रिकाओं को दिये साक्षात्कार के माध्यम से अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाया।

          इंडियन ओपिनियन के प्रथम अंक से पता चलता है कि गांधीजी पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य 'सेवामानते थे।[iii] 1915 ई. में जब वे दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो 1918 से ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रकाशन की ज़िम्मेदारी संभाल रहे अपने द्वितीय पुत्र मणिलाल को समय-समय पर पत्र के माध्यम से पत्रकारिता के गुर सिखाते रहते थे। अपने पुत्र को निर्देश देते हुए वे कहते हैं कि ‘कभी भी क्रोध में आकर किसी के खिलाफ तीक्ष्णचुभने वाली भाषा में कुछ भी गलत नहीं लिखना चाहिए। यदि ऐसी गलती हो जाए तो अपनी गलती स्वीकार कर लेना चाहिए[iv]  

          गांधीजी पत्रकारिता को जन सामान्य लोगों को समकालीन इतिहास से परिचित कराने तथा साक्षर बनाने का सर्वप्रमुख माध्यम मानते थे। यही कारण है कि दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति तक उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राजनीतिकसामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक तथा धार्मिक विषयों पर लगातार लेखन करते हुए जनता को जागृत किया। उनकी पत्रकारिता के उद्देश्यों में शामिल था - विभिन्न धर्मसंप्रदायजाति के लोगों के बीच आपसी भाईचारा विकसित करनाजातिगत भेदभाव सहित अस्पृश्यता का निवारण करनागरीबी उन्मूलनरूढ़ीवादी परंपराओं से स्त्रियों को मुक्त करनाब्रिटिश सरकार के दमनकारी शासन से मुक्ति दिलाना आदि। इन मुद्दों के प्रति उनकी सक्रियता ने उन्हें समस्त धर्मावलंबियोंगरीब जनतास्त्रियोंकामगारोंअस्पृश्य सहित समस्त देशवासियों के बीच लोकप्रिय बनाया।[v] पत्रकारिता ने उनके अनेक उद्देश्योंआंदोलनों जैसे स्वदेशी आंदोलनसत्याग्रहहरिजन उद्धार आदि को गति प्रदान की।

          प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जब ब्रिटिश सरकार होमरूल देने के वादे से मुकर कर भारतीयों पर रौलट एक्ट लगा दिया तो गुस्से में आकर गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार की खिलाफत करने के लिए 7 अप्रैल 1919 से एक गैर पंजीकृत साप्ताहिक पत्र 'सत्याग्रह' का प्रकाशन प्रारंभ किया। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने इसका प्रकाशन बंद कर छोटे-छोटे पम्पलेट निकालना शुरू किया। इसी बीच कुछ गुजराती नौजवानों ने अंग्रेजी भाषी साप्ताहिक पत्र 'यंग इंडिया' निकालना शुरू किया तथा गांधीजी को इसके संपादन के लिए तैयार कर लिया। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के पश्चात यहां से भारत में उनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत होती है जिसके बदौलत उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यगरीबीअस्पृश्यता से लड़ने मेंसुषुप्त देशवासियों को जगानेउनमें राष्ट्रीयता की भावना भरने जैसे कार्यों में योगदान दिया।

          गांधीजी के आलेख के पाठक मुख्यतः किसान तथा बुनकर या अन्य कारीगर होते थे जो अधिक पढ़े लिखे नहीं होते थे। इसे ध्यान में रखते हुए अपने लेखन की भाषा को उन्होंने सरल बनाया ताकि आम जनों द्वारा उसके अर्थ को आसानी से समझा जा सके। वैकल्पिक पत्रकारिता के पक्षधर होने के साथ-साथ वे समाचारपत्र से धन उगाही करने के सख्त खिलाफ थे। वे प्रेस की स्वतंत्रता के हिमायती थे तथा इस पर किसी भी प्रकार का सरकारी नियंत्रण नहीं होने देना चाहते थे।

          आजादी के 7 दसक बाद आज जिस तरह पत्रकारिता टीआरपी के माध्यम से न केवल धन उगाही का माध्यम बनता जा रहा हैसरकारी दखल से पत्रकार सरकारी प्रवक्ता बनते जा रहे हैं। इनके माध्यम से समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोला जा रहा है। ऐसे विषम परिस्थिति में वर्तमान पत्रकारिता जगत को आवश्यकता है गांधीजी के पत्रकारिता संबंधी विचारों से प्रेरणा लेने की। इन्हें अपनाने की। अन्यथा वह दिन दूर नहीं कि जिस पत्रकारिता को गांधी जी देशवासियों को जगाने का एक सशक्त माध्यम मानते थे वह देशवासियों की बर्बादी का कारण बन जाएगा।



[i] Bhattacharya S.N., ‘Mahatma Gandhi The Journalist’ Asia Publishing House, New Delhi, 1965, Page No. 5

[ii] Ibid. Page No. 2

[iii] Gandhi M.K., ‘An Autobiography of the story of my experiments with truth’ Penguin Books, London, page no. 221

[iv] https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-miscellaneous/tp-others/mahatma-gandhi-as-journalist/article27939749.ece

[v] K. Dr. Puttaraju, ‘Mahatma Gandhi as a writer, editor and Journalist’ International Journal of Acadamic Research, October-December 2014, ISSN: 2348-7666, Page No. 44-45 

मूलतः 18 अक्टूबर 2020 के educational news दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित 


Tuesday 29 September 2020

भारत में स्त्री प्रश्न के जनक : दरभंगा महाराजा माधव सिंह

आधुनिक भारत में स्त्री प्रश्नों का उदय कोई आकस्मिक घटना नहीं थी बल्कि साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसकी नींव तैयार करने का कार्य किया। अपनी पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति को हिंदुओं की सभ्यता-संस्कृति से श्रेष्ठ दिखाने के लिए साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने जब तत्कालीन हिंदू समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर सवाल उठाए तो प्रतिक्रिया स्वरूप पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा स्त्रियों की स्थिति का अवलोकन करने तथा उनकी स्थिति में सुधार लाने की दिशा में प्रयास शुरू हुआ। साम्राज्यवादी इतिहासकारों की बातों का खंडन भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राच्यवादी इतिहासकारों द्वारा लिखित साहित्य के साथ-साथ प्राचीन संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर साबित किया कि हिंदू समाज में स्त्रियों की स्थिति ऐसी नहीं थी जैसा वर्तमान में है। इसी क्रम में राजा राममोहन राय ने संस्कृत साहित्यों का अध्ययन कर सती प्रथा को शास्त्र संवत नहीं मानते हुए इसका विरोध किया। यही कारण है कि राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण या समाजसुधार आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है।

          यहां सवाल उठता है कि क्या राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय/हिन्दुस्तानी थे जिन्होंने स्त्री प्रश्न उठाने का कार्य किया? क्या इससे पहले हिंदुस्तानियों में बौद्धिक चेतना का विकास नहीं हुआ था? क्या सामाजिक कुप्रथाओं को वे आलोचनात्मक नज़र से नहीं देखते थे? स्कूली पाठ्यपुस्तकों से लेकर अधिकांश साहित्य का फिलहाल तो यही मानना है। जबकि वास्तविकता यह है कि राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि से भी पूर्व स्त्रियों की चिंताजनक स्थिति पर विचार करने का कार्य दरभंगा महाराजा माधव सिंह (1775-1807 ई.) ने किया। जिस प्रकार राजा राम मोहन राय को सती प्रथा के अंत के लिए जाना जाता है उसी प्रकार दरभंगा महाराजा माधव सिंह को वैवाहिक सुधार, मिथिला क्षेत्र में कुलीन घरानों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा को खत्म करने के लिए जाना जाता है जो मुख्यतः ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों में प्रचलित थी। इस दिशा में राजा माधव सिंह के योगदानों को देखते हुए स्वयं राजा राममोहन राय अपने एक आलेख में लिखते हैं –

द हॉरर ऑफ दिस प्रैक्टिस (पॉलीगेमी) इज सो पैनफूल टू द नैचुरल फीलिंग्स ऑफ मेन देट ईवन माधव सिंह द लेट राजा ऑफ तिरहुत (दाऊ अ ब्राह्मण हिमसेल्फ), थ्रू कंपाइसन, टूक अपॉन हिमसेल्फ (आई एम टोल्ड) विदीन द लास्ट सेंचुरी टू लिमिट द ब्राह्मन्स ऑफ हिज स्टेट टू फोर वाइफ़ ओन्ली। (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ राजा राममोहन राय, नई दिल्ली, 1977, पृष्ठ सं.171)

 

          राजा राम मोहन राय की तरह ही राजा माधव सिंह ने इस कुप्रथा को काफी नजदीक से महसूस किया। जटाशंकर झा की पुस्तक ‘बायोग्राफी ऑफ एन इंडियन पेट्रीओट महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ऑफ दरभंगा’ के अनुसार अपने पूर्ववर्ती राजा प्रताप सिंह (1760-1775 ई.) के एक कृत्य ने उन्हें इस प्रथा की खिलाफत के लिए मजबूर किया। अल्सर से गंभीर रूप से पीड़ित राजा प्रताप सिंह अपनी मृत्यु के 3 महीने पूर्व ही एक कम उम्र की कन्या के साथ विवाह किया था। एक कम उम्र की कन्या का तीन महीने में ही विधवा जीवन जीते देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगा था।

आखिर क्या थी ‘बिकउवा’ प्रथा?

बंगाल के कुलीन प्रथा की तरह मिथिला में भी इसी प्रकार की एक ‘बिकउवा’ प्रथा यहाँ के राजा, उनके सामंतों सहित धनी लोगों के वंशावली में प्रचलित थी। मध्यकाल में मिथिला के ब्राह्मणों के बीच वंशावली बनाने की प्रथा विकसित हुई ताकि वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ जातिगत शुद्धता बनी रहे। इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मणों में एक नया समूह विकसित हुआ जिसे ‘बिकउवा’ ब्राह्मण कहा जाता था। इस नवीन प्रथा के सृजन के परिणामस्वरूप मिथिला क्षेत्र के ब्राह्मण दो उपजातियों में विभक्त हो गए – पंजीकृत (बिकउवा) तथा गृहस्थ ब्राह्मण। ये पंजीकृत ब्राह्मण ही ‘बिकउवा’ ब्राह्मण कहे जाते थे तथा खुद को ब्राह्मणों की सर्वोच्च उपजाति मानते थे। गृहस्थ ब्राह्मण अपनी सामाजिक स्थिति को उन्नत करने के लिए ‘बिकउवा’ ब्राह्मणों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने से उनकी निम्न स्थिति उच्च हो जाती है। यही कारण है कि ‘गृहस्थ ब्राह्मण’ बिकउवा ब्राह्मण से वैवाहिक संबंध बनाने के लिए लालायित रहते थे। ‘बिकउवा’ ब्राह्मण द्वारा ‘गृहस्थ’ ब्राह्मण की बेटी से विवाह कर उसे विधवा के रूप में छोड़ दिया जाता था। उसे पुनर्विवाह करने की इजाजत नहीं होती थी। हैरत की बात यह थी कि ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के लिए उम्र की कोई बाध्यता नहीं होती थी, वह दूध पीता बच्चा से लेकर मरणासन्न वृद्ध तक हो सकता था। अपने सम्पूर्ण जीवन काल में वह जितनी चाहे उतनी शादी कर सकता था। यह संख्या 10, 20, होते हुए 50, 60 तक चली जाती थी। इस ‘बिकउवा’ प्रथा ने मिथिला क्षेत्र में न केवल ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति को प्रभावित किया बल्कि इससे उत्पन्न परिस्थिति ने समाज में बाल विवाह, बेमेल विवाह को बढ़ावा देते हुए स्त्रियों की स्थिति को और भी बदतर करने का कार्य किया।

          इस ‘बिकउवा’ प्रथा की विभीषिका को इस आधार पर समझा जा सकता है कि 1795 ईस्वी में राजा माधव सिंह ने तिरहुत दीवानी न्यायालय में इस प्रथा के खिलाफ याचिका दायर करते हुए लिखा था ‘‘बिकउवा ब्राह्मण’ व्यक्तिगत रूप से 50 से 60 स्त्रियों से विवाह कर उसे उसके मायके छोड़ आते हैं। अपने पति से नजरअंदाज हो कर स्त्रियां तनावग्रस्त महसूस करती हैं। लेकिन अपने सम्मान की रक्षा के लिए अदालत नहीं जा पाती। इसलिए अदालत को उनपर जुर्माना या सजा देने का प्रावधान लागू करना चाहिए'(झा, जटाशंकर, एन अर्ली अटेम्प्ट एट मैरेज रिफॉर्म इन मिथिला (संपा.) (1981)‘ पृष्ठ सं. 536) तिरहुत के दीवानी न्यायालय ने मामले को संगीन मानते हुए यह निर्णय दिया कि कोई भी ब्राह्मण 4 से अधिक विवाह नहीं कर सकता।

          हालांकि 1876 ई. के एक सर्वे से यह पता चलता है कि कानून बनने के बाद भी यह प्रथा खत्म नहीं हुई। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार कुल 54 ‘बिकउवा’ ब्राह्मण के मरने से 665 जवान तथा कुछ कम उम्र की स्त्रियाँ विधवा हो गई थी। एक सदी बाद दरभंगा राज्य के ही महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के प्रयास से इस प्रथा का अंत हुआ। (झा, जटाशंकर ‘बायोग्राफी ऑफ एन इंडियन पेट्रीओट महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ऑफ दरभंगा’ पृष्ठ 138)

          इस आधार पर कहा जा सकता है कि स्त्रियों की समस्याओं के खिलाफ सोचने का कार्य राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर से भी पूर्व दरभंगा महाराजा माधव सिंह ने किया। 

(मूलतः 30 सितंबर 2020 के Educational News में प्रकाशित) 

Sunday 9 August 2020

कोरोना महामारी के दौर में मंदिर-मूर्ति पर विमर्श क्यों?

 

पिछले 8 माह के दौरान कोरोना वायरस ने सभी धर्मों के देवी-देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। त्रस्त जनता को देखकर कष्ट से उबारने या किसी न किसी रूप में आकर लोगों की जान बचाने के लिए जाने जाने वाले देवी-देवताओं को भी अपने भक्तों की चिंता नहीं है। ऐसा इन देवी-देवताओं के सबसे बड़े पुजारी या भगवान, ईश्वर, अल्लाह के सबसे करीब होने का दावा करने वाले लोगों के संक्रमित होने के आधार पर कहा जा सकता है। उन्हें अपने ही आराध्य की अलौकिक शक्ति पर विश्वास नहीं है। इसीलिए अपनी रक्षा के लिए ये लोग खुद तो मास्क पहन रहे हैं, मंदिर-मस्जिद में सैनीटाइजर का प्रयोग कर रहे हैं ही, साथ ही अपने आराध्य को भी मास्क पहना रहे हैं। कई मंदिरों में तो मंदिर प्रबंधन समिति को यहाँ तक डर है कि श्रद्धालुओं द्वारा मूर्ति को हाथ लगाने से उनके आराध्य न संक्रमित हो जाएँ व अन्य को संक्रमित कर दें। इसलिए श्रद्धालुओं को मूर्तियों को हाथ तक नहीं लगाने दे रहे हैं। दूर से प्रणाम कर यथाशीघ्र दर्शन कर गर्भगृह से निकलने का निर्देश दे रहे हैं। अधिकांश मंदिरों के कपाट इस महामारी ने बंद करवा दिये हैं। यदि खुले भी हैं तो गर्भगृह में श्रद्धालुओं का प्रवेश वर्जित है। पूरे विश्व के कट्टर धार्मिक समुदायों में हाहाकार मचा हुआ है, क्योंकि कर्मकांड करने/कराने के एवज में मिलने वाले परिश्रमिक/दान से होने वाली आय से महरूम हो गया है। विज्ञान की आलोचना करने वाले ये कट्टर धार्मिक वर्ग आज वैज्ञानिकों की तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि कब इसका टीका मिले और हालात सामान्य हो। नास्तिक (भगवान, ईश्वर, अल्लाह के अस्तित्व को नहीं मानने/चुनौती देने वाले) लोग मौके का फायदा उठाते हुए इन धार्मिक कट्टरपंथियों को छेड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। इससे पूर्व से ही वे इस तथ्य के आधार पर भगवान, अल्लाह के अस्तित्व को नकार रहे हैं कि 500 वर्ष पूर्व जब मंदिर टूटा तो खुद राम भी अपने जन्मस्थान स्थित मंदिर को टूटने से बचा नहीं पाए। एकमात्र अमर देवता राम के परम भक्त हनुमान भी मंदिर को टूटने से बचा नहीं सके। इसी तरह 1992 में मस्जिद को टूटने से अल्लाह भी नहीं बचा सके। नहीं बचा सके तो भी कोई बात नहीं। अगले दिन खुद की अलौकिक शक्ति से ही बनवा कर अपने अस्तित्व का प्रमाण देते। लेकिन वह भी नहीं हुआ। यह हाल है पूरे दिन भर देवी-देवताओं, अल्लाह, ईश्वर, वाहेगुरु की उपासना करने वाले पुरोहित वर्ग का।

          दूसरी तरफ हैं हमारे देश के शासक वर्ग अर्थात सत्तानसीं संवैधानिक पदों पर बैठे अलग-अलग पार्टियों, विचारधारा के जनप्रतिनिधि। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त परिस्थितियों से वे परिचित नहीं हैं। बावजूद इसके वे स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी जैसे जन-समस्याओं को दरकिनार कर मीडिया चैनलों, समाचारपत्रों के माध्यम से धार्मिक मुद्दों को उछालने और इसपर विमर्श करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। ताकि खुद को संबंधित धर्म के लोगों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर सकें। इनके इस रवैये के कारण अन्य पार्टियों को भी चाहे-अनचाहे इस तरह के विमर्श में कूदना ही पड़ता है खुद को उस धर्म विशेष का हितैषी बताने के लिए। पार्टी विशेष द्वारा समर्थित मीडिया विपक्षी पार्टियों को इस विमर्श में भाग लेने को मजबूर कर देता है। क्योंकि कोई भी पार्टी बहुसंख्यक वोट बैंक को चाहे-अनचाहे खोना नहीं चाहती। परिणामस्वरूप मीडिया के साथ-साथ आम जनता में विमर्श की धारा ही बदल जाती है। और वे समस्याएँ दब जाती है जिनपर बात किया जाना चाहिए और सत्तारूढ़ सरकार को उस समस्या के समाधान की बात पहुंचानी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हाल ही की घटना 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह को लें तो पूरे देश में हिंदू लोग इस दिन को जश्न के रूप में मनाए जो स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जैसे ही घोषणा की कि अयोध्या से 3 किलोमीटर दूर सरयू नदी के तट पर स्थित एक गाँव में भगवान श्री राम की 251 मीटर ऊंची मूर्ति बनाई जाएगी, इसी राज्य के दो प्रमुख विपक्षी पार्टियां समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी विकास दुबे एनकाउंटर के बाद भाजपा से नाराज ब्राह्मण वोटरों को खुश करने के लिए क्रमशः परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित करने, परशुराम के नामपर अस्पताल बनवाने की घोषणा कर दी। रोचक बात यह है कि कभी मायावती ने ही दलितों व पिछड़ों का वोट पाने के लिए तिलक, तराजू का नारा दिया था। और अब ...। 2022 में कौन सी पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाती है कौन नहीं? इसका फैसला तो जनता करेगी। लेकिन यह उपयुक्त समय नहीं है मूर्ति निर्माण पर बात करने का। क्योंकि इस अनावश्यक विमर्श से देश में विमर्श का मुद्दा परिवर्तित हो जा रहा है। जिसे देखो राम मंदिर, मस्जिद, मूर्ति पर बहस कर रहा है। कोरोना महामारी कितनी तेजी से अपने पैर फैला रहा है, इससे मजदूर वर्ग, निर्धन किसान, डॉक्टर, छोटे-छोटे व्यवसायी किस तरह परेशान हो रहे हैं जैसे मुद्दे चर्चा से गायब हो गए।

          मीडिया चैनलों में जहां विमर्श अस्पताल, स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने, बेरोजगारी की मार झेल रही जनता को रोजगार या नौकरी देने, शिक्षा से दूर होते देश के भावी भविष्य के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने पर होनी चाहिए, उसका स्थान मंदिर-मूर्ति निर्माण ले लेता है। आनेवाले समय में कोरोना महामारी से उपजे हालात के कारण जहां देश की जीडीपी में जबरदस्त गिरावट आने की भविष्यवाणी अर्थशास्त्री कर रहे हैं, ऐसे में हमारे प्रतिनिधियों द्वारा 2 वर्ष बाद रोजगार सृजन, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की बात न कर बड़े-बड़े मूर्तियों को बनाकर देश की अर्थव्यवस्था डुबाने की बात करना कोई बुद्धिमानी वाली बात नहीं है। वह भी तब जब जनता यह जान चुकी है कि कोरोना से लड़ने के लिए अत्याधुनिक सुविधाएं युक्त अस्पताल की आवश्यकता है मंदिर, मस्जिद या मूर्तियाँ बनाने से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है।  अतः जनता भी यह मांग करे कि सरकार, जनप्रतिनिधि सैकड़ों एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर इतने ऊंचे मूर्ति निर्माण पर व्यय होने वाली कम से कम हजारों करोड़ रुपए जैसी बड़ी धनराशि स्वास्थ्य सुविधा सुधार हेतु करे। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो आने वाले चुनाव में देश की जनता को आने वाले विषम हालात को ध्यान में रखते हुए ऐसे मानसिक दिवालिये जनप्रतिनिधियों को आने वाले चुनाव में सबक सिखाने की जरूरत है। उनको चुनने की जरूरत है जो जनता के इन बुनियादी सुविधाओं के लिए आवाज़ उठाए।    

Monday 3 August 2020

हिंदू धर्म में नदियों के उद्गम तथा संगम स्थल को अत्यधिक महत्व क्यों दिया जाता है?


गंगोत्री (गंगा का उद्गम), यमुनोत्री (यमुना का उद्गम), केदारनाथ (मंदाकिनी का उद्गम) बद्रीनाथ (अलकनंदा का उद्गम) अमरकंटक (सोन व नर्मदा का उद्गम) की यात्रा करने के बाद भी एक सवाल का उत्तर नहीं मिला कि आखिर हिंदू/सनातन धर्म में नदियों के उद्गम तथा संगम स्थान को इतना अधिक मान्यता क्यों दिया जाता है? इसका उत्तर आज गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित, रामेश्वर मिश्र 'पंकज' जी की एक पुस्तक 'नदियां और हम' पढ़ते हुए मिला -
ऋग्वेद के एक श्लोक (आठवां मंडल, छठा सूक्त, अट्ठाईसवां श्लोक) के अनुसार, 'बोध की प्राप्ति हमारे पूर्वजों को पर्वतों की घाटियों और नदियों के संगम पर हुई"। (उपह्वरे गिरिणाम संगथे च नदीनाम् । धियो विप्रो अजायत्॥ इस संकेत में यह निहित है कि जो भी व्यक्ति गिरी आश्रय में या नदी के संगम में ध्यान मनन अवधारण करेगा, उसे बोध की, पवित्र धी (बुद्धि) की प्राप्ति होगी।

Sunday 2 August 2020

प्रेमचंद्र के रचनाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता


अपने छात्र जीवन में हम कुछ ऐसे यादगार पात्रों के बारे में पढ़े होते हैं जो कभी भुलाए नहीं जाते। यदि थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएँ तो इन पात्रों की चर्चा होते ही पूरी कहानी हमारी आँखों के सामने आ जाती है। इन पात्रों में कुछ के नाम लिए जा सकते हैं। जैसे हमीद (ईदगाह), हल्कू (पूस की रात), हीरा मोती बैल (दो बैलों की कहानी) आदि। तब हमें पता नहीं था कि इन रोचक कहानियों के लेखक प्रेमचंद्र कौन हैं? लेकिन आज जब हमें इनके लेखक के बारे में जान कर बहुत ही खुशी हो रही है कि इन कहानियों के लेखक की गणना हमारे देश के सबसे महान लोकप्रिय साहित्यकारों में की जाती है। 31 जुलाई 1880 ईस्वी को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद की साहित्य की कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण आदि विधाओं में उनकी विशेष रूचि थी। यही कारण है कि हिंदी साहित्य जगत में उन्हें उपन्यास सम्राट के उपनाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने लेखन की शुरुआत जमाना पत्रिका से की। इस क्रम को जारी रखते हुए, कागज को अपनी कर्मभूमि बनाते हुए अपने छोटे से जीवन में उर्दू व हिंदी भाषा में कुल 15 उपन्यास, व 300 से भी अधिक कहानियां लिखी। निर्मला, गबन, कफन, गोदान, रंगभूमि आदि प्रेमचंद की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाएं हैं। उनके बेटे द्वारा लिखित पुस्तक 'कलम का सिपाही' उनकी पत्नी द्वारा लिखित पुस्तक 'प्रेमचंद्र घर में' आदि पुस्तकों की सहायता से हम उनके जीवन संघर्ष को समझ सकते हैं।
प्रेमचंद्र की लेखनशैली
          प्रेमचंद्र का साहित्य को देखने की दृष्टि बिल्कुल अलग थी। वह इस बात को स्वीकार नहीं करते थे कि जो कुछ भी लिख दिया जाए वह सब का सब साहित्य है। 9-10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक मंच के प्रथम अधिवेशन में सभापति के रूप में विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं, साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, इसमें जीवन की सच्चाइयाँ व्यक्त की गई हो। जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण होउपरोक्त कथित सभी तत्वों को उनके उपन्यास, कहानियों में देखा जा सकता है। प्रेमचंद्र के पूर्व के कहानीकारों की कहानी का स्वरूप मुख्यतः धार्मिक तथा काल्पनिक होती थी, जिनका मुख्य उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन, मन-बहलाव करना होता था। प्रेमचंद्र ने इस धारा को परिवर्तित करते हुए तिलिश्म, स्त्री-पुरुष प्रेम – वियोग, भूत-प्रेत पर आधारित अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले काल्पनिक कहानियों की जगह वास्तविक पात्र, वास्तविक जीवन-समस्याओं (सवा सेर गेंहू) पर आधारित कहानियों को लिखने की शुरुआत किया। उन्होंने अपने आसपास की दुनिया, सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण जीवन को अपने साहित्य में स्थान दिया। फलस्वरूप साहित्य में न केवल तत्कालीन सामाजिक जीवन से संबंधित समस्याओं, मुद्दों का स्वतः ही समावेश हुआ, बल्कि पाठक वर्ग इन समस्याओं, कुरीतियों के बारे में सोचने, इसका समाधान करने, इनपर विजय प्राप्त करने हेतु उपाय खोजने को प्रेरित हुए।  
          प्रेमचंद्र की रचनाओं में गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव आदि बुराइयों का समावेश देखने को मिलता है। कहानी सवा सेर गेंहू में शोषण संबंधी सवाल, पूस की रात गरीबी की समस्या, कहानी सद्गति में जातिगत भेदभाव को दिखाया गया है। ये कहानियाँ आम जनमानस में एक गहरी छाप छोड़ती है क्योंकि पाठक खुद को इन कहानियों के पात्रों (विशेष रूप से शोषित पात्र) से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। ये कहानियां पाठकों को सामाजिक चिंतन, विमर्श की ओर ले जाती है। यही कारण है कि किशोरों में सामाजिक चिंतन की समझ संबंधी कौशल विकसित करने के लिए प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शालाओं के भाषा पाठ्यक्रम में इन कहानियों को सरकार द्वारा शामिल किया गया है। इन कहानियों के माध्यम से हम अपने बच्चों का सामाजिकरण इस प्रकार कर सकते हैं कि वह आगे चलकर एक ऐसे नागरिक बन सकें जिसकी अपेक्षा भारतीय संविधान करता है।
          ऐसे ही उनकी एक रचना है 'पूस की रात' संक्षेप में वाचन करते हैं, तत्पश्चात इसका विश्लेषण करेंगे किन-किन समस्याओं के प्रति इस कहानी में बात की गई है।
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा - सहना आया है। लाओ जो रुपए रखे हैं उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे। उसकी पत्नी जो झाड़ू लगा रही थी पीछे फिर कर बोली 3 रुपए ही तो हैं। दे दोगे तो कंबल कहां से आएगा माघ पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उसे कह दो फसल पर दे देंगे। अभी नहीं है।
हल्कू एक क्षण के लिए अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह तो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमाएगा, गालियां देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला दे दे गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई और उपाय सोचुँगा।
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कहानी सुनने के बाद कुछ पहलुओं पर बात करना आवश्यक है ताकि प्रेमचंद्र के रचनाओं की खूबसूरती को समझा जा सके। यदि पूछा जाए कि
·       इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद किस सामाजिक समस्या को दिखाने का प्रयास किया है? आपके संभावित उत्तर होंगे - समाज में व्याप्त गरीबी को,  किसानों की समस्या को, साहूकारों के घृणित व्यवहार को।
·       आपको यह कहानी काल्पनिक लगी या वास्तविक? तो आपके संभावित उत्तर दोनों हो सकते हैं। ज्यादा संभावना होगी कि उत्तर वास्तविक के पक्ष में आएँ।  
·       क्या आप खुद को हल्कू की जगह महसूस कर पा रहे थे? उत्तर स्वाभाविक रूप से हाँ ही होगी।
उपरोक्त प्रश्नों के आपके उत्तर यदि बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसा विकल्प में कहा गया है, तो इसका अर्थ है कि आपने भी इस कहानी को खुद के ऊपर ले कर जिया है। प्रेमचंद की रचनाओं की यही खूबसूरती है कि वे जनसाधारण की उन समस्याओं पर कहानियों के माध्यम से बातचीत करते हैं जिनसे वे पीड़ित हैं। हम खुद को उन संदर्भों/ समस्याओं से जोड़ पाते हैं जिसकी चर्चा प्रेमचंद अपनी रचनाओं में करते हैं। यही जुड़ाव आप तक भी महसूस करेंगे जब आप उनकी सद्गति, ठाकुर का कुआं कहानी को पढ़ेंगे। इन दो कहानियों के माध्यम से वे समाज में व्याप्त घृणित जातिगत भेदभाव की समस्या को उजागर करते हैं। ऐसे ही जब हम ' सवा सेर गेहूं' कहानी पढ़ते हैं तो इसके माध्यम से एक गरीब किसान जो बाद में मजदूर बन जाता है, का दर्द, बंटवारे के दर्द, महाजनों के स्वार्थी प्रवृत्ति, गुलाम बनने के कारणों को महसूस कर सकते हैं। यह भी महसूस कर सकते हैं कि उच्च कुल/जाति में जन्म लेने वालों के लिए स्वर्ग और नरक के क्या मायने हैं? सद्गति कहानी के माध्यम से नज़राना प्रथा, जातिगत भेदभाव के दर्द का पता चलता है।  
प्रेमचंद्र की कहानियों की वर्तमान में प्रासंगिकता  
यहां सवाल उठता है कि प्रेमचंद्र की मृत्यु के आठ दसक (84 वर्ष) बाद प्रेमचंद्र और उनकी रचनाओं को याद करने की क्या जरूरत है? प्रेमचंद की कहानियां उपन्यास आदि के अवलोकन करने के बाद हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद्र अपने साहित्य में अनेक प्रकार के सामाजिक बुराइयों को मुख्य रूप से उठाने का प्रयास किया है। अपनी कहानियों, उपन्यासों के माध्यम से वे जिन समस्याओं से हमें अवगत कराते हैं वर्तमान समाज में यह आज भी जीवित हैं। चाहे वह भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव, दहेज प्रथा या सामंती प्रवृत्ति हो? उदाहरण के लिए यदि हम बात पंच परमेश्वर की बात करें तो यह कहानी स्वार्थी प्रवृत्ति त्यागने का संदेश देते हुए न्याय व्यवस्था की वकालत करती है। आज के समय में देखा जाए तो हम इस तरह के सोच से जी रहे होते हैं कि यह हमारे मित्र हैं या अपने हैं तो इनको लाभ पहुंचाना है चाहे वह कितनी भी गलत हों। यह कहानी हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि हमारे आपसी संबंध भले ही अच्छे हो या बुरे हो, सभी के साथ न्याय होना चाहिए। जो जैसा करे उसे वैसा फल प्राप्त हो।
          एक श्रेष्ठ, जिम्मेदार नागरिक बनने की सीख देने वाली प्रेमचंद्र की रचनाएं केवल पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने का काम ना करें बल्कि हमें उन समस्याओं पर चिंतन मनन करने की प्रेरणा प्रदान करे, इस उद्देश्य से प्रेमचंद्र जयंती के अवसर पर उनके साहित्य पर चर्चा करना आवश्यक है।

Wednesday 29 July 2020

स्त्रियों के प्रति हमारे समाज की संकीर्ण सोच


प्राचीन, मध्य होते हुए हम आधुनिक काल में प्रवेश कर गए हैं जहां हम खुद को अपने पूर्वजों से सभ्य व बुद्धिमान होने का दावा करते हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति हमारी सोच वही प्राचीनकाल वाली ही है, आधुनिक नहीं हो पाई है। इस संकीर्ण सोच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हम इनको नीचा दिखाने के लिए सैकड़ों निम्न दर्जे के लोकोक्तियाँ, मुहावरे प्रयुक्त करने से नहीं चूकते। इनमें से एक है – “दो स्त्रियां कभी आपस में चुप नहीं बैठ सकती”। अर्थात किसी भी स्थान पर यदि दो स्त्रियां मिल जाएं तो वे कुछ न कुछ बात निकाल ही लेती हैं अपना टाइम पास करने के लिए। हद तो इस बात की है कि उनकी बातचीत को बातचीत नहीं, बल्कि चुगली करने के रूप में देखा जाता है। इस बातचीत को समाज की तरह यदि आप भी स्वस्थ संवाद न मानकर चुगली मानते हैं तो आप भी समाज की तरह मानसिक रूप से विकृत हैं। क्योंकि चुगली करने पर किसी खास जेंडर का एकाधिकार नहीं होता है। दो बातचीत पसंद पुरुष यदि एक जगह मिल जाएँ और राजनैतिक या सामाजिक मुद्दों पर बातचीत करते हुए किसी पार्टी, विचारधारा की आलोचना करें तो उसे चुगली नहीं माना जाता। यदि इसे चुगली ही माना जाए तो स्त्रियाँ इस मामले में भी दूसरे नंबर पर होगी। अव्वल स्थान पर वे पुरुष वर्ग होंगे जो चौक-चौराहों पर कैमरे की तरह हमेशा यह ताकते रहते हैं कि किसकी बहू-बेटी कहां आ-जा रही है? क्या पहन रही है? कोई दिखी नहीं कि अपने साथियों से कानाफूसी शुरू।  
          यदि दो स्त्रियाँ लंबे समय तक बात भी करती है तो इसमें गलत क्या है? पितृसत्तात्मक समाज ने जब निजी क्षेत्र या गृह कार्य स्त्रियों के, और पुरुषों को बाहरी दुनिया का ठेका दे दिया। ऐसे में लगातार झाड़ू-पोछा, बर्तन, दो से तीन टाइम खाना बनाने, बच्चों की देखभाल करने आदि कार्य से निवृत्त होकर दो स्त्रियाँ यदि आपस में मिलकर अपने निजी क्षेत्र संबंधी कुछ बात कर ही लेती हैं तो इसमें गलत क्या है? कोई दावा के साथ कह भी नहीं कर सकता कि दोनों मिलकर किसी की बुराई ही करती हैं। एक समय था, जब आप उसे पढ़ाई-लिखाई, सामाजिक कार्य, राजनीति से दूर रखते थे, उस दौरान इस बात की थोड़ी-बहुत संभावना रहती होगी। लेकिन आज वह समय नहीं बल्कि कुछ और है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार से लेकर अनेक प्रकार के अधिकार का उपयोग कर आज वे सार्वजनिक क्षेत्रों में भी पुरुषों को टक्कर दे रही हैं। इस स्तर की यदि दो स्त्रियां आपस में मिलती हैं तो आप की तरह ही वह भी सामाजिक बदलाव, राजनीतिक घटनाक्रम से लेकर अन्य कई प्रकार के सार्थक बातचीत करती हैं। अतः जरूरत है हम आप को स्त्रियों को देखने के अपने नजरिए में परिवर्तन लाने की। इस संकीर्ण सोच से खुद को उबारने की।
(मूलतः पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'एजुकेशनल न्यूज़' के 4 अगस्त 2020 के अंक में प्रकाशित)